Sunday, August 30, 2009

साहित्य अकादमी की 'सिन्धी साहित्य गोष्ठी'

रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला
'साहित्य अकादमी' भारत की सभी भाषाओँ के साहित्य की प्रगति के लिए समय समय पर गोष्ठियां आयोजित करती रही है. दि. 22 अगस्त 2009 को सायं 5 से 7 बजे तक दिल्ली में 35, फेरोज़ शाह रोड स्थित 'साहित्य अकादमी' के सभागार में सिन्धी साहित्य की एक सशक्त गोष्ठी आयोजित की गई. इस गोष्ठी में सिन्धी कहानी, व्यंग्य व कविता के चर्चित हस्ताक्षरों द्वारा रचनाएं पढ़ी गई. सभागार में आए सिन्धी साहित्य प्रेमियों व रचनाकारों का स्वागत साहित्य अकादमी उप-सचिव गीतांजलि चैटर्जी ने किया. गोष्ठी की अध्यक्षता दिल्ली सरकार की 'सिन्धी अकादमी' के उपाध्यक्ष डॉ. एम.के. जेटली ने की. संचालन सुपरिचित सिन्धी साहित्यकार मोहन हिमथानी ने किया. रचना पाठ शुरू करने से पहले पाकिस्तान से आए कुछ साहित्यकारों का स्वागत भी किया गया. गोष्ठी का प्रारंभ मोहिनी हिंगोरानी की कविताओं से हुआ तथा इस के बाद शालिनी सागर व मेघराज गुरनानी ने भी कविताएँ पढ़ी. सिन्धी कथाकार व्यंग्यकार जगदीश रावतानी ने दूरदर्शन धारावाहिकों पर एक रोचक व्यंग्य पढ़ा, जिस के बाद अमुल आहूजा का रोचक व्यंग्य पाठ हुआ. सिन्धी कहानी का पाठ सुप्रसिद्ध कथाकारों वीना शृंगी व डॉ. रवि टेकचन्दाणी ने किया. सिन्धी साहित्य के वरिष्ठ समालोचक हीरो ठाकुर ने अंत में सभी की रचनाओं पर अपनी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ कह कर आज पढ़े गए साहित्य का मूल्यांकन किया. अंत में अध्यक्ष एम.के. जेटली ने भी आज प्रस्तुत हुए साहित्य पर अपने विचार कहे और सभी साहित्यकारों को बधाई दी. गीतांजलि चैटर्जी द्वारा सभी को धन्यवाद दिए जाने के साथ कार्यक्रम संपन्न हुआ.


सिन्धी अकादमी उपाध्यक्ष एम.के. जेटली व समालोचक हीरो ठाकुर

जगदीश रावतानी व शालिनी सागर


पाकिस्तान से आए साहित्यकारों का सम्मान

सशक्त काव्य का संगम : 'परिचय' गोष्ठी

रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला
दिल्ली महानगर को साहित्यिक सरगर्मियों की भी राजधानी माना जाता रहा है. दिल्ली में साहित्य की अनेक संस्थाएं सक्रिय हैं और प्रतिमाह यहाँ कई जगह काव्य गोष्ठियां भी आयोजित होती रहती है. 'परिचय' भी एक सशक्त साहित्यिक संस्था है जो दो दशक से भी अधिक समय से अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए सुप्रसिद्ध है. 'परिचय' संस्था की गोष्ठियों में हिंदी के शीर्षस्थ साहित्यकार यथा बालस्वरूप राही, गंगाप्रसाद विमल, पद्मा सचदेव, हिमांशु जोशी, रामदरस मिश्र, चित्रा मुद्गल आदि समय समय पर शिर्कत करते रहे हैं. प्रसिद्ध दूरदर्शन धारावाहिक 'रामायण' के निर्माता स्व. रामानानंद सागर ने भी अपने जीवन काल में यहाँ पदार्पण किया. इस के साथ लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, सीमाब सुल्तानपुरी, ममता किरण, नमिता राकेश, अर्चना त्रिपाठी, रविन्द्र रवि, वीरेंद्र सक्सेना व कई अन्य काव्य हस्तियां प्रायः यहाँ की काव्य गोष्ठियों को गरिमा प्रदान करती रही हैं. दि. 19 अगस्त 2009 को भी दिल्ली के फेरोज़शाह रोड स्थित 'Russian Cultural Centre' की काव्य गोष्ठी एक सशक्त काव्य गोष्ठी थी जिस में बहुचर्चित पुरस्कृत कवि अभिरंजन कुमार को विशिष्ट कवि के रूप में आमंत्रित किया गया था. इस के अतिरिक्त श्री बृज अभिलाषी गोष्ठी के दूसरे विशिष्ट कवि थे. पिछले दशक में तेज़ी से चर्चा में आए हिंदी कविता के सुप्रसिद्ध हस्ताक्षर अभिरंजन कुमार ने अपने एक बहुचर्चित लेख 'हिंदी कविता: तलाश पांचवें पाठक की' की भूमिका के रूप में एक कविता लिखी थी:

...कविता क्यों कि सीधे दिल में उतरती है और/ देर तक उसमें रह सकती है/ कविता क्यों कि दुर्गम से दुर्गम भाव-भूमि पर /सीना ठोंक कर आगे बढ़ सकती है/ कविता क्यों कि पढ़े बे-पढ़े सब की ज़बान पर आसानी से चढ़ सकती है/ कविता क्योंकि गीत बन सकती है/नारा बन सकती है/ किसी आन्दोलन का झंडा बन सकती है/ कविता क्यों कि जड़ होती परम्पराओं/ हर तरह के अन्यायों और साज़िशों के खिलाफ/ पहरेदार का डंडा बन सकती है/ कविता क्यों कि लोगों को जगा सकती है/ ...


इसलिए आज भी यह उतनी ही ज़रूरी है, जितनी सौ या हज़ार साल पहले थी, आगे भी रहेगी...

एक समय ऐसा भी आया कि कविता को एक 'इंडस्ट्री' माना गया और शहर फिरोज़ाबाद में जैसे हर दस कदम पर चूड़ियाँ मिलती हैं, वैसे देश में भी हर दस कदम पर कोई न कोई कवि अपनी कविताओं का पुलिंदा लिए कहीं जाता नज़र आया. कुछ विद्वान इस का मूल कारण कविता को छंद से मुक्त करना मानते रहे. इसलिए अभिरंजन का उक्त लेख जब सन् 2000 में छपा तो देश भर में कविता को ले कर विचारोतेजक विवाद छिड़ गए. छंद कविता या छंद-स्वछन्द कविता के हिमायतियों के बीच वाक्-युद्ध होने लगे. पर अंततः स्थापित वही बात हुई जो ऊपर संदर्भित काव्य पंक्तियों में अभिरंजन ने कही है. अभिरंजन ने इस गोष्ठी में अपनी कविताओं द्वारा इस बात का ठोस प्रमाण दिया कि कविता को छंद-बद्धः या छंद-मुक्त के खानों में बांटना गलत है. उन के बहुचर्चित संग्रह 'उखड़े हुए पौधे का बयान' में कई सशक्त कविताएँ संकलित हैं जो छंद में भी हैं और छंद-मुक्त भी . इस गोष्ठी में जो कविताएँ उन्होंने एक विशिष्ट कवि के रूप में पढ़ी उन में से 'ये काले गोरे बादल' कविता कवि के भीतर व्याप्त प्रकृति-प्रेम व धरती की व्यवहारिक चिंताओं के अनूठे सम्मिश्रण से साक्षात्कार कराती है:

पानी से बनाते हैं पहाड़ ये/किरणों से हिरणों का आकर ये/ घोड़ों की, हाथियों की ड्राइंग करते हैं...
...इतना बड़ा कैनवस! इतनी बड़ी पेंटिंग!/ भूल गई अपने पंख तितली!...


और
आसमान के खेत को देखते ही देखते/ जाने किस तरह जोत डालते हैं/ कौन से ट्रैक्टर हैं, दिखते नहीं हैं/ Horse Power कितना है, लिखते नहीं हैं/ ऐसा किसान धरती पे होता/ बंजर पे होता, परती पे होता/ खुशहाली होती फिर हर ओर...

दूसरे विशिष्ट कवि बृज अभिलाषी ने बहुत सुन्दर गज़लें पढ़ी. कुछ आध्यात्मिक रंग में रंगी. कुछ ज़िन्दगी की सच्चाइयों को, मर्म-स्पर्शी अंदाज़ में कहती. जैसे (कुछ शेर):


मंदिर मस्जिद गिरजा देख सब में उस का जज़्बा देख
दैरो हरम से आगे जा फिर तू उस का रस्ता देख

किसी मज़लूम को सताना क्या
गिरती दीवार को गिराना क्या
अपने ही ग़म से किस को फुर्सत है जान पहचान का बढ़ाना क्या
जिस को देखो अना का कैदी है खुद्फ़रेबी का है ज़माना क्या

लज़्ज़ते इंतज़ार क्या कहिये इंतज़ार इंतज़ार होता है
राही तनहा कभी नहीं चलता साथ गर्दो-गुबार होता है.
(दैर = मंदिर, हरम = मस्जिद, मज़लूम = सताया हुआ, अना = अहम् खुदफरेबी = आत्म छलावा)


प्रायः हिंदी कवियों का एक सर्वप्रिय विषय रहा है 'रिश्ते'. इस पर एक के बाद एक कविताएं आने लगी. जैसे रविन्द्र रवि का यह शेर:

बिस्तर पे सिमट आए थे सहमे हुए बच्चेमाँ बाप में झगड़ा था असर और कहीं था.

'रिश्तों' के इस कसैलेपन को अपने तरीके से कहती शोभना मित्तल:

ढूँढें किधर/ खो आए कहाँ पर/ मिठास रिश्ते...
मन का कांच/ धुंधला कर देते/ चटके रिश्ते...

सुभाष नीरव
हमारे बीच/ भाषा की एक नदी/ बहा करती थी/जाने क्या हुआ/ एकाएक सूख गई/...भाषा की नदियाँ/ जब रिश्तों के बीच सूख जाती हैं/ तब आँखें ही तो /हमारे अधर होती हैं/ और हमारे कान भी/ आओ /दो दो कदम/ एक दूसरे की ओर हम बढ़ें/ आँखों की भाषा पढ़ें...

ममता किरण कविता लिखने व प्रस्तुत करने की मुखरता सुन्दरता के कारण काव्य गोष्ठियों में एक ख़ास पहचान बनाए हुए हैं, सो रिश्तों पर छोटी बह्र में उनके चंद शेर:
सफ़र में हैं दो ही मौसम
हँसना है या रोना है
क्यों ना उनको तोड़ ही दो जिन रिश्तों को ढोना है
उसको पाने की खातिर उस में खुद को खोना है


विज्ञान व्रत पूजता हूँ मैं उसे अब वो पत्थर है सो है

एकदम नई कवियत्री रानी ने प्रेम-भावना को अपने अबोध शब्दों में कह डाला. जैसे:


कल्पित वृक्ष की छाया बन, मैं तेरी ओट सजाऊं पिया बन अधिकरण तुझ में ही कहीं विलीन हो जाऊं पिया.

लक्ष्मी शंकर वाजपेयी आज भी अपने प्रभावशाली स्तर के होते बुलंदियों पर थे. उनसे बार बार एक और कविता सुनाने की फरमाइशें हो रही थी. उनकी एक कविता की चंद पंक्तियाँ:

ऊब जाता हूँ मैं जब शह्र के शोरो गुल से मुझे वो गाँव की अमराइयाँ बुलाती हैं कुछ नए फूल खिले हैं ज़िंदगी के आंगन मेंजवां दिलो तुम्हें शहनाइयां बुलाती हैं पहुँच गए हो बुलंदी के जिस मुकाम पे तुमउसी मुकाम पे तन्हाइयां बुलाती हैं

कवि सुभाष चंदर ने व्यवस्था के विरुद्ध मन में उभरते आक्रोश की बेबसी व्यक्त की या उस के खोखलेपन पर करारा व्यंग्य किया! शायद दोनों एक साथ:
कौन कहता है कि व्यवस्था के प्रश्न पर/ मेरा लहू उबलता नहीं/ मेरी रगें गुस्से से चटखती नहीं/ आपने कभी देखा है कि/ ऐसे प्रश्नों पर मैं/ अपने मुंह से जलती सिगरेट निकाल कर/ कितनी बेदर्दी से/ जूतों से मसल देता हूँ!..


गोष्ठी संचालक अनिल मीत छोटी छोटी बह्र में बड़ी बड़ी बात कह जाते हैं:
तनहा एक बशर होता हैदुनिया भर का डर होता है सदमों के हैं बोझ हज़ारों एक अकेला सर होता है.

'परिचय' की स्थायी अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण ने वैसे तो कई सशक्त कविताएँ और गज़लें लिखी हैं, पर हिंदी की काव्य-धारा में उन्होंने स्वयं को एक कृष्ण-समर्पित कवि के रूप में भी स्थापित किया है. कृष्ण की शक्ति को वे अपने भीतर पूरी आस्था से महसूस करती हैं. कृष्ण का स्वरुप उन के मानस पटल पर क्षुधित -पीड़ित मानवता के संबल के रूप में स्थापित है. जैसे (चंद पंक्तियाँ):

हे कृष्ण ! द्रौपदी का दिव्य पात्र मुझे दे दो/ और दे दो अपनी एक दाने से तृप्त होने वाली संतुष्टि!/ मैं जग में बाँट दूँगी उसे! / क्षुधार्त मानवता को संतुष्टि का अन्न दूँगी/ उस के लहुलुहान पैरों को/ राहत की साँसें दूँगी...

