हिन्दी के शीर्ष आलोचक प्रो. आनंद प्रकाश दीक्षित दिल्ली में गुरुवार को अपनी पुस्तक ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ के लोकार्पण के अवसर पर अपनी वृद्धावस्था एवं अस्वस्थता के कारण पुणे से नहीं आ सके थे, किंतु इस अवसर पर पढ़े जाने के लिए उन्होंने पुस्तक के प्रकाशक, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली के प्रबंध निदेशक सुरेन्द्र मलिक को एक पत्र भेजा था, जिसका पाठ उक्त अवसर पर किया गया। यह महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक पत्र हम अपने पाठकों के अवलोकनार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी बिंदु पर यह भी बताना समीचीन होगा कि प्रो. नामवर सिंह ने दीक्षित जी के महत्त्वपूर्ण दाय का स्मरण करते हुए कहा-यह हिन्दी में पहली बार हुआ है कि किसी कृति के लोकार्पण के साथ उसी कृति पर एक महत्त्वपूर्ण आलोचना-ग्रंथ का भी लोकार्पण हुआ हो। जिसके लेखक स्वयं हिन्दी के बड़े आचार्य हैं।
प्रिय श्री सुरेन्द्र जी,
सादर सस्नेह नमः!
श्री ‘उद्भ्रांत’ की काव्यकृतियों के साथ-साथ मेरी पुस्तक ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ के लोकार्पण-समारोह में 2 जुलाई को मेरा उपस्थित रहना संभव न होगा। आयु के इस छियासिवें ढलान पर गिरता स्वास्थ्य लंबी उड़ान भरने के अनुमति नहीं देता। अभाग्य मेरा! उपस्थित रह पाता तो पंक्तेय साहित्यिक मित्रों तथा नई पीढ़ी के सूर्योदयी सारस्वत समुदाय से मिलकर कुछ ज्ञान-समृद्ध हो पाता। मेरी उपस्थिति की इतनी ही सार्थकता हो सकती थी। उससे वंचित रह जाने का मुझे गहरा दुःख है।
त्रेतायुगीन स्त्री और दलित की स्थिति का चित्रण और सबलीकरण कवि का अभिष्ट
इस अवसर पर मुझसे कुछ अपेक्षित हो सकता तो यही कि मैं लोकार्पित की जाने वाली रचनाओं, विशेषतः ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’, के विषय में उसके रचना-तंत्र और बहुत हुआ तो अपने रचना-कर्म को लेकर परिचय के दो शब्द कहूँ। लेकिन ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ तो एक आलोचनात्मक कृति है। ‘त्रेता’ काव्य के बिना उसका अस्तित्व ही कहाँ? अतः उसका परिचय भी प्रकारांतर से ‘त्रेता’ का ही परिचय है। अगर उससे अलग कुछ और हो सकता है तो शंका, उत्सुकता अथवा जिज्ञासावश इतना जानना ही कि आखि़र मैंने इसे क्यों लिखा? लिखा, इसलिए कि मुझसे लिखा लिया गया। जी! कवि के द्वारा नहीं, ‘त्रेता’ के द्वारा। ‘त्रेता’ की मूल प्रति पढ़कर मैं अपने आप-आप को रोक ही नहीं सका कि चुप रहूँ। उठाए हुए कामों को त्वरा कर मैंने यह पुस्तक लिखी है। एक रौ में, गो कि अनर्थक और अतिरिक्त भावुकता को संयमित करते, साधते हुए। पर काव्य के द्वारा विवश किया जाना अपने-आप में उसके रचनाकार की कवित्व-शक्ति के द्वारा विवश किया जाना ही नहीं है तो और क्या है? और इस अर्थ में कहूँ कि कवि के द्वारा विवश किया गया, तो क्या वह मिथ्या होगा? कवि को उसके श्रेय से वंचित करना क्या उचित होगा?