Friday, July 1, 2011

रंग महोत्सव 2011 30 जून से 3 जुलाई के मध्य आयोजित होगा

30 जून 2011 से 3 जुलाई 2011 के बीच 'द फिल्म एंड थिएटर सोसाइटी' नई दिल्ली के लोधी रोड में 'रंग महोत्सव' का आयोजन कर रही है। यह रंगमंच का बहुत बड़ा आयोजन है जिसमें 7 अलग-अलग कार्यक्रम निर्धारित है। कार्यक्रम का पूरा विवरण सोसाइटी की आधिकारिक वेबसाइट पर देखें।

आप इस महोत्सव के कार्यक्रमों के टिकटों की ऑनलाइन खरीद-फरोस्त भी कर सकते हैं। इसके लिए लॉगिन करें- http://www.buzzintown.com/delhi/event--rang-festival-indian-arts/id--422119.html

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hindyugm.com इस महोत्सव का ऑनलाइन मीडिया पार्टनर है।

कुछ खास तथा प्रसिद्ध नाटकों की झलकी यहाँ प्रस्तुत है।

प्रस्तुति: अर्जुन का बेटा



तिथि: ०२ जुलाई, २०११
समय: सायं ०७ बजे
स्थान: अलायेंज फ्रंकाईस, लोधी रोड, दिल्ली
टिकट: रूपए ३००, २०० एवं १००
लेखन एवं निर्देशन: अतुल सत्य कौशिक
अर्जुन का बेटा... यह नाम अपने आप में रोमांच की अनुभूति कराने वाला है..अभिमन्यु, एक लव्य, घटोत्कच महाभारत इतिहास के कुछ ऐसे पात्र हैं जिन्होंने इतिहास के अधिक पन्ने तो नहीं खर्च करवाए, परन्तु युगों युगों तक के लिए युवाओं के लिए प्रेरणा एवं रोमांच का स्त्रोत छोड़ गए.. कहने वाले कहते हैं की इस संसार में दो ही कहानियाँ हैं. रामायण और महाभारत. हम सभी कहीं न कहीं इन्हीं दो कहानियों के पात्र हैं... और विभिन्न मंचों और माध्यमों के द्वारा सुनायी जाने वाली कहानियां भी कहीं न कहीं इन्हीं दो महकथाओं से निकलती या इनसे मिलाती जुलती हैं..फिर मन में विचार आता है अगर ऐसा हो तो फिर कहने के लिए नया क्या है.. सब तो कहा जा चुका होगा अब तक.. मगर ऐसा नहीं हैं.. इन दो महागाथाओं में कुछ पात्र कहीं दबे या छुपे रह गए और उन्हीं में से एक है अर्जुन का बेटा.. अभिमन्यु..



द्रोणाचार्य गुरु द्वारा रचाए गए चक्रव्यूह में वीर अभिमन्यु मारा गया है और महाराज युधिस्ठिर भागे भागे पितामह भीष्म के पास आये हैं यह पुचने की अब अर्जुन के आने पर उसको क्या उत्तर देंगे.. क्या कहेंगे जब वो अपने पुत्र के बारे में पूछेगा.. वो पितामह को बताते हैं किस वीरता से अभिमयु लड़ा... और किस वीरता से वो लड़ाई में मरा गया... दूसरी ओर सोलह साल के अभिमन्यु की चौदह साल की पत्नी उत्तरा धरमराज युधिस्तिर ये पूछना चाहती है की अभिमन्यु आज रण से लौट के आएगा या नहीं.. पितामह अर्जुन तक ये सन्देश भिजवाते हैं की अब समय है की उठ कर प्रतिशोध लिया जाए.. और अवकाश के समय में गीता पर वाद विवाद किया जाए.. अंत में माधव ये बताते हैं की चक्रव्यूह में सिर्फ अभिमन्यु ही नहीं फंसा रह गया, अपितु हर मानुष्य चक्रव्यूह में फंसा है और फंसा रहेगा क्यूंकि चक्रव्यूह से बाहर आते ही तो जीवन मुक्ति मिल जाएगी..

