Tuesday, April 27, 2010

‘उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ पर हैदराबाद में संगोष्ठी



हैदराबाद । 25 अप्रैल 2010
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग में नवगठित साहित्य संस्कृति मंच और स्टेट बैंक ऑफ हैदराबाद के तत्वावधान में ‘उत्तरआधुनिक विमर्श और समकालीन साहित्य’ विषयक एकदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई।

संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए ‘स्वतंत्र वार्ता’ के संपादक डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने कहा कि उत्तरआधुनिकता आधुनिकता की प्रतिक्रिया में आरंभ हुई और उससे बहुत आगे बढ़ गई तथा इसकी अवधारणा विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य और भाषा सभी के साथ गुंथी हुई है। उन्होंने कहा कि दर्शन की मूल चिंता सदा यही रही है कि सत्य क्या है। इस सत्य का साक्षात्कार करने का प्रयास ही मनुष्यता वैदिक युग से लेकर उत्तर आधुनिक युग तक करती रही है। डॉ. राधे श्याम शुक्ल ने इस संबंध में चिंता जताई कि साहित्य और सृजन के मूल्यांकन को रेखांकित करने के लिए हम भारतीय परंपरा की ओर नहीं देख रहे हैं। उन्होंने विस्तार से पश्चिमी और भारतीय दर्शन और काव्यशास्त्र की परंपरा की तुलना की।

बीज व्याख्यान शिवाजी विश्वविद्यालय कोल्हापुर के प्रो. अर्जुन चव्हाण ने दिया। उन्होंने कहा कि उत्तरआधुनिकता अनेक प्रवृत्तियों का पुंज है जिसमें एक ओर अतियथार्थवाद है तो दूसरी ओर यह चिंतन कि जो समूह कल तक हाशिए पर थे वे आज केंद्र में आ रहे हैं। प्रो. चव्हाण ने अनेक उदाहरण देकर यह प्रतिपादित किया कि उत्तरआधुनिक विचारचिंतन का वैध और अवैध से कोई लेनादेना नहीं है। उन्होंने इसे बना हुआ चिंतन नहीं बल्कि बनता हुआ चिंतन बताया और कहा कि यह पश्चिम की दादागिरी का चिंतन है जिसमें ध्वंसात्मकता का प्रमुख स्थान है।

संस्थान के कुलसचिव प्रमुख हिंदी भाषाचिंतक प्रो. दिलीप सिंह ने उत्तरआधुनिकता की व्याख्या संरचनावाद और विरचनावाद के संदर्भ में करते हुए विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को इस प्रवृत्ति का प्रतिनिधि उपन्यास बताया। उन्होंने ब्लूमफील्ड, सस्यूर और चॉम्स्की की चर्चा करते हुए कहा कि साहित्यिक पाठ के भीतर एक ऐसी संरचना होती है जो उस पाठ के अंदर ले जाती है तथा उत्तरआधुनिक विमर्श की सार्थकता इन पाठों की पाठक के नजरिये से व्याख्या करने में निहित है।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करते हुए अंग्रेजी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय के रूसी विभाग के आचार्य डॉ. जगदीश प्रसाद डिमरी ने उत्तरआधुनिकता के इतिहास पर प्रकाश डाला और जोर देकर कहा कि आज आवश्यकता यह है कि तमाम उत्तरआधुनिक विमर्श को संस्कृत की दार्शनिक और काव्यशास्त्रीय चिंतनधारा के बरक्स परखा जाए। उन्होंने माँग की कि हिंदी के साहित्यचिंतक अपनी देशीय जमीन अर्थात् संस्कृत काव्यशास्त्र के आधार पर आधुनिक युग के नए साहित्यिक मापदंड तैयार करें।

आरंभ में डॉ. बी. बालाजी ने सरस्वती वंदना की। संगोष्ठी संयोजक डॉ. मृत्युंजय सिंह ने संगोष्ठी के विषय की पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए यह सवाल उठाया कि आलोचना और विमर्श किस तरह अलग हैं तथा उत्तरआधुनिकता का आधुनिकता से क्या रिश्ता है। उन्होंने यह भी जिज्ञासा प्रकट की कि उत्तरआधुनिक दृष्टि से शोध का मॉडल क्या होना चाहिए। आंध्र सभा के विशेष अधिकारी एस.के. हळेमनी ने अतिथियों का स्वागत किया।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने की। अपने संबोधन में उन्होंने याद दिलाया कि उत्तर आधुनिकता की शुरुआत वास्तुकला से हुई जिसका बाद में चित्रकला, संगीत, साहित्य और अन्य ज्ञानक्षेत्रों में प्रचलन हुआ। उन्होंने आदिवासी विमर्श का उल्लेख करते हुए कहा कि विकास के नाम पर जन-जातियों को उनकी जड़ों से काटना ध्वंसात्मक है जो आदिवासी विमर्श का प्रस्थानबिंदु है। इस सत्र में डॉ. बलविंदर कौर ने ‘उत्तर आधुनिक विमर्श और पहचान का संकट’, डॉ. घनश्याम ने ‘उत्तरआधुनिक साहित्य में आदिवासी जीवन’, डॉ. करण सिंह ऊटवाल ने ‘नाटक, रंगमंच और उत्तरआधुनिकता’ और ‘डॉ. विष्णु भगवान शर्मा ने ‘उत्तरआधुनिक भाषा संकट और राजभाषा हिंदी’ विषय पर शोधपरक आलेख प्रस्तुत किए। संचालन डॉ. जी. नीरजा ने किया।