‘त्रेता’ को पढ़ते हुए मेरे कई अनुमान ग़लत साबित हुए। नाम के आधार पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘द्वापर’ की याद आई। लेकिन नाम-साम्य कभी-कभी कितना भ्रामक हो सकता है, यह रहस्य बनने से पहले ही खुल गया। काव्य के कुछ पन्ने पलटने से लगा था ‘त्रेता’ और कुछ नहीं, थोड़े फेर-बदल के साथ प्रस्तुत किया गया रामकथा-काव्य है। सोचा, चलो अच्छा हुआ; आयु के इस मोड़ पर ‘राम-नाम सुमिरन के बहानो’ है। पढ़ते-पढ़ते यह अनुमान भी पंगु प्रतीत होने लगा। पंगु इसलिए कि यह सत्य होते हुए भी कि इस काव्य का मूलाधार भी है रामकथा ही वह उस अर्थ में सत्य नहीं है जिस अर्थ में परंपरित रामकथा-काव्यों में दीख पड़ती है। रामकथा का गायन कवि का उद्दिष्ट नहीं है, न उसका वैसा क्रम-व्यवस्थापन ही है। कवि का इष्ट है त्रेता युग में विभिन्न जातियों, वर्गों, वर्णों आदि की विभिन्न वय और कर्म वाली स्त्रियों की पुरुष-वर्चस्व वाले समाज में सामाजिक स्थिति का आकलन करना। वर्तमान में प्रचलित स्त्री-विमर्श के विभिनन पहलुओं से त्रेता-युगीन स्त्री की स्थिति का चित्रण और सबलीकरण कवि का अभीष्ट है। पर वह अकेला ही नहीं है। दलित-विमर्श उसका दूसरा अभीष्ट है। रामकथा का विराट फलक उसके इन दोनों अभीष्टों की संपूर्ति का साधन है, साध्य नहीं। ‘त्रेता’ वस्तुतः उत्तर-आधुनिकता का काव्य है, जिसका निर्मिति में समाजवादी-समतावादी प्रगतिशील तत्वों का भी योगदान है।
‘त्रेता’ एक रचनाविधान जटिल है-एक प्रकार से स्वयं कवि के लिए चुनौती भरा और पाठक की काव्यबोध-शक्ति की परीक्षा लेता हुआ। वाल्मीकि, तुलसी, बौद्ध और द्रविड़ रामकथा का संघात है ‘त्रेता’। वाल्मीकि का यथार्थ और तुलसी का अवतारवाद दोनों एकत्र हैं। चरित्रों और घटनाओं में कवि की समकालीन समस्याओं का नियोजन अलग। सबकी संभावित आपसी टकराट से पार पाने का विश्वस्त मार्ग निकाल लेना कवि की कुशलता का ही प्रमाण है।
दीखने में ऊपरी तौर पर काव्य का संपूर्ण ढाँचा कथात्मक लंबी मुक्तक कविताओं के संग्रह जैसा है, जिसमें प्रत्येक पात्र (स्त्री-पात्र) की कथा स्वतंत्रा रूप से प्रायः जन्म लेती और वहीं समाप्त हो जाती है, प्रबंध काव्य के लिए आवश्यक शास्त्रविहित कथावस्तु के विकास, उत्थान-पतन और फल-परिणाते आदि की नियमित संरचना का पालन यहाँ नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में इसे महाकाव्य तो क्या सामान्य प्रबंधकाव्य कहने में भी कठिनाई होती है। लेकिन कवि ने इसे महाकाव्य कहा है और हमने भी आरंभ में इसे ‘अनिबद्ध-निबद्धकाव्य’ की संज्ञा देते हुए महाकाव्यत्व-विवेचन के प्रसंग में, महाकाव्य के स्वरूपाधायक नवीन तत्वों का निर्धारण करने के साथ, महाकाव्य ही स्वीकार किया है। हमारी दृष्टि में ‘त्रेता’ काव्य शास्त्रीय रुढ़ियों में सेंध मारने वाला काव्य तो है ही, उन आधुनिक कविकर्मरत रचनाकारों की उस धारणा का ध्वंस करने वाला काव्य भी है जो वर्तमान को महाकाव्य की रचना के अनुकूल नहीं मानते।
