Monday, July 4, 2011

वाराणसी में पुस्तक लोकार्पण- समारोह तथा परिचर्चा गोष्ठी


पुस्तक लोकार्पण करते हुए बाये से क्रमशः रचनाकार श्री जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’, बी.आर. बिप्लवी, न्यायमूर्ति गणेश दत्त दुबे, मेयार सनेही, प्रो. चौथी राम यादव एवं प्रो. वशिष्ठ अनूप

26-6-2011
वाराणसी जनपद के गिलट बाजार मुहल्ले में स्थित नव रचना कानवेन्ट स्कूल के सभागार में रविवार दिनांक 26-6-2011 को प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ तथा सर्जना साहित्य मंच के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित समारोह में वरिष्ठ दलित कवि, कथाकार व शायर जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ के सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह ‘रुकती नही ज़बान’ का लोकार्पण एवं परिचर्चा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। समारोह के विशिष्ट अतिथि न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) गणेश दत्त दुबे थे। अध्यक्षता प्रख्यात शायर मेयार सनेही तथा संचालन उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष व जलेस की वाराणसी इकाई के अध्यक्ष डॉ. राम सुधार सिंह द्वारा किया गया। इस अवसर पर शहर एवं शहर के बाहर के अनेकानेक साहित्यकार, कवि, शायर व सुधी श्रोतागण की अच्छी-खासी उपस्थिति रही।

पुस्तक पर परिचर्चा से पूर्व इसके रचनाकार ‘व्यग्र’ जी ने अपनी रचना-प्रक्रिया पर बोलते हुए बताया कि वह मूलरूप से कवि हैं लेकिन ग़ज़ल की लोकप्रियता ने उन्हें ग़ज़ल लिखने के लिए प्रेरित किया। इसके शीर्षक के चयन पर विशेष बल देते हुए उन्होंने खुलासा किया कि यह दलित वैचारिकी का प्रतिनिधित्व करता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्रोफेसर व ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. वशिष्ठ अनूप ने सबसे पहले बोलते हुए ग़ज़ल की उत्पत्ति एवं विकास के इतिहास को रेखांकित किया। फारसी, उर्दू, हिन्दुस्तानी से होती हुई वर्तमान स्वरूप तक पहुँचने में एक लम्बा सफ़र तय किया है ग़जल ने। ग़ज़ल के केन्द्र में दुख ही विभिन्न स्वरूपों में हमेशा से रहा है। यही दुख आम जन की पीड़ा के रूप में विस्तार पाता है वर्तमान गज़ल में। रचना की अन्तर्वस्तु बदलती है तो शिल्प भी बदल जाता है। यही नहीं, अन्तर्वस्तु के सामने शिल्प अकसर धराशायी हो जाता है। उन्होंने कहा कि कौल जी की ग़ज़लें पढ़ते हुए उन्हें महेश ‘अश्क’ का यह शेर याद आया- ‘जबाँ खुलेगी तो क्या हो कह नहीं सकता, मगर मैं और अधिक चुप रह नहीं सकता।’ दलित रचनाकार ज़बान खोलते हैं तो तमाम सवाल पैदा होते हैं। पूरी परम्परावादी सोच को प्रश्नांकित करते हैं। अपने प्रश्नों से पूरी व्यवस्था को तार-तार कर देते हैं। यही नकार, यही प्रश्नाकुलता, यही असहमति का स्वर, कौल जी की ग़ज़लों का केन्द्रीय तत्व है जो आद्यान्त अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। इस स्वर में न हकलाहट है, न दब्बूपन और न ही हीन भावना बल्कि एक अदम्य अपराजेय जिजीविषा है। यह दबाये-कुचले दलितों को अपना हक माँगने के लिये प्रेरित करती है। स्वस्थ समाज के नव-निर्माण में निश्चय ही इस ग़ज़ल संग्रह की अपनी दूरगामी भूमिका होगी।