उर्मिल द्वारा रचित कृष्ण चेतना से जुड़ी कई कविताएँ 'परिचय' द्वारा ही प्रकाशित कविता संग्रह 'परिचय राग' में भी संकलित हैं जिस में उर्मिल समेत 15 समकालीन कवियों की कविताएँ संकलित हैं.

गोष्ठी अध्यक्ष 'सीमाब' सुल्तानपुरी उर्दू शायरी में एक सिद्धहस्त हस्ताक्षर हैं. भाषा की विद्वता, बह्र की महारत, व शायरी के भाव-पक्ष में वे अपना सानी नहीं रखते. गोष्ठी संपन्न करते हुए उन्होंने अपनी कुछ सशक्त गज़लें पढ़ी, जिन का एक एक शेर मन में अमित छाप छोड़ता. (चंद शेर):


मुझे देने को उस ने घर दिया है मगर बेदख्ल भी तो कर दिया है
जगह मेरे लिए घर में कहाँ है तेरी यादों ने यह घर भर दिया है
हुआ है कुछ न कुछ 'सीमाब' तुझ को किसी ने या तुझे कुछ कर दिया है

आदमी के आईने में देख कर अपनी सूरत से खुदा शर्मा गया
मुस्कराहट का कफ़न दे कर कोईआरज़ू को दिल में ही दफना गया
दिल तो था 'सीमाब' का शीशा सिफतपत्थरों के शह्र में पथरा गया
(शीशा सिफत = शीशे जैसा).

'सीमाब' अपनी गज़लों के एक मजमुए 'खुला आकाश' के फ्लैप पर लिखते हैं:

दिल में धरती की कशिश रखता हूँ मैं ज़हन में मेरे खुला आकाश है.

उर्दू के इस मशहूर शायर का ज़ाती परिचय इन से बेहतर शब्दों में नहीं हो सकता.



Wednesday, August 26, 2009

फिर महफ़िल सजी फिर दीवानों का मज'मा लगा.......

गुजिश्‍ता की अगस्त 2009 माह की गोष्ठी की रिपोर्ट


लेकिन इस बार महफ़िल का रंग दूसरा था, बावजूद इस के कि जगह वही थी, लखनऊ में सूर्योदय कालोनी का सामुदायिक हाल, होस्ट वही थे यानी टंडन परिवार, आयोजक वही थे प्रदीप भाई और मुहम्मद अहसन लेकिन इस बार कवियों और श्रोताओं की संख्या में होड़ थी कि कौन अधिक हैं, और दोनों ही काफी त'अदाद में थे यानी कि हाल खचा-खच भरा हुआ था, और मेहमान कवियों के क्या कहने ... हिन्द-युग्म से जुड़े स्वप्निल कुमार आतिश और सिद्धार्थ नगर के युवा कवि और इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्र अनूप पांडे। अनूप पहले भी इस महफ़िल में काव्य पाठ कर के अपने झंडे गाड़ चुके हैं। गाव और मिट्टी और रिश्तों सी जुडी कवितायें कहते हैं, काफी जोश में हाथ हिला-हिला कर पढ़ते हैं।
महफ़िल की शुरूआत प्रदीप भाई की इब्तिदाई तक़रीर से हुई। लेकिन इस बार अहसन साहब ने मंच पर बैठने से साफ़ इनकार कर दिया। चालाक आदमी हैं, मंच पर बैठने से जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं, बोले आम श्रोता की भांति नीचे बैठूंगा, सो मंच पर साबिरा जी के साथ बैठे टंडन जी। साबिरा जी ने इस बार रूसी में कविता न सुना कर एक ताज़ी ग़ज़ल सुनाई और तालियाँ बटोरी। इस बार अंग्रेजी में पता नहीं क्यूँ विनीतवाल साहब ने कविता नहीं सुनाई लेकिन हिंदी / उर्दू श्रोता निराश नहीं हुए, उन को अंग्रेजी में कविता सुनाई जावेद नकवी ( शनने भाई ) ने, एक नहीं दो, सोने में सुहागा ३५ साल पुरानी।

स्वप्निल का पहला मुशाएरा का तजुर्बा था और वह मंच पर डरा-डरा पहुँचा लेकिन एक रूमानी नज़्म सुनाने के बाद निडर हो गया और झोंक में एक और सुना डाली। चलते वक़्त उस की आंखें कह रही थीं फिर कब बुलाओगे।
जमील साहब ने एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह अपने पूरे बाडी लंगुएज के साथ दो गजलें सुनाईं और मुशाएरा करीब करीब लूट लिया था कि उन को इस काम से रोका गया कि यह काम तो आखिर में मनीष शुक्ला को करना है।

हमज़ुबां कोई नहीं तो आइना कोई तो हो
गुफ्तुगू किस से करूं दूसरा कोई तो हो
- जमील साहब



वंदना दीक्षित जी लखनऊ विश्व विद्यालय की भाषा विभाग में हैं, वह और उनके पति रमेश दीक्षित जो राजनीति पढ़ाते हैं, अक्सर ही हमारी महफिलों के हिट युगल रहते हैं। रमेश जी इस बार किसी कारण नहीं आ सके तो वंदना जी को अकेले ही अपनी दो संवेदनशील कविताओं के साथ हिट होना पड़ा।

यूं तो गजाला अनवर ने भी महफ़िल लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी अपनी गज़लों के साथ लेकिन आलोक श्रीवास्तव और राजीव राय के साथ गज़लों के म'आमले में सख्त मुकाबला होने के कारण निर्णय बड़ा मुश्किल था कि जनता किस के साथ है। आलोक और राजीव के महफ़िल में पहली बार शरीक होने से जनता का सहानुभूति वोट उन को अधिक मिलता दिखा।

देवकी नंदा 'शांत' जी ने डिप्लोमेसी से काम लेते हुए अपनी चिर परिचित शैली में गज़लें सुनाकर और गाकर प्रसिद्धि के शिखर को छूने का पूरा प्रयास किया लेकिन साबिरा जी ने ठान ली थी कि सब से आखीर में मनीष को ही बुला कर मनीष को हिट करवाना है। उन्होंने भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक श्री एम॰ सी॰ द्विवेदी के साथ भी कोई रियायत नहीं की जिन्होंने 'स्लम' पर एक अति संवेदनशील कविता सुना कर वाह-वाही बटोरी। उन का मुकाबला था बीरबल साहनी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पलेओ बोटनी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ नौटियाल से जो पहले भी इस महफ़िल में शरीक हुए थे।

ज़िक्र तो अभी कईयों का बाक़ी है लेकिन हाए रे टाइपिंग की दिक्क़त.. चलिए उन का ज़िक्र फिर कभी ...

अहसन साहब आयोजक होने के बाद भी सब से अंत में सुनाने के गर्व से वंचित रहे हालांकि उन्होंने इस गम को बहुत बहादुरी से सहा और मुस्कुराते रहे। दरअसल यह स्थान पहले से ही मनीष शुक्ल के नाम आरक्षित था।

अहसन साहब ने एक छोटी नज़्म 'बस यूं ही खड़ी रहो' सुनाने का आग्रह किया .

नज़र से रहमतें बिछाए बस यूं ही खड़ी रहो
काइनात ब सर उठाए बस यूं ही खड़ी रहो
पलक पे तुम्हारी वक़्त है ठहर गया
ज़ुल्फ़ पे तुम्हारी धूप है उतर गयी
खामोशियों के सिलसिले बनाए बस यूं ही खड़ी रहो
वो बात जो अभी कही नहीं
वो नज़्म जो अभी लिखी नहीं
उन्ही की ख़ातिर ए वजूद बस यूं ही खड़ी रहो
बस यूं ही खड़ी रहो

इस के बाद उन्होंने कुछ फुटकर शे'र सुनाए। दरअसल फुटकर शे'र सुनाना धीरे-धीरे उनकी आदत बनती जा रही है। वह भी क्या करें, ग़ज़ल कहनी उन्हें आती नहीं है तो इसी से काम चलाते है

तनहा फिरा हूँ उम्र भर इक दर्द की पोटली लिए
हैराँ हूँ किस दर पे रक्खूं, किस घाट पे बहाऊं

नदी ने धो दिए शहर के पाप सब
अब वह खुद जाए कहाँ मैला आँचल लिए !

कल इक परिंदा मर गया, इक निशानी मिट गयी
किताब ए कुदरत में लिखी इक कहानी मिट गयी

लेकिन इस महफ़िल ने मनीष शुक्ला की गज़लों के बिना ख़तम होने से इनकार कर दिया। मुझे याद नहीं मनीष ने कितनी गजलें सुनाई लेकिन महफ़िल उन्हीं के नाम गयी। उन का एक शे'र याद आ रहा है

कभी आंसू कभी मोती कभी शबनम समझती है
मता ए जिंदगी है जिस को दुनिया गम समझती है

महफ़िल चाय के साथ ख़तम हुई और उस के 15 दिनों बाद तक अहसन और मनीष शुक्ला में होड़ लगी रही कि कैसे रिपोर्ट लिखने से बचा जाए और कौन सालिड बहाना मार सकता है लेकिन आखिर अहसन साहब ही फंसे, और रिपोर्ट हाज़िर है। शैलेश भारतवासी जी इतनी जल्दी कहाँ छोड़ देते। लगातार शर्म दिलाते रहे और रिपोर्ट लिखवा कर माने।

Monday, August 24, 2009

गाँधी की पुस्तकों पर 'हिंदी अकादमी' द्बारा यादगार कार्यक्रम

रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला


(भाषण देतीं दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित)
(अन्य वीडियों के लिए यहाँ जायें)


महात्मा गाँधी मानव सभ्यता के लिए युग पुरुष थे. 'हिंदी अकादमी' द्वारा नव-प्रकाशित गाँधी की दो विश्वप्रसिद्ध पुस्तकों 'हिंद स्वराज' और 'सत्य के प्रयोग' पर एक यादगार कार्यक्रम दि. 18 अगस्त 2009 को दिल्ली के 'त्रिवेणी सभागार (मंडी हाउस)' में आयोजित हुआ जिसमें मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा दोनों पुस्तकों के विमोचन के बाद अलग अलग सत्रों में इन पुस्तकों पर चर्चा हुई. गाँधी सन् 1892 में किसी मुवक्किल का मुकद्दमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका गए तो फिर पूरे दो दशक तक वहां के भारतवासियों की समस्याओं पर संघर्ष किया जिस ने उन्हें महात्मा बना दिया. महात्मा गाँधी की शख्सियत को यदि हम केवल स्वाधीनता संघर्ष तक सीमित रखेंगे, तो उनके व्यक्तित्व के कई अनमोल आयामों को जानने से हम वंचित रह जाएंगे. गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका में ही 'हड़ताल' व 'सत्याग्रह' का आविष्कार किया. वहीं जीवन की पहली गिरफ्तारी भी हुई और सन् 1909 में जब सत्याग्रह के दौरान ही वे ब्रिटिश सरकार से बातचीत करने लन्दन गए तो लौटते समय 'किल्दोनन' नामक जहाज़ में एक बेहद विवादस्पद पुस्तक भी लिखी, जिस का नाम था 'हिंद स्वराज'. इस पुस्तक ने विश्व के सभी विचारकों की चेतनाओं को झकझोर कर रख दिया. गाँधी इस पुस्तक में ब्रिटिश तथा पूरी पश्चिमी सभ्यता को नकार कर उसे चुनौती देते हैं कि ब्रिटिश की सभ्यता केवल मशीन पर टिकी हुई है, जो केवल शोषण की प्रतीक है. गाँधी ब्रिटिश के हर वैज्ञानिक चिह्न यथा रेलगाड़ी व उद्योग पर प्रश्न चिह्न लगा कर इस पवित्र देश की ऋषियों मुनियों की परंपरा को स्थापित करते हैं. गाँधी तो यहाँ तक कहते हैं कि यह रेलगाड़ी क्या है? इस से दुष्टता फैलती है. एक जगह के बुरे लोग दूसरी जगह जाते हैं. पूरी पुस्तक एक 'पाठक' और 'संपादक' के बीच हो रहे वार्तालाप के रूप में गुजराती में लिखी गई थी जिस का उनके सचिव महादेवन देसाई, जिसे वे अपना पांचवां पुत्र मानते थे, ने अनुवाद किया था. देश और विश्व के प्रत्येक महत्वपूर्ण प्रश्न पर अपनी जिज्ञासा 'पाठक' के रूप में प्रस्तुत करने वाले गाँधी के ही एक बर्मा स्थित मित्र प्राणजीवन मेहता हैं. जब 'पाठक' के रूप में प्राणजीवन मेहता पूछते हैं कि रेलगाड़ी से तो एक स्टेशन के साधू भी दूसरे स्टेशन जा सकते हैं, तब गाँधी कहते हैं कि अच्छा आदमी जानता है, कि अच्छी बात का असर डालने में बहुत समय लगता है. बुरी बात तेज़ी से फ़ैल सकती है. जब 'हिंद स्वराज' छपी तो अधिकांश लोग बौखला भी गए. यहाँ तक कि गाँधी के राजनैतिक गुरु, गोपालकृष्ण गोखले ने गाँधी से कहा कि यही पुस्तक आप कुछ वर्ष बाद पढ़ियेगा. तब आप को लगेगा कि यह पुस्तक किसी मूर्ख व्यक्ति ने लिखी है. इस पुस्तक को यदि हम सतही दृष्टि से देखेंगे तो सहज ही लगेगा कि पुस्तक सचमुच बहुत अव्यवहारिक है, क्यों कि गाँधी तो इस में डॉक्टर और वकील के पेशों तक को नकारते हैं. पर गाँधी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' को यदि हम मूर्त रूप से ही देखेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी. पर पुस्तक अपनी आत्मा के माध्यम से पश्चिमी सभ्यता के बेहद कड़वे सत्यों से साक्षात्कार करवाती है. आज हवाई जहाज़ है तो विश्व भर के आतंकवादी एक देश से दूसरे देश बेखौफ आते जाते हैं, जब कि अध्यात्मिक शक्तियों का तो अकाल ही है, वे एक देश से दूसरे देश जाएं तो क्योंकर!..

