Wednesday, September 30, 2009

अनुराधा ऋषि के व्यक्तित्व की सकारात्मकता उनकी चित्रकारी में भी मौजूद है- ज़कीया ज़ुबैरी


वक्तव्य देतीं काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी

30 सितम्बर 2009 । लंदन

“मुझे इस बात का गर्व है कि अनुराधा ऋषि ने अपनी पेंटिंग्ज़ की आज की प्रदर्शनी को नाम दिया है प्रकृति में शांति और इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित किया है। आभार मैं नेहरू सेंटर और मोनिका जी का भी मानती हूं कि उन्होंन मुझे आज की शाम यहां शामिल होने के लिये बुलाया। अनुराधा के लिये प्रकृति एक सुकूनदेह ताक़त है। वह अपनी चित्रकारी में नीले और हरे रंग का इस्तेमाल करती हैं जो कि ठण्डे रंग हैं। साथ ही वे पीले रंग से जो ओवरटोन भर कर उसमें एक तेज पैदा करती हैं वह क़ाबिले तारीफ़ है। अनुराधा मृत्यु में भी जीवन खोज लेती हैं। उनके ठूंठ वृक्ष भी मृत्यु की तरह डराते नहीं बल्कि नृत्य करते दिखाई देते हैं। अनुराधा के व्यक्तित्व की जीवंतता उनकी सभी पेंटिंग्ज़ में बख़ूबी दिखाई देती है।” यह कहना था कॉलिंडेल क्षेत्र की लेबर पार्टी काउंसलर श्रीमती ज़कीया ज़ुबैरी का। वह लंदन के नेहरू सेंटर में आयोजित शाम की प्रमुख अतिथि थीं। इस प्रदर्शनी को शीर्षक दिया गया है ‘नेचर इन पीस - ए ट्रिब्यूट टु महात्मा ’ जो कि 2 अक्टूबर तक जारी रहेगी।


दीप प्रज्वलित करतीं नेहरू केन्द्र की निदेशक मोनिका मोहता

नेहरू केन्द्र की निदेशक मोनिका मोहता ने चित्रकार अनुराधा ऋषि, काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी, तेजेन्द्र शर्मा (महासचिव - कथा यूके), एवं श्री के.बी. एल सक्सेना को पारंपरिक दीप प्रज्वल्लन के लिये आमंत्रित किया। उन्होंने अनुराधा जी का परिचय देते हुए कहा, इस प्रदर्शनी में चित्रकार ने अपनी हाल ही में बनाई 25 पेंटिंग्ज़ प्रदर्शित की हैं जो कि सभी एक्रिलिक में बनाई गई हैं और जिन सभी के केन्द्र में प्रकृति है। यह पेंटिंग्ज़ जम्मु एवं कश्मीर के ख़ूबसूरत एवं सुखद माहौल का चित्रण करती हैं। अनुराधा जी ने यह प्रदर्शनी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित की है।

तेजेन्द्र शर्मा (महासचिव कथा यूके) ने प्रदर्शनी पर टिप्पणी करते हुए कहा, “अनुराधा ऋषि की पेंटिंग्ज़ में प्रकृति मां की गोद की सी गर्माहट का अहसास देती है। यह प्रकृति शांत और सुखदाई है। यहां प्रकृति का रौद्र तांडव देखने को नहीं मिलता। मनुष्य प्रकृति से दूर होता जा रहा है। मनुष्य द्वारा निर्मित प्रत्येक वस्तु प्रकृति को नुक़्सान पहुंचाती है। प्रकृति सृजन करती है और मनुष्य विनाश। महात्मा गान्धी को भी मनुष्य द्वारा निर्मित हथियार ने ही मार गिराया था। अनुराधा ने अपनी पेंटिंग्ज़ में प्रकृति की भव्यता न दिखा कर उनमें एक अपनेपन की उष्मा भर दी है।”


दर्शकगण

अपने संक्षिप्त धन्यवाद ज्ञापन में अनुराधा ऋषि ने अपने पति ऋषि, आई.सी.सी.आर, नेहरू केन्द्र, मोनिका मोहता, ज़कीया ज़ुबैरी, और तमाम उन लोगों को धन्यवाद दिया जिन्होंने कि इस प्रदर्शनी के आयोजन में उनकी सहायता की।
अनुराधा ऋषि पंडित संसार चंद बाड़ू की पुत्री हैं जो कि जम्मु के डोगरा कला संग्रहालय के संस्थापक थे। वे पहाड़ी चित्रकला के महान चित्रकार थे। संयोगवश उनका जन्मदिन भी महात्मा गांधी ही की तरह 2 अक्टूबर को होता है।
कार्यक्रम में अन्य लोगों के अतिरिक्त काउंसलर लाशारी, जे.एस मल्होत्रा (एन.आर.आई. वर्ल्ड मीडिया नेटवर्क), आर.एस मोखा (उपाध्यक्ष - एस.ई.सी.ए.), मधुप मोहता, दिव्या माथुर, एच.एस. राव (पी.टी.आई), अयूब ऑलिया (अल्ला रख्खा फ़ाउण्डेशन), एवं शाज़िया शामिल थे।

रिपोर्ट- दीप्ति कुमार

Tuesday, September 29, 2009

शायरी के शिखर पर 'आनंदम'

रिपोर्ट- प्रेमचंद सहजवाला


(बाएं से)-आनंदम् प्रमुख जगदीश रावतानी आनंदम्, संचालिका ममता किरणा, अध्यक्ष मुनव्वर सरहदी, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

'आनंदम' संस्था ने एक वर्ष पूरा होने के बाद अपने दूसरे वर्ष की दूसरी गोष्ठी कनॉट प्लेस में मैक्स न्यू यॉर्क लाइफ के सभा कक्ष में दि. 22 सितम्बर 2009 को आयोजित की गई. इस गोष्ठी की अध्यक्षता वयोवृद्ध शायर मुनव्वर 'सरहदी' ने की तथा संचालन सुपरिचित कवियत्री ममता किरण ने किया. मंच पर उन के अतिरिक्त लक्ष्मीशंकर वाजपेयी व 'आनंदम' के अध्यक्ष जगदीश रावतानी उपस्थित थे. इस गोष्ठी में श्रीमती दिनेश, वीरेंद्र क़मर, ज़र्फ़ देहलवी, मजाज अमरोहवी, दर्द देहलवी, क़ैसर 'अज़ीज़', भूपेन्द्र कुमार, मासूम 'गाज़ियाबादी', नीता अरोड़ा, नमिता राकेश, शोभना मित्तल, रवीन्द्र शर्मा 'रवि', शैलेश सक्सेना, सतीश सागर, शिव कुमार मिश्र, मनमोहन 'तालिब', दिनेश चौधरी आहूजा, विशनलाल, आदि ने अपनी रचनाएं पढ़ीं. इस गोष्ठी में प्रस्तुत गीत व ग़ज़लें एक से बढ़ कर एक रहे. कुछ शायर 'आनंदम' से पहली बार जुड़े थे. इन में से मासूम 'गाज़ियाबादी' ने अपनी दो सशक्त ग़ज़लें प्रस्तुत कीं. (कुछ शेर):

जब गुबारे-दिल न निकला ये किया दम दे दिया
काश क़ातिल रुकता थोड़ी देर बिस्मिल के करीब
इक तरफ़ जश्ने बहारां इक तरफ रोते हुए
मर गया इक शख्स तनहा तनहा महफिल के करीब

और

कहानी से नहीं आई अगर उन्वान की खुशबू
कहीं रह जाएगी दब कर तेरी पहचान की खुशबू.

शायरी के एक और सिद्धहस्त नाम मजाज 'अमरोहवी':

बड़े ही प्यार से लिखी हैं तुमने चिट्ठियां मुझको
नज़र आती हैं कागज़ पर तुम्हारी अंगुलियाँ मुझको.

ज़िंदगी ऐसे जियो कि ज़िंदगी प्यारी लगे
जिस तरह तारीकियों में रौशनी प्यारी लगे


दर्द 'देहलवी' इख़लाक के शायर माने जाते हैं. पर इख़लाक को कभी कभी वे इस अप्रत्यक्ष तरीके से भी प्रस्तुत करते हैं:

दरगुज़र करता है दुश्मन की खताएँ हंस कर
तू किसी दूसरी दुनिया का बशर लगता है.


कुछ ही दिन पहले देश भर में हिंदी दिवस मनाया गया. शायर कैसर 'अज़ीज़' ने हिंदी पर भी एक शेर कहा:

बात अपनी यदि हिंदी की ज़बानी होगी
सारी दुनिया इसे सुनने को दीवानी होगी


कैसर 'अज़ीज़' ने एक और अच्छी ग़ज़ल पेश की जिस का एक शेर है:

जो किसी टूटे हुए दिल से निकल आती है
वह दुआ अर्श पे जाती है असर से पहले.


शायर रविन्द्र 'रवि' ग़ज़ल में एक अहम् स्थान रखते हैं. अक्सर शहरी जीवन में गुम और बदहवास इंसान पर लिखते हैं.

गुज़र जाते हैं बाकी दिन हमारे बदहवासी में
ज़रा सा ठहर कर कुछ बात बस इतवार करता है.


रविन्द्र शर्मा 'रवि' सियासत पर:

तुम्हारे आंसुओं को देखना मोती कहेगा वो,
सियासतदान है वो दर्द का व्यापार करता है


कवियत्री शोभना मित्तल छंद मुक्त कविताओं व क्षणिकाओं में महारत रखती हैं. एक कविता की दो टूक पंक्तियाँ:

पत्थरों ने बहते पानी को मोड़ दिया
गिरते पानी ने पत्थरों को तोड़ दिया.



मैक्स के शाखा प्रबंधक

नमिता राकेश ने अपनी एक ग़ज़ल में पुरुष की पहचान रखती सतर्क नारी का भाव इस तरह प्रकट किया:

अगर होती मुहब्बत उस के दिल में
यकीनन मैं उसे पहचान जाती.


इस के कंट्रास्ट में 'आनंदम' से पहली बार जुड़ी नीता अरोड़ा ने नारी के परंपरागत शास्त्र्गत रूप को प्रस्तुत किया:

..सृष्टिकर्ता की मैं एक अद्भुत रचना हूँ/ इतिहास के पन्नों की हूँ मैं परछाईं/ भविष्य की सुन्दर कल्पना.../ हर युग में मैंने बदले रूप/ओढी सदा मैं ने नई काया/धरती से नीले अम्बर तक.../नदियों के पानी जैसा चंचल मन है मेरा/गगन के उस पार जैसा विशाल ह्रदय है मेरा...

शायरी रंगबिरंगे फूलों से भरा एक गुलदस्ता होती है. हर शेर या काव्य-पंक्ति के अपने रंग-ओ-खुशबू होते हैं. प्रस्तुत सुंदर पंक्तियाँ उसी विविधता का परिचय देती हैं:

वयोवृद्ध शायर मनमोहन 'तालिब' अपनी आदर्शवादी पहचान के साथ:

रख के सूरज जो सर पे चलते हैं
पाँव धरती पे उन के जलते हैं
मंज़िलें मिलती हैं अमल ही से
बे अमल लोग हाथ मलते हैं.


दिल और दिमाग के बीच चयन करते ज़र्फ़ 'देहलवी'

इल्म की बात हम से मत पूछो
हम तो बस दिल की बात करते हैं.


अब तो अपने वफ़ा नहीं करते
आप गैरों की बात करते हैं.


समाज की सच्चाई का पर्दाफाश करते वीरेंद्र 'क़मर':

साया भी बाप का उठते ही ये सवाल आया
आएँगे मालो-मकीं हिस्से में कितने कितने


सतीश सागर

ज़िन्दगानी का अंत होता है
हर निशानी का अंत होता है
क्या हुआ हम जो हो गए खामोश
हर कहानी का अंत होता है


सैलेश सक्सेना

नाचते चेहरों में अपनी शकल ढूंढता हूँ
शायद मैं अपना खोया हुआ कल ढूंढता हूँ.

शिव कुमार मिश्र

कितनी हसीन लगती है यह रात की शमा
जलता है जिगर ऐसे कि निकले नहीं धुआं.



गोष्ठी के सहभागी

भूपेंद्र कुमार

कबीरा तू संग अपने ले चल हमें
कि अपना ही घर हम जला कर चले


गोष्ठी से एक दिन पहले ईद का ख़ुशी भरा त्यौहार रहा. इस ख़ुशी को फिर से जीते हुए 'आनंदम' अध्यक्ष जगदीश रावतानी ने हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द्र को व्यक्त करता एक शेर अपनी एक ग़ज़ल से कहा तो हॉल 'वाह वाह' से गूँज उठा:

दिन ईद का है आ के गले से लगा मुझे
होली पे जैसे तू मुझे मलता गुलाल है.


सुप्रसिद्ध कवि गीतकार लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने वर्त्तमान में चौतरफ फैली दहशत और असुरक्षा के बीच जीते इंसान की एक तस्वीर खींच दी:

कदम कदम दहशत के साए/ जीते हैं भगवान भरोसे...
हद तो यह है दवा न जाने/ जीवन दे या मौत परोसे/ जीते हैं भगवन भरोसे...

अंतिम साँसें लेती एक माँ की अपने घर के प्रति भावनाओं का अनूठा स्वरूप ममता किरण ने कुछ यूँ प्रस्तुत किया:

...मैं सोच रही थी/ कि शायद डॉक्टर के साथ उसे भी पता था/ कि उस का अंत निकट है/ इसीलिए वो घर लौटना चाहती थी/ कि जिस घर में वो विदा हो कर आई थी/ उसी घर में अपनी अंतिम सांस ले/.. अपनी अंतिम सांस में वो महसूस लेना चाहती थी/ अपना समूचा संसार...

अंत में अध्यक्ष मुन्नवर सरहदी की बारी आई तो उन्होंने कहा कि इस मुशायरे में एक से एक बढ़ कर एक इतनी सुन्दर रचनाएं आई कि एक दूसरे से तुलना कर के बताना मुश्किल है कि सब से अच्छी किस की थी. उनसे अपनी रचना सुनाने की गुज़ारिश की गई तो उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में खूब कहकहे बिखेरे:

वो अपनी लैला के लिए हमेशा बेदार है,
मैं जिसे दीवाना समझता था, बहुत होशियार है...

कार्यक्रम के अंत में जगदीश रावतानी ने सभी मौजूद कवियों का धन्यवाद किया और शाखा प्रबंधक द्वारा आगामी काव्य गोष्ठियाँ मैक्स न्यूयॉर्क लाइफ के सभा कक्ष में करने का आमंत्रण देने के लिए उनका विशेष रूप से धन्यवाद किया.

