हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
राष्ट्रीय संगोष्ठी
समकालीन रचनाकार एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)
दिनांक: 27-28 मार्च 2009
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में दिनांक 27-28 मार्च 2009 को ‘‘समकालीन रचनाकर एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)’’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में विभिन्न ख्याति नाम विषय विशेषज्ञों ने शिरकत की।
संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में सुधीश पचौरी, मीडिया विशेषज्ञ एवं समीक्षक (प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग), प्रो. बी. एन. राय, उपन्यासकार एवं सम्पादक (कुलपति अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, गुजरात), जितेन्द्र श्रीवास्तव (युवा आलोचक, प्रवक्ता इग्नू), अखिलेश (कथाकार एवं सम्पादक तद्भव), प्रो. गंगा प्रसाद विमल (कथाकार एवं पूर्व निदेशक केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, दिल्ली), निर्मला जैन (समीक्षक एवं पूर्व प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली) आदि विषय विशेषज्ञों ने समकालीन रचना धर्मिता को विभिन्न दृष्टि और आयामों से विश्लेषित किया है।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र में बोलते हुए सुप्रसिद्ध समीक्षक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष सुधीश पचैरी ने कहा कि समकालीन रचनाकर्म में त्वरित स्थिति और परिस्थितियों का प्रतिबिंब है। रघुवीर सहाय, अज्ञेय को संदर्भित करते हुए उन्होंने कहा कि जो रचनाकार कालजीवी होता है, वही कालजयी भी होता है। वर्तमान साहित्य में रसवाद विशेषतया समाकालीन कविता का विश्लेषण करते हुए पचौरी ने कहा समकालीन कविता में काल की स्थितियाँ केंद्रित नहीं है। बाजार, सूचना तंत्र, मीडिया आदि के युग्म ने समकालीन साहित्य के लिए कई प्रश्न खडे़ कर दिये हैं और साहित्य समकालीन रचनाकार को उन प्रश्नों के हल खोजने होंगे। बाजार को रचनाकारों को एक अवसर के रूप में देखना होगा।
पचौरी जी ने कहा कि ये समकालीन रचना समय के बजाय विषमकालीन रचना समय कहा। उन्होंने साहित्य में बदलाव का प्रस्थान बिन्दु 1975 को माना। साहित्य, राजनीति और समाज के लिए उत्तर कालीन व्यवस्था वह नहीं रही जो पहले थी। केन्द्र में एक पार्टी के शासन की धारणा समाप्त हो गई। चैधरी चरण सिंह ने गठबन्धन की सरकार बनाई। आज जो सम्मिलित सरकार है उसका बीज 1967 में पड़ा था। 1975 में बेचैनी और मोहभंग का दमन हुआ। 1989 में इसका फिर उत्कर्ष हुआ।
आम तौर पर समकालीन रचना प्रक्रिया इससे अछूती नहीं। 1947 के आस-पास एक मुहावरा था ‘नई कविता’। सब तक में पहुँचना उद्देश्य था कवियों का। सभी ने कहा नई राहों के अन्वेषी हैं हम। वे सभ्यता तक सोचा करते थे। इसके बिना कोई बड़ी कविता संभव नहीं थी। आपातकाल का पहला काम था पत्रकारिता का अंत कर देना। सूचनाएं 1989 के बाद विस्फोट के रूप में सामने आने लगी। खोजपूर्ण पत्रकारिता सामने आई। साहित्य पर इसका क्या असर हुआ साहित्य में इसका मूल्यांकन नहीं हुआ। श्रीकांत वर्मा ने कहा ‘इन्दिरा हटाओ, हम कहते हैं कि गरीबी हटाओ’। ‘मगध’ में श्रीकांत वर्मा ने कहा ‘कौशल में विचारों की कमी है।’ अगर रघुवीर सहाय को हम स्मरण करें तो पाते हैं कि वो पहले कवि हैं जो कहते हैं कि विचारों की कमी है। रघुवीर सहाय आम आदमी के पक्ष में खडे थे। वो कहते हैं कि ‘आत्महत्या के विरूद्ध’, ‘भाषा को बचाओ’, ‘नकल से बचो’, ‘राजनीति के वर्चस्वताओं से बचो’, इससे पहले यही बात मुक्तिबोध कह चुके थे। 