कार्यक्रम में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के आगमन पर उन का हार्दिक स्वागत हुआ व हिंदी अकादमी उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर ने स्वागत भाषण किया. मंच पर शीला दीक्षित के साथ प्रसिद्ध पत्रकार प्रभास जोशी भी उपस्थित थे. मुख्यमंत्री के आगमन से पूर्व प्रभास जोशी की उपस्थिति में अकादमी सचिव रविन्द्र श्रीवास्तव ने 'हिंद स्वराज' के सभ्यता सम्बन्धी कई अंश पढ़ कर सुनाए. अशोक चक्रधर के भाषण के पश्चात 'हिंद स्वराज' व गाँधी द्वारा 1925 में रचित 'मेरे सत्य प्रयोग' पुस्तकों का विमोचन हुआ. गाँधी सत्य व अहिंसा के ईशदूत थे. 'सत्य के प्रयोग' उन की आत्मकथा है जिस में बचपन में स्कूल इंस्पेक्शन के दौरान 'kettle' शब्द के स्पेलिंग न आने पर अध्यापक द्वारा इशारे से दिए गए दूसरे विद्यार्थी की नक़ल करने के आदेश की अवमानना व किशोरावस्था में सिगरेट पीने या वेश्यागमन से ले कर उस समय तक की सभी झलकियाँ हैं, जब गाँधी असहयोग आंदोलन पार कर के अपनी आयु के 55 वर्ष भी पार कर चुके थे.

शीला दीक्षित ने अकादमी को इन पुस्तकों के प्रकाशन पर बधाई देते हुए कहा कि 'हिंद स्वराज' पुस्तक की रचना को अब पूरे 100 साल हो जाएंगे. इस अवसर पर उन्होंने आशा व्यक्त की कि 'हिंद स्वराज' को कम से कम दिल्ली के सभी स्कूलों में पहुंचना चाहिए. इस पर सभागार में ख़ुशी के मारे तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी. गाँधी के सादगी भरे जीवन पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि सादगी भरा जीवन एक प्रकार से बहुत मंहगा पड़ता है. उस में सब से ज्यादा ज़रुरत बहुत कड़े अनुशासन की होती है. गाँधी के आंदोलनों पर उन्होंने कहा कि जब 'नमक सत्याग्रह' में उन्होंने एक मुट्ठी भर नमक अपने हाथ में ले कर ब्रिटिश की सत्ता को चुनौती दी तो पूरा विश्व दहल गया...

अनेक व्यस्तताओं व किसी अन्य सम्मलेन में उपस्थित होने की अनिवार्यता के कारण शीला दीक्षित अपने भाषण के तुंरत बाद प्रस्थान कर गई और इस विमोचन सत्र की बागडोर प्रभास जोशी ने संभाली. प्रभास जोशी ने अपने भाषण में कहा कि गाँधी बेहद परिश्रमी व्यक्ति थे. जब लिखते लिखते उन का दायाँ हाथ थक जाता था, तब वे बाएँ हाथ से लिखते थे. उन्होंने सभागार में उपस्थित 'राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय' निदेशिका वर्षा दास की ओर संकेत कर के कहा कि उन्होंने वर्षा जी से कह कर गाँधी जी द्वारा उल्टे हाथ (बाएँ) से लिखते समय का एक चित्र बनवाया था. स्पष्ट है कि गाँधी किसी भी परिस्थिति में अपना काम रुकने नहीं देते थे. प्रभास जोशी ने बताया कि गाँधी ने 'हिंद स्वराज' दि. 13 नवम्बर 1909 से ले कर 22 नवम्बर 1909 तक (केवल 10 दिन में ही) 'किल्दोनन' जहाज़ में लिख डाली.

विमोचन सत्र के बाद 'हिंदी अकादमी' की तरफ से स्वादिष्ट भोजन का आयोजन जिस के बाद दूसरे सत्र में 'हिंद स्वराज' पर चर्चा हुई. इस सत्र की अध्यक्षता जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो. मुशीरुल हसन ने की तथा इस में वर्षा दास, प्रो. इंद्रनाथ चौधरी, प्रो. अशुम गुप्ता व श्री राजीव वोहरा ने भाग लिया. प्रो. मुशीरुल हसन ने 'हिंद स्वराज' की आज के इस दौर में प्रासंगिकता पर अप्रत्यक्ष में सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि किसी भी पुस्तक की पढ़ने की प्रासंगिकता कभी भी समाप्त नहीं होती. जैसे मार्क्सवाद या साम्यवाद आज पूरी दुनिया से यदि समाप्त हो गया है तो भी 'Manifesto of Communism' या कार्ल मार्क्स खुद भी क्या अप्रासंगिक हो गए? इसलिए आज 'हिंद स्वराज' को एक manifesto की तरह पढ़ना चाहिए. उन्होंने कहा कि ब्रिटिश की गुलामी में ही गाँधी हुए, टैगोर हुए और ब्रिटिश की गुलामी के बावजूद देश में (जनता के लिए महापुरुषों के) 'उपदेश' की कमी नहीं थी. वर्षा दास ने कहा कि 'स्वराज' शब्द का उपयोग सब से पहले दादा भाई नौरोजी ने किया था. इसके बाद जब तिलक ने 'स्वराज हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है' का नारा दिया तो 'स्वराज' शब्द को व्यापक अर्थ मिला. गाँधी ने 'स्वराज' शब्द को एक गुणात्मक रूप दिया. वर्षा दास ने कहा कि 'हिंद स्वराज' हमारे लिए एक मूल्यवान धरोहर है. 'राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय' प्रतिवर्ष गाँधी के जन्म दिवस 2 अक्टूबर को गाँधी सम्बंधित चित्रों की प्रदर्शनी आयोजित करता रहा है. गुजरती में क्यों कि उन्होंने 'हिंद स्वराज' बार बार पढ़ी है, अतः उनके मन में यह कल्पना है कि इस पुस्तक में गाँधी द्वारा कही हुई बातों पर वे चित्र बनवाएं और गाँधी जन्मदिवस पर उन्हें प्रर्दशित करें. 'हिंद स्वराज' से गाँधी के ही किसी संवाद का सन्दर्भ देते हुए उन्होंने कहा कि गाँधी यह मानते थे कि 'स्वराज' का अर्थ 'स्व' का राज नहीं है, वरन् 'स्व' पर राज है. (स्पष्ट है कि इस प्रकार के गूढ़तम अर्थों के कारण ही कई विद्वान गाँधी की शिक्षाओं की तुलना 'श्रीमद भगवद गीता' व वेदों की शिक्षाओं से करते हैं).

इस सत्र के बाद फिर चाय का अंतराल और तीसरे सत्र की अध्यक्षता प्रसिद्ध साहित्य समालोचक नामवर सिंह ने की. इस सत्र में अजित कुमार, प्रो. आनंद कुमार और रामचंद्र राही ने भाग लिया. प्रो. अजित कुमार ने अपनी एक सशक्त कविता प्रस्तुत की जिस की व्यंग्य पंक्तियों ने सब पर बेहद तीखा प्रभाव छोड़ा. कुछ पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं:

गठजोड़/ होते हैं जिस तरह/ खिचड़ी के चार यार/ दही पापड़ घी आचार/ कुछ कुछ उसी तरह/ गाँधी ने अपनी आँधी से अपनी छड़ी, लाठी, चप्पल/ और लंगोटी भी बांधी/ इस अनोखे गठजोड़ को कभी न कभी बिखरना तो था ही...
...हर साल/अक्तूबर के दूसरे दिन/ मीठी मधुर लोरी सुना कर/ उसकी नींद /हम गहरी बनाते हैं/ ताकि उठ कर कहीं अपनी ऐनक न मांग ले...


अजित कुमार ने 'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा' की समानता वेदों पुराणों से की. स्वाधीनता संघर्ष के दौरान का 'जन मन को प्रतिध्वनित करने वाला' एक बेहद प्यारा लोकगीत भी सुनाया:

'काहे पे आवें वीर जवाहर, काहे पे गाँधी महाराज?
काहे पे आवे भारत माता, काहे पे आवे सुराज?


इस का उत्तर था:

घोड़े पे आवें वीर जवाहर, पैदल गाँधी महाराज,
हाथी पे आवे भारत माता, डोली पे आवे सुराज.


नामवर सिंह ने अपने विस्तृत अध्यक्षीय भाषण में गाँधी द्वारा बताया गया धर्म और राजनीती का समीकरण स्पष्ट किया. आज धर्म टुच्ची राजनीति का साधन बन गया है, इसलिए अधिकांश विद्वान राजनीति और धर्म को विलग रखने की शिक्षा देते हैं. पर गाँधी धर्म के सही परिप्रेक्ष्य में कहते हैं -

'जो मनुष्य कहता है कि धर्म का राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है, वह धर्म को नहीं जानता.'

स्पष्ट है कि गाँधी द्वारा उपयुक्त 'धर्म' शब्द 'मानवीयता' शब्द का पर्यायवाची है.
अंत में अशोक चक्रधर ने अध्यक्ष नामवर सिंह व सभागार को विश्वास दिलाया कि हिंदी अकादमी आज के आधुनिक उपकरण इन्टरनेट का पूर्ण सदुपयोग कर के विद्यार्थियों के ई -मेल एकत्रित करेगी और उन से संपर्क स्थापित कर के गाँधी की पुस्तकें पढ़ने की प्रेरणा देगी.

त्रिवेणी सभागार में बिताया लगभग पूरा दिन उपस्थित विचारशील लोगों के लिए 'गाँधी दिवस' सा था. तीसरे सत्र के बाद फिर जलपान और फिर दिन भर के कार्यक्रम की संपन्नता बेहद मधुर तरीके से हुई. शास्त्रीय संगीत की सुप्रसिद्ध हस्ती मीता पंडित की मधुर स्वरलहरियों से सभागार भर उठा. गाँधी के सर्वाधिक प्रिय भजन:

वैष्णव जन ते तेणे कहिये
जो पीर पराई जाने रे


और

पायो री मैं तो राम रतन धन पायो...

और

रघुपति राघव रजा राम,
पतित पावन सीता राम,
ईश्वर अल्ला तेरे नाम
सब को सन्मति दे भगवन ...

Sunday, August 23, 2009

लंदन में कुछ यूँ याद की गईं बी आर चोपड़ा की फिल्में

बी.आर. चोपड़ा अपने समय से आगे के फ़िल्मकार थेः तेजेन्द्र शर्मा


'रेशमी सलवार कुर्ता जाली का' गीत पर नृत्य करतीं त्रिनिदाद की बहनें कृष्णा एवं कैमिलिता

बी.आर. चोपड़ा अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्में बनाने वाले निर्देशक थे। उन्होंने हमेशा सामाजिक सच्चाइयों से जुड़ी फ़िल्मों का निर्माण किया; आम आदमी की समस्याओं को अपनी फ़िल्मों का विषय बनाया मगर मनोरंजन का दामन नहीं छोड़ा। उनकी पत्रकारिता की पृष्ठभूमि उन्हें विषयों की तलाश में मदद करती थी। नया दौर (1957) संभवतः उनकी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म कही जा सकती है। मनुष्य बनाम मशीन जैसे ज्वलंत विषय को बी.आर.चोपड़ा ने बहुत संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत किया है और उस पर ओ.पी.नैय्यर का पंजाबियत लिया सुरीला संगीत जैसे विषय को नये अर्थ दे रहा हो।” यह शब्द थे तेजेन्द्र शर्मा – महासचिव कथा यूके – के। आयोजन था एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स एवं कथा यू.के. द्वारा लन्दन के नेहरू केन्द्र में आयोजित एक रंगारंग कार्यक्रम जिसमें हिन्दी सिनेमा की मुख्यधारा के महत्वपूर्ण निर्माता निर्देशक बी.आर.चोपड़ा की उपलब्धियों का लेखा जोखा श्रोताओं के सामने रखा गया।


दर्शकों को संबोधित करतीं नेहरू केन्द्र की निदेशिका मोनिका मोहता

नेहरू केन्द्र की निदेशिका मोनिका मोहता ने कार्यक्रम की शुरूआत में श्रोताओं का स्वागत करते हुए एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स की अध्यक्षा काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी एवं तेजेन्द्र शर्मा को कार्यक्रम के लिये धन्यवाद दिया। उन्होंने श्रोताओं को बताया कि तेजन्द्र शर्मा नेहरू केन्द्र से लम्बे समय से जुड़े हैं और बी.आर. चोपड़ा की फ़िल्मों के इस कार्यक्रम का आनंद सभी दर्शक उठा पाएंगे। उन्होंने सभागार में उपस्थित सभी दर्शकों को यक़ीन दिलाया कि भविष्य में नेहरू सेंटर ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन नियमित रूप से करेगा। हमें इन कार्यक्रमों में भारत की अन्य भाषाओं की फ़िल्मों पर भी कार्यक्रम आयोजित करने होंगे।