Friday, September 25, 2009

भारतीय दूतावास द्वारा चीन के 7 हिन्दी विद्वान सम्मानित

चीन में हिन्दी दिवस समारोह



22 सितंबर 2009 । बीजिंग

दिनांक 21-09-2009 भारतीय दूतावास के सांस्कृतिककेद्र के तत्वावधान में हिन्दी दिवस कार्यक्रम का आयोजन संपन्न हुआ। इस अवसर पर भारतीय दूतावास के मिशन के उपमुख्य (Minister and Deputy Chief of Mission) जयदीप मजूमदार ने चीन के सात वरिष्ठ हिन्दी विद्वानों को सम्मानित किया। इन विद्वानों में पेकिंग विश्वविद्यालय एवं चायना रेडियो इंटरनेशनल के वरिष्ठ हिंदी सेवी एवं पत्रकार साम्मिलित हैं:










1. Pro. LIU AN WU (1930)
प्रोफ़ेसर लियोऊ आनवू (1930)

हिन्दी के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान/पुस्तक-प्रकाशन
पूर्व प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, हिन्दी साहित्य का इतिहास(आयु 85 वर्ष)
पेकिंग विश्वविद्यालय (चीनी भाषा में)
2. Pro. YIN HONG YUAN (1925)
प्रोफ़ेसर यिन होंयुवान (1925)

पूर्व प्रोफ़ेसर हिन्दी विभाग हिन्दी व्याकरण (आयु 80 वर्ष)
पेकिंग विश्वविद्यालय (चीनी भाषा में)
3. Pro. JIN DING HAN (1930)
प्रोफ़ेसर चिन तिंग हान (1930)

पूर्व प्रोफ़ेसर हिन्दी विभाग राम चरित मानस का चीनी भाषा में अनुवाद
पेकिंग विश्वविद्यालय
4. Pro. JIANG JING KUI
प्रोफ़ेसर च्यांग चिंगख्वेइ

Vice Director of Centre for India Studies
Chairman of Department of South-Asians Studies
Vice President of China Association of Less Commonly Taught Foreign Languages
प्रोफ़ेसर हिन्दी विभाग
1)चीन में पेकिंग विश्वविद्यालय के अतिरिक्त अन्यविश्वविद्यालयों में हिन्दी का विशेष प्रचार-प्रसार
2)प्रकाशन
क. हिन्दी का नाटक साहित्य
ख. जयशंकर प्रसाद के “आंसू” काव्य का अध्ययन
ग. जयशंकर प्रसद की कहानियाँ
3)विशेष पुरस्कार – 2007 में न्यूयोर्क में आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में पूर्व विदेश राज्यमंत्री श्री आनन्द शर्मा द्वारा विशेष हिन्दी सम्मान एवं प्रमाण पत्र
5. प्रो. वांग चिनफ़ड. (Wang Jinfeng) C.R.I.(China Radio International)
6. प्रो. छड. श्वेपिन (Chen Xuebin) C.R.I.(China Radio International)
7. प्रो. चाओ युह्वा (Zhao Yuhua) C.R.I.(China Radio International)




चायना रेडियो इंटरनेशनल के इन वरिष्ठ विद्वानों ने चालीस वर्षों से अधिक हिन्दी की सेवा की है। चीन और भारत मैत्री को आगे बढ़ाने के लिए अथक परिश्रम किया है। इन्हें हिन्दी भाषी श्रोताओं में सर्वाधिक लोकप्रियता मिली है। हिन्दी उद्‍घोषिका के रूप में सुश्री चाओ युह्वा अत्यधिक लोक प्रिय हैं।

इस अवसर पर एक हिन्दी निबंध प्रतियोगिता का भी आयोजन किया गया। इस प्रतियोगिता में पेकिंग विश्वविद्यालय, बेजिंग फोरंन स्टडीज़ विश्वविद्यालय एवं चायना रेडियो इंटरनेशनल के निम्नलिखित छात्रों एवं पत्रकारों ने भाग लियाः

चीनी प्रतिभागी

प्रथम

थांग य्वानक्वेइ (सपना)

चाइना रेडियो इंटरनेशनल

द्वितीय

ली मिन (विवेक)

पेकिंग विश्वविद्यालय

तृतीय

कुमारी रोशनी

सांत्वना

ह्वा लीयू (सिद्धार्थ)

पेकिंग विश्वविद्यालय

चंद्रिमा

चाइना रेडियो इंटरनेशनल


भारतीय प्रतिभागी

प्रथम

हेमा कृपलानी

द्वितीय

हेमा मिश्रा

सांत्वना

आरुणि मिश्रा




आयोजन के मुख्य अतिथि एवं भारतीय दूतावास के मिशन के उपमुख्य (Minister and Deputy Chief of Mission) जयदीप मजूमदार ने अपने उद्बोधन में कहा कि हिंदी भारत की केवल राजभाषा या राष्ट्रभाषा ही नहीं है, यह भारत के हृदय की भाषा है। यह सांस्कृतिक समन्वय और मानसिक आजादी की भाषा है। अन्तरराष्ट्रीय जगत में हिन्दी के लोकप्रियता बढ़ रही है। विशेष रूप से चीन में हिन्दी के अध्ययन और अध्यापन की विशिष्ट परंपरा है। हिन्दी दिवस पर चीनी विद्वानों का यह सम्मान चीन और भारत के प्राचीन सम्बंधों के सुदृढ़ीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। चीन के हिन्दी प्रेमियों की आज इतनी बड़ी संख्या में उपस्थिति हिन्दी की लोकप्रियता और आप के हिन्दी एवं भारत प्रेम का प्रमाण है।

पेकिंग विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अतिथि प्रोफेसर डॉ॰ देवेन्द्र शुक्ल ने कहा कि आज हिन्दी का राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय संदर्भ दोनों बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। आज हिन्दी विश्व भाषा का रूप धारण कर रही है। भारतीय दूतावास का यह आयोजन हिन्दी के लिए एक शुभसंकेत है। हिन्दी भारत और विश्व की संस्कृति के संवाद का मंच बने। तभी हम विश्व हिन्दी का विश्व मन रच सकेंगे।

चायना रेडियो इंटरनेशनल के सलाहकार एवं वरिष्ठ हिन्दी पत्रकार प्रो. वांग चिनफ़ङ ने कहा कि हिन्दी हमें विश्वबंधुत्व और प्रेम का संदेश देती है। हिन्दी उस सुगंध की तरह है जो विश्व के सामान्य जन को संबोधित है। चीन के लोगों को उस में प्रेम और आत्मीयता का अनुभव होता है।



हिन्दी दिवस कार्यक्रम का कुशल संयोजन एवं संचालन सांस्कृतिक सचिव चिन्मय नायक ने किया उन्होंने कहा कि यह हिन्दी दिवस केवल एक कार्यक्रम मात्र नहीं है, बल्कि यह हिन्दी के मंच पर चीन और भारत के मिलन का सौहार्द-प्रतीक भी है।

Thursday, September 24, 2009

आज की मुद्राएँ धर्मनिरपेक्ष हैं- प्रो.सीताराम दूबे

इलाहाबाद, 20 सितम्बर। मुद्रा एक ऐसी चीज है जो किसी भी देश की प्राचीन संस्कृति व परम्परा की द्योतक होती है लेकिन आज की मुद्रा धर्मनिरपेक्ष है। ये बातें काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग के प्रो सीताराम दूबे ने आज सायं इलाहाबाद संग्रहालय में आयोजित ‘मुद्राओं का सांस्कृतिक पक्ष’ विषयक संगोष्ठी में कही।

प्रो॰. दुबे ने कहा कि ऋग्वैदिक काल में मुद्रा के जगह वस्तु-विनिमय का प्रचलन था जिसके द्वारा एक देश दूसरे देश के बीच वस्तुओं का आदान-प्रदान कर काम चलाते थे। सिक्कों का प्रचलन उत्तरवैदिक काल से शुरु होता है। भारत में सर्वप्रथम सिक्कों का प्रचलन यवन शासकों ने किया। इनसे मिलकर हिन्दी यूनानी ने स्वर्ण सिक्कों को प्रचलन में लाया। उन्होंने कहा कि शक, हूण, मौर्य आदि शासकों के शासन काल में मुद्रा पर उस शासक के राज्य की संस्कृति, परम्परा, मूर्तियों की आकृति, चिह्न, परिधान, आदि सिक्के पर बने होते थे। उन्होंने कहा कि गुप्त काल के प्रचलित सिक्कों में समुन्द्रगुप्त को वीणा वादन करते हुए दिखाया गया जिससे पता चलता है कि वह संगीत प्रेमी था। लेकिन आज चलन में जो मुद्रा है उसे देश की संस्कृति व परम्परा से कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के सिक्कों का प्रचलन मुगल काल तक रहा।

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो. जयनारायण पाण्डेय, इविवि तथा संचालन डा. प्रभाकर पाण्डेय ने किया। इस मौके पर डा. एस. के. शर्मा सहित अन्य बुद्धिजीवि लोग उपस्थित थे।

रिपोर्ट- संदीप कुमार श्रीवास्तव

कवि राजगोपाल सिंह, नमिता राकेश व ममता किरण 'परिचय' सम्मान से सम्मानित

रिपोर्ट- प्रेमचंद सहजवाला


सत्यभूषण सम्मान से सम्मानित कवि राजगोपाल सिंह । स्वागत करती अलका सिन्हा

नई दिल्ली । 8 सितम्बर 2009

दि. 8 सितम्बर 2009 की शाम। नई दिल्ली के फिरोज़शाह रोड स्थित 'Russian Center of Cultural Sciences' में उर्मिल सत्यभूषण द्वारा संचालित 'परिचय' संस्था ने प्रसिद्ध कवि राजगोपाल सिंह को 'परिचय सम्मान' तथा सुपरिचित कवयित्रियों नमिता राकेश व ममता किरण को 'सत्य सृजन' सम्मान से सम्मानित किया। 'परिचय' ने ये 'सत्य सृजन सम्मान' इस वर्ष प्रारंभ किये हैं तथा 'सत्यभूषण सम्मान' प्रतिवर्ष देती है। इस सम्मान-गोष्ठी में हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार राजकुमार सैनी ने अध्यक्षता की तथा गोष्ठी का संचालन किया अलका सिन्हा व अनिल मीत ने।

'ज़र्द पत्तों का सफ़र', ' खुशबुओं की यात्रा', 'बरगद ने सब देखा है' तथा 'चौमास' जैसी सशक्त काव्य पुस्तकों के रचेता राजगोपाल सिंह की मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ ग़ज़ल व गीत के चिरपरिचित रास्तों से अलग हट कर एक अनोखे संवेदनात्मक प्रभाव का सृजन करती हैं। जहाँ एक तरफ असंख्य कवि शायर, शायरी की बनी बनाई लीक पर चल कर केवल रचनाओं में इज़ाफा मात्र कर रहे हैं, वहीं राजगोपाल सिंह उन कवियों में से हैं जो अपनी सशक्त व सार्थक रचनाधर्मिता के माध्यम से जाने जाते हैं। उनके स्वागत में कवयित्री अलका सिन्हा ने कहा कि जिस गहराई व मौलिकता से राजगोपाल सिंह ने काव्य रचना की है, उस के कारण उन को कई सम्मानों से सम्मानित भी किया गया है। यदि यह कहा जाए कि इन के काव्य ने हमारे समाज व संस्कृति को जीवित रखा है, तो ग़लत न होगा। अपनी चंद सर्वाधिक चर्चित कविताएँ, ग़ज़लें व दोहे प्रस्तुत करने से पूर्व राजगोपाल सिंह ने इस बात पर खुशी व्यक्त की कि 'परिचय' संस्था प्रतिमाह यहाँ गोष्ठियां आयोजित करती है। उन्होंने इस बात पर भी बधाई दी कि अब 'परिचय' की पहचान केवल भारत भर में नहीं, बल्कि रूस तक भी पूर्णतः पहुँच चुकी है। इस के साथ उन्होंने आशा व्यक्त की कि यह संस्था भविष्य में अन्य तमाम साहित्यकारों को भी सम्मानित पुरस्कृत करेगी, जो अच्छा लिख रहे हैं। अपनी काव्य प्रस्तुति उन्होंने एक गीत से शुरू की जो उन के अनुसार शायद उन का पहला या दूसरा गीत रहा होगा। इस गीत की रचना उन्होंने तिब्बत की सरहद पर 21,000 फुट की ऊँचाई पर स्थित एक गांव में की:

कौन जाने कब किस पगडण्डी से/ दीखे मोरा सिपहिया/ घुघती* टेर लगाती रहियो...

अब के बरस बड़ी बरफ पड़ी है/ जैसे सारी घाटी चांदी से मढ़ी है/ हिम से घिरी हैं ये शैल-शिखाएं/ जले हैं निगोड़ी और मुझे भी जलाएं/अंग अंग जैसे जंग छिड़ी है...

(*घुघती = बर्फीली पहाड़ियों पर पाया जाने वाला एक सुन्दर पंछी। इस गीत में 'घुघती' पंछी बिरही आत्मा का प्रतीक बन कर उभरी है।)


काव्यपाठ करते राजगोपाल सिंह। एक अन्य वीडियो यहाँ देखें

कवि राजगोपाल सिंह ने रिश्तों से जुड़ी संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए पीपल, बरगद, नदी, बरफ आदि सभी प्राकृतिक चिह्नों का उपयोग बखूबी किया है। जैसे:

नाम था होंठों पे सागर, पर मरुस्थल की हुई
इस नदी की कुछ न कुछ, लाचारियाँ होंगी ज़रूर

एक मौसम आए है तो एक मौसम जाए है
आज है मातम तो कल, किलकारियां होंगी ज़रूर.


पर प्यार के इस रंग-बिरंगे 'पोज़िटिव' अंदाज़ के भी क्या कहने:

हम ने ऐसे रंग फूलों के कभी देखे न थे
तितलियों के पास भी पिचकारियाँ होंगी ज़रूर.


इसी ग़ज़ल के एक शेर में जहाँ 'बेटी' की सामाजिक स्थिति को कवि ने इस तरह व्यक्त किया है:

आज भी आदम की बेटी, हंटरों की ज़द में है,
हर गिलहिरी के बदन पर धारियां होंगी ज़रूर

(ज़द = निशाना),

वहीं नए रिश्तों की दहलीज पर, सर पटकते हुए, बाबुल से बिछुड़ने की वेदना कुछ दोहों में बेहद मार्मिक तरीके से आई:

जिस खूंटी से बाँध दो, उस से ही बंध जाए
बाबुल तेरी लाडली इक गूंगी सी गाय.

तेरे जैसी ही हुई, मैं शादी के बाद,
आती तो होगी तुझे 'मिट्ठू' मेरी याद.

बाबुल अब होगी नहीं, भैया के संग जंग,
डोर तोड़ अनजान पथ, उड़ कर चली पतंग.


आज दूरदर्शन पर बेटी को अभिशाप मानने वाले समाज या शक्तियों का पर्दाफाश करते असंख्य धारावाहिक आ रहे हैं, पर बेटी की अहमियत या अपरिहार्यता क्या है, यह कवि राजगोपाल सिंह से अधिक किसी को पता नहीं मानो:

खुशबू है ये बाग़ की, रंगों की पहचान,
जिस घर में बेटी नहीं, वह घर रेगिस्तान.


प्रकृति के बीच उपस्थित कवि प्रकृति से रोमांस न कर के, प्रकृति को ही काग़ज़ बना कर उस पर मानविय संवेदनाएं शब्दबद्ध करता है:

बाग़ के वातावरण से बेखबर सूरजमुखी
जिस तरफ सूरज चले देखे उधर सूरजमुखी
भोर की पहली किरण कुछ कह रही है कान में
लाज के मारे हुई है गुलमोहर सूरजमुखी
देह सारी आंसुओं से भीग कर तर हो गई
कितना रोई याद कर के रात भर सूरजमुखी


और

गांव में ज़िंदा है अब भी वो पुराना पीपल
कितने गुमनाम परिंदों का ठिकाना पीपल

आँधियों का कोई मुखबिर न छुपा हो इन में
हर मुसाफिर से न हर बात बताना पीपल


और

अपनी बूढ़ी आँखों से कल बरगद ने सब देखा है
कहाँ गिरा लाजो का आँचल बरगद ने सब देखा है.


गीतों गज़लों में निहित दर्द के साथ साथ प्रभावशाली तरन्नुम ने भी चार चंद लगा दिए।


सत्य सृजन सम्मान से सम्मानित ममता किरण । सत्य सृजन सम्मान से सम्मानित नमिता राकेश

''परिचय' ने नमिता राकेश व ममता किरण को 'सत्य-सृजन' सम्मान से सम्मानित किया। नमिता ने 'परिचय' का आभार प्रकट करते हुए अपनी कुछ नज़्में व ग़ज़लें सुनाई। कुछ पंक्तियाँ:

अगर यकीन नहीं है तुम्हें/ तो आज़माओ मुझे/...आईना हो अगर तुम/ तो आईना दिखाओ मुझे/...इक चिंगारी हूँ मैं/ रात दिन जलती हूँ/ हवाओं में दम है/ तो बुझाओ मुझे/...आँख का आंसू नहीं/ मैं मोती हूँ/ पलकों में बंद कर के/ दिखाओ मुझे...

और

वो भी उड़ना चाहती थी ऊपर/ बहुत ऊपर आकाश में लेकिन/ पतंग की तरह/ उस की डोर/ किसी दूसरे के हाथ में थी...

ममता किरण ने भी संस्था का आभार प्रकट करते हुए कुछ सशक्त रचनाएं प्रस्तुत की:

...स्त्री मांगती है नदी से/ सभ्यता के गुण/ वो सभ्यता/ जो उस के किनारे जन्मी/ पली, बढ़ी और जीवित रही/ स्त्री बसा लेना चाहती है/ समूचा का समूचा संसार/ नदी का/ अपने गहरे भीतर/... जलाती है दीप आस्था के/ नदी से गवाही कर/ करती है मंगल-कामना/ सब के लिए/ और अपने लिए मांगती है/ सिर्फ नदी होना...

एक वृद्ध व्यक्ति की तन्हाई, जो उन्होंने एक वृक्ष को प्रतीक बना कर व्यक्त की, (कुछ पंक्तियाँ):

...बहुएँ आशीष ले कर/ मगन हो जाती हैं/ अपनी अपनी गृहस्थी में/ मेरी सुध कोई भी नहीं लेता/ मैं बूढा हो गया हूँ/ कमज़ोर हो गया हूँ/ कब हरहरा कर टूट जाएं ये बूढी हड्डियाँ/ पता नहीं/ तुम सब से करता हूँ एक निवेदन/ एक बार उसी तरह/ इकट्ठा हो जाओ/ मेरे आंगन में/ जी भर तुम्हें देख तो लूं ...