1980 के दशक में मंगलेश डबराल, वेणु गोपाल, आलोक धन्वा, ऋतुराज महत्वपूर्ण नाम है। इनमें से कई कवि रघुवीर सहाय को अपना गुरू मानते हैं लेकिन उन पर अपनी कविता नहीं करते, उनका मुहावरा अलग है। रघुवीर सहाय न्यूनतम पर कविता करते हैं आज की कविता समूचे रस भिन्न की कविता है। आजादी के बाद जो थोड़ा बहुत रस था कि कुछ बदलेगा लेकिन वह भी टूट गया। उन्होंने कहा कि सत्ता के व्यापक अर्थ हैं आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक सत्ता हमारे संविधान में रहती है और संविधान में हम रहते हैं। समकालीन कविता का विधान क्या है इस पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि तमाम वे विषय है जो एक आम आदमी को उद्वेलित करते हैं। इसमें छोटी-छोटी चीजें उठाई गई हैं। बहुत दिनों तक हिन्दी कविता में फूल-पत्ती का रोल रहा। इस कविता में फिर से घर, पत्नी, नानी याद आने लगी।
उन्होंने मुक्तिबोध का जिक्र करते हुए कहा कि रचना प्रक्रिया ज्यों-ज्यों बढ़ती है। वह जटिल होती जाती है। कविता में अनुभव शब्दों को तलाशते हुए अर्थ को तलाशते हुए निकलते हैं। इसे कोई नहीं पकड़ सकता। उन्होंने कहा कि समकालीन कविता में कथन ही स्ट्रक्चैर है। कवि अपने समय के दबाव का ऐसा शिकार हो गया है कि उसे तुरंत प्रक्रिया करनी है। समकालीन रचना में जो विषमता है वह तना हुआ समय है। इसमें कोई गुंजाइश ही नहीं है। उन्होंने कहा कि जीवन गद्यात्मक है ये कहा जाता है। पद्य काफी सोचे-विचारने के बाद लिखा जाता है। ‘वाक्यम रसात्मकम काव्यम’ आज के कवियों कि स्थिति पर बोलते हुए कहा कि इन कवियों के नाम हटा दीजिए, कविताओं के शीर्षक हटा दीजिए तो पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि कविता किसकी है क्योंकि बनाने के पीछे मेहनत नहीं कि गई। मैं नहीं समझता कि कहानी लिखना, कविता लिखना इतना ही आसान है जितना मेरा बोलना, आपका सुनना। कविता क्षणभंगुरता को टिकाना है। शिल्प मीनिंग को ठहराता है। समकालीन समय अनफिक्स समय है। कविता के लिए यूटोपिया चाहिए, स्वप्न चाहिए। स्वप्न के बिना अगर कविता संभव है तो वह आज की कविता है। ये नित्यकर्म की कविता है। मैं अपनी तात्कालिकता से दूर ही नहीं हो पा रहा।
उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वी0एन0 राय ने कहा कि श्रेष्ठ रचनाएं प्रत्येक काल में एक समान होती है। वर्तमान कविता के बारे में बोलते हुए श्री राय ने कहा कि कविता निजता के संकट से गुजर रही है। यह काल रचना धर्मिता की दृष्टि से संक्रमण का काल है। अपने वक्तव्य के अंतिम दौर में एक टिप्पणी कर उन्होंने माहौल को गरमा दिया। श्री राय ने कहा इस्लामिक लोगों और साम्यवादियों को अमेरिका से विरोध है और वे अपनी संतानों को अमेरिका ही नौकरी के लिए भेजना चाहते हैं। उन्होंने साहित्य जनसरोकारों के लिए आवश्यक बताया तथा यह कह कर भी एक सनसनी पैदा की कि यदि समकालीन कविता के कई कवियों के नाम हटाकर उल्लेख किया जाए तो वे एक समान लगती हैं।
प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. एस.के. काक, कुलपति, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ने की। आधुनिक हिन्दी कविता में रस के गायब होने पर उन्होंने चिंता जताई। उनका मानना था आम पाठक साहित्य को आनंद के लिए पढ़ता है और रस समाप्त होने पर उसे निराशा हाथ लगती है। प्रो. काक ने अतिथियों को स्मृति चिह्न प्रदान किये।
