Friday, April 30, 2010

विश्व पुस्तक दिवस पर आयोजित 'कविता में जुगलबंदी'



23 अप्रैल 2010
गांधीनगर, अहमदाबाद में फिल्म-प्रशिक्षण-संस्थान सिटी प्लस द्वारा एक प्रयोगात्मक रोचक कार्यक्रम 'कविता में जुगलबंदी' का आयोजन किया गया| साहित्यिक क्षेत्र में यह इस प्रकार का एक नवीन प्रयोग था जो काफी रोचक रहा और श्रोताओं को अंतत: बांधे रहा| यह जुगलबंदी थी नगर की दो सुप्रसिद्ध कवयित्रियों- डॉक्टर प्रणव भारती और मंजु महिमा के बीच में| कार्यक्रम के संचालक सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्री विजय रंचन जी ने दोनों कवयित्रियों का पूर्ण परिचय देते हुए अपने साहित्यिक ज्ञान का भी परिचय दिया| पाश्चात्य और भारतीय साहित्य की तुलना करते हुए काफी जानकारी श्रोताओं को दी| उन्होंने कहा, 'मैं आतुर हूँ यह जानने को कि यह कैसे जुगलबंदी होगी क्योंकि दोनों ही कवयित्रियाँ कविता अलग-अलग विधा में काव्य-रचना करती हैं- एक गीतकारा है और छंदबद्ध गीत लिखती हैं तो दूसरी छंदमुक्त विधा को स्वीकारती हैं?’ इसी जिज्ञासा के साथ उन्होंने इस कार्यक्रम का आगाज़ कर डॉक्टर प्रणव भारती और मंजु महिमा को मंच पर आमंत्रित किया| सेवानिवृत वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी श्रीमती सुधा ने पुष्प-गुच्छों से स्वागत किया| कार्यक्रम के आयोजक तथा संस्था के निदेशक श्री आई.एस.माथुर ने कार्यक्रम आरम्भ करने की सहमति दी|

अपने मधुर स्वर में डॉ.प्रणव भारती ने सरस्वती-वंदना कर वातावरण को पुनीत कर दिया और अपनी सुन्दर रचना ''तुम मुझे एक कविता दे दो..दुल्हन के पैरो में महावर सी सजी नाजुक सी कविता' ज़वाब में मंजु महिमा ने सुनाया कि आजकल के माहौल में जहां हर घड़ी बमों के फटने की खबरे आती रहती हैं, मै कैसे अपने कविता कामिनी को सजाऊँ अलंकारों से, कैसे उसे बादल के घिर आने का सन्देश सुनाऊँ कैसे पहना दूं मै कविता कामिनी को सतरंगी चूनर, जबकि नज़र आ रहे है मुझे हर ओर कफ़न ही कफ़न| इसी प्रकार भारती ने सुन्दर-मधुर गीत 'पहले तो कूका करती थी कोयल मन के गाँव में' सुनाकर श्रोताओं को मन्त्र-मुग्ध कर दिया तभी मंजु ने कोयल से ही पूछ लिया, 'कोयल तुम कैसे कूक पाती हो? ज़हरीली गैस छोड़ती चिमनियाँ, धुंआ ही धुंआ उठा अम्बर में, कैसे तुम श्वासों को सहला, हरियाले गीत सुना पाती हो? बैठ नीम की डाल, कैसे मधुर गीत छेड़ पाती हो?

'रिश्तों के आकार नहीं होते' भारती की रचना के उत्तर में मंजु ने चाहत और प्रारब्ध का बिम्ब भाई-बहन के संबंधों के माध्यम से चित्रित किया तो श्रोता दाद दिए बिना नहीं रह सके| नारी-विमर्श की रचना, ’तृप्त सागर के किनारे एक नदिया अनमनी सी है, झूमते बादल समेटे,सूर्य की एक हथकड़ी है|’ प्रणव ने सुनाई और 'क्यों गरल के घूँट पीती रहीं तुम आज तक?’ के ज़वाब में महिमा ने कहा अब ऐसा नहीं होगा 'बहुत होगई मनमानी महानता की आड़ में, मै सीता नहीं, अहिल्या नहीं और न ही हूँ गांधारी| मै तो हूँ बस आज की नारी, जिसे रचना है वर्त्तमान न कि इतिहास और पुराण' रचना सुना कर श्रोताओं को सोचने पर मजबूर कर दिया| इसी प्रकार दोनों कवयित्रियों की यह जुगलबंदी करीब डेढ़ घंटे तक निर्विघ्न रूप से चलती रही और श्रोताओं का भरपूर मनोरंजन करती रही|

उपस्थित समुदाय में संस्थान के स्वप्नदृष्टा श्री अशोक पुरोहित, श्रीमती वीणा पुरोहित तथा नगर के करीब ५० कलाप्रेमियो ने भाग लेकर देश की पहले स्नातक फिल्म-शिक्षण संस्था की शुक्रवारीय संध्या को एक यादगार संध्या बना दिया|