द्वितीय सत्र की अध्यक्षता करते हुए डॉ. टी. मोहन सिंह ने उत्तरआधुनिक विमर्श की विसंगतियों पर ध्यान दिलाया और कहा कि यदि बुद्धिजीवियों को वास्तव में दलितों और आदिवासियों से थोड़ा भी प्रेम है तो उन्हें वातानुकूलित कमरों से निकलकर इस देश के गाँवों में जाकर कुछ काम करना चाहिए - सिर्फ विमर्श करते रहने से कोई परिवर्तन नहीं आएगा। इस सत्र में डॉ. भीमसिंह ने ‘उत्तरआधुनिक साहित्य में दलित संदर्भ’ विषय पर शोध पत्र पढ़ा जबकि डॉ. पी. श्रीनिवास राव ने अपने आलेख में ‘स्त्री लेखन में उत्तरआधुनिकता’ का विवेचन किया। डॉ. साहिराबानू बी. बोरगल के आलेख ‘साहित्यभाषा का उत्तरआधुनिक संदर्भ’ की प्रस्तुति के अलावा चर्चा सत्र में डॉ. बी. बालाजी, चंदन कुमारी, सुशीला , प्रतिभा कुमारी, मोनिका देवी, अनुराधा जैन, राजकमला और मोहम्मद कुतुबुद्दीन आदि शोधार्थियों ने विचारोत्तेजक टिप्पणियों से कार्यक्रम को गति प्रदान की। इस सत्र का संचालन डॉ. बलविंदर कौर ने किया।

समापन सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि उत्तरआधुनिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे आतंकित हुआ जाए क्योंकि यह एक शाश्वत सत्य है कि सारे विमर्श , कोई भी वर्ग या कोई गतिशील समाज स्थिर नहीं रह सकता, लेकिन उसके टुकड़े भी उतने ही किए जा सकते हैं जितने की कि वह अनुमति देगा। इसलिए यह सोचना कि उत्तर आधुनिक विमर्श हमारी संस्कृति को तोड़ देगा, भ्रांति के अलावा कुछ और नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि यदि साहित्य, समाज, मीडिया, कला या फिल्मों में कुछ ऐसा प्रस्तुत किया जा रहा है जो गलत है तो उस पर भी विमर्श होना चाहिए। इस सत्र में डॉ. राधे श्याम शुक्ल और चवाकुल नरसिंह मूर्ति ने टिप्पणी करते हुए संगोष्ठी को विचारोत्तेजक और सार्थक बताया।

समाकलन करते हुए भी प्रो. अर्जुन चव्हाण ने कहा कि किसी भी विमर्श की तरह उत्तरआधुनिकता में भी न तो सब कुछ अच्छा है न सब कुछ खराब इसलिए हमें भारतीय संदर्भ को ध्यान में रखते हुए उसकी स्वीकार्य बातों को ग्रहण करना चाहिए। समापन सत्र का संचालन डॉ. पेरिसेट्टि श्रीनिवास राव ने किया गया।

धन्यवाद ज्ञापित करते हुए डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने निकट भविष्य में ‘उत्तर संरचनावाद’ पर केंद्रित संगोष्ठी का प्रस्ताव रखा। आरंभ में डॉ. शर्मा ने संस्थान के समकुलपति से और देशविदेश के विद्वानों तथा साहित्यकारों से ई-मेल के माध्यम से प्राप्त संदेशों का भी वाचन किया.

राष्ट्रीय संगोष्ठी में हैदराबाद के विभिन्न विश्वविद्यालयों के अध्यापक और छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित रहे। साथ ही नगरद्वय के साहित्यप्रेमियों, कवियों, पत्रकारों और हिंदीसेवियों ने भी बढ़चढ़कर हिस्सा लिया जिनमें डॉ. टी.के.एन. पिल्लै, डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, डॉ. विजयराघव रेड्डी, डॉ. रेखा शर्मा, डॉ. कांचन जतकर, डॉ. पी. माणिक्यांबा, डॉ. प्रवीणा राज, डॉ. टी.जे. रेखारानी, डॉ. मंजूषा श्रीवास्तव, डॉ. अर्चना झा, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. जे.वी. कुलकर्णी, डॉ. तात्याराव सूर्यवंशी, डॉ. मिथिलेश सागर, डॉ. देवेंद्र शर्मा, डॉ. राजकुमारी सिंह, डॉ. सत्यनारायण, डॉ. किशोरी लाल व्यास, डॉ. पी.आर. घनाते, डॉ. श्यामराव राठौड़, डॉ. प्रभाकर त्रिपाठी, डॉ. शक्ति कुमार द्विवेदी, डॉ. एम. आंजनेयुलु, डॉ. हेमराज मीणा, नरेंद्र राय, द्वारका प्रसाद मायछ, चित्रसेन राणा, एस. सुजाता, ज्योति नारायण, अशोक तिवारी, गुरुदयाल अग्रवाल, भगवान दास जोपट, विजय पाटिल, शशि नारायण स्वाधीन, डी.सी. प्रक्षाले, ए.जी. श्रीराम, भगवंत गौडर, ज्योत्स्ना कुमारी, के. नागेश्वर राव, रामकुमार, श्रीधर, श्रीनिवास सोमाणी, आशा देवी सोमाणी, सुनील सूद और विनीता शर्मा के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।