इस अवसर पर कला संकाय की अध्यक्ष प्रो. अर्चना शर्मा ने विश्वविद्यालय में इस तरह की शैक्षणिक गतिविधियों की आवश्यकता बताई। उन्होंने अतिथियों का स्वागत भी किया।
प्रथम सत्र का संचालन करते हुए प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिन्दी विभाग ने कहा साहित्य सहित भाव का नाम है और वह सांचों को बनाता नहीं, बल्कि तोड़ता है। लोक पक्षघरता ही साहित्य की उपादेयता तय करती है।
उन्होंने कहा कि समकालीनता समय सापेक्ष स्थिति है। समय सापेक्षता का आशय किसी खास कालावधि के लिए लिया जाता है। आधुनिक, समसामयिक, समकालीन, वर्तमान सहित कई ऐसे शब्द हैं जो पर्याय की तरह भी प्रयोग में आते हैं और हम जब भी समकालीन शब्द प्रयोग में लाते हैं तो हम उसकी कालावधि के तत्कालीन सन्दर्भों को भी उसमें जोड़ते हैं। हिन्दी दुनिया में समकालीन शब्द को कई तरह से परिभाषित किया जाता रहा है परन्तु हम जिस सन्दर्भ से इस संगोष्ठी को जोड़ रहे हैं, वह पारिभाषिक महत्व के साथ-साथ कालसापेक्षता के वर्तमान प्रभावकारी बिन्दुओं से जुड़ा हुआ है।
हिन्दी की समकालीन रचनाधर्मिता का अपना विशेष महत्व है। हिन्दी रचनाकारों की दुनिया में एक विशेष समय है आपातकाल के बाद का भारत, वह भारत, जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगने के बाद पहली बार लगा था कि क्या अंग्रेजों की तरह भारत में भारत के आमजन द्वारा चुनी, कही जा रही जनप्रतिनिधियों की सरकार का आचरण भी किंचित रूप में अंग्रेज सरकार जैसा ही होगा। किन्हीं अर्थों में यह सरकार भी क्या उसी तरह आचरण करेगी जैसी कि विदेशियों की सत्ता में होता रहा है।
गोष्ठी को 1980 के बाद के समय में रखने का एक कारण यह भी रहा कि हिन्दी दुनिया में सन् 1980 के बाद भारी बदलाव दिखाई देते हैं जिनमें भूमण्डलीकरण के असर की बात को लें या उत्तर आधुनिकता संबंधी विमर्श को। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श तथा जनजातीय विमर्श का समय भी यही है। भारतीय राजनीति में हुई तमाम तरह की दुरभिसंधियां भी इसी काल की हैं, जब आपातकाल के बाद आर्थिक घोटालों से उत्पन्न विक्षोभ, धार्मिक, जातीय तथा साम्प्रदायिक उन्माद को चरम पर पहुँचाकर सत्ता हस्तान्तरण हुए और खुले तौर पर साम्प्रदायिक तथा जातीय ताकतों के नाम पर सत्ता के लिए वोट मांगे गए, लिए गए, सत्ता बदली परन्तु नहीं बदला तो सत्ता का चरित्र। जिस तरह चीन युद्ध के बाद छलावे का अहसास भारतीय जनता को हुआ था ऐसा ही एहसास आज भी है। जिन घोषणापत्रों, वायदों, उम्मीदों, संभावनाओं पर सत्ता बदली वे जस के तस रहे। वायदा करने वालों ने खुले आम जनता को झांसे दिए। र्पािर्टयां, सरकारें, चेहरे बदले। छोटे दलों के आकार बडे़ हुए, बडे़ दल, दलदल में धँसे और सत्ता परिवर्तन जिनके भी बीच हुआ लगभग वे एक दूसरे की बी काॅपी बनने में लगे रहे। हाँ यह बात अवश्य गंभीरता से मानने की है कि लोकतंत्र में सत्ता के नए समीकरण तथा एक दल के स्थान पर बहुदलीय सरकारों का भी यह समय है।
आर्थिक सन्दर्भों तथा विश्वव्यापी परिप्रेक्ष्य में अगर देखते हैं तो यह समय पर्याप्त हलचल का है। निजीकरण की वापसी, धन्नासेठों की सरकार को प्रभावित करने की क्षमता की वापसी, सामन्ती परिवारों का पुनः लोकतन्त्र पर परोक्ष्य, आर्थिक तथा राजनैतिक ताकत के रूप में कब्जा, एकध्रुवीय विश्व तथा भारत सहित विश्व की तीसरी दुनिया के देशों की गुटनिरपेक्षता की ताकतों की मौजूदगी की अप्रासंगिकता, आतंकी शक्तियों का विश्वपटल पर नग्न प्रदर्शन ही नहीं, यूएनओ की शक्तियों का एक ही देश के पक्ष में दोहन तथा उसके नाम पर कई देशों पर अत्याचार भी इस समय का सच है तो आर्थिक हिस्से में भारत के मध्य वर्ग की ताकतवर उपस्थिति तथा मीडिया के रूप अभिव्यक्ति के नए औजार की उपस्थिति भी इसी काल में हुई।
