इलाहाबाद, 19 सितम्बर। वैश्वीकरण व बाजारवाद के कारण चित्रकला आज बाजार की वस्तु बन गयी। चित्रों को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। शब्दों व चित्रों को एक साथ बांधकर प्रो. रामचन्द्र शुक्ल ने एक अनोखा काम किया है। ये बातें टोक्यो यूनीवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज के प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निराला भवन में आयोजित सरस्वती स्मृति सम्मान एवं वार्षिक समारोह में प्रो. रामचन्द्र शुक्ल के अतः प्रज्ञात्मक चित्रो की प्रदर्शनी के उद्घाटन के बाद कही।
प्रो. ऋतुपर्ण ने कहा कि कला का कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जो जीवन में घटित न हो। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर कला होती है। बस आवश्यकता है उसे पहचानने व साधने की। उन्होंने कहा कि कला आनन्द की वस्तु है न कि बेचने की लेकिन आज के कलाकारों ने अपने कृतिरुपी चित्रकला को अपने जीवका का साधन मात्र बना दिया है। उन्होंने कहा कि भारत ही एक ऐसा देश जहां के कलाकारों ने पहाड़ियों एवं गुफाओं में भी अपने कलाकृतियों की एक अनूठी छटा बिखेरी है। लेकिन आज के कलाकारों को लगता है कि कला पश्चिमी देशों की देन है जो उनकी गलतफहमी है।
इस मौके पर प्रो. रामचन्द्र शुक्ल ने कहा कि साहित्य का मतलब सिर्फ कविता, कहानी व उपन्यास की रचना करना ही नही है बल्कि चित्रकला भी उसी का एक हिस्सा है। उन्होंने कहा कि कला लोककलाओं की चीज है इसलिए हमने सबसे पहले लोककलाओं का अध्ययन किया और उसके मूल तत्व को लेकर अपने अतः प्रज्ञात्मक चित्रों में समाहित किया। उन्होंने अपनी कृति अतः प्रज्ञात्मक शैली के बारे में कहा कि इस शैली का विदेशों से कोई लेना देना नहीं है।
प्रो. रामचन्द्र शुक्ल के 85 वर्ष के होने पर उनके द्वारा निर्मित कुल 85 कलाकृतियों की प्रदर्शनी का आयोजन हुआ। इस मौके पर उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘आधुनिक चित्रकला व पश्चिमी आधुनिक चित्रकार’’का लोकापर्ण हुआ तथा उन्हें सरस्वती स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया।
रिपोर्ट- संदीप कुमार श्रीवास्तव
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4 पाठकों का कहना है :
प्रो . रामचन्द्र शुक्ल जी को सम्मान और उनकी किताब के लोका अर्पण के लिए बधाई .. क्या ही अच्छा होता उनके कुछ चित्र यहाँ भी देखने को मिलते .
कितनी अच्छी बात कही
"साहित्य का मतलब सिर्फ कविता, कहानी व उपन्यास की रचना करना ही नही है बल्कि चित्रकला भी उसी का एक हिस्सा है।" जी हाँ यह बिकुल सही बात है की चित्रकला भारत की ही दें है.
जिन्दगी के कण-कण में कला ही तो है. शायद तभी कहते है कि जिन्दगी जीना भी एक कला है.
रामचन्द्र शुक्ल जी को बहुत-बहुत बधाई.
बहुत अच्छा लगा जानकर. ठीक ही तो है की कला के कोई सीमित रूप नहीं होते. और खाली चित्रकारी को ही क्यों शामिल करें हम कला में. इंसान के रहने-सहने, खाने-पीने के सही तरीके भी कला हैं. कुम्हार बर्तन बनाता है वह भी कला है, और हलवाई मिठाई बनाता है, मोची जूता सिलता है. खाना बनाना और उसे परसने का सलीका.....सिलाई-बुनाई, कढ़ाई, पहनने-ओढ़ने का सलीका, बातचीत करने का किसी का मधुर ढंग या अंदाज़ आदि-आदि सब को हमें कला के रूप में देखना चाहिए. कदम-कदम पर कलाएँ बिखरी हैं समस्या यह है की हर किसी की कला प्रदर्शित नहीं हो पाती हैं.
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