तेजेन्द्र शर्मा ने बी.आर. चोपड़ा द्वारा निर्मित फ़िल्म वक़्त (1965) के कुछ दृश्य भी दिखाए जिनमें राजकुमार (राजा) और रहमान (चिनाय सेठ) की टक्कर दिखाई गई। दर्शकों की करतल धव्नि से साफ़ पता चलता था कि राजकुमार की संवाद अदायग़ी आज भी दर्शकों के बीच लोकप्रिय है। तेजेन्द्र ने 1957 में बनी नया दौर के पीछे की कहानी भी दर्शकों को सुनाई। कैसे मधुबाला फ़िल्म की नायिका थीं और कैसे उनके पिता अताउल्ला ख़ान को यह बात मंज़ूर नहीं थी कि उनकी बेटी दिलीप कुमार के साथ आउटडोर शूटिंग पर जाए। कैसे वैजयन्ती माला फ़िल्म की हिरोइन बनी और कितना लंबा कोर्ट केस चला।

इसके अलावा तेजेन्द्र शर्मा ने अफ़साना, एक ही रास्ता, साधना, धूल का फूल, धर्मपुत्र, कानून, गुमराह, वक़्त, हमराज़, इन्साफ़ का तराज़ू और निक़ाह जैसी फ़िल्मों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी की।


'चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों' गीत गाते जटानील बैनर्जी

तेजेन्द्र शर्मा का मानना है कि बी.आर.चोपड़ा की फ़िल्मों की गुणवत्ता बढ़ाने में साहिर लुधियानवी की शायरी का महत्वपूर्ण योगदान है। अपनी असामयिक मृत्यु तक साहिर ने बी.आर. चोपड़ा की सभी फ़िल्मों के लिये गीत लिखे। संगीत कर बदलते रहे मगर साहिर लुधियानवी बी.आर. फ़िल्मस के स्थायी स्तम्भ बने रहे। एन. दत्ता एवं रवि ने साहिर के गीतों को अमर बनाने में उल्लेखनीय भूमिका अदा की। कार्यक्रम में तेजेन्द्र शर्मा ने तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, मांग के साथ तुम्हारा, यह देश है वीर जवानों का, ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं, आज की रात नहीं शिक़वे शिक़ायत के लिये, नीले गगन के तले जैसे गीतों को भी दिखाया।

बहुत सी फ़िल्मों से जुड़ी कहानियों एवं गप्पों का ज़िक्र भी तेजेन्द्र शर्मा ने किया। कार्यक्रम के बारे में एक सार्थक टिप्पणी क्लासिकल ग़ज़ल गायक सुरेन्द्र कुमार ने की, “मैं जब इस कार्यक्रम में आया था तो बी.आर. चोपड़ा मेरे लिये केवल एक नाम था। मुझे लगता है कि यह कार्यक्रम देखने के बाद मैं उनके बारे में बात कर सकता हूं।”

इंसाफ़ का तराज़ू का विश्लेषण तेजेन्द्र ने विस्तार से किया। उन्होंने समयाभाव के कारण दर्शकों से क्षमा मांगी कि उन्हें कार्यक्रम को थोड़ा छोटा करना पड़ा। बाक़ी का मसाला दर्शकों को फिर किसी दूसरे कार्यक्रम में दिखाया जा सकता है। कार्यक्रम में एक नया रंग भरने के लिये युवा गायक (रॉयल कॉलेज और म्यूज़िक) जटानील बैनर्जी ने फ़िल्म गुमराह की साहिर लिखित नज़म गा कर सुनाई – चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों। गिटार पर उनका साथ दिया निखिल ने। त्रिनिदाद की बहनों कृष्णा एवं कैमिलिता ने रेशमी शलवार कुर्ता जाली का पर मज़ेदार नृत्य प्रस्तुत कर दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। शायद बी.आर चोपड़ा की सोच के अनुसार कार्यक्रम में मनोरंजन का पुट डाला गया था।

कार्यक्रम की समाप्ति में महाभारत का वो अंश दिखाया गया जिस में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं यदा यदा ही धर्मस्य ग्लनिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य स्वात्मानं सृजाम्यहम, परित्राणाय साधूनाम विनाशाय च दुष्कृताम, धर्मसंस्थापनार्थाय, संभवामि युगे युगे। उपस्थित दर्शक समूह एकमत से कह उठे कि इस कार्यक्रम से इस से बढ़िया समाप्ति हो ही नहीं सकती थी।


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समूह-चित्र-2

प्रस्तुति- दीप्ति कुमार

Saturday, August 22, 2009

भारतीय रेल पत्रिका का स्वर्ण जयंती वर्ष

नई दिल्ली । विशेष संवाददाता



रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) द्वारा प्रकाशित एकमात्र लोकप्रिय मासिक हिंदी पत्रिका भारतीय रेल अगस्त 2009 को अपनी गौरवशाली यात्रा के स्वर्ण जयंती वर्ष में प्रवेश कर रही है। बीते पांच दशकों में इस पत्रिका ने रेल कर्मियों के साथ अन्य पाठक वर्ग में भी अपनी एक विशिष्ट पहचान कायम की है। इस लंबी अवधि के दौरान जहां भारत सरकार की कई पत्रिकाएं बंद हो गयीं या बहुत सीमित दायरे तक पहुंच गयीं,वहीं भारतीय रेल पत्रिका लगातार न सिर्फ निकल रही है बल्कि इसकी साज-सज्जा, विषय सामग्री और मुद्रण में भी निखार आया है। इसके पाठकों की संख्या में भी निरंतर वृद्धि हुई है। रेलों में हिंदी के प्रचार-प्रसार में इस पत्रिका का ऐतिहासिक योगदान रहा है। रेलों से संबंधित तकनीकी विषयों की सरल-सहज भाषा में जानकारी सुलभ कराने में इस पत्रिका का ऐतिहासिक योगदान रहा है।

तब और अब
रेल प्रशासन, रेलकर्मियों और रेल उपयोगकर्ताओं के बीच भारतीय रेल पत्रिका एक मजबूत संपर्क-सूत्र का काम कर रही है। भारतीय रेल पत्रिका का पहला अंक 15 अगस्त 1960 को प्रकाशित हुआ था। इस पत्रिका की शुरूआत के पीछे तत्कालीन रेल मंत्री स्व.श्री लाल बहादुर शास्त्री तथा बाबू जगजीवन राम का विशेष प्रयास था। उस समय वर्ष 1960-61 के वित्तीय वर्ष में भारतीय रेल पत्रिका के लिए प्रचार और विविध व्यय शीर्ष से 25,000 रुपए का आवंटन किया गया था।

इस पत्रिका के शुरूआती दौर में 1960 में इसके संपादक मंडल के सदस्य थे- श्री डी.सी. बैजल, सदस्य,(कर्मचारी वर्ग) रेलवे बोर्ड, श्री डी.पी.माथुर, निदेशक वित्त, श्री आर.ई.डी. सा, सचिव, रेलवे बोर्ड, श्री जी.सी.मीरचंदानी, सह-निदेशक,जन-संपर्क, श्री राममूर्ति सिंह, हिंदी अफसर, रेलवे बोर्ड, श्री कृष्ण गुलाटी,संपादक तथा श्री राम चंद्र तिवारी, सहायक संपादक (हिंदी)। मौजूदा समय में संपादक मंडल में श्री एस.एस.खुराना, अध्यक्ष रेलवे बोर्ड, श्रीमती सौम्या राघवन, वित्त आयुक्त,श्री के.बी.एल.मित्तल, सचिव, निदेशक (सूचना एवं प्रचार) रेलवे बोर्ड हैं। पत्रिका के मौजूदा संपादक का दायित्व श्री अरविंद कुमार सिंह (परामर्शदाता, भारतीय रेल) तथा उनकी टीम संभाल रही है। श्री सिंह को राष्ट्रपति तथा हिंदी अकादमी दिल्ली समेत कई संस्थाओं द्वारा पत्रकारिता के कई शीर्ष पुरस्कारों से सममानित किया जा चुका है और वे एनसीईआरटी के पाठ्यक्रम में भी पढ़ाए जाते हैं। प्रवेशांक से लेकर लंबे दौर तक पत्रिका को गरिमापूर्ण स्थान तक पहुंचाने का दायित्व हिंदी के विख्यात विद्वान और लेखक रामचंद्र तिवारी ने संभाला था। भारतीय रेल के संपादकों में श्री तिवारी के अलावा श्री प्रमोद कुमार यादव ने काफी सराहनीय योगदान दिया। भारतीय रेल पत्रिका तथा उसके संपादकों को पत्रकारिता और साहित्य में विशेष योगदान के लिए उ.प्र. हिंदी संस्थान तथा हिंदी अकादमी दिल्ली समेत कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था।

इस पत्रिका के प्रवेशांक से लंबे समय तक वार्षिक चंदे की दर सर्व साधारण के लिए छह रुपए रखी गयी थी जबकि रेलकर्मियों के लिए चार रुपए की रियायती दर रखी गयी थी। एक अंक का मूल्य था 60 नए पैसे। पत्रिका का संपादकीय कार्यालय शुरूआत में 165 पी.ब्लाक रायसीना रोड, नयी दिल्ली था। उस समय रेल भवन का निर्माण पूरा नहीं हुआ था। इस पत्रिका के प्रकाशन के अवसर पर तत्कालीन रेल मंत्री श्री जगजीवन राम, रेल उपमंत्री श्री शाहनवाज खां तथा सं. वै.रामस्वामी के बहुत सारगर्भित संदेश भी प्रकाशित किए गए थे।

पत्रिका के पहले संपादकीय में रेल कर्मचारियों की वेतन वृद्धि पर रोशनी डाली गयी थी साथ ही आत्म-निवेदन भी छपा था जिसमें पत्रिका के बारे में इन शब्दों में कुछ तथ्य रखे गए थे-

चौदहवें आजादी दिवस के शुभ अवसर पर देश की राजभाषा हिंदी में प्रकाशित इस पत्रिका भारतीय रेल का यह प्रयास रहेगा कि वस्तुस्थिति का सही तथा सुस्पष्ट चित्र उपस्थित करके रेलों तथा जनता के बीच सहयोग बढ़ायें। अधिकांश रेल कर्मचारी तथा बहुसंख्यक जनता अंग्रेजी नहीं समझ सकती इसलिए उनके काम की बात उनकी अपनी ही भाषा में पहुंचाने की इच्छा ही इसके प्रकाशन की मुख्य प्रेरणा रही है। सहयोग के लिए दोनो पक्षों द्वारा एक- दूसरे की बात समझना परमावश्यक होता है। भारतीय रेल का सदैव यह प्रयत्न होगा कि वह रेलों सम्बंधी आधिकारिक सामग्री उपस्थित करके यह बता सकें कि रेलें किन-किन मुश्किलों का सामना करते हुए जनता की सेवा कर रही हैं और जनता किस प्रकार सहयोग देकर उनकी सहायता कर सकती है तथा यात्रियों की सुविधा एवं कर्मचारियों के कल्याण के लिए क्या कुछ किया जा रहा है।

पत्रिका के शुरूआत में स्थाई स्तंभ थे संपादकीय, सुना आपने, रेलों के अंचल से, भारतीय रेलें सौ साल पहले और अब, कुछ विदेशी रेलों से,क्रीडा जगत में रेलें, मासिक समाचार चयन,रेलवे शब्दावली और हिंदी पर्याय, कविता, कहानी। इसी के साथ पत्रिका को रोचक बनाने के लिए भगत जी कार्टून के माध्यम से भी रेलकर्मियों और यात्रियों दोनों के जागरण का प्रयास किया गया। आगे कुछ और स्तंभ शुरू किए गए तथा पत्रिका दिनों दिन निखरने लगी।

जहां तक लेखकों का सवाल है तो पहले अंक में ही भारतीय रेल ने साफ घोषणा की थी कि बाहर के लेखकों की रचनाएं भी स्वीकार की जाएंगी। इस पत्रिका के प्रतिष्ठित लेखकों में स्व.श्री विष्णु प्रभाकर, श्री कमलेश्वर, श्री रस्कीन बांड, डा. प्रभाकर माचवे, श्री पी.डी. टंडन, श्री रतनलाल शर्मा, श्री श्रीनाथ सिंह, श्री रामदरश मिश्र, डा.शंकर दयाल सिंह, श्री विष्णु स्वरूप सक्सेना, डा. महीप सिंह, श्री यशपाल जैन, श्री राजेंद्र अवस्थी, सुश्री आशारानी व्होरा, श्री बेधड़क बनारसी, श्री शैलेन चटर्जी, श्री लल्लन प्रसाद व्यास, श्री शेर बहादुर विमलेश, डा.गौरीशंकर राजहंस, श्री अक्षय कुमार जैन, श्री प्रेमपाल शर्मा, श्री आर.के. पचौरी, डा. दिनेश कुमार शुक्ला, श्री उदय नारायण सिंह, श्री अरविंद घोष, श्री देवेंद्र उपाध्याय, श्री विमलेश चंद, श्री राधाकांत भारती, श्री दुर्गाशंकर त्रिवेदी, श्री कौटिल्य उदियानी, श्री देवकृष्ण व्यास, शार्दूल विक्रम गुप्त, के.जी.जोगलेकर, शशिधर खां, लक्ष्मीशंकर व्यास, मंजु नागौरी से लेकर यादवेंद्र शर्मा चंद्र समेत हिंदी के कई विद्वान लेखक और पत्रकार जुड़े रहे हैं। आचार्य जे.बी.कृपलानी, श्री के.के. बिड़ला और श्री सुनील दत्त समेत अन्य कई हस्तियों के लेख भी भारतीय रेल में छपे हैं। इतना ही नहीं पत्रिका की शुरूआत से ही लेखकों के लिए उचित पारिश्रमिक देने की भी व्यवस्था भी रही है। इस पत्रिका के विशेषांक में रेल मंत्री, राज्यमंत्री,अध्यक्ष रेलवे बोर्ड तथा अन्य सदस्यगण और क्षेत्रीय रेलों तथा उत्पादन इकाइयों के महाप्रबंधक नियमित लिखते रहते रहे हैं।