यह समय इस रूप में भी विशिष्ट है कि साहित्य, कला तथा संगीत का परिचय नए रूप में हमारे सामने आ रहा है। वास्तविक दुनिया के समानान्तर आभासी दुनिया भी दिखाई देने लगी है। ऐसे समय में साहित्य इन तमाम स्थितियों से कैसे दो-चार कर रहा है। यह विचारणीय है। साहित्य समाज में व्याप्त घटनाओं का लिखित दस्तावेज होता है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों का शब्द प्रामाणिक आकलन करता है। आदिकाल और मध्यकाल के रचनाकर्म पर धार्मिक और परलौकिक दबाव थे किन्तु आधुनिक युग तर्क और विज्ञान से लैस होकर आता है। विकास को लेकर निश्चित विचारधाराएं और संरचनाओं से लोगों का मोहभंग हुआ और सोच के अद्यतन विकल्प शोधने का प्रयास जारी रहा। यह वहीं समय था जब, नक्सलवाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, दलित-स्वर्ण, बाजारवाद और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में ‘शब्द’ पर दबाव की बात की जाने लगी।
यह विश्वविद्यालय स्तरीय संगोष्ठी जो 1980 के बाद के साहित्य अर्थात समकालीन रचनाधर्म का विश्लेषण करने का प्रयास है। आठवें दशक के आस-पास साहित्य और समाज में हाशिये का प्रश्न बड़ी तेजी से उभरा, स्त्री और दलित चेतना के उभार के परिणाम स्वरूप साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, के स्वर की अनुगूंज सुनाई पड़ी। स्वानुभूति सहानुभूति, समानुभूति और सहजानुभूति आदि मुद्दे भी इस समय में ही साहित्य में अंकित होते हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता दलित साहित्य का केन्द्र है, यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कहा जाता है ‘जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जानै पीर पराई। अनुभूति की गहन संपृक्ता ने रचनात्मक सरोकारों को भी व्यापक बनाया।
सन् 1980 के बाद का समय महिला सशक्तिकरण का भी समय है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पुरूषों के साथ कदमताल करते हुए उन्होंने नवीन क्षितिजों को स्पर्श किया। परंपरागत क्षेत्रों के साथ गैर परंपरागत क्षेत्रों सेना, कृषि, उड्डयन व्यवसाय आदि में भी उनकी हिस्सेदारी बढ़ी। राजनीति में भी उन्होंने अपने लिए अधिक ‘स्पेस’ की मांग करनी शुरू कर दी। आठवें दशक के अंत में और नवंे दशक के शुरूआती दौर में महिला लेखकों की एक बड़ी जमात, तीव्र अनुभूति प्रवण दृष्टि और रचनात्मक सरोकारों के साथ स्त्री मन और स्त्री जीवन का प्रामाणिक स्कैच खीचते हैं।
उपभोक्तावाद और भूमण्डलीकरण के विमर्श का दायरा निरंतर बढ़ता गया और सन् 1990 के बाद सूचना-संचार, प्रौद्योगिकी के संजाल का तमाम सामाजिक-साहित्यिक विचारधाराओं पर गहरा असर पड़ने लगा। साहित्य पर बाजारगत दबाबों की छायाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थी। इस समय में बाजार नामक आदिम संस्था का विरोध रिवाज के रूप में प्रचलित हुआ। संपूर्ण साहित्य का मूल स्वर रसात्मकता की अवधारणा से ज्यादा सामाजिकता की और होता चला गया। आठवें दशक के अन्त में सोवियत संघ का विघटन दो ध्रुवीय विश्व का अंत बन गया। अमेरिका का वर्चस्व और एक धु्रवीय विश्व की स्थापना इस समय की महत्वपूर्ण घटना थी। सन् 1990 के बाद का साहित्य अपने स्वरूप में बहुलतावाद का समर्थन कराता है।
