Tuesday, August 31, 2010

जनकवि गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’ की पुस्‍तक का लोकार्पण

“जीवन की गूँज” जीवन से आप्‍लावित क़ृति-डॉ0 कंचना सक्‍सैना


बायें से दायें- डॉ0 अशोक मेहता, डॉ0 कंचना सक्‍सैना, श्री रघुराज सिंह हाड़ा, डॉ0 औंकारनाथ चतुर्वेदी, आचार्य ब्रजमोहन मधुर, कृतिकार गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’ और श्री रघुनाथ मिश्र पुस्‍तक ‘जीवन की गूँज’ का लोकार्पण करते हुए।

कोटा। 22 अगस्‍त। जनकवि गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’ का काव्‍य संग्रह ‘जीवन की गूँज’ का लोकार्पण जनवादी लेखक संघ, कोटा द्वारा आयोजित किया गया।

श्री मिश्र ने कृतिकार परिचय देने से पूर्व ‘आकुल’ के बारे में कहा-‘नहीं जाना था तो कुछ भी नहीं जाना था। जाना तो कुछ जाना। अब जाना तो यह जाना कि अभी तक तो कुछ भी नहीं जाना।‘ उन्‍होंने कहा कि आज आप जो कुछ जानेंगे उसके बाद भी बहुत कुछ जानने को रह जाता है। आज कई पर्दे खुलेंगे। ऐसे और भी मनीषी साहित्‍यकार हैं जिन्‍हें यह शहर बहुत समय तक नहीं जान पाया, उनमें से आकुल भी एक हैं। 1996 में उनकी पहली नाट्य कृति ‘प्रतिज्ञा’ कोटा के भारतेंदु समिति में विमोचित हुई थी उसके बाद से कोटा के साहित्‍य समाज से कोटा में रहते हुए भी श्री भट्ट गुमनामी की तरह अपनी साहित्‍य जीवन यात्रा करते रहे। श्री मिश्र ने भट्ट की दूसरी पुस्‍तक ‘पत्‍थरों का शहर’ की उनका प्रख्‍यात संवाद ‘दोस्‍त फ़रिश्‍ते होते हैं, बाक़ी सब रिश्‍ते होते हैं’ से आरंभ की और कहा कि यह एक ऐसा जुमला किया है, जिससे सारा देश जो ‘आकुल’ को जानता है या नहीं जानता चर्चाएँ करता है। इस पर 6-8 घंटे की संगोष्‍ठी की जा सकती है। हमारे मुख्‍य अतिथि महोदय ने स्‍वयं ने इसे सूक्ति कहा है। ‘आकुल’ का जीवन संगीत और साहित्‍य से ओतप्रोत रहा है। यह उनकी विशेषता रही है कि अपने साहित्‍य प्रकाशनों में उन्‍होंने कभी संगीत यात्रा का परिचय नहीं दिया। अनेकों वाद्य बजाने में सिद्धहस्‍त आकुल ने प्रमुख की बोर्ड प्‍लेयर (सिन्‍थेसाइज़र) के रूप में देश के प्रमुख आर्केस्‍ट्राओं में अपनी विशेष पहचान बनाई। 1980 से 1988 के मध्‍य लगभग 10 विदेशों में उनके स्‍टेज प्रोग्राम्‍स को वे अपने जीवन का स्‍वर्णिम समय मानते हैं। उन्‍होंने मथुरा वृन्‍दावन की कई रासलीला व रामलीला मंडली के साथ पार्श्‍व संगीत दिया।

पुस्‍तक के लोकार्पण के पश्‍चात् सर्वप्रथम डॉ0 फ़रीद अहमद ‘फ़रीदी,’ जो “आकुल” की पुस्‍तक ‘पत्‍थरों का शहर’ के सम्‍पादक भी रहे हैं, ने उनके सम्‍मान में पाँच छंदों वाली एक कविता “साहित्‍य का फ़रिश्‍ता” गा कर सुनाई और श्रीभट्ट को आशीर्वाद और बधाई स्‍वरूप लेखनी भेंट दी।