भारतीय रेल में 1960 के बाद के सारे रेल बजट तथा उन पर सारगर्भित समीक्षाएं विस्तार से प्रकाशित हुई हैं। इस दौर की सभी प्रमुख रेल परियोजनाओं, खास निर्णयों और महत्वपूर्ण घटनाओं को भारतीय रेल में प्रमुखता से कवरेज दिया गया। इसी नाते खास तौर पर अध्येताओं तथा अनुसंधानकर्ताओं के लिए यह पत्रिका एक अनिवार्य संदर्भ भी बन गयी है।
30 दिसंबर 1960 को जब रेल भवन का उद्‍घाटन किया था उस समय तक भारतीय रेल पत्रिका के पांच अंक प्रकाशित हो चुके थे। रेल भवन बन जाने के बाद भारतीय रेल का संपादकीय पता बदल कर 369, रेल भवन हो गया। भारतीय रेल पत्रिका का पहला विशेषांक रेल सप्ताह अंक 1961 के नाम से अप्रैल 1961 में प्रकाशित किया गया।

झारखंड की संध्या गुप्ता को राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त सम्मान

राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त जयंती समारोह सम्पन्न

सम्मानित होतीं जय वर्मा


माननीय रत्नाकर पाण्डेय के हाथों डॉ॰ संध्या गुप्ता का सम्मान

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त-जयन्ती ( 3 अगस्त, 09 ) के शुभ अवसर पर हिन्दी-भवन सभागार, नयी दिल्ली में आयोजित एक गरिमापूर्ण-भव्य समारोह में डॉ॰ संध्या गुप्ता को उनकी काव्यकृति “बना लिया मैंने भी घोंसला” (राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली) के लिये राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त विशिष्ट सम्मान 09 प्रदान किया गया। यह सम्मान राष्ट्रकवि के नाम, प्रति वर्ष राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त मेमोरियल ट्रस्ट, दिल्ली की ओर से उच्च स्तरीय कमिटि द्वारा चयनित काव्यकृति पर दिया जाता है। उक्त पुस्तक का चयन पिछले पाँच वर्षों में प्रकाशित 100 काव्यकृतियों में से किया गया। इस अवसर पर डॉ॰ गुप्ता के जीवन वृत्त एवं समग्र साहित्यिक अवदान पर प्रकाश डाला गया। संध्या गुप्ता की कविताओं में पीड़ित मानवता के उत्थान की छटपटाहट एवं सामाजिक विसंगतियों-विडम्बनाओं पर गम्भीर कुठाराघात है। संध्या गुप्ता एक लम्बे समय से रचनात्मक लेखन कार्य में जुडी हैं। उनकी रचनायें देश की लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर छपती रही हैं। अभी हाल ही में उनकी एक महत्वपूर्ण पुस्तक 'काव्य शिला पर विद्यापति और नरसिह मेहता' बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी, पटना द्वारा प्रकाशित एवं चर्चित हुई है।

इसी अवसर पर राष्ट्रकवि के ही नाम का सामान्य श्रेणी का सम्मान राकेश नंदिनी को उनके कविता संग्रह “पुरंदरा” के लिये तथा पहला प्रवासी भारतीय साहित्कार सम्मान “सहयात्री हैं हम” के लिये लंदन की जय वर्मा को दिया गया। साहित्यकार डॉ. सीताराम गुप्त दिनेश और समाज सेवी अरविंद गोल को विभिन्न सम्मानों से सम्मानित किया गया। कुशल संचालन डॉ. अजय गुप्त का था।

इसका आयोजन राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त ट्रस्ट और गहोई वैश्य एसोसिएशन, दिल्ली द्वारा किया गया। इस समारोह की अध्यक्षता पूर्व सांसद डॉ. रत्नाकर पांडेय ने की। इस समारोह में बड़ी सख्या में कवि, साहित्यकार, पत्रकार, सांसद, विधायक, सभासद और अनेक क्षेत्रों के गणमान्य जन उपस्थित थे।

महान राष्ट्रकवि की याद में यह संकल्प लिया गया कि उनके नाम का एक स्मारक बनाया जाय तथा सरकार द्वारा दिल्ली की किसी गली का नाम राष्ट्रकवि के नाम की जाए।










रिपोर्ट- शमशेर अहमद खान, दिल्ली

Wednesday, August 19, 2009

हिंदी विश्व की श्रेष्ठतम भाषाओं में एक- शमशेर अहमद खान


भद्रजनों को संबोधित करते मुख्य अतिथि शमशेर अहमद ख़ान

बांसी(सिद्धार्थ नगर) ’’हिंदी का ज्ञान रखने वाला शिक्षित नवयुवक कभी बेरोजगार नहीं हो सकता, क्योंकि भारतवर्ष के भीतर यदि कोई भाषा संपर्क भाषा के रूप में कार्य कर सकती है तो वह हिंदी ही है।"

यह विचार विगत दिनों स्थानीय राजा रतनसेन महाविद्यालय के सभागार में राजभाषा हिंदी की संवैधानिक स्थिति पर आयोजित एक दिवसीय संगोष्ठी में भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा, केंद्रीय हिंदी प्रशिक्षण संस्थान, नई दिल्ली वरिष्ठ सहायक निदेशक शमशेर अहमद खान ने व्यक्त किए। उन्होंने हिंदी की महत्ता प्रतिपादित करते हुए कहा कि लोकतंत्रात्मक भारत में संघ की राजभाषा हिंदी रखी गई ताकि आजाद भारत में संघ सरकार का शासन आम हिंदुस्तानी की जुबान में चलाया जा सके। जिसका उल्लेख भारत के संविधान के अनुच्छेद 343 में किया गया है। उन्होंने अनुच्छेद 345, 346 और 347 का भी हवाला दिया जिसमें इस बात का उल्लेख किया गया है कि राज्यों की भी राजभाषा या राजभाषाएं उस राज्य में बोलने वाले लोगों की होंगी। जैसाकि विदित है उत्तर प्रदेश की दो राजभाषाएं हिंदी तथा उर्दू है और दिल्ली में दिल्ली सरकार की भाषायी जनसंख्या के आधार पर हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी है। लेकिन अगर मान लिया जाय तमिल भाषियों का एक बडा समुदाय दिल्ली में आ बसता है और जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से राज्य की पांचवी भाषा तमिल की माँग करता है तो यह संविधान सम्मत कार्य होगा।

विगत दिनों महाराष्ट्र का भाषायी विवाद बिल्कुल असंवैधानिक कार्य था। लिहाजा देशवासियों को ऐसे विवादस्पद लोगों से सावधान रहना चाहिए। भाषायी विवाद से अधिक महत्वपूर्ण राष्ट्रीय एकता और देश की अखंडता है।

मुख्य अतिथि के रूप में बोलते उन्होंने हिंदी की लिपि देवनागरी की विशेषताएं भी बताया और इसे विश्व की श्रेष्ठतम लिपियों में एक बताया। उन्होंने अब्दुर्रहीम खानखाना को श्रेष्ठ अनुवादक और श्रेष्ठ भाषाविद बताया।


संगोष्ठी के श्रोता

संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे कालेज के प्रबंधक एवं बांसी रियासत के राजकुमार जयप्रताप सिंह ने मुख्य अतिथि का स्वागत करते हुए कहा कि आज हिंदी का प्रयोग व्यापक स्तर पर हो रहा है। यह भद्रजनों की भाषा है। भूमंडलीकरण के इस युग में वैश्विक स्तर की कंपनियां अपने उत्पादों पर देवनागरी लिपि का प्रयोग करने लगी हैं। विदेशी फिल्में और सीरियल हिंदी में डब होने लगे हैं।

सरकारी कामकाज में हिंदी का ही प्रयोग किया जाना चाहिए तभी सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की सफलता मानी जाएगी। बी.एड. के विभागाध्यक्ष नंदलाल चौधरी ने अतिथियों को संगोष्ठी में सहभागिता के लिए आभार व्यक्त किया।

कार्यक्रम का शुभारंभ सरस्वती वंदना और दीप प्रज्ज्वलन के साथ हुआ, जिसमें सर्वप्रथम महाविद्दालय के प्रबंधक ने मुख्य अतिथि को माल्यार्पण कर अंगवस्त्र से सम्मानित किया तथा प्राचार्य व संरक्षक डॉ.हरेश प्रताप सिंह ने मुख्य अतिथि शमशेर अहमद खान के व्यक्तित्व व कृतित्व पर बहुत ही सुंदर शैली में प्रकाश डालते हुए संगोष्ठी में सम्मिलित सभी अतिथियों का स्वागत किया।


मंच की शान

इस अवसर पर महाविद्दालय के ओम प्रकाश राय, डॉ. विजय कुमार राय, डॉ. जगदंबा गौड़, डॉ. अर्चना मिश्र, डॉ. संतोष सिंह, डॉ. अब्दुल वकी, डॉ. जय नारायण मिश्र, डॉ. सुनील श्रीवास्तव, डॉ. श्कीकुद्दीन, लालदेव सिंह, डॉ. अशोक पांडेय, डॉ. प्रभुदयाल शर्मा, डॉ.अनिल प्रजापति, डॉ.ज्योतिमा राय, हरिशंकर तिवारी, प्रधानाचार्य रतनसेन इंटर कालेज राधेश्याम चतुर्वेदी, अरुण कुमार मिश्र, राजेश शर्मा, रणजीत सिंह, संतराम द्विवेदी व भोजपुरी फिल्म निर्देशक एस. के. भरद्वाज तथा समस्त छात्र-छात्राओं की उपस्थिति उल्लेखनीय रही।


संगोष्ठी के बाद का वातावरण

Tuesday, August 18, 2009

प्रवास में पहली कहानी का लंदन में लोकार्पण



कथा यू.के. ने लंदन के नेहरू केन्द्र में उषा वर्मा एवं चित्रा कुमार द्वारा संपादित ब्रिटेन की हिन्दी-उर्दू की महिला कथाकारों द्वारा लिखी गई पहली कहानी के संग्रह प्रवास में पहली कहानी का लोकार्पण समारोह आयोजित किया। समारोह की अध्यक्षता बीबीसी हिन्दी सेवा रेडियो की पूर्व-अध्यक्ष अचला शर्मा ने की जबकि संचालन का भार संभाला भारतीय उच्चायोग के हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी श्री आनंद कुमार ने।

बर्मिंघम से पधारी विदुषी डा. वन्दना मुकेश शर्मा ने कहानी संग्रह पर एक लम्बा लिखित लेख पढ़ा। उनके अनुसार, “विश्व के हिन्दी साहित्य में यह संग्रह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पहली कहानी पहली संतान की तरह प्रिय होती है। ... विदेश की धरती पर जब इन कथाकरों को जीने के लिए भौतिक दैहिक और मानसिक संघर्षों से गुज़रना पड़ा होगा तब उनके भीतर अपने न अनुभवों को शब्दांकित करने की छटपटाहट से जन्मी होगी उनकी पहली कहानी।”

कहानी संग्रह की संपादिका उषा वर्मा ने आने वाली पीढ़ी को सम्बोधित करते हुए कहा, “यदि मैं तुम्दारी पीढ़ी में इन किताबों के माध्यम से जीवित रहूं तो यही मेरी मुक्ति है।” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने घोषणा की, “बाहरी प्रयोजन न होने पर भी हम लिखेंगे। लिखना अपने अंदर से बाहर आना होता है। लेखन हमारी संपूर्णता का सवाल है। इट इज़ अ क्वैश्चन ऑफ़ माई होल बीइंग। कोई भी कला ङमारे भीतर के आलोक को बाहर लाती है।” हिन्दी और उर्दू कहानियों की तुलना करते हुए उनका मत था, “...ऐसा मेरा ख़याल है कि उर्दू कहानियों में इंटेलेक्चुअल टफ़नेस हिन्दी कहानियों से अधिक है जब कि हिन्दी कहानियों में सांस्कृतिक विवेक गहराई से स्पष्ट हुआ है।”

काउंसलर ग्रेवाल की सोच थी, “हमें इन कहानियों का अंग्रेज़ी में अनुवाद करवाना चाहिये। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह होगी कि इन पुस्तकों को किसी भी तरह यहां के पुस्तकालयों में पहुंचाया जाए।”

भारत से पधारे प्रो. अब्दुल सत्तार दलवी (मुम्बई) ने इस पूरे प्रोजेक्ट की बहुत तारीफ़ की और कहा कि इससे अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य को भी बढ़ावा मिलेगा और इस तरह के अन्य संकलन भी निकलने चाहियें।

समारोह में कीर्ति चौधरी की कहानी का पाठ बर्मिंघम निवासी कृति यू.के. की अध्यक्ष तितिक्षा शाह ने किया।

अध्यक्ष पद से बोलते हुए अचला शर्मा ने इस गरिमापूर्ण कार्यक्रम के लिये संपादक द्विय एवं कथा यूके को बधाई देते हुए कहा कि इस प्रकार के संकलन साहित्य को एक अलग दृष्टि से देखने में सहायक होते हैं।