कथा साहित्य के क्षेत्र में यह काल प्रयोग धार्मिता से सराबोर रहा। संरचना और भाषा के स्तर पर उत्कृष्ट उपन्यास इसी समय में आए। विमर्शों की धार सान पर त्रीव हुई और विमर्शों का अतिवादी स्वरूप भी इस समय दिखाई देता है। उपन्यास और कहानी में विषय वैविध्य भी इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता है। इस समय में साहित्य पर गद्य का दबाव भी इस रचना समय को पकड़ने का महत्वपूर्ण सूत्र है। इस दौर में उपन्यास और कहानी संकलनों का प्रकाशन कविता की तुलना में अधिक हुआ।
पुराने स्थापित नामों के बरक्स नई ऊर्जा से लबरेज रचनाकर सन् 1990 और उसके बाद की कालावधि में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं और यह पीढ़ी थाती को आगे तक ले जाने में सक्षम है। देखे जीवन और भोगे जीवन के बीच के वैषम्य को आज का साहित्य कम कर रहा है। यह देखे जीवन और भोगे जीवन के एकाकार होने की प्रक्रिया है।
पाश्चात्य दुनिया ने जब इतिहास का अंत और विचारधाराओं के अंत की बात की लगभग उसी समय में हिन्दी पट्टी में वैचारिक आग्रह ने जोर पकड़ा। यह भी काबिलेगौर है कि पाश्चात्य विचारधाराओं और रचनात्मक पूर्वाग्रहों का हिन्दी जगत पर कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। स्थानीयता का दबाव, समसामयिक कृतियों का महत्वपूर्ण बिन्दू है, आज की कविताएं शब्द चयन विषय चयन में स्थानीय गली-कूचों और निज लोक परंपरा का वहन अधिक कर रही हैं। ग्राम्य जीवन पर इस समय में कई बेहतरीन कविताएं लिखी गई। अनुभूतियों की प्रखरता और मुखरता भी अस्सी के बाद के रचना समय की विशेषता है।वैश्वीकरण के अपने सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं। आमजन के लिए सूचनाओं की प्राप्ति और संपर्क साधनों की गति में त्रीव गति से वृद्धि हुई। उपग्रहीय संस्कृति और बाजारों का एकीकरण इस युग के सूत्र वाक्य थे। यह भी रोचक विषय है कथा साहित्य और कविता में इस सूचना समय का बड़ा प्रामाणिक वर्णन और विश्लेषण हुआ। संचार माध्यमों से जुड़े हुए रचनाकारों का इस युग में महत्वपूर्ण अवदान है। मानवीय संबंधों में निरंतर बढ़ रही दूरियों और एकाकीपन की प्रवृत्ति का प्रसार जिस त्रीव गति से हुआ उस छीजने की प्रक्रिया पर साहित्य जैसे मरहम लगाने का उपक्रम करता है।
साहित्य पर दृश्य-श्रव्य माध्यमों का एक बड़ा प्रभाव यह भी हुआ कि स्वयं के मन की गुत्थियों को शब्द के माध्यम से खोलने का जोर-शोर से प्रसार होने लगा। इस समय आत्म कथाओं का एक बड़े दौर शुरू हुआ। स्त्री लेखिकाओं ने तल्ख सच्चाईयों और भोगे हुए यथार्थ को कागज पर शब्दशः उतार डाला। ये आत्मकथाएँ संवेदनाओं का अद्भुत आख्यान हैं।
समीक्षा और आलोचना में भी यह समय सार्थक रहा। पुरानी पीढ़ी के समीक्षकों ने वर्तमान समीक्षा पद्धति के लिए नए क्षेत्रों का विस्तार किया। नई पीढ़ी के आलोचकों का योगदान इन मायनों में महत्वपूर्ण है कि वह आलोचना को स्वायत्त कर्म के रूप में देखते हैं। समसामयिक समीक्षक साहित्य को केवल रसानुभूति के निकष पर ही नहीं कसता बल्कि अन्य समाज विज्ञानों से उसको संबद्ध कर अपने निष्कर्ष देता है। इस संगोष्ठी में आठवें दशक से लेकर अद्यतन साहित्य और उसमें व्याप्त प्रवृतियों पर विचार-विमर्श किया जाएगा। वर्तमान समय में जब शब्द की अस्मिता पर संकट होने की आशंका व्यक्त की जा रही है तब रचनाकारों और विशेषज्ञों का क्या मानना है? यह जानना महत्वपूर्ण होगा।
