Wednesday, August 26, 2009

फिर महफ़िल सजी फिर दीवानों का मज'मा लगा.......

गुजिश्‍ता की अगस्त 2009 माह की गोष्ठी की रिपोर्ट


लेकिन इस बार महफ़िल का रंग दूसरा था, बावजूद इस के कि जगह वही थी, लखनऊ में सूर्योदय कालोनी का सामुदायिक हाल, होस्ट वही थे यानी टंडन परिवार, आयोजक वही थे प्रदीप भाई और मुहम्मद अहसन लेकिन इस बार कवियों और श्रोताओं की संख्या में होड़ थी कि कौन अधिक हैं, और दोनों ही काफी त'अदाद में थे यानी कि हाल खचा-खच भरा हुआ था, और मेहमान कवियों के क्या कहने ... हिन्द-युग्म से जुड़े स्वप्निल कुमार आतिश और सिद्धार्थ नगर के युवा कवि और इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्र अनूप पांडे। अनूप पहले भी इस महफ़िल में काव्य पाठ कर के अपने झंडे गाड़ चुके हैं। गाव और मिट्टी और रिश्तों सी जुडी कवितायें कहते हैं, काफी जोश में हाथ हिला-हिला कर पढ़ते हैं।
महफ़िल की शुरूआत प्रदीप भाई की इब्तिदाई तक़रीर से हुई। लेकिन इस बार अहसन साहब ने मंच पर बैठने से साफ़ इनकार कर दिया। चालाक आदमी हैं, मंच पर बैठने से जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं, बोले आम श्रोता की भांति नीचे बैठूंगा, सो मंच पर साबिरा जी के साथ बैठे टंडन जी। साबिरा जी ने इस बार रूसी में कविता न सुना कर एक ताज़ी ग़ज़ल सुनाई और तालियाँ बटोरी। इस बार अंग्रेजी में पता नहीं क्यूँ विनीतवाल साहब ने कविता नहीं सुनाई लेकिन हिंदी / उर्दू श्रोता निराश नहीं हुए, उन को अंग्रेजी में कविता सुनाई जावेद नकवी ( शनने भाई ) ने, एक नहीं दो, सोने में सुहागा ३५ साल पुरानी।

स्वप्निल का पहला मुशाएरा का तजुर्बा था और वह मंच पर डरा-डरा पहुँचा लेकिन एक रूमानी नज़्म सुनाने के बाद निडर हो गया और झोंक में एक और सुना डाली। चलते वक़्त उस की आंखें कह रही थीं फिर कब बुलाओगे।
जमील साहब ने एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह अपने पूरे बाडी लंगुएज के साथ दो गजलें सुनाईं और मुशाएरा करीब करीब लूट लिया था कि उन को इस काम से रोका गया कि यह काम तो आखिर में मनीष शुक्ला को करना है।

हमज़ुबां कोई नहीं तो आइना कोई तो हो
गुफ्तुगू किस से करूं दूसरा कोई तो हो
- जमील साहब



वंदना दीक्षित जी लखनऊ विश्व विद्यालय की भाषा विभाग में हैं, वह और उनके पति रमेश दीक्षित जो राजनीति पढ़ाते हैं, अक्सर ही हमारी महफिलों के हिट युगल रहते हैं। रमेश जी इस बार किसी कारण नहीं आ सके तो वंदना जी को अकेले ही अपनी दो संवेदनशील कविताओं के साथ हिट होना पड़ा।

यूं तो गजाला अनवर ने भी महफ़िल लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी अपनी गज़लों के साथ लेकिन आलोक श्रीवास्तव और राजीव राय के साथ गज़लों के म'आमले में सख्त मुकाबला होने के कारण निर्णय बड़ा मुश्किल था कि जनता किस के साथ है। आलोक और राजीव के महफ़िल में पहली बार शरीक होने से जनता का सहानुभूति वोट उन को अधिक मिलता दिखा।

देवकी नंदा 'शांत' जी ने डिप्लोमेसी से काम लेते हुए अपनी चिर परिचित शैली में गज़लें सुनाकर और गाकर प्रसिद्धि के शिखर को छूने का पूरा प्रयास किया लेकिन साबिरा जी ने ठान ली थी कि सब से आखीर में मनीष को ही बुला कर मनीष को हिट करवाना है। उन्होंने भूतपूर्व पुलिस महानिदेशक श्री एम॰ सी॰ द्विवेदी के साथ भी कोई रियायत नहीं की जिन्होंने 'स्लम' पर एक अति संवेदनशील कविता सुना कर वाह-वाही बटोरी। उन का मुकाबला था बीरबल साहनी इंस्टिट्यूट ऑफ़ पलेओ बोटनी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ नौटियाल से जो पहले भी इस महफ़िल में शरीक हुए थे।

ज़िक्र तो अभी कईयों का बाक़ी है लेकिन हाए रे टाइपिंग की दिक्क़त.. चलिए उन का ज़िक्र फिर कभी ...

अहसन साहब आयोजक होने के बाद भी सब से अंत में सुनाने के गर्व से वंचित रहे हालांकि उन्होंने इस गम को बहुत बहादुरी से सहा और मुस्कुराते रहे। दरअसल यह स्थान पहले से ही मनीष शुक्ल के नाम आरक्षित था।

अहसन साहब ने एक छोटी नज़्म 'बस यूं ही खड़ी रहो' सुनाने का आग्रह किया .