विभिन्न जातियों-वर्गों-वर्णों की त्रेतायुगीन स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का आकलन ही त्रेता का अभिष्ट है
उत्तर आधुनिक महाकाव्य त्रेता की निर्मिती में समाजवादी-समतावादी और प्रगतिशील तत्वों का भी योगदान है।
प्रश्न अभी और भी बहुत-से हैं। लेकिन उल्लेख के लिए यहाँ दो ही सही। जटिल काव्य-रूप के कारण विकट प्रश्न नाग्रव का है। क्या श्रीराम कथा-नायक है और सीता नायिका? क्या ‘त्रेता’ नायिका प्रधान काव्य है? क्या कालिदास के ‘रघुवंश महाकाव्य की भांति इसे भी नायक (अर्थात् नायिका) बहुल काव्य माना जाय? क्या शास्त्रोक्त नायिका ही यहाँ नायक है? दूसरा प्रश्न इससे भी विकट है। ‘उद्भ्रांत’ की एक सिद्धहस्त गीतकार की छवि पर विमुग्ध कुछ विदग्ध कवि मित्र उनकी मुक्तछंद रचना देखकर संदेह से भर उठते हैं। प्रश्न करते हैं-‘इसमें कविता कहाँ है?’ आलोचक की दृष्टि से यह प्रश्न हमारे विचार का मूल बिंदु होना ही चाहिए था। ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ में इन और ऐसे प्रश्नों के हमने यथामति उत्तर दिए हैं।उत्तर आधुनिक महाकाव्य त्रेता की निर्मिती में समाजवादी-समतावादी और प्रगतिशील तत्वों का भी योगदान है।
इस सबके बाद यह जानना रंजक होगा कि ‘त्रेता’ को महाकाव्य कहते हुए भी हमने उसके कवि को कहीं ‘महाकवि’ नहीं कहा है। हमारे लिए अभी यह प्रश्न अनिर्णीत है कि महाकाव्य का रचयिता कवि अधिकार-सिद्ध रूप में महाकवि मान लिया जा सकता है या कि उस पद के लिए किन्हीं और मूल्यों का संधान करना होगा!
दूसरा प्रश्न जो हमें विकल करता है, और जिसे हमने उठाया भी है, कुछ समाधान भी दिया है, यह कि यदि गद्य में कल्पित कथा के आधार पर कहानियों और उपन्यासों की रचना प्रभावी ढंग से की जा सकती है तो प्रबंध काव्य की रचना कल्पित कथा के आधार पर क्यों नहीं की जाती या नहीं की जा सकती? हम इसका कोई प्रामाणिक और आश्वस्तिकारी उत्तर खोजना चाहते हैं।
अब शायद यह कहना शेष नहीं है कि इस अन्तर्यात्रा में आलोचक की क्या भूमिका रही है। तमाम संवाद-विवाद में उलझते हुए वह कवि के अंतर्तम तक पहुँचने के लिए यलवान रहा है। फिर भी, क्योंकि यह एक पहल है और आलोचक साहित्य के लोकतंत्र का विश्वासी है और इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि यदि कविता कभी ख़त्म नहीं होती तो आलोचना भी, कितनी समर्थ क्यों न हो, अंतिम वाक्य नहीं होती, अतः अपनी इस प्रस्तुति की प्रवर्तन और दिशा-संकेत मानकर वह काव्यमर्मी विद्जनों के त्रेता-विषयक विवेचनात्मक परिणामों की अवगति के लिए समुत्सुक है।
कृप्या उचित समझे तो मेरे इस नातिविस्तृत निवेदन को आयोजन में पढ़े जाने का गौरव प्रदान करें ताकि अपनी अनुपस्थिति के दोष से मैं कुछ मुक्त हो सकूँ।
शुभकामनाओं सहित,
आपका
(आनंद प्रकाश दीक्षित)
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2 पाठकों का कहना है :
साहित्य से जुडी खबरें हम पाठकों तक पहुँचाने के लिए हिन्दयुग्म का आभारी.
जानकारी से ज्ञान.मिला
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