द्वितीय सत्र जो समकालिन कविता पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने की। इस सत्र में वक्ता के रूप में डा. जितेन्द्र श्रीवास्तव (युवा समीक्षक एवं आलोचक) हिन्दी विभाग, इग्नू, दिल्ली, डा. महेश आलोक, प्रख्यात कवि, शिकोहाबाद आदि ने अपने विचार व्यक्त किये। समकालीन कविता पर बोलते हुए प्रख्यात युवा कवि एवं समीक्षक डा. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा सन् 1990 के बाद की कविता को समझने के लिए नऐ औजारों और प्रविधियों की आवश्यकता है। रचनात्मकता की दृष्टि से उन्होंने इस समय को उत्कृष्ट बताया। रचनाकर्म के क्षेत्र में युवा कवि तमाम तरह के विषयों को स्पर्श कर रहे हैं। पूर्व वक्ताओं द्वारा कविता के लिये की गई संकट की आशंका को उन्होंने एक सिरे से नकार दिया।
प्रख्यात कवि डा. महेश आलोक ने समकालीन कविता को गहन मानवीय सरोकरों से सबंद्ध बताया। कविता के क्षेत्र में आंचलिक पृष्ठभूमि से संबंद्ध जितने कवि आज रचनाकर्म में सक्रिय हैं। इतनी बहुलता कभी नहीं थी। विषय चयन के क्षेत्र में कविता में वास्तविक जनतंत्र वर्तमान समय में लागू हुआ। समकालीन कवि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को अपनी अभेद दृष्टि से देख और परख रहा है। यह काल ‘हाशिये के जीवन’ का वर्णन काल है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात जनवादी कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने कहा बेशक विचारधाराओं के अंत की बात की जा रही हो, साहित्य नहीं मर सकता। समकालीन कविता के विभिन्न पक्षों की गहरी पड़ताल करते हुए उन्होंने कहा आज की युवा पीढ़ी के पास नये स्वप्न और आकांक्षाएं हैं। ‘यूटोपिया’ के अंत की बात करना, भारतीय संदर्भों में सही नहीं है। भारत में साहित्य लोक से गहन संबंद्ध है। अतः यूटोपियाज के अंत का प्रश्न ही नहीं उठता। लीलाधर जगूड़ी ने समकालीन कविता के साथ ही सूचनाओं के विस्फोट काल में हिन्दी भाषा की स्थिति पर भी अपने विचार व्यक्त किये।
इस सत्र का संचालन डा. अनिल त्रिपाठी जे.एस.सी. कालेज सिकन्दराबाद ने किया। सत्र का संचालन करते हुए वर्तमान कविता को वर्तमान युग की मांग बताया। इस रचनाकर्म को निष्पक्ष दृष्टि से देखने की आवश्यकता पर बल दिया।
इस संगोष्ठी के तृतीय सत्र में अखिलेश, (कहानीकार, संपादक तद्भव), श्री प्रेम जनमेजय, श्री दामोदर दत्त दीक्षित, (सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार) आदि ने शिरकत की। इस सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कहानीकार एवं उपन्यासकार गंगा प्रसाद विमल ने की। प्रेम जनमेजय ने संगोष्ठी में बोलते हुए कहा कि व्यंग्य विद्या पर दृश्य-श्रव्य माध्यमों के रिऐलिटी कार्यक्रमों का प्रभाव पड़ा है आज चुटकुले, लतीफे को ही व्यंग्य समझ लिया गया है किन्तु यह एक गहरी विद्या है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार दामोदर दीक्षित ने कहा वर्तमान समाज में व्यंग्य ने अपना ‘स्पेस’ तलाश कर लिया है।
इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने कहा समकाल जैसी कोई अवधारणा कम से कम साहित्य पर लागू नहीं हो सकती। यदि कोई ऐसी अवधारणा साहित्य पर लागू होती तो कबीर, तुलसी, मीरा, मुक्तिबोध आज प्रसांगिक न होते। साहित्य में मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं। गंगाप्रसाद विमल ने वाई जुई चीन में 1200 वर्ष पहले पैदा हुए और वह सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में जाने जाते हैं। वक्तव्य के अंत में समकालीन रचनाओं को प्रोत्साहन की उन्होंने आवश्यकता बताई। इस सत्र का संचालन डा. प्रज्ञा पाठक एन.ए.एस. कालेज, मेरठ ने किया।
