वर्ष 2011 जन्म शताब्दियों का वर्ष है. हिंदी के कुछ गणमान्य साहित्यकारों के जन्म को एक शताब्दी हो चली परन्तु इन महान् विभूतियों ने साहित्य के माध्यम से अपने व्यक्तित्व की जो अमिट छाप छोड़ी, यही हमारे समाज की अनमोल उपलब्धि व वरदान है. 21 जून 1912 को जन्मे, अमर कृति ‘आवारा मसीहा’ व अमर कहानियों ‘धरती अब भी घूम रही है’ के रचयिता विष्णु प्रभाकर के जन्म शताब्दी वर्ष के समारोह प्रारंभ हो चुके हैं. इस की शुरूआत 21 जून 2011 को साहित्य अकादमी सभागार में विष्णु प्रभाकर के सुपुत्र श्री अतुल प्रभाकर ने कर दी थी. दि. 23 जून 2011 को उर्मिल सत्यभूषण की साहित्यिक संस्था ‘परिचय साहित्य परिषद’ की ओर से भी नई दिल्ली के ‘रशियन कल्चरल सेंटर’ के सभागार में भी एक विचारोत्तेजक शाम विष्णु जी की स्मृति को समर्पित की गई. इस सभा की अध्यक्षता सुविख्यात साहित्यकार डॉ. महीप सिंह ने की तथा इस में डॉ. बलदेव वंशी व डॉ. धर्मवीर मुख्य अतिथि थे. इस सभा को श्री पंकज बिष्ट का सान्निध्य भी प्राप्त हुआ.
‘लेकिन दरवाज़ा’, ‘उस चिड़िया का नाम’ व ‘पंखों वाली नाव’ जैसे चर्चित उपन्यासों के रचनाकार पंकज बिष्ट ने सब से पहले अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि विष्णु प्रभाकर जिन सिद्धांतों को स्वयं मानते थे, उन्हीं पर वे जीवन भर चले तथा किसी भी प्रकार का दोगलापन उनके आचरण में नहीं था. पंकज बिष्ट ने जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात कही वह यह कि विष्णु जी ने किसी भी प्रकार की धार्मिकता से ऊपर उठ कर अपने पार्थिव शरीर के बारे में में पहले ही घोषित कर दिया था कि उनके पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार न कर के उसे चिकित्सा विज्ञान के शोधार्थियों को दे दिया जाए ताकि वे चिकित्सा के अपने अध्ययन में उनके शरीर का उपयोग कर सकें. विष्णु जी बेहद अनुशासन में रहने वाले व्यक्ति थे. पंकज बिष्ट ने यह भी कहा कि जब विष्णु जी उनसे व्यक्तिगत रूप में अपने पार्थिव शरीर संबंधी अंतिम इच्छा व्यक्त करते थे तब पंकज जी को सहज ही विश्वास नहीं आता था परन्तु अंततः वह हो कर रहा. पंकज बिष्ट ने कहा कि इतने बड़े साहित्यकार होते हुए भी विष्णु जी नई दिल्ली के मोहन सिंह प्लेस के ‘इंडियन कॉफी हाऊस’ में आ कर लेखकों से मिलने में किसी प्रकार का संकोच महसूस नहीं करते थे जबकि अधिकांश गणमान्य साहित्यकार इस प्रकार कॉफी हाऊस जा कर साहित्यकारों से गुफ्तगू करने को अपनी शख्सियत से कमतर की बात मानते थे.
डॉ. बलदेव वंशी जिन्होंने पिछले कुछ वर्षों में ‘दिल्ली टी हाऊस – आधी सदी की साहित्यिक हलचल’, ‘भारतीय संत परंपरा’ तथा ‘भारतीय नारी संत परंपरा’ जैसी महत्वपूर्ण कृतियाँ दी हैं, ने अपने वक्तव्य में कहा कि विष्णु जी नए से नए रचनाकार से भी हाथ मिला कर आत्मीयता द्वारा उसके संकोच को सर्वथा दूर कर के मिलते थे और कि उन की शख्सियत में पहाड़ों जैसी उच्चता व समुद्र जैसी गहनता एक साथ थी. समुद्र और पहाड की विशिष्टता ऋत और सत्य पर आधारित होती है अतः वे (विष्णु प्रभाकर) यथार्थवादी न हो कर वास्तव में सत्यार्थवादी थे. विष्णु जी गांधीवादी नहीं थे वरन् उनके भीतर के संस्कार मुखर रूप से आर्यसमाजी थे. इन्हीं कारणों से धर्म, जाति, संप्रदाय, व प्रान्त ये सभी विभाजन उनके लिये अर्थहीन थे.
डॉ. धर्मवीर ने विष्णु प्रभाकर के व्यक्तित्व व कृतित्व पर एक बहु चर्चित पुस्तक लिखी है : ‘लोकायत वैष्णव विष्णु प्रभाकर’ तथा विष्णु जी के साहित्य अकादमी पुरस्कृत उपन्यास अर्द्ध नारीश्वर पर काफी कार्य किया है. उन्होंने कहा कि विष्णु जी दलित चेतना व नारी चेतना के सशक्त पक्षधर थे. डॉ. धर्मवीर ने कहा कि यह कितने खेद की बात है कि आज भी दलित को नीचे समझा जाता है और उस से कूड़ा व गंदगी उठाने का कार्य करवाने की प्रथा है.
डॉ. महीप सिंह ने अपने अध्यक्षीय भाषण में कहा कि विष्णु प्रभाकर के सम्पूर्ण साहित्य का मूल्यांकन होना चाहिए. विष्णु जी ने अपने चिंतन के द्वारा जो आदर्श स्थापित किये, समाज संरचना की जो कल्पना उन्होंने की, उसे कैसे चरितार्थ किया, इस पर शोधार्थियों का ध्यान जाना चाहिए. डॉ. महीप सिंह ने दलितों के प्रति विष्णु प्रभाकर की पक्षधरता की ओर संकेत करते कहा कि आज भी हम कैसे कहें कि समय बदल चुका है क्योंकि आज भी कई जगह दलित महिला रसोइयों के हाथ का खाना उच्च जाति के बच्चे खाने से मना कर देते हैं तथा आज भी किसी उच्च जाति के कुत्ते को यदि कोई दलित व्यक्ति भोजन खिलाता है तो वह कुत्ता ही अपवित्र मान लिया जाता है. उन्होंने भी विष्णु प्रभाकर को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि इस महापुरुष ने अपने शरीर को शोधार्थी डॉक्टरों को समर्पित कर दिया ताकि वे उनके शरीर का उपयोग चिकित्सा संबंधी शोध के लिये कर सकें.
इस सभा का संचालन स्वयं उर्मिल सत्यभूषण ने किया तथा अंत में श्री अनिल वर्मा मीत ने धन्यवाद ज्ञापन प्रस्तुत किया.
रिपोर्ट – प्रेमचंद सहजवाला
चित्र- निशा निशांत
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