(बाएं से फ़रज़ाना ख़ान, श्री अख़्तर, बासित कानपुरी, तेजेन्द्र शर्मा, काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी, अक़ील दानिश, मारग्रेट जे, श्रीमती इफ़्फ़त ख़ान, श्री अहसन ख़ान)
ब्रिटेन के शहर डर्बी की पीयर-ट्री लायब्रेरी ने हाल ही में एक मुशायरे का आयोजन किया जिसमें लंदन के उर्दू शायरों अक़ील दानिश एवं बासित कानपुरी; हिन्दी और उर्दू की शायरा काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी, हिन्दी के शायर/कवि तेजेन्द्र शर्मा एवं नॉटिंघम की शायरा फ़रज़ाना ख़ान ने श्रोताओं को अपनी रचनाओं का रसास्वादन करवाया।
मुशायरे के संयोजक श्री अहसन ख़ान ने सभी शायरों का स्वागत किया। उनका मानना है कि बेशक मुशायरा मूलतः उर्दू शायरी को लेकर है मगर शायरों में मौजूद हिन्दी के कवि तेजन्द्र शर्मा और श्रोताओं में मौजूद मुसलमान, सिख, हिन्दू और ईसाई इस बात का सबूत है कि साहित्य का कोई मज़हब नहीं होता। भाषा किसी मज़हब से जुड़ी नहीं है।
पीयर-ट्री लायब्रेरी की लाइब्रेरियन मारग्रेट जे ने प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए कहा कि, “हमारी लायब्रेरी के लिये यह गर्व का विषय है कि यहां एक बहुभाषीय मुशायरा आयोजित किया जा रहा है। मार ग्रेट ने आगे कहा कि उन्हें उर्दू या हिन्दी भाषा समझ नहीं आती मगर यह सच है कि साहित्य भाषाओं की दीवारें तोड़ कर अपनी बात श्रोता को समझा देता है। ”
फ़रज़ाना ख़ान ने संचालक का पद संभालते हुए प्रत्येक शायर का परिचय दिया और एक एक कर उन्हें अपनी रचना सुनाने का आमंत्रण दिया।
वरिष्ठ शायर अक़ील दानिश ने पहले मां के सम्मान में अपनी एक ग़ज़ल पढ़ी -
"बच्चे बद भी हों तो सीने से लगा लेती है
मां के अंदाज़ में अंदाज़-ए-ख़ुदा मिलता है।"
फिर वे नॉस्टेलजिक हो कर अपने वतन को याद करते हुए कह उठे –
बेवतन हम हैं मगर यादे वतन आती है
इस अंधेरे में भी सूरज की किरण आती है।
(अक़ील दानिश अपनी ग़ज़ल सुनाते हुए)
बासित कानपुरी ने अपने मधुर स्वर में तरन्नुम से अपने रचनाएं पेश कीं। वे पहले तो शमां की लौ लगने और रात भर जलने की बात कहते रहे -
मालूम नहीं शम्मां की लौ किससे लगी है
शब भर दिले सोज़ां की तरह वो भी जली है।
और फिर दिल में शमा जला बैठे -
उनके आने की आस में बासित
दिल में शम्में जलाए बैठे हैं।
तेजेन्द्र शर्मा ने बात को नया मोड़ देते हुए नॉस्टेलजिया से बाहर आने की बात की और श्रोताओं से कहा कि हम लोग ब्रिटेन में ख़ुद अपनी मर्ज़ी से आकर बसे हैं मगर इसे आजतक अपना मुल्क़ नहीं मान पाए। इसलिये ब्रिटेन हमें कहता है -
जो तुम न मानों मुझे अपना, हक़ तुम्हारा है
यहां जो आ गया इक बार वो हमारा है।
उनका अगला शेर रिश्तों और दोस्ती की गहरी पड़ताल करता दिखा -
जग सोच रहा था कि है वो मेरा तलबगार
मैं जानता हूं उसने ही बरबाद किया है।
काउंसलर ज़कीया ज़ुबैरी ने अपनी दो नज़्मों का पाठ किया। पहली नज़्म में उन्होंने कांटेदार झाड़िंयों का बिम्ब इस्तेमाल करते हुए उनके ज़िन्दगी पर छा जाने की बात कही। तो वहीं दूसरी नज़्म में पाकिस्तान में हाल ही में आए सैलाब की तस्वीर खींच कर श्रोताओं की आंखों को नम कर दिया –
वो ख़ूंख़ार कांटों भरी झाड़ियां सब
मुंडेरों पे फैली दरख़्तों से लिपटीं
कि फूलों को ताक़त से अपनी कुचलतीं
हवाओं की लहरों में चीख़ें समोती
खड़ी हैं कतारें बनाए हुए अब
न जाने क्यों चुपचाप ख़ामोश हैं सब।
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