कथा यू.के. के महासचिव एवं कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने कहा कि इस प्रकार के संकलन विदेश में बसे भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों के लिये बहुत महत्वपूर्ण हैं। हिन्दी और उर्दू के बीच जो दूरियां लिपि की वजह से बढ़ती जा रही हैं, अनुवाद उसे कम करने का एक महत्वपूर्ण औज़ार है। उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि जल्दी ही एक और कहानी संकलन का विमोचन नेहरू केन्द्र में होगा जिसमें ब्रिटेन के उर्दू कहानीकारों की कहानियों हिन्दी साहित्यजगत के सामने अनुवाद के माध्यम से प्रस्तुत की जाएंगी। उन्होंने इस आयोजन के लिये नेहरू केन्द्र को विशेष रूप से धन्यवाद किया।

कार्यक्रम में अन्य लोगों के अतिरिक्त काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी, डा. कृष्ण कुमार (बर्मिंघम), डा. महेन्द्र वर्मा (यॉर्क), कैलाश बुधवार, गौतम सचदेव, दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, नरेश भारतीय, महेन्द्र दवेसर, कादम्बरी मेहरा, स्वर्ण तलवाड़, रमा जोशी, सफ़िया सिद्दीक़ि, बानो अरशद, पद्मेश गुप्त, डा. श्याम मनोहर पाण्डे, चांद शर्मा, हमीदा मोइन रिज़वी (हैदराबाद, भारत), डा. ख़ूबचन्दानी (पुणे), डा. वशीमी शर्मा, डा. मुज़फ्फ़र शमीरी, डा सुरेश अवस्थी, डा जयकिशन, डा. फ़ातिमा परवीन, मोहम्मद क़ासिम दलवी भी उपस्थित थे।

- नूपुर अहूजा

Monday, August 17, 2009

दीवानचंद ट्रस्ट सभागार में 'आनंदम' के वार्षिकोत्सव पर मधुर काव्य संध्या


जगदीश जैन, ममता किरण और जगदीश रावतानी 'आनंदम्'

'आनंदम' संगीत व साहित्य संस्था दिल्ली की एक सुप्रसिद्ध संस्था है जो अपनी सशक्त संगीत व साहित्यिक गतिविधियों के लिए सुपरिचित है। इस के संस्थापक जगदीश रावतानी 'आनंदम' संगीत कॉलेज के संस्थापक व प्रिंसिपल हैं, जहाँ कई विद्यार्थी संगीत की शिक्षा ले रहे हैं। इसके अतिरिक्त 'आनंदम' की मासिक काव्य गोष्ठियां भी सुपरिचित हैं, जिन में हिंदी-उर्दू के समकालीन कवि अपनी कविताओं गज़लों का पाठ करते हैं। 11 अगस्त 2009 (मंगलवार) को दिल्ली के शिवाजी स्टेडियम के निकट स्थित 'दीवानचंद ट्रस्ट' के सभागार में 'आनंदम' संस्था द्वारा एक वर्ष पूरा होने पर एक मधुर काव्य-संध्या का आयोजन किया गया, जिस की अध्यक्षता प्रसिद्ध शायर जगदीश जैन ने की। यह सभागार 'दीवानचंद ट्रस्ट' के निदेशक एम.के. गौड़ के सहयोग से इस काव्य संध्या के लिए उपलब्ध हुआ तथा अनेक व्यस्तताओं के बावजूद गौड़ काव्य संध्या में अंत तक उपस्थित रहे। गोष्ठी का संचालन हिंदी साहित्य की जानी-मानी शख्सियत ममता किरण ने किया। गोष्ठी में 'आनंदम' अध्यक्ष जगदीश रावतानी व ममता किरण के अतिरिक्त लक्ष्मीशंकर बाजपेयी, रविन्द्र 'रवि', मनमोहन 'तालिब', शहादत अली निज़ामी, कैसर अज़ीज़, दर्द देहलवी, ज़र्फ़ देहलवी, मजाज अमरोहवी, नमिता राकेश, नूर-उल-ऐन कैसर कासमी, सत्यवान, दीपंकर गुप्ता, आशा शैली, आनंद गोपाल सिंह बिष्ट, साक्षात भसीन, सतीश सागर, पुरुषोत्तम वज्र, व मुन्नवर सरहदी आदि ने अपनी सशक्त कविताएँ पढ़ कर समा बांध दिया। गोष्ठी, आज की कविताओं के प्रस्तुतीकरण को देखते हुए, एक विशिष्ट गोष्ठी लग रही थी। आकाशवाणी दिल्ली में निदेशक लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने इस गोष्ठी में जो ग़ज़ल पढ़ी उस का हर शेर, कवि मन को जिस मानवीय संवेदना ने बुना है, उस की एक झलक देता है, जैसे:

अपने कट जाने से बढ़ कर ये फिकर पेड़ को है
घर परिंदों का भला कैसे उजड़ता देखे


चाहे पारिवारिक संबंधों की विसंगतियों की बेबाक अभिव्यक्ति हो, चाहे शहर में चलते फिरते इंसानों के बीच व्याप्त एक चुभती सी अजनबियत, बाजपेयी एक अद्वितीय प्रभाव के साथ रचना लिखते व कहते हैं.

गांव के सम्मुख शहर की हीनता को अपने अंदाज़ में कह गया रविन्द्र 'रवि' का यह शेर:

हमारे गांव में जुगनू भी खुलकर जगमगाते हैं
तुम्हारे शहृ में तो चाँद भी मद्धम निकलता है


रविन्द्र 'रवि' ग़ज़ल के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिन की अभिव्यक्ति मर्म को छूती है।

शहृ है तो शहृ के बाज़ार में बिकते आदमी का ज़िक्र भी होगा ही!... वयोवृद्ध शायर मनमोहन 'तालिब' ऐसी गोष्ठियों में अपनी वरिष्ठता व महारत की छाप हमेशा छोड़ कर रहते हैं. उन का यह शेर इस प्रगतिशील युग में आदमी की स्थिति को निर्ममता से पेश कर गया:

क्या हो गया इस दौर में नायाब है इन्साँ
हम देर से बाज़ार में खामोश खड़े हैं


शहृ और गांव के कंट्रास्ट पर ही ममता किरण ने पढ़ा:

जब से दादी रह गई है गांव, बच्चे शहृ में
तब से ही रातों में परियों का उतरना ना हुआ।

कुछ कवियों ने ईश्वर की इबादत या संतों दरवेशों के प्रति अपने उद्गार अशआर के ज़रिये प्रस्तुत किये। जैसे सूफी दरवेशों पर दर्द देहलवी का यह शेर:

फाकाकशी में जिस ने गुज़ारी थी ज़िन्दगी
भूखों के पेट भर दिए उस के मज़ार ने


और ईश्वर भक्ति का नमिता राकेश का अंदाज़:

गौहर-ए-अश्क़ को पलकों में पिरोना साईं
मुझ को आता नहीं दामन को भिगोना साईं



नमिता राकेश

'आनंदम' अध्यक्ष जगदीश रावतानी ने एक कविता और एक 'तरही ग़ज़ल' सुनाई जिस का एक मिसरा 'उदासी बाल खोले सो रही है' प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र का है। 'तरही ग़ज़ल' किसी भी प्रसिद्ध शायर की किसी ग़ज़ल के एक मिसरे को आधार बना कर उसी काफिये रदीफ़ पर अपनी ग़ज़ल लिखने को कहते हैं। रावतानी जी की निम्न शेरों पर गौर करें:

ख़ुशी दुनिया से गायब हो रही है
उदासी बाल खोले सो रही है
किसी से भी परेशानी नहीं है
मेरी खुद से लड़ाई हो रही है.


डॉ. अहमद अली बर्की 'आज़मी' ने सादगी भरे अंदाज़ में पढ़ा;

हम अर्ज़े-तमन्ना करते रहे, उस पर न हुआ कोई भी असर,
था इतना ज़ियादा सदमा-ए-ग़म हम सहते सहते सह न सके


दिल्ली की गोष्ठियों मुशायरों में वातावरण गंभीर होते हुए भी सब को उस गंभीरता से मुक्ति दिलाने व कवियों शायरों को अपने हास्य से चित्त करने वाली एक लोकप्रिय शख्सियत हैं 82 वर्षीय शायर मुनव्वर सरहदी। कविता सुनाने के लिए उन के खड़े होते ही गोष्ठी-कक्ष मानो अग्रिम रूप से ही कहकहों से भर जाता है। यहाँ भी चंद मुक्तक जो उन्होंने पेश किये, उन में से एक नमूना यहाँ प्रस्तुत है:

मैं पढ़ा लिखा था,
इसलिए मरते ही मुझ को जन्नत मिली
हर फ़रिश्ता हूर को ख़त मुझ से लिखवाता रहा.



कुछ अन्य कवियों की कविताओं गज़लों के अंश भी प्रस्तुत हैं:

कैसर अज़ीज़ -
हमें अपनी पनाहों में रखे है यूं वतन अपना
हमारे जिस्म को जैसे छुपाए पैरहन अपना

शहादत अली निज़ामी
ज़िन्दगी तुझ से कोई शिकवा नहीं है अब मुझे
कम नहीं तूने दिए आंसू हंसी खुशबू चुभन

नूर-उल-ऐन कैसर
मिली हैं एक ही रस्ते पे जा कर
सभी राहें जुदा होते हुए भी

आशा शैली
उस हवा के सामने खुद्दार सर झुकते नहीं
जिसने रंगों के लिए तितली कोई बदनाम की

ज़र्फ़ 'देहलवी'
मुझे अपने खोने का गम नहीं
मिले तुम, है ये भी तो कम नहीं

मुज़फ्फर ज़मीर झाल्वी
उसे सिवाय तबाही के कुछ नहीं मिलता
किसी के हक़ में जो झूठा बयान देता है

पुरुषोत्तम वज्र
अगर वादा किया है ज़िन्दगी भर साथ चलने का
सफ़र के बीच आ कर हमसफ़र छोड़ा नहीं जाता

गोष्ठी अध्यक्ष जगदीश जैन ने अंत में अपनी एक सशक्त कविता व ग़ज़ल पेश की। एक शेर यहाँ प्रस्तुत है:

मैं न अन्दर से समुन्दर हूँ न बाहर आसमाँ
बस मुझे इतना समझ जितना नज़र आता हूँ मैं



प्रतिभागी कवि

रावतानी ने अंत में गौड़ का विशेष धन्यवाद करते हुए सभी कवियों का आभार प्रकट किया व इस बीच 'आनंदम' के एक वर्ष पूरा होने के उपलक्ष्य में कवियों का मुंह भी मीठा कराया गया। 'आनंदम' गोष्ठियां अब तक पश्चिम विहार में 'आनंदम' संगीत विद्यालय में होती रही। पर शिवाजी स्टेडियम (राजीव चौक) दिल्ली का एक केंद्रीय सार्वजनिक स्थल है, जहाँ मेट्रो आदि के कारण पहुँचने में सुगमता होगी। रावतानी ने 'आनंदम' की भावी गोष्ठियां भी यहीं होने की आशा जतायी।

प्रस्तुति- प्रेमचंद सहजवाला

Saturday, August 15, 2009

खेत की ओर ले चलो दिल्ली, गाँव वालों को राजधानी दो- प्रो॰ नंदलाल पाठक


(बायें से दायें)- ख़ुशनुम राव, राजश्री बिरला, ललित डागा, डॉ.कर्ण सिंह, प्रो.नंदलाल पाठक और विश्वनाथ सचदेव

मुम्बई

संगीत कला केंद्र द्वारा आयोजित एक भव्य समारोह में मुम्बई के वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. नंदलाल पाठक के काव्य-संकलन ‘फिर हरी होगी धरा’ का लोकार्पण डॉ.कर्ण सिंह ने किया। इस अवसर पर उन्होंने एक ऐसी रोचक टिप्पणी कर दी कि श्रोताओं से खचाखच भरे आईएमसी सभागार में देर तक तालियाँ बजती रहीं । उन्होंने कहा- ‘खड़ी बोली हिंदी की कविता की तुलना में मुझे लोकभाषा में लिखी हुईं कविताएं अधिक प्रिय हैं।’ उन्होंने अचानक रामचरित मानस से धर्म सम्बंधी दस-बारह चौपाइयों का लयबद्ध पाठ किया और फिर कहा- ‘खड़ी बोली हिंदी की किसी भी कविता में धर्म सम्बंधी इतनी सुंदर व्याख्या नहीं मिलती।’ फिर उन्होंने सभागार में मौजूद अतुकांत कवियों को लगभग धराशायी करते हुए ब्रजभाषा का एक रससिक्त छंद भी सुनाया जिसमें कुछ वैसे ही भाव थे- ‘‘तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला मन लेहु पै देहु छ्टाँक नहीं।’’

कई बार कैबिनेट मंत्री रह चुके डॉ.कर्ण सिंह फिलहाल काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। किसी ज़माने में पाठक इस विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करते थे। मुम्बई में डॉ.कर्ण सिंह की मौजूदगी से लग रहा था जैसे वि.वि.ख़ुद चलकर छात्र के घर आ गया हो। डॉ.कर्ण सिंह ने अपनी कविता सुनाने के साथ ही पाठक के काव्य संकलन से अपनी प्रिय ग़ज़ल का पाठ भी किया–

वे जो सूरज के साथ तपते हैं
उनको इक शाम तो सुहानी दो
खेत की ओर ले चलो दिल्ली
गाँव वालों को राजधानी दो