दिल्ली में होना वाला रंग मंच सुविधा-प्रधान बन कर रह गया है.. परन्तु इसके विपरीत अर्जुन का बेटा चुनौती की स्वीकारता है.. यह नाटक कविता शैली में खेला गया है और इस में युध्ध के दृश्यों का मंचन रौंगटे खड़े कर देने वाला है.. इस में मुख्य भूमिका निभा रहे सत्येंदर मलिक जो की पंजाब युनिवेर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ़ थियेटर से रंग विद्या की पढाई भी कर रहे हैं कहते हैं "इस तरह का कोई प्रयोग अंतिम बार धरमवीर भारती जी के अँधा युग में देखा गया था.. यह नाटक वापस वही लहर लेकर आएगा".. आशा है यह नाटक दिल्ली के दर्शकों को एक बार फिर याद दिलाएगा की भारतीय साहित्य कितना सशक्त है कैसे एक अच्छी लेखनी और सटीक निर्देशन किसी भी तरह के नाटक को लोकप्रिय बना कर प्रस्तुत कर सकती है..



प्रस्तुति : कूबड़ और काकी

तिथि : ०३ जुलाई, २०११
समय : सायं ०७ बजे
स्थान : अलायेंज फ्रंकाईस, लोदिही रोड, दिल्ली
टिकट : रूपए ३००, २०० एवं १००
लेखन एवं निर्देशन : अतुल सत्य कौशिक
भारतीय साहित्य की कल्पना एक ऐसे वृक्ष के रूप में की जा सकती है जिस ने उपन्यास, नाटक, कविता, महाकाव्य इत्यादि के रूप में अपनी शाखाएं चहुँ ओर फैला रखी हैं. लघु कथाएँ भी इसी वृक्ष एक शाखा हैं जिनकी पहुँच यदि बाकी शाखाओं से अधिक नहीं तो उन से कम भी नहीं है. इस वृक्ष को अपनी कृतियों से सींचने और लघु कथाओं की शाखा को और अधिक विस्तृत करने में मुंशी प्रेमचंद औ धरमवीर भारती का योगदान सदा ही उल्लेखनीय रहेगा. ये दोनों ही लेखक सदा ही ऐसे लघु कथाएँ लिखने में सफल रहे जिनमे पाठक को अपने जीवन से जुड़े प्रश्न भी दिखे और कहीं न कहीं उन के अर्थ भी मिले. फिल्म्स एंड थिएटर सोसायटी ने इन दो महान लेखको की दो लघु कथाओं को एक साथ एक ही मंच पर प्रस्तुत कर एक नए नाटक, कूबर और काकी का सृजन करने का उल्लेखनीय कार्य किया है.

भारत सदा से ही गाँवों का देश रहा है और फिल्म्स एंड थियेटर सोसायटी का यह नाटक "कूबड़ और काकी" भी गाँवों में बस रहे उस भारत के दर्शन करवाता है. यधपि नाटक की कथावस्तु दो पत्रों, बूढी काकी और गुलकी, के इर्द गिर्द घुमती है परन्तु यह नाटक भिन्न भिन्न प्रकार के, अनेको रंग लिए कई पत्र लाकर खड़ा कर देता है जिन में हमें समाज का वह रूप देखने को मिलता है जो सदा से ही ऐसा है. यह नाटक एक ओर तो उस बूढी काकी की कहानी सुनाता है जिस के जीवन में जिह्वा स्वाद के अतिरिक्त कोई और स्वाद नहीं बचा था तो दूसरी ओर उस कुबड़ी गुलकी की कहानी भी सुनाता है जिसके पति ने लात मर कर उसको घर से बहार निकाल दिया और वह अपने गाँव में दरिद्रता पूर्ण जीवन जी रही है. इन दो प्रमुख पत्रों के इर्द गिर्द यह नाटक चतुर रूपा, सदा चिल्लाने वाली घेघा बुआ, साबुन बेचने वाली और समाज से सदा लड़ने को आतुर सत्ती, कोढ़ी मिरवा, समाज सेविका बहन जी, नीच भूप्देव जैसे कई अन्य पात्रों से भी मिलवाता है. दिल्ली के रंगमंच में अपना सिक्का जमा चुके पारुल सचदेवा, नेहा पण्डे, अंकुर आहूजा और आशिमा प्रकाश सरीखे कलाकार अपने अदभुत अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है.

इस नाटक में गाया बजाया गया लोक संगीत किसी भी सभागार में पूर्ण रूप से ग्रामीण वातावरण पैदा कर देता है. नाटक के लेखक और निर्देशक अतुल सत्य कौशिक द्वारा लिखे गए और ब्रम्ह्नाद द्वारा गए और बजाये गए गीत अत्यंत कर्णप्रिय हैं. इसके साथ ही यह नाटक लोक नृत्य की कुछ मोहक झलकियाँ दिखाता भी है.