इस अवसर पर सीमाब सुल्तानपुरी तथा स्टेला कुजूर ने भी अपनी रचनाएं पढ़ी।
अंत में अध्यक्ष राजकुमार सैनी ने तीनों सम्मानित कवियों को बधाई देते हुए इस प्रकार के सम्मान आयोजनों पर खुशी व्यक्त की तथा धन्यवाद प्रस्ताव के साथ गोष्ठी सम्पन्न हुई।

Wednesday, September 23, 2009

सार्वजनिक जीवन में साख की बड़ी भूमिका - गोविन्दाचार्य



नई दिल्ली । 22 सितम्बर 2009

प्रख्यात विचारक और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव श्री गोविन्दाचार्य ने राष्ट्रीय राजनीति में आ रही गिरावट पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि सार्वजनिक जीवन में साख की बड़ी भूमिका होती है। राजनीति में बदलाव की वक़ालत करते हुए उन्होंने कहा कि लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए नये ढांचे, नये औजार और नये लड़ाके वक्त की जरूरत हैं । सत्ता पक्ष एवं विपक्ष दोनों को कटघरे में घेरते हुए श्री गोविन्दाचार्य ने कहा कि देश के समक्ष राष्ट्रीय सम्प्रभुता एवं महंगाई सहित तमाम ज्वंलत चुनौतियां हैं। पर इन पर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनो ही मौन धारण किये हुए है। उन्होंने दोनो पक्षों पर मिलीभगत का आरोप लगाते हुए मीडिया को भी कटघरे में खड़ा किया।

दिवंगत पत्रकार कंचना की याद में आयोजित छठी कंचना स्मृति व्याख्यानमाला तथा पुरस्कार समारोह में लोकतंत्र एवं पत्रकारिता को कैसे बचाया जाए? विषय पर बोलते हुए श्री गोविंदाचार्य ने कई अहम सवालों को उठाया। उन्होंने कहा कि राजनीति में धन बल हावी होता जा रहा है। इसका जीता-जागता प्रमाण है कि भारत की संसद में करोड़पति सांसदों की संख्या 125 से भी ज्यादा हो गयी है। यह देश के लिए विडबंना की बात है कि राजनीतिक दलों से टिकट लेने में भी आजकल धन का उपयोग बड़े पैमाने पर हो चला है। उन्होंने कहा कि बदले हालातों में स्थिति यह है कि राजनीतिक दलों में अब नेता की जगह मैनेजरों की, कार्यकर्ताओं के बजाय कर्मचारियों की पूछ बढ़ती जा रही है ।

राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े करते हुए उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल कम्पनी की तरह कार्य करने लगे हैं । मीडिया और राजनीति के बीच रिश्तों को चोली दामन का साथ करार देते हुए पूर्व भाजपा महासचिव ने कहा कि टी आर पी के आगे गरीबी एवं आम आदमी की संवेदनशीलता मीडिया से खत्म होती जा रही है । उन्होंने कहा कि मीडिया को थैलीशाहों, नौकरशाहों और नेताओं के त्रिगुट से अलग निकलना चाहिए ताकि विकास की धारा को अंतिम आदमी तक पहुंचने में सफलता प्राप्त हो सके । उन्होंने द्वि-दलीय राजनीति को देश के लिए घातक करार देते हुए कहा कि इसकी पैरवी करने वालों को शायद देश की राजनीतिक समझ नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए मूल्यों और मुद्दों की राजनीति को बचाये रखना होगा। उन्होंने कहा कि वर्तमान व्यवस्था अमीरों को लाभ एवं गरीबों में लोभ पैदा कर रही है। श्री गोविन्दाचार्य ने कहा कि चुनाव बेशक चेहरों पर लड़े जाते हों लेकिन सामाजिक बदलाव यथार्थ पर होता है । उन्होंने राजनीतिक दलों और मीडिया दोनों से आग्रह किया कि वह अपने दायित्वों को सही ढंग से निभायें।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा. सोमपाल शास्त्री ने कहा कि राजनीति का जन्म ही टकराव से होता है। उन्होंने लोकतंत्र को सबसे बेहतर करार देते हुए कहा कि इससे बेहतर शासन प्रणाली अब तक विकसित नहीं हो पाई है। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र की सराहना करते हुए कहा कि दूसरे एवं तीसरी दुनिया के देशों के मद्देनजर भारत की राजनीति एवं पत्रकारिता दोनों ही न सिर्फ बेहतर है बल्कि इनकी अनूठी छाप भी है।

वरिष्ठ पत्रकार और सी.एन.ई.बी. चैनल के प्रमुख राहूल देव ने इस अवसर पर कहा कि मीडिया को बाजारीकरण से नहीं बाजारू होने से बचाया जा सकता है। मीडिया की कमियों को दूर करने के लिए उपाय सुझाते हुए उन्होंने कहा कि प्रबन्धक वर्ग के बगैर मीडिया की चर्चा बेकार है। क्योंकि चुनौती एवं संकट उसी वर्ग से है इसलिए उसे शामिल किये बगैर चर्चा बेमानी होगी।

वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने अब तक आयोजित कार्यक्रमों के बारे में विस्तार से जानकारी दी और कहा कि कंचना ऐसी पत्रकार थीं जिसको सामाजिक सरोकारों के लिए निजी इच्छा या हित का कभी कोई ध्यान भी नहीं आता था। वे काम के प्रति बेहद ईमानदार और समर्पित थीं। आज कंचना हमारे बीच में नहीं हैं, पर अवधेशजी में हम वे सारी खूबियां देखते हैं। वे भी सामाजिक सरोकारों के प्रति समर्पित हैं। यह कार्यक्रम बिना किसी आर्थिक मदद या प्रचार के तामझाम के हो रहा है।

इस अवसर पर विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता श्री विजय कुमार सिंह को कंचना स्मारक पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनका जीवन परिचय वरिष्ठ पत्रकार श्री वीरेंद्र मिश्र ने पढ़ा। श्री विजय कुमार विख्यात शांति कार्यकर्ता तथा अखिल भारतीय शांति सेना के संगठनकर्ता हैं। वे बीते कई वर्षों से बनारस, सारनाथ तथा आसपास के जिलों के ग्रामीण इलाकों में अखिल भारतीय शांति सेना तथा लोक चेतना मंच के तत्वावधान में अहिंसक ग्राम स्वालम्बन का व्यावहारिक प्रयोग कर रहे हैं। श्री विजय भाई देश के विभिन्न क्षेत्रों में अब तक करीब 68 युवा और शांति कैंप लगा चुके हैं और सांप्रदायिक सौहार्द्र तथा तमाम विवादों और तनावों को दूर करने का भी प्रयास किया है। वे भूदान तथा अन्य भूमि सुधार कार्यक्रमों से भी बहुत गहराई से जुड़े हैं और स्वास्थ्य तथा योग प्रशिक्षक भी हैं। महिला सशक्तिकरण के साथ विजय भाई ने प्राथमिक शिक्षा पर अनुसंधान और मूल्यांकन भी किया है।

इस कार्यक्रम में पूर्व केन्द्रीय मंत्री डा रामकृपाल सिन्हा, जानेमाने गांधीवादी डा. रामजी प्रसाद सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री श्री बालेश्वर त्यागी, राजघाट के सचिव श्री रजनीष कुमार, पूर्व विधान परिषद सदस्य श्री रामाशीष राय, बिहार कांग्रेस के वरिष्ठ नेता महाचन्द्र सिंह, वरिष्ठ पत्रकार देवदत्त, प्रबाल मैत्र, अरविन्द मोहन, अजय कुमार, जवाहर लाल कौल, बनारसी सिंह, अरूण खरे, जयप्रकाश त्रिपाठी, अमिताभ, उमेश चतुर्वेदी, कैलाशजी सहित तमाम गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे।

कंचना स्मृति न्यास
एम॰ बी॰ 140, गली नं॰ -5,
शकरपुर, दिल्ली-110 092
दूरभाष: 011-22483408

Tuesday, September 22, 2009

भारत से 16000 किमी दूर मनाया गया हिन्दी पखवाडा़



सूरीनाम में हिंदी पखवाड़ा

सूरीनाम स्थित भारत के राजदूतावास में 1-09-09 से 14-09-09 तक बड़े हर्षोल्लास के साथ हिंदी पखवाड़ा मनाया गया। इस दौरान सूरीनाम के चार जिलों निकेरी, कौमवेना, सरमक्का व पारामारीबो में हिंदी सुलेख और भाषण प्रतियोगिताएँ आयोजित की गईं। 1-09-09 को राजदूतावास व भारतीय सांस्कृतिक केंद्र में एक परिपत्र जारी किया गया जिसमें सभी भारतीय अधिकारियों व कर्मचारियों को हिंदी में काम करने का अनुदेश दिया गया।

वीज़ा, पासपोर्ट लेने आने वाले व्यक्तियों के लिए भी नोटिस बोर्ड पर सूचना लगाई गई- यदि आप हिंदी में बात करेंगे तो हमें प्रसन्नता होगी। इसका काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ा और अधिकांश आगंतुको ने हिंदी में बात की।

14 सितंबर 2009 को सायंकाल 7.30 बजे भारतीय सांस्कृतिक केंद्र के सभागार में समापन समारोह में एक साहित्यिक गोष्ठी का आयोजन किया गया और प्रतियोगिताओं के विजेताओं को पुरस्कार वितरित किए गए। गोष्ठी में चर्चा के विषय थे-

साहित्य मानव जीवन का दर्पण
सूरीनाम में रचित साहित्य
हिंदी और सरनामी- परिचय व संबंध
हिंदी और सरनामी- वर्तमान स्थिति (स्थानीय संदर्भ)
साहित्यकारों के समक्ष कठिनाइयाँ- स्थानीय संदर्भ


इन विषयों पर सूरीनाम के जाने-माने विद्वान नारायणदत्त गंगाराम पांडेय, पं. हरिदेव सहतू, हिंदी छात्रा कृष्णा भिखारी और दो युवा हिंदी कर्मियों धीरज कंधई व निशा झाखरी ने अपने विचार व्यक्त किए।

भारत के राजदूतावास की अताशे (हिंदी व संस्कृति) भावना सक्सैना ने अपने स्वागत भाषण में कहा कि भारत से 16,000 कि.मी दूर हिंदी का यह उत्सव हिंदी कर्मियों को नमन करने और हिंदी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शाने के लिए है। उन्होंने सूरीनामवासियों से आग्रह किया कि वे हिंदी भाषा के साथ-साथ देवनागरी लिपि को भी अपनाएँ क्योंकि लिपि में भाषा के प्राण हैं।

सूरीनाम में भारत के राजदूत, कँवलजीत सिंह सोढी ने भारत की सर्वशिक्षा प्रणाली का उल्लेख करते हुए हर हिंदी जानने वाले से एक और व्यक्ति को हिंदी सिखाने का आग्रह किया।

इस कार्यक्रम में लगभग 200 हिंदी कार्यकर्ताओं व हिंदी प्रेमियों ने उपस्थित होकर आयोजन को सफल बनाया।





जयपुरियर स्कूल ने राष्ट्रभाषा हिंदी की प्रगति और विकास हेतु मनाया हिंदी सप्ताह



सानपाड़ा, नवी मुम्बई । 18 सितम्बर 2009

भाषा हमारे और आपके विचारों का माध्यम है। हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का गौरव देने के लिए हिंदी में लिखते थे। बाल गंगाधर तिलक ने कहा "देश की अखंडता-आजादी के लिए हिंदी पुल है"।

पूरा देश 14 सितम्बर को 'हिंदी दिवस' के रूप में मनाता है। जयपुरियर स्कूल (अंग्रेजी माध्यम) ने हिंदी भाषा को बढावा देने के लिए उस दिन प्रार्थना सभा से लेकर सारे दिन का काम हिंदी में किया और हिंदी सप्ताह में छात्रों की क्षमतानुसार प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के लिए तरह-तरह की स्पर्धा रख जैसे कविता वाचन, एकांकी, नैतिक कहानी क्विज, पर्यायवाची, मुहावरे, पहेलियाँ, विलोम, हिंदी साहित्य के प्रश्न, सुलेख, चित्र देख कर नाम बताओ सही उच्चारण के साथ आदि स्पर्धा रखी गयी थी। विशेष कार्यक्रम में "भारत की विविधता में एकता" दर्शाने के लिए बच्चों ने कवि सम्मेलन किया था।

प्राथमिक और माध्यमिक कक्षाओं के लिए केवल एक विजेता ट्राफी थी। इस चमचामाती ट्राफी को कक्षा 2 ने जीता। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्रीमती रश्मि (मैनेजर) और अध्यक्षा श्रीमती ज्योत्स्ना भटनागर (प्रचार्या) थी। रश्मि जी ने हिंदी का महत्व देते हुए प्रतिभागी छात्रों के मनोबल, कार्यक्रम की प्रसंशा की। स्कूल की प्रचार्या ने 'हिंदी सप्ताह' को सामाजिक, सांस्कृतिक एकता की कड़ी के रूप में चरितार्थ किया।

इस सफल कार्यक्रम का श्रेय हिंदी अध्यापिका, संचालिका मंजू गुप्ता को जाता है। जिन्होंने अपने अनुभवों से 'हिंदी सप्ताह' में चार चाँद लगाये और कहा- "हिंदी का भविष्य आनेवाली पीढ़ी के हाथों में सुरक्षित है"।

विविध स्पर्धाओं की फोटो भी संलग्न हैं-










Monday, September 21, 2009

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जन्म शताब्दी समारोह का नये संकल्पों के साथ समापन


नई दिल्ली । 20 सितंबर 2009

राष्ट्रकवि दिनकर वर्ष जन्मशताब्दी के अवसर पर राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर स्मृति न्यास द्वारा राष्ट्र कवि दिनकर की जन्म शताब्दी के समापन समारोह का आयोजन चिंतनपरक सत्रों, नाटक और कवि सम्मेलन के माध्यम से किया गया. उद्घाटन भाषण में भारतीय संस्कृति के महान चिंतकों में डॉ. मुरली मनोहर जोशी, डॉ.रत्नाकर पांडेय, श्री ललितेश्वर प्रसाद शाही (पूर्व केंद्रीय शिक्षा मंत्री, भारत सरकार ), श्री शांता कुमार (पूर्व मुख्य मंत्री, हिमाचल प्रदेश एवं सांसद राज्य सभा), डॉ. भीष्म नारायण सिंह, डॉ. रामजी सिंह, डॉ. अरूण कुमार, श्री वशिष्ठ नारायण सिंह, पद्मश्री संतोष यादव(माउंट एवेरेस्ट विजेता) आदि थे।

उद्घाटन सत्र में डॉ. रत्नाकर पांडेय ने अपने चिंतनपरक आख्यान में दिनकर की इन पंक्तियों का उल्लेख किया—समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध-कि अब समय आ गया है कि हम तट्स्थ न रहें, हमारा मौन रहना हमारी निष्क्रीयता का द्योतक है. और इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा। भारतीय संस्कृति के चार अध्याय में उन्होंने जो भाव व्यक्त किए हैं उसमें सांस्कृतिक उत्थान में हर जन की सहभागिता कालांतर से रही है। उन्होंने दिनकर के कवि रूप का जिक्र करते हुए ये पंक्तियां कहीं—मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूँ मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूँ मैं। इसके अलावा उन्होंने अनेक प्रसंगों का भी जिक्र किया जो दिनकर का मूल चिंतन था।

इस वैचारिक व्याख्यान में डॉ. रामजी, डॉ. शांता कुमार, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, डॉ. भीष्म नारायण सिंह, डॉ. अरूण कुमार के द्वारा विचार ऐसे प्रस्तुत किए गये थे कि दिनकर के चिंतन की वैचारिक गरमाहट की अनुभूति को मावलंकर सभागार में उपस्थित श्रोताओं ने गहराई से महसूस किया।

उद्‍घाटन सत्र के बाद 'मैं नालंदा हूँ' नाटक का मंचन हुआ जो नालंदा के अतीत और विध्वंस तथा आज उसकी महत्ता पर कसे हुए निर्देशन में भली भांति अभिनीत किया गया।

द्वितीय सत्र की संगोष्ठी में शामिल वक्ताओं में डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल, डॉ.रामजी सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, डॉ. गोपाल राय, प्रो. गोपेश्वर सिंह, डॉ. केशुभाई देसाई, श्री नारायण कुमार, श्री अमरनाथ अमर आदि थे।

