Wednesday, March 18, 2009

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा में एकदिवसीय शिविर और संगोष्ठी संपन्न

हिंदी में स्थानीयता के साथ वैश्विक होने की विचित्र क्षमता है - डॉ. गंगा प्रसाद विमल

कंप्यूटर पर हिंदी प्रयोग की बाधाएँ अतीत की बात - डॉ. कविता वाचक्नवी


हैदराबाद, 18 मार्च, 2009



दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के 12 वें राष्ट्रभाषा विशारद पदवीदान समारोह के उपलक्ष्य में एकदिवसीय ‘हिंदी प्रचारक शिविर’ का आयोजन केंद्रीय हिंदी निदेशालय, भारत सरकार, नई दिल्ली की अनुदान योजना के अंतर्गत किया गया। उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के संगोष्ठी कक्ष में आयोजित हिंदी शिविर का उद्घाटन केंद्रीय हिंदी निदेशालय के निदेशक डॉ. के. विजयकुमार ने किया। डॉ. विजयकुमार ने उद्घाटन भाषण में इस बात पर बल दिया कि परिवर्तित परिस्थितियों में हिंदी को आर्थिक लाभ की भाषा के रूप में प्रचारित करने की आवश्यकता है। इसके लिए उन्होंने विविध व्यावसायिक क्षेत्रों में हिंदी में कंप्यूटर के अनुप्रयोग की संभावनाओं को खोजने की जरूरत बताई।

मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए प्रसिद्ध साहित्यकार और केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पूर्व निदेशक डॉ. गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि वर्तमान समय में विश्वभर में भाषाओं का रूप बाज़ार द्वारा प्रभावित है। इस परिदृश्य में हिंदी का भविष्य स्थानीय होते हुए वैश्विक होने की उसकी क्षमता के कारण उज्ज्वल है। हिंदी की विचित्र वैश्विक क्षमता की चर्चा करते हुए डॉ. विमल ने जहाँ एक ओर यह ध्यान दिलाया कि हमारे आदिवासी लोकगीतों में ऐसे उत्पादों का विवरण है जिनका वैश्विक स्तर पर व्यापक प्रसार किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर बताया कि हिंदी केवल भारत ही नहीं बल्कि दक्षिण एशिया के सारे देशों में भ्रमण करने में संपर्क भाषा का काम कर रही है क्योंकि इसमें बोलचाल का स्वामित्व है तथा संस्कृति और राजनय के क्षेत्रों में भी हिंदी की क्षमता अद्वितीय है।

उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुलसचिव तथा प्रमुख भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह ने अपने व्याख्यान में हिंदी आंदोलन के हवाले से कहा कि हिंदी को कथित हिंदीतर क्षेत्रों से उठनेवाले आंदोलनों से ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली है। उन्होंने सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के अनुरूप भाषा परिवर्तनों की चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय भाषाओं की यह शक्ति है कि वे लोक संस्कार को कभी नहीं छोड़तीं। वे इस बात से संतुष्ट दिखाई दिए कि हिंदी तथा भारतीय भाषाओं ने बाज़ार के स्तर पर अंग्रेज़ी को चुनौती दे दी है। उन्होंने बलपूर्वक कहा कि हिंदी के विविध पाठ्यक्रमों को बदलकर प्रयोजनमूलक और रोजगारपरक बनाने की ज़रूरत है। उन्होंने कंप्यूटर को हिंदी के विकास से जोड़े जाने की वकालत करते हुए कहा कि सब प्रकार का ज्ञान-विज्ञान कंप्यूटर पर हिंदी के माध्यम से उपलब्ध कराना बेहद जरूरी है। ऐसी सामग्री के तीव्रगति से मशीनी अनुवाद की संभावना का उल्लेख करते हुए प्रो. सिंह ने यह भी जोड़ा कि मानक भाषा प्रयोग के कारण जहाँ साहित्येतर अनुवाद में कंप्यूटर अधिक सटीकता से कार्य कर सकता है वहीं साहित्यिक अनुवाद में शैली भेद के कारण अभी काफ़ी कठिनाइयों का समाधान करना शेष है।