नज़र से रहमतें बिछाए बस यूं ही खड़ी रहो
काइनात ब सर उठाए बस यूं ही खड़ी रहो
पलक पे तुम्हारी वक़्त है ठहर गया
ज़ुल्फ़ पे तुम्हारी धूप है उतर गयी
खामोशियों के सिलसिले बनाए बस यूं ही खड़ी रहो
वो बात जो अभी कही नहीं
वो नज़्म जो अभी लिखी नहीं
उन्ही की ख़ातिर ए वजूद बस यूं ही खड़ी रहो
बस यूं ही खड़ी रहो

इस के बाद उन्होंने कुछ फुटकर शे'र सुनाए। दरअसल फुटकर शे'र सुनाना धीरे-धीरे उनकी आदत बनती जा रही है। वह भी क्या करें, ग़ज़ल कहनी उन्हें आती नहीं है तो इसी से काम चलाते है

तनहा फिरा हूँ उम्र भर इक दर्द की पोटली लिए
हैराँ हूँ किस दर पे रक्खूं, किस घाट पे बहाऊं

नदी ने धो दिए शहर के पाप सब
अब वह खुद जाए कहाँ मैला आँचल लिए !

कल इक परिंदा मर गया, इक निशानी मिट गयी
किताब ए कुदरत में लिखी इक कहानी मिट गयी

लेकिन इस महफ़िल ने मनीष शुक्ला की गज़लों के बिना ख़तम होने से इनकार कर दिया। मुझे याद नहीं मनीष ने कितनी गजलें सुनाई लेकिन महफ़िल उन्हीं के नाम गयी। उन का एक शे'र याद आ रहा है

कभी आंसू कभी मोती कभी शबनम समझती है
मता ए जिंदगी है जिस को दुनिया गम समझती है

महफ़िल चाय के साथ ख़तम हुई और उस के 15 दिनों बाद तक अहसन और मनीष शुक्ला में होड़ लगी रही कि कैसे रिपोर्ट लिखने से बचा जाए और कौन सालिड बहाना मार सकता है लेकिन आखिर अहसन साहब ही फंसे, और रिपोर्ट हाज़िर है। शैलेश भारतवासी जी इतनी जल्दी कहाँ छोड़ देते। लगातार शर्म दिलाते रहे और रिपोर्ट लिखवा कर माने।

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11 पाठकों का कहना है :

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

सुंदर प्रस्तुति...ऐसे खूबसूरत महफ़िलों का तहे दिल से स्वागत है..

बधाई!!!

निर्मला कपिला का कहना है कि -

बहुत सुन्दर लाजवाब प्रस्तुति है बधाई

Manju Gupta का कहना है कि -

लाजवाब रिपोर्ट का हमने भी मजा लिया .वंदनाजी के साथ यह प्रस्तुति भी हिट हो गयी .
बधाई .

manishshukla का कहना है कि -

ek behatareen report ke liye badhaee,mere bare mein kuchh ziyada hi ho gayi,khair,anyways,thanks

Anonymous का कहना है कि -

Bahoot achhi report.Yu laga ki ham bhi the us mehfil me.badhai...

Chandra का कहना है कि -

गोष्ठी तो खूबसूरत थी ही, रिपोर्ट भी उतनी ही खूबसूरत है. अहसान साहब भी बार बार रिपोर्ट लिखने में फंसते रहें, अच्छा रहेगा.

चन्द्र मोहन नौटियाल

manu का कहना है कि -

तसल्ली से पूरी रिपोर्ट पढ़ी,,,देखि,,
मजा आया ,,
अहसन जी,
हमें लगता है के ये फूटकर शे'र कहने का रोग भी हिंद-युग्म की ही दें है आपको...
बहुत बहुत आभार रिपोर्ट पेश करने का...
है तो काम मेहनत का ही..
:)

Shamikh Faraz का कहना है कि -

सबसे पहले मैं अहसान साहब से मुआफी चाहता हूँ के उन्होंने मुझे भी इस महफ़िल-ऐ-खास के लिए बुलाया था लेकिन मैं नहीं पहुँच पाया. इसके बाद लिखी इस खूबसूरत रिपोर्ट के लिए मुबारकबाद देना चाहूँगा.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

वाकई अहसन साहब की नज्मों का भी कोई सनी नहीं है.

नज़र से रहमतें बिछाए बस यूं ही खड़ी रहो
काइनात ब सर उठाए बस यूं ही खड़ी रहो
पलक पे तुम्हारी वक़्त है ठहर गया
ज़ुल्फ़ पे तुम्हारी धूप है उतर गयी
खामोशियों के सिलसिले बनाए बस यूं ही खड़ी रहो
वो बात जो अभी कही नहीं
वो नज़्म जो अभी लिखी नहीं
उन्ही की ख़ातिर ए वजूद बस यूं ही खड़ी रहो
बस यूं ही खड़ी रहो

Shamikh Faraz का कहना है कि -

यह शे'र बहुत पसंद आया.

हमज़ुबां कोई नहीं तो आइना कोई तो हो
गुफ्तुगू किस से करूं दूसरा कोई तो हो

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बाकी शे'र अपनी जगह बढ़िया रहे.

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