राष्ट्रीय संगोष्ठी का चतुर्थ सत्र एवं समापन सत्र दिनांक 28 मार्च 2009 को सम्पन्न हुआ। यह सत्र हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित रहा सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. निर्मला जैन ने कहा कि आलोचना बहुत है, आलोचक बहुत कम है। जबकि कवियों और रचनाकारों का कहना है कि आलोचना का क्षेत्र बहुत कम है लगभग खाली पड़ा है। वास्तव में ईमानदार आलोचक सिर्फ एक पाठक होता है। वह किसी लिंग या धर्म से प्रभावित होकर आलोचना नहीं करता। उन्होंने विश्वविद्यालय शोध प्रबन्धों पर तीखे व्यंग्य करते हुए कहा कि इन शोध प्रबन्धों का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। तमाम तरह कि गैर जरूरी रचनाओं पर भी शोध हो रहा है। शोध की वस्तुनिष्ठता, शोध की गुणवत्ता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रो0 निर्मला जैन ने आधुनिक समय को दौड़ भाग वाला समय बताते हुए कहा कि वर्तमान रचनाकार इन त्वरित क्षणों के टकराव से अपनी रचना ऊर्जा को तलाश करता है। श्रोताओं के प्रश्नों का जवाब देते हुए उन्होंने आलोचना और रचनाकार के द्वन्द आदि स्थितियों को साहित्य के भविष्य के लिए घातक बताया। साहित्यकार का माक्र्सवादी अथवा गैर माक्र्सवादी होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह गहन मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हो। उन्होंने तमाम तरह की राजनैतिक विचारधाराओं के खाँचे में बंटे हुए साहित्य से आप कालजयी होने की उम्मीद नहीं कर सकते। सूर, कबीर, तुलसी इस वजह से प्रासंगिक हैं कि काल उनकी रचनाओं में एक महत्वपूर्ण तत्व बनकर आता है और प्रत्येक समय में उनकी प्रमाणिकता बनी रहती है।
इसी क्रम में प्रो. स्मिता चतुर्वेदी ने कहा कि जब हम किसी कृति को परखते हैं, देखते हैं तो हम उसकी आलोचना भी करते हैं। आलोचना पाठक और लेखक के बीच के विचारों की कशमकश है। इन्होंने कहा कि खराब रचना इतनी खतरनाक नहीं होती, जितनी खराब आलोचना। जब हम किसी रचना के अन्दर यात्रा करते हैं तब वह आलोचना कहलाती है। उन्होंने दलित विमर्श और नारी विमर्श पर बोलते हुए कहा कि केवल दलित ही दलित की पीड़ा समझता है और कभी-कभी नारी विमर्श और दलित विमर्श पर लिखने वालों में खीचातान होती रहती है। आज के आलोचक का दायित्व बहुत बड़ा है और शायद इसी लिए आलोचना कम लिखी जा रही हैं।
दूरदर्शन से आये प्रसिद्ध मीडियाकर्मी एवं पत्रकार डा. अमरनाथ ‘अमर’ (पिछले दिनों ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ पुरस्कार से सम्मानित) का कहना था कि दूरदर्शन ने समकालीनता की अवधारणा को बहुत आगे तक बढ़ाया है प्रत्येक युग के रचनाकार को उसने अपने केन्द्र में लिया है। देश की सामासिक सांस्कृतिक को अभिव्यक्त करते हुए विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों पर टेलीफिल्म, साक्षात्कार प्रस्तुत कर दूरदर्शन ने समाज को एक नई दिशा दी है। उपग्रहीय संस्कृति के दौर में दूरदर्शन के कार्यक्रमों मे गांव, देहात का अक्स लगातार उभरता रहा है।
संगोष्ठी में विशिष्ठ अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो. एस. वी. एस. राणा ने कहा कि साहित्य समाज को गति देता है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग के स्वप्न आकांक्षओं को वह अभिव्यक्त करता है। जो साहित्य सामाज से जितनी गहराई से जुड़ा होगा। वह उतना ही काल के सापेक्ष्य होगा।