कृति परिचय के लिए अपने उद्बोधन के लिए संचालक ने डॉ0 कंचना सक्‍सैना को आमंत्रित किया। डॉ0 कंचना सक्‍सैना ने अपने आलेख को नाम दिया ‘जीवन की गूँज’ जीवन से आप्‍लावित कृति। वे कृति के लिए हाशिया बाँधते हुए लिखती हैं कि लगता है आज सारे विशेषण नुच गये हैं, छिन गये हैं और रह गये हैं मात्र सर्वनाम, जो संज्ञा के क़रीबी दोस्‍त हैं। जब सर्वनाम ही रह गये हैं, तो मन की दौड़ तेज हो जाती है। उस ज़िन्‍दगी की तरह, जो नामहीन हो गयी है। ऐसी ही ऊबड़-खाबड़, मधुर एवं तिक्‍त सम्‍बंधों की पहचान की है श्री भट्ट ने। इनको समझने के लिए एक ओर भीषण तपती आग की आवश्‍यकता है, तो दूसरी ओर शीतल मन्‍द फुहार की। युगबोध की अभिव्‍यंजना के साथ विरोधी भावों को उद्वेलित करना कवि के लिए इ‍सलिये भी सम्‍भव रहा है कि ज़िन्‍दगी की हर धड़कन अथवा नब्‍ज़ को उन्‍होंने पूरी तरह टटोला है। श्री भट्ट ने अपनी सूक्ष्‍मदर्शी दृष्टि से सभी विषयों को भावोर्मियों की लड़ियों में शब्‍दों के माध्‍यम से ऐसे पिरोया है कि पाठक मात्र आंदोलित हुए बिना नहीं रहता। ‘वसुधैव कुटुम्‍बकम्’ की भावना से आड़ोलित एवं आप्‍लावित आपकी चिन्‍तना निश्‍चय ही काल और समय की माँग के अनुकूल है। बाजारवाद एवं वैश्‍वीकरण के प्रभावस्‍वरूप उत्‍पन्‍न स्थिति में आम आदमी का संघर्ष, पीड़ा, घुटन, संत्रास के साथ रिसते हुए रिश्‍तों के प्रति कवि का सम्‍वेदनशील मन करुणाश्रु प्रवाहित करता है। 9 कालखंडों में रचित कविताओं को 240 पृष्‍ठीय पुस्‍तक में प्रश्रय मिला है। भावोद्गारों को ब्रज एवं राजस्‍थानी के रंग कलशों में न केवल उँडेला है, अपितु दर्शन और अध्‍यात्‍म को भी संस्‍पर्श किया है। जहाँ भाषा की दृष्टि से ‘आकुल’ प्रोढ़, परिष्‍कृत एवं परिमार्जित एवं परिनिष्ठित भाषा के धनी हैं वहीं भाव की दृष्टि से भी कविता प्राणवान् और ऊर्जावान् बन पड़ी हैं। ब्रजभाषा पर तो आपका अपूर्व अधिकार है। उपमान जीवन से ग्रहीत हैं। कविता के साथ गद्य में कवि के विचार उसे समझने में सहायक तो हैं ही साथ ही कवि का ये नवीन प्रयोग प्रशंसनीय है। लेखक की विद्वत्‍ता का भी कहीं अंत नहीं है। जापानी विधा हाइकू में निबद्ध त्रिपदीय रचनाओं की परत दर परत सींवन उधेड़ी है। स्‍वध्‍येय में वे अनवरत सृजन की ओर संकेत भी करते हैं।

प्रमुख वक्‍ता आचार्य ब्रजमोहन मधुर ने ‘सहितस्‍य भाव: साहित्‍य’ की अवधारणा को पूरा करने वाले साहित्‍यकार के रूप में आकुल को साधुवाद दिया। लोक साहितय, लोक संस्‍कृति को बचाये जाने के उनके आग्रही को भी उन्‍होंने साधुवाद दिया और कृति को अध्‍यात्‍म और दर्शन की एक उत्‍कृष्‍ट कृति के य्‍प में बताया।

डॉ0 अशोक मेहता ने पुस्‍तक को आस्‍था के कवि की अनुगूँज के रूप में सार्थक प्रयत्‍न बताया। उनकी दृष्टि में पुस्‍तक की शृंगार और होली विषयक रचनाओं को वे सुंदरतम बताते हैं।