‘सोच विचार’ मासिक पत्रिका के संरक्षक/संयोजक डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र का मानना था कि ग़ज़ल की लोकप्रियता से प्रभावित होकर व्यग्र जी द्वारा इस विधा को अपनाना इंगित करता है कि वह संवादरत रहना चाहते हैं। इनकी रचनाओं की अन्तर्वस्तु के कारण वह व्यग्र जी का सम्मान करते हैं। वह जैसा सोचते हैं वैसा लिखते हैं। हमारे पहले के लोगों ने जहाँ छोड़ा था, व्यग्र जी उसके बाद शुरू करते हैं। सेवानिवृत्त जिला जज तथा कवि चन्द्रभाल सुकुमार का कहना था कि ग़ज़ल की लोकप्रियता इसीलिये है क्योंकि प्रत्येक दौर की विसंगतियों से लड़ने के लिए जिस स्वर की आवश्यकता होती है, वह उसमें है। व्यग्र जी को अनेक विधाओं का रचनाकार बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘युगस्रष्टा’ नामक महाकाव्य के सृजन बाद भी उनकी भूख समाप्त नहीं हुई है। यह साहित्य और समाज दोनों के लिए सुखद है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के डॉ. विद्यानन्द मुद्गल का कहना था कि किसी भी रचना के दो आवश्यक तत्व होते हैं- शाश्वत सत्य और सामायिकता। मीर, ग़ालिब, जोश, इक़बाल को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि प्रत्येक दौर के रचनाकारों की रचनाओं में ये तत्व मौजूद हैं। व्यग्र जी भी शाश्वत सत्य एवं सामायिकता बोध के रचनाकार हैं।

दलित रचनाकार एवं समीक्षक मूलचन्द सोनकर ने प्रश्न खड़ा किया कि भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में ऐसी रचनाओं की उपयोगिता क्या है? पाठ्यक्रमों के माध्यम से आज भी चमत्कारी नायकों का ही महिमामंडन किया जा रहा है। समाज की विसंगतियों की भयावह सच्चाई से आज भी भविष्य की पीढ़ियों को अनभिज्ञ रखा जा रहा है। परिणाम स्वरूप आज भी शोषक एवं शोषित मनोवृत्ति की विभाजक रेखा वाले समाज का निर्माण हो रहा है। जीवन के अप्रिय प्रश्नों को शालीनतापूर्वक सुनकर उनका हल सुझाने वाली पीढ़ी तैयार करने के लिए आवश्यक है कि पाठ्यक्रमों से चमत्कारी नायकों को हटा कर जीवन की विसंगतियों को उजागर करने वाले दलित/पिछड़े वर्ग से आये नायकों और दलित साहित्य को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाये। गोरखपुर से पधारे प्रख्यात शायर बी.आर. बिप्लवी का कहना था कि स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए मूलचन्द सोनकर के सवालों से टकराना जरूरी हैं। उन्होंने कहा कि जहाँ कथ्य कविता से बड़ा होता है वहाँ कविता नहीं, कथ्य ही सर पर चढ़कर बोलता है। व्यग्र जी के संग्रह को गज़ल की कसौटी पर नहीं कथ्य की कसौटी पर कसकर देखना चाहिए।

न्यायमूर्ति गणेश दत्त दुबे ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि व्यग्र जी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में फैले अंधविश्वास पर प्रहार करते हैं। प्रो. चौथी राम यादव को इस बात का मलाल था कि हिन्दी आलोचना ने ग़ज़ल का संज्ञान नहीं लिया। राजनैतिक आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी दलितों, वंचितों को सामाजिक व आर्थिक आज़ादी नहीं मिली। कौल जी इन्हीं के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में कबीर जैसी प्रश्नाकुलता है। इनके संग्रह की ग़ज़लें कान से नहीं पेट से सुनने के लिए हैं। भरे पेट का दर्शन अलग होता है। इसी दर्शन के चलते वामपंथियो के राज में दलितों की जमीन छीनकर पूंजीपतियों को दे दी जाती है। सामाजिक मुक्ति और प्रतिष्ठा का सवाल दलितों के लिये आज भी सबसे बड़ा सवाल है। इसी सवाल से कबीर ने भी टक्कर लिया था और फुले, अम्बेडकर ने भी। इसी सवाल से आज व्यग्र जैसे रचनाकार भी टक्कर ले रहे हैं। इसलिये इस बात की निश्चितता है कि उम्मीद की लौ बुझने नहीं पायेगी। अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में मेयार सनेही ने व्यग्र जी के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं सामाजिक सरोकारों का चर्चा करते हुए उनके संग्रह के लिए अपनी बधाई दी।

समारोह में अध्यक्ष मेयार सनेही सहित रोशन लाल ‘रोशन’, तरब सिद्दीकी, शमीम ग़ाज़ीपुरी, सुरेन्द्र वाजपेयी, डॉ. सईद निज़ामी़ इत्यादि रचनाकारों ने अपनी रचनाएँ सुनाकर इस अवसर में चार चाँद लगाये। प्रगतिशील लेखक संघ के कोषाध्यक्ष अशोक आनन्द के आभार प्रदर्शन के साथ समारोह का समापन हुआ।
दिनांक: 27-6-2011


प्रस्तुति
मूल चन्द सोनकर
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