उद्‍घाटन सत्र में ही प्रो. गोपाल राय और सत्यकाम द्वारा संपादित पुस्तक 'दिनकर-व्यक्तित्व और रचना के आयाम तथा संस्कृति से संवाद– रामधारी सिंह दिनकर स्मारिका' का लोकार्पण भी हुआ।

अंतिम सत्र में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें –सर्वश्री गोपाल दास नीरज, भगवान प्रलय, मुमताज नसीम, सत्येन्द्र सत्यर्थी, विवेक गौतम, सुश्री आकृति शशांक, लक्ष्मी शंकर वाजपेयी, विनीत चौहान, अमर नाथ अमर, हरमिंद्र पाल, पंकज सुबीर और नमिता राकेश आदि प्रमुख थीं।

कार्यक्रम का संचालन डॉ. सत्यकेतु सांकृत और समंवय नीरज कुमार ने किया।

न देखे विश्व पर मुझको घृणा से,
मनुज हूं, सृष्टि का शृंगार हूं मैं,
पुजारिन! धूलि से मुझको उठालो,
तुम्हारे देवता का हार हूं मैं ----


अन्य झलकियाँ-











रिपोर्ट‍- शमशेर अहमद खान
2-सी, प्रैस ब्लाक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस, दिल्ली-110054

Sunday, September 20, 2009

वैश्वीकरण के कारण कला बनी बाजार की वस्तु - प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण

इलाहाबाद, 19 सितम्बर। वैश्वीकरण व बाजारवाद के कारण चित्रकला आज बाजार की वस्तु बन गयी। चित्रों को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। शब्दों व चित्रों को एक साथ बांधकर प्रो. रामचन्द्र शुक्ल ने एक अनोखा काम किया है। ये बातें टोक्यो यूनीवर्सिटी ऑफ फॉरेन स्टडीज के प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के निराला भवन में आयोजित सरस्वती स्मृति सम्मान एवं वार्षिक समारोह में प्रो. रामचन्द्र शुक्ल के अतः प्रज्ञात्मक चित्रो की प्रदर्शनी के उद्‍घाटन के बाद कही।

प्रो. ऋतुपर्ण ने कहा कि कला का कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जो जीवन में घटित न हो। प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर कला होती है। बस आवश्यकता है उसे पहचानने व साधने की। उन्होंने कहा कि कला आनन्द की वस्तु है न कि बेचने की लेकिन आज के कलाकारों ने अपने कृतिरुपी चित्रकला को अपने जीवका का साधन मात्र बना दिया है। उन्होंने कहा कि भारत ही एक ऐसा देश जहां के कलाकारों ने पहाड़ियों एवं गुफाओं में भी अपने कलाकृतियों की एक अनूठी छटा बिखेरी है। लेकिन आज के कलाकारों को लगता है कि कला पश्चिमी देशों की देन है जो उनकी गलतफहमी है।

इस मौके पर प्रो. रामचन्द्र शुक्ल ने कहा कि साहित्य का मतलब सिर्फ कविता, कहानी व उपन्यास की रचना करना ही नही है बल्कि चित्रकला भी उसी का एक हिस्सा है। उन्होंने कहा कि कला लोककलाओं की चीज है इसलिए हमने सबसे पहले लोककलाओं का अध्ययन किया और उसके मूल तत्व को लेकर अपने अतः प्रज्ञात्मक चित्रों में समाहित किया। उन्होंने अपनी कृति अतः प्रज्ञात्मक शैली के बारे में कहा कि इस शैली का विदेशों से कोई लेना देना नहीं है।

प्रो. रामचन्द्र शुक्ल के 85 वर्ष के होने पर उनके द्वारा निर्मित कुल 85 कलाकृतियों की प्रदर्शनी का आयोजन हुआ। इस मौके पर उनके द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘आधुनिक चित्रकला व पश्चिमी आधुनिक चित्रकार’’का लोकापर्ण हुआ तथा उन्हें सरस्वती स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया।

रिपोर्ट- संदीप कुमार श्रीवास्तव

Saturday, September 19, 2009

डॉ. वेद प्रताप वैदिक को ‘हिंदी सेवा सम्मान’


माइक पर देवमणि पाण्डेय, निदा फाज़ली से सम्मान ग्रहण करते डॉ वेद प्रताप वैदिक,मोहन गुप्त

‘हिंदी हिंदुस्तान को जोड़ती है और संस्कृत पूरी दुनिया को। इस लिए भारत का भविष्य संस्कृत में है। अब संस्कृत के ज्ञान का ख़ज़ाना सबके लिए सुलभ होना चाहिए।’ ये विचार जाने माने पत्रकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक ने मालवा रंगमंच समिति के हिन्दी दिवस समारोह में रविवार 13 सितम्बर 2009 को कालिदास अकादमी, उज्जैन (म.प्र.) में व्यक्त किए। इस समारोह में हिंदी पत्रकारिता के शिखर पुरुष डॉ. वेद प्रताप वैदिक को ‘हिंदी सेवा सम्मान’ से सम्मानित किया गया। डॉ.हरि मोहन बुधौलिया और प्रो. शैलेन्द्र पाराशर जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकारों की उपस्थिति में उन्हें यह सम्मान मुम्बई से पधारे मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली ने प्रदान किया।

महर्षि पाणिनी संस्कृत वि.वि., उज्जैन के कुलपति मोहन गुप्त की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में सुप्रसिद्ध फ़िल्म लेखिका एवं कथाकार डॉ. अचला नागर ने ‘‘साहित्य, समाज, सिनेमा और हिंदी’’ विषय पर व्याख्यान देकर आयोजन की गरिमा बढ़ाई। शायर निदा फा़ज़ली और कवि-संचालक देवमणि पाण्डेय द्वारा अपनी चुनिंदा कविताओं का पाठ समारोह का ख़ास आकर्षण था। शायर निदा फा़ज़ली ने ग़ज़लें और नज़्में सुनाकर अदभुत समा बाँधा। श्रोताओं की माँग पर उन्होंने कुछ दोहे भी सुनाए-

बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान!


महाकाल की धार्मिक नगरी उज्जैन में निदा साहब के इस दोहे पर काफी तालियाँ बजीं-

अंदर मूरत पर चढ़े घी,पूड़ी,मिष्ठान्न
मंदिर के बाहर खड़ा ईश्वर माँगे दान


मुम्बई से पधारे चर्चित कवि देवमणि पाण्डेय ने अपनी एक ग़ज़ल में उज्जैन के दिवंगत कवि ओम व्यास ओम को याद किया तो श्रोताओं की आँखें नम हो गईं-

कैसे कहें कितना रोते हैं
अपनों को जब हम खोते हैं
दुख में रातें कितनी तनहा
दिन कितने मुश्किल होते हैं


शुरूआत में मालवा के सुप्रसिद्ध लोक गायक प्रहलाद टिपानिया ने कबीर के कुछ पदों की संगीतमय प्रस्तुति से श्रोताओं को भावविभोर कर दिया। प्रतिष्ठित साहित्यकार एवं उज्जैन संभाग के पुलिस महानिरीक्षक पवन जैन इस अवसर पर बतौर अथिति उपस्थित थे। संस्थाध्यक्ष केशव राय ने आयोजन के औचित्य पर प्रकाश डाला। पद्मजा रघुवंशी ने अतिथियों का स्वागत किया। प्रतिभा रघुवंशी ने सरस्वती वंदना और गीतकार सूरज उज्जैनी ने स्वागत गीत प्रस्तुत किया। महेश शर्मा अनुराग ने आभार व्यक्त किया।

रिपोर्ट- केशव राय
शक्ति अपार्टमेंट. ए-203,चकाला,अंधेरी (पूर्व),मुम्बई-400099
Tel. 9810483218 / 66929947

Friday, September 18, 2009

हिंदी पढ़ो, आगे बढ़ो, भारत जोड़ो


औरंगाबाद । महाराष्ट्र

14 सितम्बर 2009, सोमवार की सुबह ठीक 11 बजे श्री सरस्वती भुवन प्रशाला के "सुशीलादेवी जालान" सभागृह, औरंगाबाद में महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे-औरंगाबाद विभाग तथा श्री सरस्वती भुवन प्रशाला, औरंगाबाद के संयुक्त तत्वावधान में हिंदी दिवस और पुरस्कार वितरण समारोह बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। मंगेश गीत मंच की ओर से विद्यालय की छात्राओं द्वारा स्वागत गीत प्रस्तुत किया गया। माँ सरस्वती पूजन, दीप प्रज्ज्वलन के बाद अध्यक्षा श्रीमती डॉ. विशाला शर्मा (हिंदी विभागाध्यक्ष, चेतना कला महाविद्यालय, औरंगाबाद) एवं श्री शेषराव आनंदराव जगताप केन्द्रीय सचिव,महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे) का स्वागत श्रीराम माधवराव कुर्डुकर (प्रधानाध्यापक, श्री सरस्वती भुवन प्रशाला ) ने किया। प्रमुख अतिथि श्री अमिताभ श्रीवास्तव (सम्पादक "लोकमत समाचार, औरंगाबाद ) एवं श्रीराम माधवराव कुर्डुकर का स्वागत श्री अनिल नरहरी जोशी (विभागीय सचिव, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, औरंगाबाद) ने किया। अतिथियों के स्वागत के बाद श्री शेषराव आनंद राव जगताप ने संस्था का परिचय दिया। हिंदी दिवस पर संस्था द्वारा प्रस्तुत "हिंदी पढ़ो, आगे बढ़ो, भारत जोड़ो" की संकल्पना लिए हिंदी-दिवस प्रतिज्ञा पाठ डॉ. विशाला शर्मा ने किया व उपस्थित सभी ने दोहराया। विद्यालय के शिक्षक श्री अंगद आडोले के मार्गदर्शन से कक्षा नवीं के विद्यार्थियों ने हिन्दी के मूर्धन्य हस्ताक्षरों का परिचय लिखकर "भित्तिपत्रक" बनाया जिसका विमोचन श्री अमिताभ श्रीवास्तव के शुभ हस्तों से हुआ। विद्यालयीन स्तर पर राष्ट्रभाषा के विभिन्न परीक्षाओं में सर्व प्रथम आनेवाले विद्यार्थियों को प्राध्यापक चंद्रकांत न्यायाधीश प्रोत्साहन पुरस्कार एवं प्रमाण-पत्र दिए गए तथा हिंदी दिवस पर आयोजित निबंध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार एवं प्रोत्साहन पुरस्कार देकर विद्यार्थियों को सम्मानित किया गया। महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे-औरंगाबाद की ओर से दो अध्यापिकाओं (श्रीमती सीमा ओमप्रकाश प्रधान, शिक्षिका विवेकानंद अकेडमी तथा श्रीमती प्रतिभा कृष्णा श्रीपत, शिक्षिका श्री महावीर स्थानकवासी, जैन विद्यालय, जालना ) को "आदर्श हिंदी अध्यापक प्रचारक-पुरस्कार" एवं "विमल नरहर जोशी प्रोत्साहन पुरस्कार" से सम्मानित किया गया तथा महाराष्ट्र शासन द्वारा घोषित, राज्यपाल श्री जमीर द्वारा "आदर्श शिक्षक पुरस्कार" से सम्मानित श्री कांतिलाल हरकचंद कुंकुलोल (प्रधानाध्यापक, श्री महावीर स्थानकवासी, जैन विद्यालय, जालना) का विशेष सत्कार किया गया। पुरस्कार वितरण पश्चात अपने हास्य कविता तथा दोहों से श्री रमेश दीक्षित एवं श्रीमती सुनीता यादव ने सभी विद्यार्थियों का दिल जीत लिया। प्रमुख अतिथि श्री अमिताभ श्रीवास्तव ने अपने भाषण में कहा कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अपनी जगह बनाए रखने हेतु हमें मातृभाषा, राष्ट्रभाषा ही नहीं देश के अन्य भाषाएँ सीखनी होंगी, उन्हें आत्मसात करनी होंगी, तभी हम राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं अन्तराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना सकते हैं। अध्यक्षीय समारोप में श्रीमती डॉ. विशाला शर्मा ने छात्रों को लघुकथा तथा चुटकुलों के माध्यम से परिश्रम का महत्त्व बताया। अंत में विद्यालय की उप प्रधानाध्यापिका श्रीमती इंदुमती जोंधले ने आभार प्रदर्शन किया। कार्यक्रम का संचालन विद्यालय के शिक्षक श्री अंगद आडोले तथा श्रीमती सुनीता यादव (विभागीय समिति सदस्या, महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे-औरंगाबाद विभाग) ने किया। कार्यक्रम को सफल बनाने में श्री मंगेश दोलारे, श्री जयंत कौशिके, श्री संतोष वेरुलकर, श्री बंडोपंत क्षीरसागर का सफल योगदान रहा।

Thursday, September 17, 2009

एक शाम सिंध के साहित्यकारों के साथ- सिन्धी अकादमी सभागार में 'शाह लतीफ़' के कलामों की धूम

रिपोर्ट- प्रेमचंद सहजवाला


(बाएं से)-सिन्धी अकादमी सचिव सिन्धु भाग्या मिश्रा, मिठो मेहर व शौकत शोरो, वरिष्ठ सिन्धी साहित्यकार सी.जे. दासवानी व 'सिन्धी अकादमी' उपाध्यक्ष एम.के. जेटली और सिन्धी कवि कथाकार अमुल आहूजा

यदि भारत के सिन्धी समुदाय की वरिष्ठ पीढ़ी के दिल को एक बार टटोला जाए, तो लाखों सिन्धी जो सिंध में जन्मे, अपने हृदय में विभाजन का दोहरा दर्द आज भी समेटे हुए नज़र आएँगे. देश अकारण विभाजित हुआ, यह महसूस करने के साथ साथ, उन के मन में अभी तक इस बात की एक टीस सी बरक़रार है कि विभाजन के समय फैले पाशविक जुनून ने उन से उनकी जन्मभूमि भी छीन ली। आज भी किसी वयोवृद्ध सिन्धी से बात की जाए, तो इतने वर्षों बाद भी उस की आँखें सिंध की यादों से छलछला जाएंगी। भले ही वह दर्द, अब कई वर्षों के गुज़रते, दिल के अन्दर ही कहीं सो गया है, पर इस सोई-जागी भावना को व्यक्त करने के लिए मुझे अक्सर पाकिस्तानी शायर अहमद फ़राज़ के एक शेर का सहारा लेना पड़ता है:

फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं
मगर क़रार से दिन कट रहे हों यूं भी नहीं।

सिंध की दर्द भरी याद किसी भी बुज़ुर्ग को विचलित किये बिना नहीं रह सकती. कई लोग, वहाँ रहने वाले 'अपनों' से बिछुड़ गए। यहाँ आ कर शरणार्थी होने के संघर्ष देखे. जब कुछ वर्ष पहले किसी संजीब भट्टाचार्जी ने अचानक एक जनहित याचिका दे डाली कि राष्ट्रगान से 'सिंध' शब्द हटा दिया जाए, क्यों कि सिंध अब भारत का हिस्सा नहीं रहा, तब सिन्धी समुदाय की भावना को ठेस पहुँची थी, क्यों कि 'जन गण मन ,,,' में 'पंजाब सिंध गुजरात मराठा...' का जो ज़िक्र है, वह केवल भौगोलिक नहीं, वरन् संबंधित समुदायों के लोगों से भी सम्बद्ध है. सर्वोच्च न्यायालय ने उस जनहित याचिका को ठुकराया और याचक को लताड़ा भी कि यह 'Public Intrest Litigation' नहीं, 'Publicity Intrest Litigation' है। बहरहाल, अपनी जन्मभूमि से बिछुड़ कर आए सिन्धी समुदाय ने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया। आज उल्हासनगर (जो विभाजन के बाद एक महा शरणार्थी स्थल बन गया था) जाएं तो वहां के सिन्धी समुदाय ने जिस संकल्प के साथ और जिस जिजीविषा के साथ एक उजड़े-उजड़े से लगते ग़रीब शरणार्थी नगर को अपनी व्यापारिक व बौद्धिक प्रतिभा द्वारा एक महानगर में बदल दिया है, (जहाँ अब करोड़पति सिन्धी व्यापारी रहते हैं), वह संकल्प अपने आप में एक मिसाल है। उल्हासनगर, वीसापुर जैसे कई नगरों में सिन्धी शरणार्थियों को बसाने में जिन गांधीवादी नेता जैरामदास दौलतराम ने सब से ज़्यादा जद्दोजहद की, उन्हें स्वाधीनता संघर्ष में 'सिंध के गांधी' माना जाता था।