दो सत्रों में आयोजित ‘हिंदी प्रचारक शिविर’ के प्रथम सत्र में ‘डेली हिंदी मिलाप’ के पत्रकार डॉ. रामजी सिंह ‘उदयन’ ने ‘हिंदी प्रचार की नई चुनौतियाँ’ विषय पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी चुनौती तो हमारी पीढ़ी की निष्क्रियता की है। हिंदी के अनेक बोलीगत तथा क्षेत्रीय रूपों की चर्चा करते हुए डॉ. उदयन ने कहा कि ये सब हिंदी की विविध शैलियाँ हैं और इन सभी को खुले मन से स्वीकृति देना आवश्यक है क्योंकि हिंदी जैसी प्रसारशील भाषा को किसी भी प्रकार की कट्टरता से परहेज करना चाहिए। हिंदी को राष्ट्रभाषा से विश्वभाषा के स्तर तक ले जाने के लिए उन्होंने भाषाई स्वाभिमान को जगाने की जरूरत बताते हुए कहा कि हमारी जीवन शैली में जो द्वैत आ गया है, हमें उससे मुक्त होना होगा तथा चिंतन और व्यवहार की वास्तविक भाषा के रूप में मातृभाषाओं को सम्मानित करना होगा।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ हिंदी सेवी और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के उपाध्यक्ष कडारु मल्लय्या ने याद दिलाया कि दक्षिण में हिंदी का प्रचार स्वतंत्रता आंदोलन के एक अंग के रूप में आरंभ हुआ था। उन्होंने आगे कहा कि स्वतंत्र भारत में हिंदी आंदोलन का उद्देश्य प्राथमिक शिक्षा से लेकर राजकाज, कोर्ट-कचहरी और विभिन्न व्यवसायों तक हिंदी को प्रतिष्ठित करना बन गया है जो निश्चय ही अंग्रेज़ी-मानसिकता के प्रभुत्ववाले इस बहुभाषी देश में अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है। कडारु मल्लय्या ने यह भी कहा कि जब तक सरकारी सहायता के साथ-साथ आम जनता का सहयोग नहीं मिलता तब तक हिंदी प्रचार का कार्य पूरा नहीं हो सकता। वरिष्ठ हिंदी प्रचारक चवाकुल नरसिंह मूर्ति और वेंकट रामाराव ने भी स्कूली स्तर पर हिंदी की उपेक्षा को चिंताजनक बताया।

दूसरे सत्र में ‘कंप्यूटर पर हिंदीः दशा और दिशा’ विषय पर व्याख्यान देते हुए ‘विश्वम्भरा’ की महासचिव डॉ. कविता वाचक्नवी ने कहा कि हिंदी को रोजगारपरक स्वरूप देने में कंप्यूटर बहुत बड़ा वरदान सिद्ध हो सकता है। सारी ज्ञान शाखाओं को भारतीय भाषाओं में कंप्यूटरीकृत करने की चुनौती का उल्लेख करते हुए डॉ. वाचक्नवी ने बताया कि इंटरनेट पर हिंदी में शब्दकोश, पारिभाषिक कोश, मुहावरा कोश, कविता कोश और गद्य कोश की उपलब्धता ने कंप्यूटर पर हिंदी में काम करना आसान कर दिया है। उन्होंने कहा कि हिंदी में ‘सर्च-इंजन’ आ जाने से यह साफ हो गया है कि कंप्यूटर पर काम करने के लिए अंग्रेज़ी जानना अनिवार्य नहीं है। हिंदी के अनेक ‘फांट’ होने से पैदा हुई अराजकता को अतीत की बात बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘यूनिकोड’ और ‘फांट परिवर्तकों’ की निःशुल्क उपलब्धता ने हिंदी में सामग्री लिखने, प्रेषित करने, प्राप्त करने और पढ़ने को अत्यंत सुविधाजनक बना दिया है तथा इन्हें न जाननेवाले ही दुरूहता का प्रलाप करते हैं। डॉ. कविता ने कंप्यूटर पर प्रस्तुतीकरण द्वारा हिंदी प्रचारकों को विभिन्न हिंदी ‘साइटों’ से भी परिचित कराया। साथ ही लिप्यंतरण और वर्तनी संशोधन की विधि भी प्रायोगिक रूप में समझाई।