डॉ.कर्ण सिंह ने जब इस ग़ज़ल का आख़िरी शेर पढ़ा तो लोग बरबस हँस पड़े –

मुझको मंज़ूर है बुढ़ापा भी
लेखनी को मेरी जवानी दो


संचालक कवि देवमणि पाण्डेय ने कहा कि पाठक की रचनाओं में इतनी ताज़गी इसलिए है क्योंकि उन्होंने आज तक बचपन को ख़ुद से जुदा नहीं होने दिया। वे लिखते हैं –

कल तितलियाँ दिखीं तो मेरे हाथ बढ़ गए
मुझको गुमान था कि मेरा बचपन गुज़र गया


अपनी किताब के लोकार्पण समारोह में चमकते हुए परिधान में दमकते हुए कवि नंदलाल पाठक बनारसी बारात के दूल्हे की तरह आकर्षक लग रहे थे । समारोह के संचालक कवि देवमणि पाण्डेय ने जब जीवन के 80 बसंत पार करने के लिए पाठक को सार्वजनिक बधाई दी तो समूचा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। पाण्डेय ने बताया कि उर्दू ग़ज़ल को फ़ारसी ग़ज़ल की नक़ल मानने वाले पाठक ने हिंदी ग़ज़ल को एक नई परिभाषा दी है –

ज़िंदगी कर दी निछावर तब कहीं पाई ग़ज़ल
कुछ मिलन की देन है तो कुछ है तनहाई ग़ज़ल


पाण्डेय ने आगे कहा कि उन्होंने अपनी हिंदी ग़ज़लों को हिंदुस्तानी बिम्बों, प्रतीकों और उपमानों से समृद्ध किया है। मसलन–

ज़हर पीता हुआ हर आदमी शंकर नहीं होता
न जब तक आदमी इंसान हो शायर नहीं होता


इसी क्रम में पाण्डेय ने पाठक का एक ऐसा शेर कोट कर दिया जिसे सुनकर सुंदर स्त्रियों ने शरमाने के बावजूद ख़ूब तालियाँ बजाईं –

ज़रूरत आपको कुछ भी नहीं सजने सँवरने की
किसी हिरनी की आँखों में कभी काजल नहीं होता




नवभारत टाइम्स के भूतपूर्व सम्पादक एवं नवनीत के वर्तमान सम्पादक तथा पाठक के प्रिय मित्र विश्वनाथ सचदेव उनका रचनात्मक परिचय देने के लिए जब मंच पर आए तो श्रोताओं की हँसी फूट पड़ी क्योंकि संचालक पाण्डेय ने उन्हें आमंत्रित करते हुए ख़लील धनतेजवी का एक शेर उछाल दिया था –

घूमे थे जिनकी गरदनों में हाथ डाल के
वो दोस्त हो गए हैं सभी साठ साल के


साठ का आँकड़ा पार कर चुके विश्वनाथ ने कहा कि पाठक की ग़ज़लों में एक फ़कीराना अदा है और उन्होंने दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल परम्परा को आगे बढ़ाया है। पाण्डेय ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए पाठक का एक शेर कोट किया तो दर्शकों ने ज़ोरदार तालियों से इसका समर्थन किया –

उतारें क़ाग़जों पर पुल तो इतना देख लेना था
जहाँ पुल बन रहा है उस जगह कोई नदी तो हो


अँग्रेज़ी में सुशिक्षित संगीत कला केंद्र की अध्यक्ष राजश्री बिड़ला ने हिंदी में ऐसा सरस और धाराप्रवाह स्वागत भाषण दिया कि सुनने वाले अभिभूत हो गए। इन अभिभूत होने वालों में वरिष्ठ क़लमकार डॉ.रामजी तिवारी और वरिष्ठ पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल से लेकर मुम्बई के सीलिंक को रोशनी से सजाने वाले बजाज इलेक्ट्रिकल्स के मुखिया शेखर बजाज और किरण बजाज तक शामिल थे। विविध भारती के सेवानिवृत्त उदघोषक कुमार शैलेन्द्र ने जो पुस्तक परिचय दिया वह आत्मीयता की मिठास से लबरेज़ था। प्रारंभ में सुरुचि मोहता ने पाठकजी का एक गीत बहुत सुरीले अंदाज़ में प्रस्तुत करके वाहवाही बटोरी।

संचालक देवमणि पाण्डेय ने बताया कि मुम्बई में इन दिनों ग़ज़ल पर बहुत अच्छा काम हो रहा है। गीतकार सूर्यभानु गुप्त से लेकर पत्रकार कैलाश सेंगर तक दो दर्जन कवि बड़ी अच्छी ग़ज़लें लिख रहे हैं। इन सबका प्रतिनिधित्व करने के लिए यहाँ दो कवियों का चयन किया गया है। पहले कवि हस्तीमल हस्ती ने अपना एक शेर कश्मीर के भूतपूर्व राजा डॉ. कर्ण सिंह को समर्पित कर दिया–

शुक्र है राजा मान गया
दो दूनी होते हैं चार


इस शेर पर इतनी ज़्यादा तालियाँ बज गईं कि हस्ती दूसरी ग़ज़ल तरन्नुम में पढ़ना भूल गए। मौक़े का फ़ायदा उठाते हुए दूसरे कवि राजेश रेड्डी ने तरन्नुम में वह ग़ज़ल सुनकर रंग जमा दिया जिसमें एक हासिले-मुशायरा शेर है–

मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया बड़ा होने से डरता है


इसी ग़ज़ल का एक शेर रेड्डी ने राजा और प्रजा दोनों को समर्पित कर दिया और ख़ूब वाह-वाह हुई-

अजब ये ज़िंदगी की क़ैद है दुनिया का हर इंसां
रिहाई माँगता है और रिहा होने से डरता है


पुस्तक के प्रकाशक स्टर्लिंग प्रकाशन की प्रतिनिधि ख़ुशनुम राव बोलीं कम-ज़्यादा मुस्कुराईं, इस लिए उनकी तस्वीरें बहुत सुंदर आईं। कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए कवि देवमणि पाण्डेय ने कहा कि एक अच्छा कवि हमेशा अपने समय से बहुत आगे होता है। पाठक ने भी ऐसे शेर कहे हैं जो इस सदी के आने वाले सालों का प्रतिनिधित्व करते हैं–

क़दम क़दम पर है फूलमाला, जगह जगह है प्रचार पहले
मरेगा फ़ुर्सत से मरने वाला बना दिया है मज़ार पहले


पाठक ने आत्मकथ्य प्रस्तुत करते हुए कहा कि लेखन एक ज़िम्मेदारी और मुश्किलों भरा काम है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने एक मुक्तक पेश किया –

शायरी ख़ुदकशी का धंधा है
लाश अपनी है अपना कंधा है

आईना बेचता फिरा शायर
उस नगर में जो नगर अंधा है


पाठक ने अपनी कुछ और रचनाएं सुनाकर उपस्थित जन समुदाय को उपकृत किया -

वे अपने क़द की ऊँचाई से अनजाने रहे होंगे
जो धरती की पताका व्योम में ताने रहे होंगे

अकेले किसके बस में था कि गोबर्धन उठा लेता
कन्हैया के सहायक और दीवाने रहे होंगे


पाठक का कहना है कि अगर उर्दू वाले ‘गगन’ जैसे संस्कृत शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर सकते हैं तो हमें ‘व्योम’ जैसे म्यूज़िकल शब्दों के इस्तेमाल में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।
अंत में संस्था सचिव ललित डागा ने आभार व्यक्त किया। कुल मिलाकर यह एक ऐसा रोचक कार्यक्रम था जो लोगों को लम्बे समय तक याद रहेगा।

जन्माष्टमी और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर रुधौली में हुआ कविता-पाठ



विगत दिनों उत्तर प्रदेश के बस्ती जनपद के अंतर्गत रुधौली तहसील मुख्यालय के डाक-बंगले में स्थानीय कवियों की कविता गोष्ठी का आयोजन कवि बनवारी लाल त्रिपाठी की अध्यक्षता में किया गया। इस अवसर पर दिल्ली से पधारे भारत सरकार, गृह मंत्रालय, राजभाषा विभाग, कें हिं.प्र.सं. के वरिष्ठ सहायक निदेशक शमशेर अहमद खान मुख्य अतिथि के रूप में सम्मिलित हुए। इस कविता संगोष्ठी में अपनी कविता द्वारा श्रोताओं को मंत्र मुग्ध करने वाले यशस्वी कवियों में बनवारी लाल त्रिपाठी सारंग, सादां, बलिराज भट्ट, कृष्ण भाल पांडेय, आनंद बहादुर सिंह आदि प्रमुख थे। श्रोता जहां सादां की गजल---अक्सरे नव यह चमन हमको सजाना होगा, नगमे, प्यार, वफा फिर से सुनाना होगा, गम नहीं है जो हमें जान से जाना होगा, हमें हर हाल में कश्मीर को बचाना होगा…..कौमी एकता पर आधारित इस ग़ज़ल को सुनकर दर्शक भाव विभोर हो गए। वहीं कवि सारंग की कविता जो हास्यपरक थी, सुनकर श्रोतागण हँस-हँस कर लोट-पोट हो गए। उनकी स्वरचित कविता बिन बरसात सरयू में बाढ़—कलवारी आए बनवारी-श्रोताओं द्वारा काफी सराही गई। इसके अलावा बलिराज भट्ट की आजादी की कविता भी श्रोतागण में काफी सराही गई।

Friday, August 14, 2009

‘एक पहल ऐसी भी‘ का लोकार्पण मुम्बई में संपन्न


सुमीता केशवा, नंदकिशोर नौटियाल और आलोक भट्टाचार्य

मुंबई: सुमीता पी.केशवा के प्रथम उपन्यास ‘एक पहल ऐसी भी‘ का लोकार्पण समारोह पिछले दिनों 17 फरवरी 2009 को श्री राजस्थानी सेवा संघ प्रांगण जेबी नगर, अंधेरी ( पूर्व) में सुप्रसिद्व लेखिका डॉ. सूर्यबाला के हाथों संपन्न हुआ। संघ संचालित श्री जगदीश प्रसाद टीबड़ेवाला विश्वविधालय और साहित्यिक संस्था हेमंत फांउडेशन के संयुक्त तत्वाधान में हुए इस कार्यक्रम की अध्यक्षता महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने की, जबकि संचालन प्रसिद्ध कवि-पत्राकार ‘मुंबई न्यूज चैनल‘ के संपादक आलोक भट्टाचार्य ने किया। प्रस्तावना हेमन्त फाउंडेशन की प्रबंध न्यासी प्रख्यात लेखिका संतोष श्रीवास्तव ने रखी। कार्यक्रम में डॉ. राजम नटराजम पिल्लै संपादक-कुतुबनुमा), डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ( रीडर-हिन्दी विभाग,मुंबई विश्वविधालय), अजय भट्टाचार्य ( प्रभारी संपादक-‘दैनिक नवभारत), डॉ.राम बारोट( पूर्व उप महापौर), श्री राजस्थानी सेवा संघ के अध्यक्ष प्रसिद्ध शिक्षाविद विनोद टिबड़ेवाला और बगड़का कनिष्ठ महाविधालय की प्राचार्या श्रीमती वनश्री वालेचा उपस्थित थे। अतिथियों का स्वागत श्रीमती वनश्री वालेचा ने किया, जबकि कार्यक्रम के अन्त में आभार ज्ञापन के अंतर्गत विनोद टिबड़ेवाला ने उपन्यास‘एक पहल ऐसी भी‘ के बहाने मौजूदा साहित्य लेखन पर अत्यंत ही मार्मिक वक्तव्य रखा।
लोकार्पण करते हुए कथाकार सूर्यबाला ने इस बात पर जोर दिया कि हाशिये पर पहुचा दी गयी स्त्री को न सिर्फ समाज के केन्द्र में लाना होगा बल्कि साहित्य में भी उसे केन्द्रीय भूमिका में रखना होगा। प्रमुख वक्ता के तौर पर
डॉ.राजम नटराजम पिल्लै ने कहा कि प्रस्तुत उपन्यास में जहां नारी के कठिन जीवन-संघर्ष को सौतेली बेटी, विधवा पत्नी और कन्या की मां जैसी विभिन्न नारी भूमिकाओं के आईने में बहुत ही सार्थक तरीके से दिखाया गया है, वहीं इस बात का भी अफसोस है कि नारी को अपनी देह के बारे में समस्त फैसले करने की अधिकारिणी की जगह पर नहीं बिठाया गया। अपने अध्यक्षीय भाषण में पंडित नंदकिशोर नौटियाल ने लेखिका के उज्जवल साहित्यिक भविष्य की कामना की।


डॉ॰ सूर्यबाला और सुमीता केशवा

कार्यक्रम की सफलता का प्रमाण यह था कि वरिष्ठ कथाकार मनहर चौहान और धीरेन्द्र आस्थाना, प्रसिद्ध हास्य कवि घनश्याम अग्रवाल, आकाशवाणी के प्रसिद्ध उदघोषक आनंद सिंह, कवियत्री देवी नागरानी, ‘अंतरंग संगिनी‘ की संपादक दिव्या जैन, प्रोफेसर रत्ना झा, आशीर्वाद संस्था के निदेशक उमाकांत बाजपेयी, ‘वैतरणा‘ की संचालक मंजुला जगतरामका, व्यंग्य कवि रमेश श्रीवास्तव, खन्ना मुजफ्फरपुरी, सहित अनेक साहित्यकार कवि, पत्रकार और संस्कृतिकर्मी उपस्थित थे। राजस्थानी सेवा संघ संचालित पत्राकारिता महाविधालय के निदेशक वरिष्ठ पत्राकार विनोद तिवारी की उपस्थिति उल्लेखनीय थी। कार्यक्रम की व्यवस्था में ओमप्रकाश सिंह और प्रवीण जोशी का विशेष सहयोग रहा।