आज जसवंत सिंह की विवादस्पद पुस्तक 'Jinnah - India - Partition- Independence' के कारण विभाजन का ज़ख्म एक बार फिर उभर आया है, और हर भारतवासी शायद उन असली ताक़तों की खोज में लग गया है, जिन के कारण देश को एक शाश्वत, असहनीय चोट सहनी पड़ीं थी. परन्तु साहित्य एक ऐसी मानव-शक्ति है जो भौगोलिक सीमाओं को नहीं जानती मानती। भारत पाकिस्तान के बीच पंजाबी, सिन्धी, उर्दू व अन्य भाषाओँ के साहित्य का आदान प्रदान निरंतर होता रहता है। सुपरिचित सिन्धी लेखिका वीना श्रृंगी द्वारा स्थापित संस्था 'मारुई' दोनों देशों के साहित्यकारों को जोड़ने वाली एक कड़ी है, जिस के अंतर्गत कई बार दोनों देशों के साहित्यकारों ने मिल कर सेमिनार किये हैं. गुजरात के कच्छ इलाके में आदीपुर (गांधीधाम) में स्थित Indian Institute of Sindhology और पाकिस्तान के हैदराबाद (सिंध) में स्थित Institute of Sindhology दोनों देशों के साहित्य संगम के दो धड़े हैं, जिन के माध्यम से सिन्धी साहित्य का आदान प्रदान व शोध इत्यादि होते रहते हैं। दिल्ली सरकार द्वारा स्थापित 'सिन्धी अकादमी' केवल दिल्ली के ही नहीं, भारत भर के साहित्यकारों की मिलन स्थली है, जहाँ प्रति माह साहित्यिक बैठकें होती हैं तथा वर्ष भर में नृत्य, नाटक आदि के कई सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते रहते हैं। हिंदी की तरह सिन्धी भाषियों को भी अपनी भाषा के भविष्य की कम चिंता नहीं है। अधिकांश वरिष्ठ सिन्धी इस बात पर चिंतित रहते हैं कि सिन्धी भाषा का भविष्य क्या है। क्योंकि बच्चे हिंदी या अंग्रेज़ी तो बोलते हैं, पर सिन्धी नहीं बोलते। पर सिन्धी अकादमी इस मामले में अपना अभूतपूर्व योगदान जारी रखे है। सिन्धी भाषा को बढ़ावा देने हेतु उस की साहित्यिक गोष्ठियां, प्रसिद्ध पुस्तकों के विमोचन व साहित्य चर्चा, व वार्षिक स्तर पर पुरस्कार सम्मान नियमित रूप से होते रहते हैं।


(बाएं से)-'सिन्धी अकादमी' उपाध्यक्ष एम.के. जेटली अत्ता मुहम्मद का स्वागत करते हुए, 'सिन्धी अकादमी' उपाध्यक्ष एम.के. जेटली शौकत शोरो का स्वागत करते हुए, श्री सी.जे. दासवानी मिठो मेहर का स्वागत करते हुए और सिन्धी कवि कथाकार जगदीश रावतानी

तारीख 5 सितम्बर 2009 को काश्मीरी गेट स्थित 'सिन्धी अकादमी' के कार्यालय के सभागार में एक यादगार कार्यक्रम हुआ, जिस में पाकिस्तान के प्रसिद्ध साहित्यकार शौकत शोरो की अध्यक्षता में प्रसिद्ध शायर- गायक मिठो मेहर ने शाह अब्दुल लतीफ़ के कलामों से उपस्थित सिन्धी जनता को भाव-विभोर कर दिया. शाह अब्दुल लतीफ़ (1689-1752) सिंध के विश्व प्रसिद्ध सूफी कवि थे, जिन्होंने सिन्धी भाषा को विश्व के मंच पर स्थापित किया। शाह लतीफ़ का कालजयी काव्य-संकलन 'शाह जो रसालो' सिन्धी समुदाय के हृदयकी धड़कन सा है. और सिंध का सन्दर्भ विश्व में शाह लतीफ़ की भूमि के रूप में भी दिया जाता है, जिस की सात नायिकाओं मारुई, मूमल, सस्सी, नूरी, सोहनी, हीर तथा लीला को सात रानियाँ भी कहा जाता है। ये सातों रानियाँ पवित्रता, वफादारी और सतीत्व के प्रतीक रूप में शाश्वत रूप से प्रसिद्ध हैं। इन सब की जीत प्रेम और वीरता की जीत है. शाह अब्दुल लतीफ़ एक सूफी संत थे जिन के बारे में राजमोहन गाँधी ने अपनी पुस्तक Understanding the Muslim Mind में लिखा है कि जब उनसे कोई पूछता था कि आप का मज़हब क्या है, तो कहते थे कोई नहीं। फिर क्षण भर बाद कहते थे कि सभी मज़हब मेरे मज़हब हैं। सूफी दर्शन कहता है कि जिस प्रकार किसी वृत्त के केंद्र तक असंख्य अर्द्ध- व्यास पहुँच सकते हैं, वैसे ही सत्य तक पहुँचने के असंख्य रास्ते हैं। हिन्दू या मुस्लिम रास्तों में से कोई एक आदर्श रास्ता हो, ऐसा नहीं है। कबीर की तरह शाह भी प्रेम को उत्सर्ग से जोड़ते हैं। प्रेम तो सरफरोशी चाहता है। इसीलिए शाह अपने एक पद में कहते हैं:

सूली से आमंत्रण है मित्रो,
क्या तुम में से कोई जाएगा?
जो प्यार की बात करते हैं,
उन्हें जानना चाहिए,
कि सूली की तरफ ही उन्हें शीघ्र जाना चाहिए!

सिन्धी अकादमी सभागार में शौकत शोरो, मिठो मेहर व एक अन्य साथी अत्ता मोहम्मद का स्वागत करते हुए प्रसिद्ध सिन्धी समालोचक हीरो ठाकुर ने कहा कि Institute of Sindhology से हाल ही में सेवा निवृत्त शौकत शोरो, तथा मिठो मेहर व अत्ता मुहम्मद के आगमन से हमें बेहद ख़ुशी हो रही है. शौकत शोरो ने अपनी एक सशक्त कहानी पढ़ी और मिठो मेहर ने शाह लतीफ़ के कलाम सुना कर एक बेहद भाव विह्वल वातावरण पैदा कर दिया. कलाम गाने से पहले उन्होंने विभाजन के दर्द को महसूस करते और कराते हुए कहा कि आप सब (जो सिंध छोड़ आए), के पास इल्म था, अदब (साहित्य) था, काबलियत थी.. आप सब हम से जुदा हो गए...

'सस्सी पुन्नू की शाश्वत प्रेम कथा, (जिस में सस्सी अपनी सहेलियों के साथ अपने परदेसी प्रियतम पुन्नू को पाने के लिए न जाने कैसे कैसे बीहड़ रास्तों, जंगलों पर्वतों से गुज़रती एक अंतहीन यात्रा करती है), पर शाह के कलाम को दर्दीली आवाज़ में पेश करने के बाद उन्होंने कहा कि दुनिया में जितने भी हकीम हैं, उनके पास हर दर्द का इलाज है, पर प्रेम और महबूब की याद... इन दोनों के दर्द का इलाज दुनिया के बड़े से बड़े हकीम के पास नहीं...

अभी वे गायन समाप्त कर के बैठे ही कि सभागार विचलित सा महसूस करने लगा और हर तरफ से मिठो की पुरकशिश आवाज़ में और अधिक कलाम सुनने की फरमाइश हुई, जैसे दिल अभी भरा न हो. इस दूसरे दौर में मिठो ने कुछ अन्य शायरों और सिन्धी शायरी के एक और विश्व-प्रसिद्ध मील पत्थर शेख अयाज़ की भी शायरी सुनाई। शेख अयाज़ (1923-1997) सिंध में बीसवीं सदी के शाह लतीफ़ माने जाते हैं, जिन्होंने शायरी को एक आधुनिक रूप दिया।

मिठो की आवाज़ और सुध बुध खो चुके सिन्धी-प्रेमी। यह शाम सचमुच एक यादगार शाम रही। इस अवसर पर भारत के सिन्धी कवियों जगदीश रावतानी, अमुल आहूजा, रतन ईसरानी आदि ने भी अपनी कवितायें पढ़ी तथा शौकत शोरो के कर-कमलों से साहित्यकार रतन ईसरानी की धार्मिक पुस्तक 'शब्द गुरु' का विमोचन भी हुआ।

Wednesday, September 16, 2009

हिन्दी दिवस पर महाराष्ट्र की हिन्दी अकादमी ने किया दो पुस्तकों का विमोचन

महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा 14 सितंबर को हिंदी दिवस भारतीय भाषा दिवस के रूप में मनाया गया, जिसकी अध्यक्षता अकादमी के कार्याध्यक्ष श्री नंदकिशोर नौटियाल ने की। समारोह के मुख्य अतिथि टोकियो विश्वविद्यालय वैदेशिक अध्ययन विभाग (जापान) के प्रोफेसर सुरेश ऋतुपर्ण एवं विशेष अतिथि हिंदुस्तानी प्रचार सभा के मानद सचिव श्री सुभाष संपत थे। समारोह का संचालन अकादमी की सदस्य डॉ. सुशीला गुप्ता ने किया। इस अवसर पर श्री विजयशंकर चतुर्वेदी की पुस्तक पृथ्वी के लिए तो रुको एवं श्रीमती लीना मेहेंदले की पुस्तक मेरी प्रांतसाहबी का लोकार्पण भी किया गया।


(बाएं से)-महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी के कार्यवाहक सदस्य सचिव जयप्रकाश सिंह, पृथ्वी के लिए तो रुको पुस्तक के रचनाकार विजयशंकर चतुर्वेदी , मुख्य अतिथि प्रोफेसर सुरेश ऋतुपर्ण , मेरी प्रांतसाहबी पुस्तक की लेखिका लीना मेहेंदले, अकादमी के कार्याध्यक्ष एवं समारोह के अध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल एवं विशेष अतिथि सुभाष संपत


समारोह में उपस्थित हिंदीसेवी


अपनी पुस्तक के बारे में विचार रखतीं लीना मेहेंदले


अपनी पुस्तक के बारे में बोलते हुए विजयशंकर चतुर्वेदी


समारोह को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथि प्रोफेसर सुरेश ऋतुपर्ण एवं उनके साथ समारोह की संचालक डॉ. सुशीला गुप्ता


समारोह में अध्यक्षीय उद्बोधन करते हुए अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल

Friday, September 11, 2009

'मौसम विभाग' में प्रवाहित हुई हिंदी काव्य निर्झरिणी

रिपोर्ट- प्रेमचंद सहजवाला


काव्यपाठ करते सत्यनारायण ठाकुर

आज के इस उदारीकृत युग में, जहाँ अंग्रेज़ी ही नहीं, कई अन्य विदेशी भाषाएँ यथा जर्मन या फ्रेंच जानने वाले लोगों का भी देश में बहुत मान है, हिंदी भाषा की चिंता शायद कतिपय लोगों को उस दौर से भी अधिक सताती होगी, जब अकेले अंग्रेज़ी को ही हिंदी के 'कल्पित या 'तथाकथित' विस्थापन के लिए कोसा जाता था। मैं कुछ वर्ष पहले दूरदर्शन पर हो रही एक परिचर्चा देख रहा था, जो हिंदी भाषा पर थी। तब कुछ विद्वान इस बात से सहमत नहीं थे, कि हिंदी को किसी भी अन्य भाषा से कोई खतरा पैदा हो सकता है। मैं इसी बात को एक और तरीके से सोच रहा था। परिचर्चा में भाग ले रही मृणाल पांडे ने कहा कि हिंदी भाषा के लिए यह ज़रूरी नहीं कि सरकारी विभागों में हिंदी अनुभागों पर पैसा खर्च किया जाए। मृणाल का तात्पर्य यही था कि हिंदी भाषा को किसी बैसाखी की ज़रुरत नहीं है। मैं भी कमोबेश यही सोच रहा था कि जैसे प्यार स्वाभाविक होता है, वैसे ही हिंदी प्रेमियों के मन में हिंदी प्रेम की निर्झरिणी स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होती रहती होगी। विशेषकर हिंदी राज्यों में किसी भी स्टेशन पर चले जाइए, किताबों के स्टालों पर लटकी हुई, हंसती खिलखिलाती हिंदी पुस्तकें व पत्रिकाएँ आप का स्वागत करती नज़र आएंगी। बाज़ारों में हिंदी साहित्य-प्रेमी, पुस्तकों की दुकानों पर उत्साहित से अपनी मनपसंद पुस्तकें तलाशते नज़र आएँगे। बहरहाल, मैं इस बहस से बचते हुए कि हिंदी अनुभागों पर भारत सरकार को पैसा खर्चना चाहिए या नहीं, दि. 4 सितम्बर 2009 को 3 बजे उत्साहित सा 'भारत मौसम विज्ञान विभाग' के सभागार में जा बैठा, जहाँ हिंदी पखवाड़े की एक गतिविधि के रूप में, हिंदी काव्य प्रतियोगिता हो रही थी। मैं मौसम विभाग से सन् 2005 के अंतिम दिन को सेवानिवृत्त ज़रूर हुआ, परन्तु वहां के हिंदी पखवाड़ों से नाता तोड़ दूं, यह असंभव सा था। वहां हर साल कविता प्रतियोगिता व अन्य कार्यक्रमों में जाना मेरा नियम तो है ही, मेरा हिंदी-प्रेम कुछ ऐसा भी है, कि मैं शायद हिंदी पखवाड़े को एक त्यौहार की तरह प्रसन्नता से महसूस करता हूँ। 3 बजे सभागार हिंदी प्रेमियों से भर गया। वर्त्तमान हिंदी अधिकारी रेवा शर्मा के साथ प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल डॉ. हरीसिंह, श्री जे.एल गौतम व श्री शिव कुमार मिश्र मंच पर विराजमान हो गए और प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस प्रतियोगिता में रामनाथ गुप्ता, निशित कुमार, सत्यनारायण ठाकुर, एम आर. कालवे, संतोष अरोरा, प्रवीण कुमार, अशोक कुमार. डी एन ठाकुर, पूनम सिंह, अंजना मिन्हास, जिग्गा कॉल, अरविन्द सिंह व अश्विनी कुमार पालीवाल आदि ने भाग लिया। इनमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जो काव्य रचना के साथ गंभीरता से जुड़े हैं और किसी भी सृजनरत स्थापित कवि से कम नहीं माने जाते। सत्यनारायण ठाकुर, अंजना मिन्हास, पूनम सिंह, जिग्गा कॉल व अरविन्द सिंह अपनी सशक्त कविताओं के कारण विभाग के हिंदी प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं। चाहे अंजना मिन्हास की कविताओं में उभरता गांव का nostalgia हो, या नए दौर में शिद्दत से महसूस होता अपनी सभ्यता का ह्रास। चाहे सत्यनारायण ठाकुर द्वारा तरन्नुम में गाया प्रसिद्ध गीत 'सवेरे सवेरे' हो, या फिर जिग्गा कॉल की 'कश्मीर' पर सशक्त कविता। ये सब यहाँ की चर्चित कविताएँ हैं। इस बार लेकिन सब को चित्त कर गई पूनम सिंह. पूनम सिंह बहुत सुन्दर गीत ही नहीं लिखती, वरन् बहुत मधुर गायन कला में भी निपुण हैं। पिछले कई हिंदी दिवसों पर विभाग कर्मचारियों अधिकारीयों के बच्चों ने जो सांस्कृतिक कार्यक्रम व नृत्य प्रस्तुत किये, उन का निदेशन भी पूनम ने किया। इस बार उन्होंने हिंदी भाषा की अर्चना 'हे हिंदी तुम्हारा अभिनन्दन' को जब गाया तो निर्णायक मंडल व हिंदी अधिकारी समेत पूरा सभागार अभिभूत था:

मौसम कार्यालय परिसर में/नूतन खुशियाँ बरसा जाओ/हे हिंदी तुम्हारा अभिनन्दन/
इस दुनिया की भाषाओँ में/ हैनाम तुम्हारा ज्योतिर्मय/तुम सरस्वती का मंदिर हो/ज्ञान सुधा बरसा जाओ/हे हिंदी तुम्हारा अभिनन्दन/
ऋषियों की तुम कल्पना हो/ कवियों की तुम साधना हो...