सत्र का संचालन करते हुए एम. एम. कालेज, मोदीनगर के डा. जे. पी. यादव ने कहा कि वर्तमान साहित्य नए आयामों और नये क्षितिजों को छू रहा है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग की साहित्य में हिस्सेदारी बढ़ी है वास्तव में साहित्य में प्रजा तंत्र वर्तमान समय में शुरू हुआ है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग अपनी संवेदनाओं की बडे़ प्रमाणिक अंदाज में वर्तमान रचना समय में अभिव्यक्ति करता जा रहा है।
संगोष्ठी में प्रश्नोत्तरी के दौरान विपिन कुमार शर्मा, मोनू सिंह, डा. त्रिपाठी, राजेश ढांड़ा, सहित कई शिक्षिकों एवं छात्र-छात्राओं ने विशेषज्ञों से प्रश्न पूछे। इस अवार पर डा. प्रज्ञा पाठक, डा. ललिता यादव, डा. अशोक मिश्रा, डा.0 महेश आलोक, डा. प्रवेश साती, ऋतु सिंह, मंमता, डा. अर्चना सिंह, डा. साधना तोमर, दीपा, डा. स्नेहलता गुप्ता, डा. नवीन कुमार शर्मा, कु. नीतू चैधरी, डा. गजेन्द्र सिंह, कु. नीतू चैधरी, श्रीमती निर्मला देवी, प्रकाश चन्द्र बंसल, ईश्वर चन्द गंभीर, डा. रवीन्द्र कुमार, गजेन्द्र सिंह, राजेश कुमार, सुमित कुमार, विवके सिंह, अंजू, निवेदिता, ममता, नेहा पालनी अमित कुमार, मोनू, जोगेन्द्र सिंह, अरूण कुमार, पारूल, दीपक कुमार, अजय कुमार आदि शिक्षक एवं छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।
प्रस्तोता- डा. रवीन्द्र कुमार
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3 पाठकों का कहना है :
रिपोर्ट काफी विस्तृत है ..फिर भी पढा ! कई विषयों पर मौलिक विमर्श ! अगर जगूड़ी जो ने नहीं बताया तो यह आपको चाहिए था कि एक छोटे से वाक्य में पहले यूटोपिया को व्याख्यायित कर देते क्योंकि -
‘"यूटोपिया’ के अंत की बात करना, भारतीय संदर्भों में सही नहीं है। भारत में साहित्य लोक से गहन संबंद्ध है। अतः यूटोपियाज के अंत का प्रश्न ही नहीं उठता। लीलाधर जगूड़ी ने समकालीन कविता के साथ ही सूचनाओं के विस्फोट काल में हिन्दी भाषा की स्थिति पर भी अपने विचार व्यक्त किये। "
एक तो यह रिपोर्ट का शीर्षक वाक्य चुना गया है ! और यूटोपिया को बिना परिभाषित किये उसके अंत की बात कर दी गयी है ! आप लोग ज्ञानी हैं -रिपोर्ट पढने वाला नहीं ! वह यूटोपिया का अंत या /और डिसटोपिया के बारे में बहुत संभव है ना जानता हो ! उसके ज्ञान में वृद्धि इस छोटी सी सदाशयता से हो जाती ! और यह भी उसके मन में कौंधता कि अपना रामराज्य भी कहीं एक यूटोपिया ही तो नहीं या कुछ अलग सी अवधारणा है/महज एक आकाश कुसुम ही नहीं !
अब कुछ और कहूँगा तो बात बेबात हो जायेगी !
रिपोर्ट के लिए शुक्रिया !
रपट विस्तृत, जरूरी और सामान्य पाठक की दृष्टि से कठिन है. यूटोपिया जैसे अप्रचलित शब्दों के प्रचलित पर्याय कोष्ठक में रपटकरता या संपादक जी दे सकते तो बेहतर होता. तथाकथित आधुनिक कविता में रसहीनता की जिस चिंता की चर्चा विद्वानों ने की है उसे तो अपनी टिप्पणियों में इंगित कर मैं कई मित्रों का कोपभाजन बना हूँ. यह रसहीनता कविता मात्र में नहीं समूचे जीवन वे घर कर रही है तभी तो उत्सव के समय हर्ष के स्थान पर करुण रस को रचना अप्रसांगिक नहीं लगती. क्या कोइ जन्मदिन पर शोकगीत सुनता-सुनाता है? अस्तु...शायद इस रपट को पढ़कर अवसर के अनुकूल रस की रचना का औचित्य सिद्ध हो सके. रपटकरता को श्रम के लिए धन्यवाद.
संगोष्ठी के निमित्त आपने
समकालीन रचनाधर्मिता के
कई पहलू उजागर कर दिए.
समकालीन और विषमकालीन में
ध्वनि साम्य का रोचक किन्तु
व्यंजनात्मक प्रयोग चिंतन का
नया फलसफ़ा दे गया....आभार
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
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