मुख्‍य अतथि श्री रघुराज सिंह हाड़ा ने अपने वक्‍तव्‍य में ‘आकुल’ को आशीर्वाद देते हुए कहा जिस पुस्‍तक का आरंभ श्रीकृष्‍णार्पणम् से हुआ हो और समाप्ति श्रीकृष्‍णार्पणमस्‍तु करके बात पूरी हुई हो, तो भई कृष्‍णार्पण के बाद तो लोकार्पण प्रसाद वितरण का ही होता है और वो भी हो गया। मेरे यह सुखद बात मानता हूँ, जिस समय प्रिय आकुल का जन्‍म हुआ 18 जून 1955, उसके कुछ दिन बाद ही मैं शिक्षक बन गया था। दो तीन महीने पहले जन्‍मा बालक आज इतनी प्रोढ़ता के साथ एक कृति प्रस्‍तुत करे और वह भी ऐसी जो सारे जीवन को गूँजता हुए क्रमश: क्रमश: चरेवेति चरेवेति भाषा में कह जाता है। अपनी प्रज्ञा से मुझे सबसे अच्‍छी बात इस कृति की यह लगी वो यह कि सामान्‍यतया होता यह है कि मन किया और लिख दिया, पर प्रिय आकुल का संजीदगी भरा, धैर्य और उनकी प्रज्ञा का आग्रह रहा होगा कि उन्‍होंने कृति लिखने से पूर्व ‘क्‍या लिखूँ, क्‍यों लिखूँ’ के उत्‍तर तलाश किये, इसलिए हर रचना के पूर्व उन्‍होंने अपने उद्रगार प्रकट किये हैं।

अपने अध्‍यक्षीय भाषण में डॉ0 औंकार नाथ चतुर्वेदी ने कहा कि 19 वीं शताब्‍दी में झालावाड़ ने शीर्ष स्‍थान प्राप्‍त किया था हिन्‍दी सेवा में। हरिवंश राय बच्‍चन जहाँ गिरधर शर्मा कविरत्‍न से मधुशाला के छंद सीखने आये थे। जिस कविरत्‍न गिरधर शर्मा, शकुंतला रेणु, भट्ट गिरधारी शर्मा तैलंग कवि किंकर की कर्मभूमि झालवाड़ रही हो, पं0 गदाधर भट्ट का परिवार हो, ऐसे परिवार से संस्‍कारित हैं रत्‍नशिरोमणि “आकुल”। जीवन की जो गूँज है, एक सार्थक कवि की सार्थक प्रतिध्‍वनि है, जो दशकों तक लोगों द्वारा याद की जायेगी। आज जन्‍माष्‍टमी है, चौंकिये मत, भले जन्‍माष्‍टमी आठ दिन बाद है। पर आज जन्‍माष्‍टमी है। रचनाकार की कृति का लोकार्पण जन्‍माष्‍टमी का त्‍योहार ही तो होता है। जो रचना हैं, साहित्‍यकार हैं, जिसने अपने जीवन में पुस्‍तक लिखी हो, तन मन की सुध बिसरा जाता है। एक संगीतकार का जीवन जीते जीते कवि बन जाना, अपने जीवन का इतना बड़ा मोड़ ले आना फिर अपनी अंतर्भावानाओं से गुँथ जाना, फि‍र अपने आराध्‍य को ढूँढ़ना , फि‍र आराध्‍य के साथ अनुरंजित हो जाना, बहुत बड़ी साधना है।
भारी संख्‍या में वरिष्‍ठ वरिष्‍ठ साहित्‍यकारों सहित अनेक रचनाकारों ने समारोह में भाग लिया। वल्‍लभ महाजन, सुरेश चंद्र सर्वहारा, डॉ0 योगेन्‍द्र मणि कौशिक, महेंद्र नेह, डॉ0 इंद्र बिहारी सक्‍सैना, सावित्री व्‍यास, हरिश्‍चंद्र व्‍यास, डॉ0 नलिन, डॉ0 फ़रीदी, डॉ0 राधेश्‍याम मेहर, शरद तैलंग, समाचार सफ़र के सम्‍पादक जीनगर दुर्गाशंकर गहलोत, अखिलेश अंजुम, आलोचक प्रोफेसर हितेश व्‍यास, भगवती प्रसाद गौतम, बृजेंद्र सिंह झाला पुखराज, रामदयाल मेहरा, हलीम आईना, आदि अनेकों साहित्‍यप्रेमियों ने समारोह में उपस्थिति दी।

प्रस्‍तुतकर्ता- गोपाल कृष्‍ण भट्ट ‘आकुल’, कोटा।