पुराने दिनों का nostalgia और पुराने दिनों की हमारी जीवन-शैली की दर्द भरी याद शायद हर कवि की एक दुखती रग होती होगी. विज्ञान और मशीन से हमारी निश्छलता और अपनेपन का ह्रास सा हो गया है, ऐसा महसूस न करने वाला शायद ही कोई कवि हो। यहाँ मौसम विभाग की एक सशक्त कवयित्री अंजना मिन्हास ने बीते दिनों के खो जाने के दर्द को पढ़ कर आँखें नम कर दी:

न जाने गए वो दिन कहाँ/जो इतना ज़माने में बदलाव आया/तरक्की के नाम पर जमा हुआ डर/और अमीरी के नाम पर प्यार का अकाल छाया/ए.सी. की ठंडक ने दरवाज़े किये बंद/रिश्तों पर भी ऐसी सिटकनी लगा दी/ माँ भी आती है खटखटा के दरवाज़ा कमरे में/ पड़ोसियों की तो हमने सूरत भुलाई/ मशीन और पैसे ने ऐसा ज़ोर दिखाया/ satellite से संपर्क करा दिया सभी का/ पर धरती पर अपनों ने अपनों को भुलाया/ क्या पाने चले थे हम और क्या गँवा बैठे...

एक तरफ खोई हुई विरासत तो दूसरी तरफ प्यार भरा अपना घर. कवयित्री जिग्गा कॉल अपना बरसों पुराना घर भी बेचने को तैयार नहीं, क्योंकि:

वो जो घर था मेरा/ वो मकान नहीं घर था मेरा/ सुरमई शाम, सुनहरा था सवेरा मेरा/ हंसती थी जहाँ दूब, किरणों का था डेरा/ वो मकान नहीं घर था मेरा/
वो जो ड्योढ़ी थी हमारी/ रोका नहीं था उस ने किसी अजनबी को/ टोका नहीं था किसी हिन्दू या मुसलमाँ को/ खुली बांहों में प्रेम बांटता/ वो जो घर था मेरा/ वो मकान नहीं घर था मेरा...

मकान और घर के भेद को इतने संवेदनात्मक तरीके से अभिव्यक्त किया गया कि सुन कर प्रसिद्ध शायर इफ्तेखार 'आरिफ' का प्रसिद्ध शेर याद आ जाता है:

मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे,
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे


जहाँ मकान घर नहीं लगता, वहां मन विछिन्न सा है। और जहाँ कोई घर को मकान समझ कर खरीदने की कोशिश करता है, वहां यह चेतावनी, कि वो मकान नहीं, घर था मेरा...

कवि सत्यनारायण ठाकुर के लिए कवि होना उनकी शख्सियत का केवल एक आयाम है। उनकी शख्सियत का मुख्य परिचय है इस देश की प्राचीन, ऋषियों मुनियों द्वारा 'वरदान' स्वरुप दी गई भारत की सांस्कृतिक सम्पदा के प्रति सरोकार। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश के समय लॉर्ड मैकॉले द्वारा भारत में लाई गई आधुनिक अंग्रेज़ी शिक्षा पर प्रहार किया। वैसे इस बात पर मतभेद भी हो सकते हैं कि लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा से भारतीय समाज को फ़ायदा हुआ कि नुकसान। उस शिक्षा के आने पर तो भारत की नारी भी शिक्षित होने लगी। वर्ना तब तक भारत की नारी स्कूल तो क्या, किसी पुरुष से बात तक नहीं कर सकती। उस शिक्षा से नारी पुरुष समानता स्थापित हुई व नारी को अपने अधिकारों से परिचय मिला। पर सत्यनारायण ठाकुर का मानना है कि मैकॉले की शिक्षा से भारत की मूल संस्कृति का ह्रास हुआ। वे कहते हैं:

अंग्रेज़ों के अनुचर हो कर/ शिक्षित समाज इतराता है/ मैकॉले के मानस पुत्रों का/ अट्ठहास सुनाई देता है ...विश्व विजय के सपने दे कर/ भारत को प्रस्थान किया/ अंग्रेज़ों ने आ कर छल से/ सब कुछ अपना बदल दिया....

कवि अरविन्द सिंह ने फूल की वेदना को इस प्रकार प्रकट किया:

मैं फूल हूँ/ छीन लो मुझ से मेरी सुगंध/ क्यों कि तोड़ डालना चाहता हूँ/ मैं इस देह के सारे अनुबंध... तुम्हारी श्रद्धा के लिए/ मैं चढ़ता रहा/ तुम्हारी अभिव्यक्ति बन/ मैं टूटता रहा/ अपना ही घाव बन गया/ और दुनिया के लिए टूटना/ हमारा स्वाभाव बन गया...



काव्यपाठ करते शिव कुमार मिश्रा

सरकारी विभाग में जहाँ अंग्रेज़ी में काम करती फाईलें सरपट दौड़ती हैं और कंप्यूटर के keyboard पर चलती हुई अंगुलियाँ तेज़ी से कुछ टाइप करती रहती हैं, वहां यह स्वाभाविक है कि कई लोग हिंदी के प्रति अपने प्रेम को निश्छल शब्दों में एक निश्छल अभिव्यक्ति भी दें। ज़रूरी नहीं कि सब स्थापित कवि हों, पर हिंदी और अपनी संस्कृति व देश के प्रति इन का प्रेम इन की पंक्तियों से स्पष्ट छलकता है. कवि अश्विनी कुमार पालीवाल की कुछ पंक्तियाँ:

लोकतंत्र का रथ/ समता के पहियों पर चल सकता है/ राष्ट्र प्रेम ही इस का अच्छा संचालन कर सकता है/ किन्तु आज संसद के रथ में/ रिश्वत के घोड़े जुटे हुए हैं/ इसीलिए दो चार माफिया/ इस के रोड़े बने हुए हैं ...भोगो तुम सत्ता को/ पर सोचो कहीं दाग़ नहीं लग जाए/ अपने ही घर के चराग़ से/ आग नहीं लग जाए...

अपने देश पर गौरव महसूसती कवि अशोक कुमार की ये पंक्तियाँ

वेद पुराणों के धारक हम/ रामायण गीता हैं क्या कम/ भारत दर्शन उच्च कोटि का/ उपनिषदों में ज्ञान चोटी का/ ऋषि मुनि वैज्ञानिक सम थे/ करो ज़रा पहचान/ हाँ करो ज़रा पहचान/ ये अपना हिन्दुस्तान/ ये अपना हिन्दुस्तान...

मौसम विभाग में मौसम पर कविता न हो, यह कैसे हो सकता है. कवयित्री संतोष अरोड़ा:

चक्रवात बना समुद्र में/ बादल छाए घने घने/ ज़ोर ज़ोर से तेज़ हवाएं/ कानों में करें शनै शनै...

निर्णायक मंडल में से निर्णायक शिव कुमार मिश्र एक प्रतिभाशाली कवि हैं। पिछले कई हिंदी दिवसों पर उनकी व्यंग्य कविताएँ व गंभीर कविताएँ श्रोताओं को अभिभूत करती रही हैं। आज वे निर्णायक थे तो क्या, प्रतियोगिता समाप्त होते ही उन से भी कोई उत्कृष्ट कविता प्रस्तुत करने की गुज़ारिश की गई और सब की आशाओं के अनुरूप उन्होंने जो कविता पढ़ी, वह शायद आज की सशक्ततम कविता रही। कुछ पंक्तियाँ:

अतीत से सीख/ वर्त्तमान की चोट/ भविष्य की रूपरेखा/ न चाहते हुए बहुत कुछ लिखा/ कुछ अपनों में/ कुछ परायों में/ समझता हूँ/ समझाता हूँ/ वेदना के संग/ धीरज रख कर अब भी मैं गुनगुनाता हूँ/ मुस्कराता हूँ/ शायद इसलिए/ मैं कोई कविता बनाता हूँ ...
कैसे जियें/ किसके लिए जियें/ जियें और क्यों जियें/ जीने का अर्थ/ अर्थहीन हो गया है/ जिस के लिए जीता हूँ/ जीने नहीं देता/ जिस के लिए मरता हूँ/ मरने नहीं देता/ कौन सा बम चिथड़ों में बदल दे/ कब बहा ले जाएं उफनती नदियाँ/ कहीं किसी हादसे के चटखारे लेते चैनलों में/ मेरा नाम उछल न जाए/ सोचता हूँ/ समझता हूँ/ फिर भी भूल जाता हूँ/ शायद इसलिए/ मैं कोई कविता सुनाता हूँ...



काव्यपाठ करती अंजना

जब मैं शाम के झुटपुटे में सब के साथ बाहर निकला तो लगा था कि मैं इतनी देर किसी और ही दुनिया में था। आस पास की इमारतों में अक्षर बदलते कंप्यूटर स्क्रीनों की दुनिया के बीच, मैंने अपने भीतर भी एक स्क्रीन चमकता देखा, जिस में विभिन्न कवियों की काव्य पंक्तियाँ लहरा रही थी, इतरा रही थी...

मौसम विभाग के सभी हिंदी प्रेमियों को हिंदी पखवाड़ा मुबारक...

Thursday, September 10, 2009

डॉ चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' नहीं रहीं

जबलपुर, ८ सितंबर २००९, बुधवार
सनातन सलिल नर्मदा तीर पर स्थित महर्षि जाबाली, महर्षि महेश योगी और महर्षि रजनीश की तपस्थली संस्कारधानी जबलपुर में आज सूर्य नहीं उगा, चारों ओर घनघोर घटायें छाई हैं. आसमान से बरस रही जलधाराएँ थमने का नाम ही नहीं ले रहीं. जबलपुर ही नहीं पूरे मध्य प्रदेश में वर्षा की कमी के कारण अकाल की सम्भावना को देखते हुए लगातार ४८ घंटों से हो रही इस जलवृष्टि को हर आम और खास वरदान की तरह ले रहा है. यहाँ तक की २४ घंटों से अपने उड़नखटोले से उपचुनाव की सभाओं को संबोधित करने के लिए आसमान खुलने की राह देखते रहे और अंततः सड़क मार्ग से राज्य राजधानी जाने के लिए विवश मुख्यमंत्री और राष्ट्र राजधानी जाने के लिए रेल मार्ग से जाने के लिए विवश वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री भी इस वर्षा के लिए भगवन का आभार मान रहे हैं किन्तु कम ही लोगों को ज्ञात है कि भगवान ने देना-पावना बराबर कर लिया है. समकालिक साहित्य में सनातन मूल्यों की श्रेष्ठ प्रतिनिधि डॉ. चित्रा चतुर्वेदी 'कार्तिका' को अपने धाम ले जाकर प्रभुने इस क्षेत्र को भौगोलिक अकाल से मुक्त कर उसने साहित्यिक बौद्धिक अकाल से ग्रस्त कर दिया है.

ग्राम होरीपूरा, तहसील बाह, जिला आगरा उत्तर प्रदेश में २० सितम्बर १९३९ को जन्मी चित्राजी ने विधि और साहित्य के क्षेत्र में ख्यातिलब्ध पिता न्यायमूर्ति ब्रिजकिशोर चतुर्वेदी बार-एट-ला, से सनातन मूल्यों के प्रति प्रेम और साहित्यिक सृजन की विरासत पाकर उसे सतत तराशा-संवारा और अपने जीवन का पर्याय बनाया. उद्भट विधि-शास्त्री, निर्भीक न्यायाधीश, निष्पक्ष इतिहासकार, स्वतंत्र विचारक, श्रेष्ठ साहित्यिक समीक्षक, लेखक तथा व्यंगकार पिता की विरासत को आत्मसात कर चित्रा जी ने अपने सृजन संसार को समृद्ध किया.

ग्वालियर, इंदौर तथा जबलपुर में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त चित्रा जी ने इलाहांबाद विश्व विद्यालय से १९६२ में राजनीति शास्त्र में एम्.ए. तथा १९६७ में डी. फिल. उपाधियाँ प्राप्तकर शासकीय स्वशासी महाकौशल कला-वाणिज्य महाविद्यालय जबलपुर में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के रूप में कर्मठता और निपुणता के अभिनव मानदंड स्थापित किये.

चित्राजी का सृजन संसार विविधता, श्रेष्ठता तथा सनातनता से समृद्ध है.

द्रौपदी के जीवन चरित्र पर आधारित उनका बहु प्रशंसित उपन्यास 'महाभारती' १९८९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद्र पुरस्कार तथा १९९९३ में म.प्र. साहित्य परिषद् द्वारा विश्वनाथ सिंह पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

ययाति-पुत्री माधवी पर आधारित उपन्यास 'तनया' ने उन्हें यशस्वी किया. लोकप्रिय मराठी साप्ताहिक लोकप्रभा में इसे धारावाहिक रूप में निरंतर प्रकाशित किया गया.

श्री कृष्ण के जीवन एवं दर्शन पर आधारित वृहद् उपन्यास 'वैजयंती' ( २ खंड) पर उन्हें १९९९ में उ.प्र. हिंदी संस्थान द्वारा पुनः प्रेमचंद पुरस्कार से अलंकृत किया गया.

उनकी महत्त्वपूर्ण काव्य कृतियों में प्रथा पर्व (महाकाव्य), अम्बा नहीं मैं भीष्म (खंडकाव्य), तथा वैदेही के राम खंडकाव्य) महत्वपूर्ण है.

स्वभाव से गुरु गम्भीर चित्रा जी के व्यक्तित्व का सामान्यतः अपरिचित पक्ष उनके व्यंग संग्रह अटपटे बैन में उद्घाटित तथा प्रशंसित हुआ.

उनका अंतिम उपन्यास 'न्यायाधीश' शीघ्र प्रकाश्य है किन्तु समय का न्यायाधीश उन्हें अपने साथ ले जा चुका है.

उनके खंडकाव्य 'वैदेही के राम' पर कालजयी साहित्यकार डॉ. विद्यानिवास मिश्र का मत- ''डॉ चित्रा चतुर्वेदी ने जीवन का एक ही संकल्प लिया है कि श्री राम और श्री कृष्ण की गाथा को अपनी सलोनी भाषा में अनेक विधाओं में रचती रहेंगी. प्रस्तुत रचना वैदेही के राम उसी की एक कड़ी है. सीता की करूँ गाथा वाल्मीकि से लेकर अनेक संस्कृत कवियों (कालिदास, भवभूति) और अनेक आधुनिक भारतीय भाषाओँ के कवियों ने बड़ी मार्मिकता के साथ उकेरी है. जैस अकी चित्रा जी ने अपनी भूमिका में कहा है, राम की व्यथा वाल्मीकि ने संकेत में तो दी, भवभूति ने अधिक विस्तार में दी पर आधुनिक कवियों ने उस पर विशेष ध्यान नहीं दिया, बहुत कम ने सोचा कि सीता के निर्वासन से अधिक राम का ही निर्वासन है, अपनी निजता से. सीता-निर्वासन के बाद से राम केवल राजा रह जाते हैं, राम नहीं रह जाते. यह उन्हें निरंतर सालता है. लोग यह भी नहीं सोचते कि सीता के साथ अन्याय करना, सीता को युगों-युगों तक निष्पाप प्रमाणित करना था.''

चित्रा जी के शब्दों में- ''आज का आलोचक मन पूछता है कि राम ने स्वयं सिंहासन क्यों नहीं त्याग दिया बजे सीता को त्यागने के? वे स्वयं सिंहासन प् र्बैठे राज-भोग क्यों करते रहे?इस मत के पीछे कुछ अपरिपक्वता और कुछ श्रेष्ठ राजनैतिक परम्पराओं एवं संवैधानिक अभिसमयों का अज्ञान भी है. रजा या शासक का पद और उससे जुड़े दायित्वों को न केवल प्राचीन भारत बल्कि आधुनिक इंग्लॅण्ड व अन्य देशों में भी दैवीय और महान माना गया है. रजा के प्रजा के प्रति पवित्र दायित्व हैं जिनसे वह मुकर नहीं सकता. अयोग्य राजा को समाज के हित में हटाया जा सकता था किन्तु स्वेच्छा से रजा पद-त्याग नहीं कर सकता था....कोइ भी पद अधिकारों के लिया नहीं कर्तव्यों के लिए होता है....''

चित्रा जी के मौलिक और तथ्यपरक चिंतन कि झलक उक्त अंश से मिलती है.
'महाभारती में चित्रा जी ने प्रौढ़ दृष्टि और सारगर्भित भाषा बंध से आम पाठकों ही नहीं दिग्गज लेखकों से भी सराहना पाई. मांसलतावाद के जनक डॉ . रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के अनुसार- ''पारंपरिक मान्यताओं का पालन करते हुए भी लेखिका ने द्रौपदी कि आलोकमयी छवि को जिस समग्रता से उभरा है वह औपन्यासिकता की कसौटी पर निर्दोष उतरता है. डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' के मत में- ''द्रौपदी के रूप में उत्सर्ग्शीला नारी के वर्चस्व को अत्यंत उदात्त रूप में उभरने का यह लाघव प्रयत्न सराहनीय है.''

