Sunday, May 1, 2011

कविताओं के विविध रंग-डायलॉग गोष्ठी


काव्य पाठ करतीं अर्कमल कौर
पिछले एक साल से ‘लिखावट’ हर महीने के आखिरी शनिवार को “डायलॉग” नाम की काव्य गोष्ठी का आयोजन करा रहा है। 28-4-11 को अप्रैल माह की गोष्ठी संपन्न हुई। गोष्ठी में अमित कुमार, स्वप्निल तिवारी “आतिश”, मुश्ताक सदफ, रमेश वर्णवाल, अर्कमल कौर एवं कृष्ण कल्पित नें अपनी रचनाएँ पढीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता कृष्ण कल्पित नें एवं संचालन मिथिलेश श्रीवास्तव नें किया। इस कार्यक्रम में हिंदी, उर्दू और पंजाबी रचनाएँ पढ़ी गयीं। कार्यक्रम में सबसे पहले अमित कुमार नें अपनी रचनाओं चवन्नी में चाँद, काली लड़की का हलफनामा, कश्मीर, नास्तिक और नियति का पाठ किया। चवन्नी में चाँद के माध्यम से एक तरफ उन्होंनें बदले हुए और बदलते हुए जमाने की तरफ संकेत किया तो नास्तिक जैसी छोटी सी रचना के माध्यम नास्तिकता के भ्रम से पर्दा उठाया। उसके बाद आये कवि स्वप्निल कुमार “आतिश” नें अपनी रचनाओं लोकतंत्र, अकेला होने पर, एक और नज़्म तथा दो ग़ज़लें सुनाई स्वप्निल की कविताओं में एक तरफ जहाँ लोकतंत्र को लेकर एक गुस्सा था तो दूसरी तरफ एक रुमानियत भी दिखी। मुश्ताक सदफ नें कुछ ग़ज़लें सुनाई और माहौल को पूरी तरह काव्यमय कर दिया। एक तरफ उन्होंनें “जिंदगी घर लौट आना शाम को, अब तू पहले की तरह बच्ची नहीं” जैसे शेर कहे तो दूसरी तरह “कुछ न उसको गमे सफर होगा, जिसका सामन मुख़्तसर होगा” जैसे बड़े शेर भी कहे। विविधताओं को समेटे मुश्ताक सदफ की ग़ज़लें गज़ल की उस परम्परा से हैं जहाँ बातें बहुत आसान जबान में की जाती हैं।

श्रोता

रमेश वर्णवाल नें भी विविधताओं से भारी रचनाओं की प्रस्तुति की जिसमें बातें, चप्पल, एक पुरातत्वविद की डायरी से, खामोशी और ब्रम्ह.कॉम थीं। रमेश जी की कवितायेँ इतिहास से निकलते हुए एक लंबी दूरी तय करती हैं और जल्दी ही ब्रम्ह.कॉम जैसी रचनाओं के जरिये वर्तमान का हाथ पकड़ लेती हैं। उनकी ख़मोशी जैसी कविता में रोमांस का पुट भी दिखता है। अर्कमल कौर नें समयाभाव के चलते एक पंजाबी कविता ओ मैं ही साँ और एक पंजाबी गज़ल सुनाई। ओ मैं ही साँ के जरिये गौतम बुद्ध की सफलता में उन्होंनें एक औरत की सफलता को बहुत बारीकी से दर्शाया।

काव्यपाठ करते कृष्ण कल्पित
कार्यक्रम के अंत में अध्यक्ष कृष्ण कल्पित नें कार्यक्रम की सफलता और उसके वैविध्य को देखकर प्रसन्नता जाहिर की तथा अपनी रचनाएँ गुमशुदगी के बारे में, उम्मीद, सायकिल की कहानी तथा कलकत्ता 2004 पढीं। गुमशुदगी के बारे में जैसी रचना के द्वारा उन्होंनें इंसान की याददाश्त के साथ साथ उन लोगों की विडंबना पर भी रौशनी डाली जो लोग गुमशुदा हैं और उनके गुमशुदा हो चुके लोगों में कहीं न कहीं सम्पूर्ण भारत की भी झलक मिलती है। सायकिल की कहानी एक अभूतपूर्व रचना है जिसके द्वारा तीनों लोकों की असमानता को सहजता के साथ दर्शा दिया कृष्ण कल्पित नें। सायकिल की कहानी सिर्फ सायकिल की कहानी न हो कर पूरी मनुष्यता की कहानी थी। मिथिलेश श्रीवास्तव नें सबका धन्यवादयापन किया। उसके बाद चाय-पान के साथ कार्यक्रम सफलता पूर्वक संपन्न हो गया।