Wednesday, August 12, 2009

अरुण मित्तल अद्‍भुत को वर्ष 2009 का राजेश चेतन काव्य पुरस्कार


अरुण अद्‍भुत को राजेश चेतन काव्य पुरस्कार, सम्मान पत्र प्रदान करते हुए वन पर्यटन मंत्री किरण चौधरी, साथ में हैं कवि राजेश चेतन एवं सांस्कृतिक मंच के महासचिव जगत नारायण भारद्वाज (सबसे दायें)

भिवानी।हरियाणा

शनिवार ८ अगस्त की शाम सांस्कृतिक मंच, भिवानी द्वारा राज्य स्तरीय राजेश चेतन काव्य पुरस्कार समारोह एवं कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया। समारोह में वन पर्यटन मंत्री किरण चौधरी मुख्य अतिथि थीं। कार्यक्रम में राजेश चेतन काव्य पुरस्कार चरखी दादरी के ओजस्वी युवा कवि अरुण मितल 'अद्‍भुत' को प्रदान किया गया। अरुण अद्‍भुत को यह पुरस्कार उनकी साहित्यिक प्रतिभा तथा साहित्य के प्रति उनके अप्रतिम समर्पण के लिए दिया गया। ग़ौरतलब है हरियाणा राज्य के युवा कवियों को प्रोत्साहित करने हेतु इस पुरस्कार को दिये जाने की शुरूआत वर्ष 2006 में हुईं। अद्‍भुत से पहले, डॉ रमाकांत शर्मा, गीतकार, भिवानी (2006), विपिन सुनेजा 'शायक', गजलकार एवं गीतकार, रेवाडी (2007), योगेन्द्र मौदगिल, हास्य व्यंग्य कवि एवं गजलकार, पानीपत (2008) यह पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। राजेश चेतन काव्य पुरस्कार हरियाणा राज्य के उस कवि को दिया जाता है जिसका काव्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान रहा हो। जो काव्य पाठ में समर्थ, समाज व राष्ट्र के लिए समर्पण भाव वाला हो। इस पुरस्कार में मंच की ओर से 5100 रु॰, शाल, प्रतीक चिन्ह व प्रशस्ति पत्र प्रदान किये जाते हैं। यह पुरस्कार प्रति वर्ष कवि राजेश 'चेतन' के जन्मदिवस पर 8 अगस्त को आयोजित कवि सम्मेलन में दिया जाता है। सम्मान समारोह के बाद कवि सम्मेलन में अलग-अलग अंदाज में कवियों ने अपनी रचनाएं प्रस्तुत की और वर्तमान व्यवस्था पर जमकर कटाक्ष किए। पुरस्कार समारोह के बाद एक भव्य कवि सम्मलेन का आयोजन किया गया, जिसमें देश के प्रख्यात कवियों ने काव्य पाठ किया। वैसे मंच पर युवा कवियों की प्रस्तुतियों को विशेष रूप से सराहा गया। कवि सम्मेलन की शुरूआत दिल्ली के कवि की 'जिगर माँ बड़ी आग है' कविता को श्रोताओं ने खूब पसंद किया-

आज आम आदमी की पेट की आग
इस तरह जल रही थी
की उसके सामने जिगर की आग बुझ गयी थी
आज इंसान जिगर की आग में नहीं
पेट की आग के लिए भाग रहा है
और अपने परिवार की पेट की आग मिटने के लिए
दिन का चैन खो रहा है और रातों में जाग रहा है



अध्यक्षीय संबोधन प्रस्तुत करते हुए एवं गजलें पढ़ते हुए चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के सचिव माधव कौशिक

ओजवान युवा हस्ताक्षर कलाम भारती ने आतंकवाद, मजहब की लड़ाई पर करारा प्रहार किया उनकी कविता की पंक्तियां थीं-

मंदिरों में गूंजते है पुण्य स्वर आरती के,
मज्जिदों में होती है पवन अजान है।
शुभ हो जाता प्रभात गिरजा की घंटियों से
गुरूद्वारे देते गुरुओं का दिव्य मान है।
गीता, पुराण, बाइबल हो या गुरुग्रंथ
पाते सभी भारत में आदर सम्मान है



काव्य पाठ करते हास्य कवि बागी चाचा

कार्यक्रम में सम्मानित कवि अरुण मित्तल अद्‍भुत ने अपनी कविता 'जो सींच गए खून से धरती' पढ़कर समस्त सभागार को राष्ट्रीयता के रंगों में डुबो दिया। उनकी इन पंक्तियों पर विशेष रूप से श्रोताओं का आर्शीवाद मिला

गांधी, सुभाष, नेहरु, पटेल, देखो छाई ये वीरानी
अशफाक भगत बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी
है कहा वीर आजाद और वो खुदीराम सा बलिदानी
जब लाल बहादुर याद करूं, आँखों में भर आता पानी


उनके इन शेरों को भी खूब दाद मिली :

जो उजालों में मिलेंगे शाम को
वो सुबह जैसा कहेंगे शाम को
इन चिरागों में किसी का है लहू
खुद ब खुद ये जल उठेंगे शाम को

न ही मंजिल रास्ता कोई नहीं
सच है फिर मेरा खुदा कोई नहीं
है बड़ा ये गावं भी वो गावं भी
तीन रंगों से बड़ा कोई नहीं


वरिष्ठ कवि राजेश चेतन जैन ने अपनी कविता "उसके बस की बात नही" माध्यम से अमेरिका, पाकिस्तान, चीन पर निशाने साधे। उन्होंने इस कविता में राजनेताओं के चरित्र को भी लपेटा और वर्तमान व्यवस्था को बदलने का परामर्श भी दिया। उनकी कविता की कुछ विशेष पंक्तियाँ थी:

बात बात में बात बनाना उनके बस की बात नही।
घर के लोगों को समझाना उनके बस की बात नही॥

जात पात का हाथी लेकर हाथ हिलाना आता है।
उस हाथी पर दिल्ली आना उनके बस की बात नही॥

मनमोहन जी हर चुनाव में पी॰ एम॰ तो बन सकते हैं।
लोक सभा का एम॰ पी॰ बनना उनके बस की बात नही॥


मंच संचालन कर रहे कवि चिराग जैन ने अपनी गजल कुछ इस अंदाज़ में पढ़ी:

जहां हमको जन्नत का मंजर मिला है
वहां तुमको बस पत्थर मिला है,
कोई तेरी रहमत को माने ने माने,
तेरा नाम सबकी ज़ुबाँ पर मिला है।



कवि सम्मलेन का मंच सञ्चालन करते सशक्त युवा हस्ताक्षर चिराग जैन

अनपढ़ माँ नाम की उनकी विशेष कविता ने श्रोताओं का माँ के प्रति नमन कराया। इस कविता अंतिम पंक्तियों ने सचमुच एक अनमोल सन्देश से श्रोताओं के मस्तिष्क को झंकृत कर दिया:

सच ! कोई भी माँ अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि
बहुत साड़ी डिग्रियां बटोरने के बावजूद
बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है
की गृहस्थी कैसे चलानी होती है


दिल्ली की ही व्यंगकार बलजीत कौर तन्हा ने जूतों की महिमा सुनाई उनकी पंक्तियाँ थी-

जूते ने आज पांव में आने से किया इंकार,
बोला तुम कवि हो तो पहले सुनो मेरी पुकार,
नही चाहता किसी पीएम पर डाला जाऊं,
नही चाहता किसी पर डाला जाऊं,
गर चाहते हो मुझे मारना तो मेरी चाहता को समझ जाओ,
जूता उठाना तुम बाद में
पहले कसाव को चौराहे पर लटकाओ।


बलजीत कौर की जिन्दा शहीद कविता में शहीद की माँ और बहन को जिन्दा शहीद मानकर किये हुए प्रयोग से सभागार में उपस्थित सभी श्रोताओं की आँखें नाम हो गयी.

हास्य कवि बागी चाचा ने वर्तमान परिवेश के परीक्षा ढर्रे पर जम कर कटाक्ष किए। उन्होंने राष्ट्र धरम की भी बात की उनकी रचना थी-

तोड़ दे अब जाति ओर धर्म की मचान को,
भूल जा अभी तू गीता और पुराण को,
बट चुकी है यह धरती आज तुकड़ों में बहुत,
धर्म तू बना ने अपना पूरे आसमान को।


उनकी हास्य कविताओं 'जूता', मुर्गासन, पेड़ और पुत्र पर भी लोगों ने खूब आनंद लिया. "जूता कविता की विशेष पंक्तियाँ थी :

एक भ्रष्टाचारी की उतारने को आरती
जूते को पानी में भिगोया
पानी से निकलते ही
जूता टप्प टप्प रोया


स्थानीय कवि हनुमान प्रसाद अग्निमुख ने अपनी कविता के माध्यम से पाकिस्तान को दो-दो हाथ करने की चेतावनी दी। उनकी काव्य पाठ के दौरान पंडाल निरंतर तालियों से गूंजता रहा।

चंडीगढ़ साहित्य अकादमी के सचिव माधव कौशिक ने भी सारगर्भित काव्य पाठ कर उपस्थित जनों का मन मोहा। कार्यक्रम की अध्यक्षता गणेश गुप्ता ने की। इस अवसर पर नगर परिषद चेयरपर्सन सेवा देवी ढिल्लो विशिष्ट अतिथि थी। चन्द्रभान सुईवाला स्वागत अध्यक्ष थे। कवि सम्मेलन के समापन पर सांस्कृतिक मंच के अध्यक्ष डॉ. बीबी दीक्षित, महासचिव जगत नारायण भारद्वाज ने सभी का आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम के संयोजक दीवान चंद रहेजा व शशि परमार ने सफल आयोजन के लिए मंच के सदस्य व पदाधिकारियों को बधाई दी। सभी ने युवा कवि अरुण मित्तल अद्‍भुत को सम्मान प्राप्त करने पर बधाई दी और उनके उज्जवल भविष्य की कामना की।

अन्य झलकियाँ-


युवा कवि अरुण मित्तल 'अद्भुत' को राजेश चेतन काव्य पुरस्कार, स्मृति प्रतीक भेंट करते हुए नगर परिषद चेयरमैन सेवा देवी ढिल्लो


कवि सम्मलेन के लिए प्रस्तुत युवा कवियों की टोली (बाएँ से) बलजीत कौर 'तन्हा', हरमिंदर पाल, अरुण मित्तल 'अद्भुत', कलाम भारती और चिराग जैन


माधव कौशिक जी से गजल पर गुफ्तगू करते युवा कवि चिराग जैन और अरुण 'अद्भुत'


काव्य पाठ करते कवि अरुण 'अद्भुत'

Tuesday, August 11, 2009

झूलेलाल की याद में झूमे दिल्लीवासी


पूरे विश्व में सिन्धी समाज के लोग बसे हुए है और दुनिया के हर कोने में ये लोग भगवान झूलेलाल की याद में हर साल बहुत उत्साह से 40 दिनों का उत्सव मनाते हैं, जिसे चालिहा कहा जाता है। सिन्धु नदी के आस-पास बसने वाले लोग जब कुछ दुष्टों के अत्याचारों से तंग आ गए तो उन्होंने वरुण देवता से शैतानो से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना की और फिर जन्म हुआ भगवन झूलेलाल का। अत्याचारियों का नाश हुआ और सिन्धी भक्तों ने झूलेलाल को अपना भगवान माना।



सिन्धी अकेडमी ने हर साल की तरह इस बार भी दिल्ली की सभी पंचायतों को आर्थिक मदद के साथ और सभी सहूलियते प्रदान करवाई ताकि चालिहा बड़ी धूम धाम से मनाया जा सके। परिणामस्वरूप आजकल दिल्ली के सभी सिन्धी भाई बहन झूले लाल के रंग में रंगे हुए है। मंदिरों में रौनक है, आस-पास रह रहे दूसरी भाषा बोलने वाले भी इस उत्सव में शरीक हो रहे है। इसी शृंखला में 8 अगस्त 09 को मुनिरका में एक संगीत का रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया गया। आनंदम नाम की संस्था के संस्थापक व गायक जगदीश रावतानी आनदम् ने अपनी सुरीली और दमदार आवाज़ से सिन्धी कलाम और भजन पेश कर के उपस्थित श्रोताओं का मन जीत लिया। उनका साथ उसी जोश-खरोश से कुमारी शीतल, मैडम विजय, और प्रेम जग्तिआनी ने दिया। संगीत निर्देशक अशोक बंधू ने भी माहौल को संगीतमय बनाने में पूरा साथ निभाया। मुनिरकावासियों के पैर थिरकने लगे और वे खूब नाचे। कुछ कलाकारों ने झाँकियाँ प्रस्तुत कर लोगों का मनोरंजन किया। मुनिरका सिन्धी पंचायत के प्रधान केसवानी ने जगदीश रावतानी आनंदम और साथियों को ख़ूबसूरत कार्यक्रम प्रस्तुत करने पर धन्यवाद दिया। अंत में प्रीतिभोज किया गया।


संगीत-प्रस्तुति देते विजये, शीतल और जगदीश रावतानी


उपस्थित दर्शकगण


अपना वक्तव्य देतीं एमएलए बरखा सिंह