श्री नरेश मेहता को ''काफी समय से हिंदी में ऐसी और इतनी तुष्टि देनेवाली रचना नजर नहीं आयी.'' उनको तो ''पढ़ते समय ऐसा लगता रहा कि द्रौपदी को पढ़ा जरूर था पर शायद देखना आज हुआ है.''

आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अनुसार- ''द्रौपदी को महाभारती कहना अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है.''

स्वयं चित्रा जी के अनुसार- ''यह कहानी न्याय पाने हेतु भटकती हुई गुहार की कहानी है. आज भी न्याय हेतु वह गुहार रह-रहकर कानों में गूँज रही है. नारी की पीडा शाश्वत है. नारी की व्यथा अनंत है. आज भी कितनी ही निर्दोष कन्यायें उत्पीडन सह रही हैं अथवा न सह पाने की स्थिति में आत्मघात कर रही हैं.

द्रुपदनन्दिनी भी टूट सकती थी, झंझाओं में दबकर कुचली जा सकती थी. महाभारत व रामायण काल में कितनी ही कन्याओं ने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया. कितनी ही कन्याओं ने धर्म के नाम पर अपमान व कष्ट का हलाहल पान कर लिया. क्या हुआ था अंबा और अंबालिका के साथ? किस विवशता में आत्मघात किया था अंबा ने? क्या बीती थी ययाति की पुत्री माधवी पर? अनजाने में अंधत्व को ब्याह दी जाने वाली गांधारी ने क्यों सदा के लिए आँखें बंद कर ली थीं? और क्यों भूमि में समां गयीं जनकनन्दिनी अपमान से तिलमिलाकर? द्रौपदी भी इसी प्रकार निराश हो टूट सकती थी.

किन्तु अद्भुत था द्रुपदसुता का आत्मबल. जितना उस पर अत्याचार हुआ, उतनी ही वह भभक-भभककर ज्वाला बनती गयी. जितनी बार उसे कुचला गया, उतनी ही बार वह क्रुद्ध सर्पिणी सी फुफकार-फुफकार उठी. वह याज्ञसेनी थी. यज्ञकुंड से जन्म हुआ था उसका. अन्याय के प्रतिकार हेतु सहस्त्रों जिव्हाओंवाली अक्षत ज्वाला सी वह अंत तक लपलपाती रही.

नीलकंठ महादेव ने हलाहल पान किया किन्तु उसे सावधानी से कंठ में ही रख लिया था. कंठ विष के प्रभाव से नीला हो गया और वे स्वयं नीलकंठ किन्तु आजीवन अन्याय, अपमान तथा पीडा का हलाहल पी-पीकर ही दृपद्न्न्दिनी का वर्ण जैसे कृष्णवर्ण हो गया था. वह कृष्ण हो चली, किन्तु झुकी नहीं....''

चित्रा जी का वैशिष्ट्य पात्र की मनःस्थिति के अनुकूल शब्दावली, घटनाओं की विश्वसनीयता बनाये रखते हुए सम-सामयिक विश्लेषण, तार्किक-बौद्धिक मन को स्वीकार्य तर्क व मीमांसा, मौलिक चिंतन तथा युगबोध का समन्वय कर पाना है.
वे अत्यंत सरल स्वभाव की मृदुभाषी, संकोची, सहज, शालीन तथा गरिमामयी महिला थीं. सदा श्वेत वस्त्रों से सज्जित उनका आभामय मुखमंडल अंजन व्यक्ति के मन में भी उनके प्रति श्रृद्धा की भाव तरंग उत्पन्न कर देता था. फलतः, उनके कोमल चरणों में प्रणाम करने के लिए मन बाध्य हो जाता था.

मुझे उनका निष्कपट सान्निध्य मिला यह मेरा सौभाग्य है. मेरी धर्मपत्नी डॉ. साधना वर्मा और चित्रा जी क्रमशः अर्थशास्त्र और राजनीतिशास्त्र में एक ही महाविद्यालय में पदस्थ थीं. चित्रा जी साधना से भागिनिवत संबंध मानकर मुझे सम्मान देती रहीं. जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं ईंट-पत्थर जुडवाने के साथ शब्द-सिपाही भी हूँ तो उनकी स्नेह-सलिला मुझे आप्लावित करने लगी. एक-दो बार की भेंट में संकोच के समाप्त होते ही चित्रा जी का साहित्यकार विविध विषयों खासकर लेखनाधीन कृतियों के कथानकों और पात्रों की पृष्ठभूमि और विकास के बारे में मुझसे गहन चर्चा करने लगा. जब उन्हें किसी से मेरी ''दोहा गाथा'' लेख माला की जानकारी मिली तो उनहोंने बिना किसी संकोच के उसकी पाण्डुलिपि चाही. वे स्वयं विदुषी तथा मुझसे बहुत अधिक जानकारी रखती थीं किन्तु मुझे प्रोत्साहित करने, कोई त्रुटि हो रही हो तो उसे सुधारने तथा प्रशंसाकर आगे बढ़ने के लिए आशीषित करने के लिए उन्होंने बार-बार माँगकर मेरी रचनाएँ और लंबे-लंबे आलेख बहुधा पढ़े.
'दिव्या नर्मदा' पत्रिका प्रकाशन की योजना बताते ही वे संरक्षक बन गयीं. उनके अध्ययन कक्ष में सिरहाने-पैताने हर ओर श्रीकृष्ण के विग्रह थे. एक बार मेरे मुँह से निकल गया- ''आप और बुआ जी (महीयसी महादेवी जी) में बहुत समानता है, वे भी गौरवर्णा आप भी, वे भी श्वेतवसना आप भी, वे भी मिष्टभाषिणी आप भी, उनके भी सिरहाने श्री कृष्ण आपके भी.'' वे संकुचाते हुए तत्क्षण बोलीं 'वे महीयसी थीं मैं तो उनके चरणों की धूल भी नहीं हूँ.'

चित्रा जी को मैं हमेशा दीदी का संबोधन देता पर वे 'सलिल जी' ही कहती थीं. प्रारंभ में उनके साहित्यिक अवदान से अपरिचित मैं उन्हें नमन करता रहा और वे सहज भाव से सम्मान देती रहीं. उनके सृजन पक्ष का परिचय पाकर मैं उनके चरण स्पर्श करता तो कहतीं ' क्यों पाप में डालते हैं, साधना मेरी कभी बहन है.' मैं कहता- 'कलम के नाते तो कहा आप मेरी अग्रजा हैं इसलिए चरणस्पर्श मेरा अधिकार है.' वे मेरा मन और मान दोनों रख लेतीं. बुआ जी और दीदी में एक और समानता मैंने देखी वह यह कि दोनों ही बहुत स्नेह से खिलातीं थीं, दोनों के हाथ से जो भी खाने को मिले उसमें अमृत की तरह स्वाद होता था...इतनी तृप्ति मिलती कि शब्द बता नहीं सकते. कभी भूखा गया तो स्वल्प खाकर भी पेट भरने की अनुभूति हुई, कभी भरे पेट भी बहुत सा खाना पड़ा तो पता ही नहीं चला कहाँ गया. कभी एक तश्तरी नाश्ता कई को तृप्त कर देता तो कभी कई तश्तरियाँ एक के उदार में समां जातीं. शायद उनमें अन्नपूर्णा का अंश था जो उनके हाथ से मिली हर सामग्री प्रसाद की तरह लगती.

वे बहुत कृपण थीं अपनी रचनाएँ सुनाने में. सामान्यतः साहित्यकार खासकर कवि सुनने में कम सुनाने में अधिक रूचि रखते हैं किन्तु दीदी सर्वथा विपरीत थीं. वे सुनतीं अधिक, सुनातीं बहुत कम.

अपने पिताश्री तथा अग्रज के बारे में वे बहुधा बहुत उत्साह से चर्चा करतीं. अपनी मातुश्री से लोकजीवन, लोक साहित्य तथा लोक परम्पराओं की समझ तथा लगाव दीदी ने पाया था.

वे भाषिक शुद्धता, ऐतिहासिक प्रमाणिकता तथा सम-सामयिक युगबोध के प्रति सजग थीं. उनकी रचनाओं का बौद्धिक पक्ष प्रबल होना स्वाभाविक है कि वे प्राध्यापक थीं किन्तु उनमें भाव पक्ष भी सामान रूप से प्रबल है. वे पात्रों का चित्रण मात्र नहीं करती थीं अपितु पात्रों में रम जाती थीं, पात्रों को जीती थीं. इसलिए उनकी हर कृति जादुई सम्मोहन से पाठक को बाँध लेती है.

उनके असमय बिदाई हिंदी साहित्य की अपूरणीय क्षति है. शारदापुत्री का शारदालोक प्रस्थान हिंदी जगत को स्तब्ध कर गया. कौन जानता था कि ८ सितंबर को न उगनेवाला सूरज हिंदी साहित्य जगत के आलोक के अस्त होने को इंगित कर रहा है. कौन जानता था कि नील गगन से लगातार हो रही जलवृष्टि साहित्यप्रेमियों के नयनों से होनेवाली अश्रु वर्षा का संकेत है. होनी तो हो गयी पर मन में अब भी कसक है कि काश यह न होती...

चित्रा दीदी हैं और हमेशा रहेंगी... अपने पात्रों में, अपनी कृतियों में...नहीं है तो उनकी काया और वाणी... उनकी स्मृति का पाथेय सृजन अभियान को प्रेरणा देता रहेगा. उनकी पुण्य स्मृति को अशेष-अनंत प्रणाम.

प्रस्तुति- संजीव वर्मा 'सलिल'

Tuesday, September 8, 2009

"जिस लाहौर नहीं वेख्या…. राजनीतिक नाटक नहीं है” – असग़र वजाहत



लंदन।
"जिस लाहौर नहीं वेख्या…. नाटक…. राजनीतिक नाटक नहीं है। हां यह संभव है कि विभाजन की पृष्ठभूमि होने के कारण राजनीति की अण्डरटोन सुनाई दे जाती हों। किन्तु कहीं भी राजनीति इस नाटक का मुख्य स्वर नहीं है।" यह कहना था हिन्दी के प्रख्यात नाटक लेखक डा. असग़र वजाहत का जब वे कथा यू.के. एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स द्वारा आयोजित नाटक की बीसवीं वर्षगांठ पर लंदन के नेहरू केन्द्र में आयोजित एक समारोह में बोल रहे थे।

डा. वजाहत ने आगे कहा कि “यह नाटक दिखाता है कि आम आदमी, जिसका प्रतिनिधित्व नासिर काज़मी, मौलवी साहब या मिर्ज़ा साहब करते हैं, ठीक ठाक और अच्छा भला है। समस्या है राजनीतिज्ञों की या फिर उस तबके की जो कि साम्प्रदायिक्ता को अपना मज़हब मानती है। बुरे लोग कम हैं मगर शक्तिशाली हैं।“ इस नाटक का आयोजन अमरीका, आस्ट्रेलिया और भारत के बहुत से शहरों में किया जा रहा है।

मुख्य अतिथि श्री विरेन्द्र शर्मा (एम.पी.) ने कथा यू.के. एवं एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स को धन्यवाद दिया कि उन जैसे राजनीतिज्ञ को इतने महत्वपूर्ण साहित्यिक कार्यक्रम में शामिल होने का मौक़ा दिया। उन्होंने असग़र वजाहत को बधाई देते हुए कहा कि यह नाटक भाईचारे, आपसी प्यार, धार्मिक सहनशीलता का संदेश देता है। आम आदमी सांप्रदायिक नहीं होता। छोटे क्षेत्रों में आज भी हिन्दू मुस्लिम मिलजुल कर रहते हैं। हिन्दू वो नहीं जो मस्जिद तोड़े और न ही वो मुसलमान है जो मंदिर तोड़े। विरेन्द्र शर्मा ने नाटक के वीडियो क्लिप एवं पाठ की बहुत सराहना की।

नाटक के इतिहास को समेटने वाली पुस्तक - २ डिकेड्स ऑफ़ ए प्ले (वाणी प्रकाशान) का लोकार्पण करते हुए काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी ने कहा, "असग़र वजाहत ने जिस लाहौर नहीं वेख्या .... को सिर्फ़ मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं रखा है, बल्कि दोनों समुदायों की सोच को समझने का प्रयास किया है। नाटक हमें यह बताता है की दोनों समुदायों के बीच ऐसा क्या हुआ जिस से सास्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास, भाईचारा सब ख़तम हो गए थे। लेखक ने यह दिखाया है की समाज विरोधी तत्व किस तरह से मज़हब का फायदा उठाते हैं। पात्रों का चित्रण तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृति की मानवीय स्तर पर तुलना बहुत संवेदनशील है।"


बाएं से (बैठे हुए) – अचला शर्मा, असग़र वजाहत, विरेन्द्र शर्मा, ज़कीया ज़ुबैरी, रवि शर्मा। खड़े हुएः अजित राय, के.सी. मोहन, शमील चौहान, बदी-उ-ज़मां, तेजेन्द्र शर्मा। चित्रः दीप्ति कुमार।

कथा यू.के. के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा ने अतिथियों का स्वागत करते हुए इसे मंच के लिये त्रासदी बताया कि मूल हिन्दी नाटकों की हमेशा से कमी महसूस की गई है। ऐसे में किसी हिन्दी नाटक के बीस वर्षों में भिन्न भारतीय भाषाओं में बारह सौ से भी अधिक शो होना नाटक की महानता का जीता जागता सबूत है। असग़र वजाहत ने इस नाटक में केवल विभाजन की त्रासदी का चित्रण ही नहीं किया है। उन्होंने इस समस्या को आर्थिक, सामाजिक एवं साम्प्रदायिकता के स्तर पर प्रस्तुत किया है। एक लेखक के तौर पर जिस लाहौर नहीं वेख्या... असग़र वजाहत के साहित्यि की सर्वोच्च उपलब्धि है। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति का अद्भुत नमूना।

नाटक पर गंभीर चर्चा करते हुए प्रोफ़ेसर मुग़ल अमीन ने कहा, “जिस लाहौर नहीं वेख्या.... की सादग़ी के पीछे यह सबक़ छिपा हुआ है कि सरवाइवल की जिस जंग में इन्सान पैदा होता है, उसका तकाज़ा है कि ख़ुद ज़िन्दा रहने के लिये ज़रूरी है कि दूसरों को ज़िन्दा रखा जाए। ये सबक़ मेरा भी और तेरा भी।"

अचला शर्मा ने नाटक के एक दृश्य को श्रोताओं के सामने प्रस्तुत किया। नाटक के इस ड्रामाई पाठ में रवि शर्मा (पहलवान), बदी-उ-ज़मां (अलीम) एवं तेजेन्द्र शर्मा (नासिर काज़मी) ने भाग लिया। अचला शर्मा का कहना था, "किसी रचना या किसी पुस्तक का सही मूल्यांकन शायद दस-बीस बरस बाद ही किया जा सकता है क्योंकि कालजयी रचना की पहचान समय, संदर्भ और परिस्थियाँ बदल जाने के बाद ही होती है। असग़र वजाहत का नाटक- जिस लाहौर नइ देख्या- की प्रासिंकगता मेरी नज़र में, मज़हब को लेकर फैली भ्रांतियों और आम आदमी के मन में व्याप्त विभ्रम पर वह बहस है जो आज भी उतनी ही अहम है जितनी विभाजन के समय या बीस वर्ष पहले रही। बहस आज भी जारी है, भले ही संदर्भ, परिदृश्य और पात्र बदल गए हैं।"

शमील चौहान ने अपनी गहरी आवाज़ में नाटक में इस्तेमाल की गई नासिर काज़मी की एक ग़ज़ल गा कर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। पत्रकार अजित राय ने कार्यक्रम के दौरान असग़र वजाहत से बातचीत की।

कार्यक्रम में अन्य लोगों के अतिरिक्त भारत से मनोज श्रीवास्तव (कवि - भोपाल), प्रीता वाजपेयी (कवियत्री - लखनऊ), आनन्द कुमार (हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी), आई.एस. चुनारा, ललित मोहन जोशी, विजय राणा, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, के.सी. मोहन (पंजाबी), के.बी.एल. सक्सेना, महेन्द्र दवेसर, कादम्बरी मेहरा, डा. हबीब ज़ुबैरी, मंजी पटेल वेखारिया, उर्मिला भारद्वाज, अनुज अग्रवाल (प्रकाशक) आदि मौजूद थे।