इस अवसर पर दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, आंध्र के अध्यक्ष कोम्मा शिवशंकर रेड्डी ने कहा कि 21 वीं शताब्दी में हिंदी प्रचार के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है। अतः इस क्षेत्र में कंप्यूटर की उपयोगिता का पूरा दोहन किया जाना चाहिए। उन्होंने हिंदी प्रचारकों के लिए ऐसे प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने की जरूरत बताई जिनमें वे हिंदी व्याकरण, हिंदी उच्चारण, वर्तनी और साहित्य शिक्षण के लिए कंप्यूटर का प्रयोग करना सीख सके। इसी प्रकार कोषाध्यक्ष एम. रघुपति ने हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण में पावर पाइंट पद्धति की व्यापक उपयोगिता पर प्रकाश डाला।

द्वितीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद के मुख्य प्रबंधक (राजभाषा) डॉ. विष्णु भगवान शर्मा ने कहा कि बहुभाषिकता भारत का एक सामाजिक यथार्थ है और यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भाषा विभिन्न समाजों और संस्कृतियों को जोड़ने का काम करती है। हिंदी शताब्दियों से इसे सेतुधर्म का निर्वाह करती आई है और आज भी वह भारत की सामासिक संस्कृति का जीवंत प्रतीक है। उन्होंने कंप्यूटर को एक ऐसा वाहन बताया जिस पर आरूढ़ होकर हिंदी भारतीयता को आधुनिक विश्व में सफलतापूर्वक प्रसारित कर सकती है। इसके लिए उन्होंने ‘शब्द संसाधन’ और ‘डाटा संसाधन’ दोनों स्तरों पर व्यापक अनुसंधान की आवश्यकता बताई।

आरंभ में प्रचारक महाविद्यालय की छात्राओं प्रशांति, रेशमा, उर्मिला, नसरीन और सारिका ने मंगलाचरण किया। शिविर निदेशक प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने विषय प्रवर्तन और समाहार की जिम्मेदारी संभाली। सत्रों का संचालन डॉ. बलविंदर कौर और डॉ. जी. नीरजा ने किया। परिचर्चा में डॉ. वीणा कश्यप, आर.एल. दलाया, ए.जी. श्रीराम, डॉ. शिखा निगम, जुबेर अहमद, जानी बाषा, डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. पी. श्रीनिवास राव, संतराम यादव, शंकर सिंह ठाकुर, राधाकृष्णन, टी. रमादेवी, उमाराणी तथा डॉ. शक्तिकुमार द्विवेदी के अतिरिक्त बी.एड. और प्रचारक महाविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। राष्ट्रगान के साथ शिविर संपन्न हुआ।

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2 पाठकों का कहना है :

Om Sapra का कहना है कि -

priya bhai,
namastey,
appka achha prayas hai par kaphi kathinaiyan hain. appke hindi ke matter ko copy karney ka prayas kiya par font corrupt ho gaya

kaya kiya jaye.
--om sapra, delhi-9
9818180932

Divya Narmada का कहना है कि -

हिंदी को अंतर्जाल पर लोकप्रिय और व्यावसायिक रूप से सफल बनाने का प्रयास स्वागतेय है. विविध फॉण्ट में एक रूपता का अभाव और उससे उपजी कठिनाइयाँ एक ज़मीनी सचाई है जिसे नकारा नहीं जाना चाहिये अपितु सुलझाने काप्रयास किया जाना चाहिए. पेजमेकर की जगह यूनीकोड नहीं ले पाया है. बाज़ार में अभी भी विंडो ९८ का बोलबाला है खासकर मुद्रण के क्षेत्र में. लगातार कोशिश जरूरी है

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