प्रस्तुति : दीप्ति कुमार

Monday, September 7, 2009

श्रीभगवान सिंह एवं कृष्ण मोहन को प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान

प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान, छत्तीसगढ़ का दो दिवसीय आयोजन



रायपुर। महानगरों में रहने वाले ज्ञात और प्रसिद्ध आलोचकों की जगह छोटे कस्बों के योग्य आलोचकों को प्रथम प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान दिया जाना बौद्धिक रूप से बहुकेन्द्रीयता की ओर लौटने की प्रवृत्ति है जो साहित्य का शुभ संकेत है । वास्तव में यह दिल्ली दर्प दमन है। यह इस प्रवृत्ति को ख़ारिज़ करता है कि सफल होने के लिए महानगरों का निवासी होना ज़रूरी है। उक्त विचार हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक, कवि श्री अशोक वाजपेयी ने 10 एवं 11 जुलाई 2009 को आयोजित दो दिवसीय आलोचना संगोष्ठी एवं प्रथम प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान समारोह के दौरान व्यक्त किए।

संस्थान की ओर से प्रत्येक वर्ष प्रमोद वर्मा की स्मृति में दिये जाने वाले राष्ट्रीय आलोचना सम्मान का शुभारंभ करते हुए वर्ष 2009 के लिए भागलपुर के आलोचक श्री भगवान सिंह तथा वाराणसी के श्री कृष्ण मोहन को सम्मानित किया गया। उक्त सम्मान में पुरस्कृत आलोचक द्वय को क्रमशः 21 हज़ार एवं 11 हज़ार रूपये देने के साथ ही प्रमोद वर्मा समग्र, प्रशस्ति पत्र एवं प्रतीक चिह्न, शॉल एवं श्रीफल भेंट कर अलंकृत किया गया। उक्त सम्मान के निर्णायकों में थे श्री केदारनाथ सिंह, डॉ. धनंजय वर्मा, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, श्री विश्वरंजन एवं संयोजक जयप्रकाश मानस।

पुरस्कारों की विश्वसनीयता फिर स्थापित – श्रीभगवान सिंह

सम्मानित आलोचक श्री भगवान सिंह ने कहा कि उन्होंने कभी पुरस्कार प्राप्त करने के लिए नहीं लिखा था और न ही वे पुरस्कारों में विश्वास रखते हैं, लेकिन वे छत्तीसगढ़ के आभारी हैं कि यहाँ पर उनके द्वारा जिस विचार को लेकर लिखा जा रहा है उसे पुरस्कार दिया गया । पुरस्कार की विश्वसनीयता एक बार फिर स्थापित हुई। दिल्ली दर्प दमन जिसकी आवश्यकता संगोष्ठी में अशोक वाजपेयी द्वारा जताई गई, वह रायपुर में हुआ है।

दो दिवसीय आलोचना संगोष्ठी का उद्घाटन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री रमन सिंह ने किया। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में कहा कि सुप्रसिद्ध कवि, नाट्य लेखक, शिक्षाविद् और साहित्य समीक्षक स्वर्गीय डॉ. प्रमोद वर्मा की महत्वपूर्ण रचनाओं के संकलन प्रमोद वर्मा साहित्य समग्र जो कि राजकमल प्रकाशन से चार खण्डों में प्रकाशित हुआ है के विमोचन एवं तीन सत्रों में आलोचना पर विचार-विमर्श करने के साथ ही छत्तीसगढ़ का नाम एक बार पुन: साहित्य के आकाश पर छा गया है। देश के कई राज्यों के मूर्धन्य साहित्यकारों के बीच सिर्फ़ गजानंद माधव मुक्तिबोध और पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ही नहीं, बल्कि साहित्य मनीषी स्वर्गीय राहुल सांकृत्यायन की कालजयी किताबों के साथ प्रमोद वर्मा की आलोचना दृष्टि को भी याद किया जायेगा।

साहित्य रसिक मुख्यमंत्री ने समारोह का शुभारंभ करते हुए कहा कि कालजयी कवियों और साहित्यकारों के रूप में सूर्य और चंद्रमा पैदा करने की ताक़त केवल हिन्दुस्तान की माटी में ही है, जिसने सूरदास जैसे साहित्य के सूर्य और तुलसीदास जैसे चंद्रमा को जन्म दिया। छत्तीसगढ़ सहित देश के कुछ राज्यों में व्याप्त नक्सल हिंसा और आतंक की तीखी आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि व्यक्ति और समाज की आज़ादी का हनन करनेवाले किसी भी हिंसक विचार के लिए साहित्य में कोई स्थान नहीं होना चाहिए। उन्होंने इस अवसर पर प्रमोद वर्मा की महत्वपूर्ण रचनाओं के संकलन साहित्य समग्र तथा समारोह की स्मारिका का विमोचन करते हुए उनकी साहित्यिक जीवन यात्रा और रचनाओं पर केन्द्रित व संस्थान के कार्यकारी निदेशक श्री जयप्रकाश मानस द्वारा निर्मित (www.pramodverma.com) नामक पोर्टल का उद्घाटन भी किया। माओवादी हिंसक गतिविधियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि किसी भी वाद अथवा विचार को मनुष्य की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन का अधिकार नहीं हैं। उन्होंने कहा कि प्रमोद वर्मा जैसे वरिष्ठ दिवंगत साहित्यकार को श्रद्धांजलि देने का इससे अच्छा माध्यम और कुछ नहीं हो सकता। कार्यक्रम में पर्यटन और संस्कृति मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल, आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति विकास मंत्री श्री केदार कश्यप और पूर्व मंत्री श्री सत्यनारायण शर्मा के सहित छत्तीसगढ़ और देश के विभिन्न राज्यों के अनेक साहित्यकार और स्थानीय प्रबुद्ध नागरिक उपस्थित थे।

समारोह तीन सत्रों में विभाजित था। प्रथम सत्र “समकालीन आलोचना का हाव भाव” में अध्यक्षीय दीर्घा से बोलते हुए श्री नदंकिशोर आचार्य ने कहा कि रचना को समग्रता में देखना आलोचना है, लेकिन हिन्दी काव्य में साहित्य चिंतन की रूचि समाप्त हो गई है। उन्होंने कहा कि आलोचना आत्महीनता की शिकार हो गई है। शिव कुमार मिश्र ने कहा कि विदेशियों को उद्धृत करना बुरा नहीं है, उन्होंने मेहनत की है और हिन्दी के लोगों को भी वैश्विक सापेक्ष में साहित्य को देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि हिन्दी आलोचना का कोई चरित्र नहीं है। डॉ. श्यामसुंदर दुबे ने कहा कि आलोचना में न्यायिक और सम-सामयिक संतुलन नहीं है। ये कबीर से लेकर नागार्जुन तक को एक खाने में रखते हैं। आलोचनात्मक हाव-भाव में या तो प्रशंसा कर रहे होते हैं या फिर विरोध। उक्त सत्र में संवाद में हिस्सा लेते हुए डॉ. कल्याणी वर्मा, डॉ. वंदना केंगरानी, डॉ. उर्मिला शुक्ल, डॉ. श्री सुशील त्रिवेदी और श्री गिरीश पंकज ने अपने विचार रखे।

दूसरा सत्र आलोचना का प्रजातंत्र विषय पर केन्द्रित था जिसमें अध्यक्षीय आसंदी से बोलते हुए श्री खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने आलोचना को यथार्थ की धरती पर खड़ा किया। उन्होंने कहा कि आजकल आलोचना में असहिष्णुता का भाव बढ़ गया है। डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय ने कहा कि प्रजातंत्र का अर्थ वरण की स्वतंत्रता से है। आलोचक को विषय चुनने तथा उस पर दृष्टिकोण रखने की आशावादी होनी चाहिए। वरिष्ठ कवि श्री चंद्रकांत देवताले ने बहुत ही विचारोत्तेजक वक्तव्य देते हुए कहा कि रचनाकारों को ज़्यादा आलोचकों की चिंता नहीं करनी चाहिए। हमारा साहित्य समीक्षक का मोहताज़ नहीं है। उन्होंने कहा कि हमारी विचारधारा को कोई चुनौती नहीं दे सकता। कवि का कोई देश नहीं होता उसी तरह विचारधारा का कोई देश नहीं होता, भूख का कोई देश नहीं होता। उन्होंने ज़ोर देकर इस बात की ओर इशारा किया कि रचना की विचारधारा, आलोचक की विचारधारा की जो बातें की जाती हैं, वह मिथ्या धंधा है `अकादमिक´ धंधा है। मुक्तिबोध को याद करते हुए उन्होंने कहा कि आज आलोचक और रचनाकार को अपनी पॉलिटिक्स साफ़ करनी चाहिए। हमें अपनी जातीय, देशज संस्कृति की रक्षा करते हुए वैश्विक होना है। उक्त सत्र में संवाद में भाग लेते हुए श्री एकांत श्रीवास्तव, सुश्री रंजना अरगड़े, सुश्री मुक्ता सिंह, श्री कृष्ण मोहन, श्री अरूण शीतांश और श्री बसंत त्रिपाठी ने भी अपने विचार रखे।

तृतीय सत्र “आलोचना के परिसर में प्रमोद वर्मा” पर केन्द्रित था। सत्र अध्यक्ष श्री अशोक वाजपेयी ने कहा कि एक आलोचक अपने दूसरे मित्र रचनाकारों के निर्माण में सहचर की भूमिका निबाह सकता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण प्रमोद वर्मा थे। वर्मा ने अपनी आलोचनाओं से गजानंद माधव मुक्तिबोध तथा हरिशंकर परसाई के लेखन को प्रोत्साहित किया है और उनके विकास में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। अध्यक्ष मंडल की आसंदी से श्री कमला प्रसाद ने बोलते हुए कहा कि आलोचना के क्षेत्र में श्री प्रमोद वर्मा का अपना स्थान है। वे लेखक की स्वतंत्रता के हिमायती थे। उन्होंने कहा कि प्रमोद वर्मा समाजवाद में लोकतंत्र चाहते थे। श्री रमाकांत श्रीवास्तव ने कहा कि प्रमोद वर्मा किसी विचारधारा के प्रति कट्टर नहीं हुए, क्योंकि विचारधारा की कट्टरता अहितकर होती है। उन्होंने कहा कि जब मार्क्सवाद कट्टर होता है तो नक्सलवाद और जब इस्लाम कट्टर होता है तो तालिबान के रूप में सामने आता है। श्री देवेन्द्र दीपक ने कहा कि मुक्तिबोध के शब्दों में जो है उससे बेहतर चाहिए दुनिया के लिए एक मेहत्तर चाहिए कुछ इन्हीं पंक्तियों को ध्येय बनाकर श्री प्रमोद वर्मा जीवन भर समाज की गंदगी दूर करने का प्रयास अपने लेखन से करते रहे। संवाद सत्र में श्री प्रभात त्रिपाठी, डॉ.बलदेव, श्री रवि श्रीवास्तव, श्री विनोद साव, श्री नंद किशोर तिवारी, डॉ. बृजबाला सिंह, आदि ने भी अपने विचार रखे।


कल़मकारों की ताक़त असीम - राज्यपाल

अलंकरण समारोह में छत्तीसगढ़ के राज्यपाल श्री ई.एस.एल. नरसिम्हन ने कहा कि कलम की ताक़त असीमित होती है। कलाकारों, साहित्यकारों को अपनी इस ताक़त का इस्तेमाल सकारात्मक कार्यों में करना चाहिए। उन्होंने कहा कि साहित्य की ताक़त से समाज व उसका परिवेश बदला जा सकता है। साहित्यकार वर्तमान समाज को अपने नवीनतम विचारों से अवगत कराकर युवा वर्ग को दिशा प्रदान करें। साहित्य केवल पठन-पाठन तक सीमित नहीं होना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज के परिवेश में सशक्त एवं मार्गदर्शी साहित्य की सख़्त ज़रूरत है, जिसके प्रकाश में भावी पीढ़ी अपनी परंपरा, संस्कृति, नैतिक मूल्यों से भली-भांति परिचित हो सके और उन्हें सही राह मिल सके। श्री नरसिम्हन ने कहा कि विकास को केवल भौतिक अर्थों में नहीं बल्कि मानसिक विकास के साथ आंका जाना चाहिए और इसीलिए हमारे मनीषियों ने सांस्कृतिक प्रोत्साहन को विशेष बल दिया है। उन्होंने साहित्यकारों का आह्वान करते हुए कहा कि वे अपनी सशक्त लेखनी से आने वाले समय की चुनौतियों का सामना इसी तरह प्रतिबद्ध होकर करते रहें। राज्यपाल ने कहा कि साहित्यकार एवं सुरक्षा बल के अधिकारियों के साथ यह एक तरह का अनोखा तालमेल है और सुरक्षा कर्मचारियों का दायित्व भी समाज के हित में ही काम करना है। उन्होंने संस्थान के अध्यक्ष विश्वरंजन को खासतौर पर बधाई दी और कहा कि उनका यह साहित्यिक कार्य समाज के सामने संदेश प्रस्तुत करता है कि पुलिस संस्थान समाज के हित में काम करने वाला एक महान् और सृजनात्मक बल है तथा इसी मार्गदर्शन को सुरक्षा बल के अधिकारियों को अपनाना चाहिए। उन्होंने आलोचक द्वय को प्रथम प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान से अलंकृत भी किया।

अशोक बाजपेयी ने कहा उन्हें छत्तीसगढ़ी होने का गर्व है और यह अच्छी बात है कि छत्तीसगढ़ ने हिन्दी साहित्य आलोचना के सम्मान का मान रखा है। वर्तमान पीढ़ी को साहित्य के प्राप्त अपने उत्तराधिकार के लिए सजग करने का दायित्व साहित्यकारों का है। उन्होंने कहा कि आलोचना केवल बौद्धिक ज़िम्मेदारी है। साहित्यकार की आलोचना से कोई सहमत हो या नहीं उसे हर हालत में अपनी बात रखने से पीछे नहीं हटना चाहिए। यह भी कहा कि साहित्य ही एक रणभूमि, रंगभूमि या रंगमंच है, जहाँ अभी तक मूल्य की राजनीति एवं लोकतंत्र बचा है। उन्होंने कहा कि आलोचना वह नैतिक कार्य है जो सत्य का यथार्थ चित्रण करती है।

संस्था के अध्यक्ष श्री विश्वरंजन ने संस्थान की आगामी कार्य योजनाओं के बारे में संक्षिप्त जानकारी देते हुए कहा कि संस्थान द्वारा भविष्य में महिला, आदिवासी, और दलित समाज के लेखकों के लिए विशेष तौर पर राष्ट्रीय लेखन शिविरों का आयोजन सहित राजधानी में हिन्दी भवन निर्माण का कार्य भी किया जायेगा।

नाट्य मंचन एवं राष्ट्रीय कविता पाठ

कार्यक्रम के पहले दिन श्री प्रमोद वर्मा की कविताओं पर आधारित कविताओं का नाट्य मंचन श्री कुंज बिहारी शर्मा के निर्देशन में प्रसिद्ध नाट्य संस्था “रूपक” द्वारा किया गया। इस अवसर पर काव्य गोष्ठी का आयोजन भी किया गया, जिसमें देश के नामी-गिरामी कवियों यथा-श्री नंदकिशोर आचार्य,श्री चंद्रकांत देवताले, श्री विनोद कुमार शुक्ल, श्री प्रभात त्रिपाठी, श्री एकांत श्रीवास्तव, श्री विश्वरंजन, डॉ. वंदना केंगरानी, श्री अशोक सिंघई, श्री शरद कोकास, श्री कमलेश्वर साहू, श्री अरूण शीतांश, डॉ. बलदेव एवं श्रीमती पुष्पा तिवारी ने अपनी कविताओं का काव्य पाठ किया। काव्य पाठ का संचालन श्री रवि श्रीवास्तव ने किया ।

कार्यक्रम में राजकमल प्रकाशन दिल्ली के प्रमुख अशोक माहेश्वरी, डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया, डॉ. कल्याणी वर्मा, बसंत त्रिपाठी, राजेन्द्र मिश्र, कनक तिवारी, डॉ. बलदेव, राजुरकर राज, कैलाश आदमी, रमेश नैयर, डॉ. प्रेम दुबे, विनोद शंकर शुक्ल, सुभाष मिश्र, संतोष रंजन, श्री राम पटवा, अशोक सिंघई, मुमताज, एस. अहमद, बी.एल पॉल, तपेश जैन एवं राज्य भर के प्रबुद्ध साहित्य रसिक गण उपस्थित थे।

रपट- जयप्रकाश मानस