Saturday, January 9, 2010

‘आनंदम’ गतिविधियों में एक नया पृष्ठ – ‘विचार-गोष्ठी’



जगदीश रावतानी की साहित्यिक व संगीत संस्था ‘आनंदम’ की दिसंबर 2009 की गोष्ठी में एक निर्णय यह भी लिया गया था कि वर्ष 2010 से ‘आनंदम’ संस्था प्रतिमाह की काव्य-गोष्ठियों के अतिरिक्त किसी भी ज्वलंत विषय से जुडी एक ‘विचार-गोष्ठी’भी आयोजित करेगी. दि. 3 जनवरी 2010 की गोष्ठी में ‘आनंदम’ के उक्त निर्णय के कार्यान्वयन का शुभारंभ जगदीश रावतानी के पश्चिम विहार स्थित निवास पर किया गया.

इस गोष्ठी में प्रेमचंद सहजवाला ने अपनी अप्रकाशित अंग्रेज़ी पुस्तक ‘Hinduism- Through Modern Perception’ के प्रथम दो अध्याय पढ़े. गोष्ठी में सर्वश्री जगदीश रावतानी (अध्यक्ष), डॉ. विजय, मनमोहन तालिब, भूपेंद्र, मुनव्वर सरहदी, धरमदासानी तथा सैलेश सक्सेना ने भाग लिया.

पुस्तक के प्रथम अध्याय के प्रारंभ में ही प्रेमचंद सहजवाला ने प्रसिद्ध इतिहासकार बी.आर.नंदा की इतिहास पुस्तक ‘The Making of a Nation’ से एक बहुत रोचक प्रसंग पढ़ा. इस प्रसंग के अनुसार एक ब्रिटिश ICS अधिकारी एच.एक.किश्क ने उन्नीसवीं शताब्दी के अपने यात्रा वृतांतों में उन तीर्थ यात्रियों का वर्णन किया है जो बहुत हास्यास्पद तरीके से लखनऊ से उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी मंदिरों तक जा रहे थे. वे सब न तो रेलगाड़ी से जा रहे थे न बस से, न हवाई जहाज़ से न पैदल. वे सब अपनी जगह पर खड़े होने के बाद ज़मीन पर लेट जाते तथा अपने हाथ आगे को खोल कर कुल 8 फुट ज़मीन नाप लेते. फिर खड़े हो कर अगले 8 फुट पर लेट जाते और इस प्रकार लखनऊ से जगन्नाथ पुरी तक का फासला केवल लेट लेट कर पूरा करते. 8 फुट प्रति बार के हिसाब से वे 660 बार लेट कर दिन भर में 4 मील तय करते और इस प्रकार लगभग डेढ-दो वर्ष में जगन्नाथ पहुँच जाते. लेखक सहजवाला ने बताया कि उन्होंने पिछले वर्ष ‘छठ पूजा’ के अवसर पर दिल्ली की यमुना नदी के किनारे कुछ नौजवानों को इसी प्रकार लेट लेट कर काफी फासले से नदी के किनारे तक आते देखा था.

इस अध्याय में उन्होंने पारंपरिक हिंदू समाज के पिछड़ेपन की और संकेत करते इतिहास के एक अन्य प्रसंग को भी पढ़ा. सन 1960 के ‘हिंदू अधिनियम’ के अनुसार कोई भी हिंदू बालिका यदि बचपन में ही विवाह कर लेती है तो उस का पति तब तक उस के साथ शारीरिक सम्बन्ध नहीं रख सकता जब तक वह 10 वर्ष की न हो गई हो. परन्तु कुछ 10 वर्षीय बालिकाएं इस प्रकार सेक्स की प्रक्रिया को न सह कर मर गई तो देश के अनेक सुधारकों ने इस न्यूनतम आयु को बढ़ाने का अभियान चलाया जो दो दशक से अधिक समय तक चला. आखिर सन् 1891 में ब्रिटिश ने भारत के सुधारकों की मांग पर एक नया विधेयक पारित किया – ‘The Age of Consent Bill – 1891’. सहजवाला ने बताया कि इस विधेयक के पारित होते ही देश के पुरातनपंथी रूढ़िवादी लोग बौखला गए और इस के सब से बड़े विरोधी थे लोकमान्य तिलक. कलकत्ता में ऐसे, शास्त्रों की लकीर की फकीरी करने वाले पोंगा पंडितों ने दो लाख लोगों की एक रैली निकाली जिसमें नारे लगाए गए – ‘महारानी, हमारा धर्म बचाओ, महारानी हमारे शास्त्र बचाओ’. यह निर्णय भी लिया गया कि एक प्रतिनिधि मंडल इंग्लैंड जा कर महारानी से आग्रह करेगा कि ऐसा शास्त्र-विरोधी विधेयक वापस लिया जाए.

पूना में ऐसे दकियानूसी लोगों के कोप का भाजन बने प्रसिद्ध सुधारक गोपाल गणेश अगरकर जिनका पुतला बनाया गया. पुतले के एक हाथ में उबला हुआ अंडा और दूसरे में व्हिस्की की बोतल पकड़ा दी गई और उन्हें अंग्रेज़ियत का पिट्ठू घोषित किया गया. फिर पूरे पूना शहर में घुमाने के बाद पुतले का दाह-संस्कार किया गया.

इन अध्यायों में सहजवाला ने हिंदू समाज के सब से बड़े अभिशाप यानी जाति-प्रथा पर खूब प्रहार किये. उन्होंने केरल के उन बदनसीब दलितों के प्रसंग लिया जिन्हें देख कर स्वामी विवेकानंद ने केरल राज्य को ही एक ‘मानसिक हस्पताल’ घोषित कर दिया. लेख में बताया गया कि पिछली शताब्दी में केरल की दलित जातियों को कमर से ऊपर कपड़ा पहनने तक का अधिकार नहीं था. उनकी महिलाऐं भी केवल कमर के नीचे का कपड़ा यानी पेट्टीकोट आदि पहन सकती थी पर कमर से ऊपर का बदन निर्वस्त्र होने के कारण घर से निकल तक नहीं पाती थी. आखिर कुछ ईसाई मिशनरियों की मदद से वहाँ के दलितों ने अपनी महिलाओं के लिए ‘Upper Cloth Agitation’ यानी ‘ऊपरी-वस्त्र आन्दोलन’ किये और सफल हुए. ईसाई मिशनरियों के अलावा वामपंथी दलों की सहायता से अंततः एक समय ऐसा भी आया कि साक्षरता में केरल प्रदेश पूरे देश का अग्रणी प्रदेश बना.

दूसरे अध्याय में ‘मनु-स्मृति’ का ज़िक्र भी है जिस में सहजवाला ने बताया कि मनु ने अकेले हिंदू समाज का वह संविधान नहीं लिखा था, वरन तात्कालीन क्षत्रिय राजाओं की मनमानी व प्रजा के संचालन के तरीकों के अनुसार उन्होंने ने हिंदू समाज का संविधान बनाया. उस पर तुर्रा यह कि मनु ने उस संविधान पर ईश्वर की मोहर लगा दी कि यह सारा संविधान उन्हें परम पूजानीय परमात्मा ने लिखवाया है. परमात्मा का ठप्पा लगते ही संविधान स्वयमेव पवित्र ग्रंथों की श्रेणी में आ गया. इस संविधान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति जीवन भर में ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम व सन्यासाश्रम का पालन करेगा. परन्तु ब्रह्मचर्याश्रम में लड़कियों की शिक्षा का कोई ज़िक्र नहीं तथा वानप्रस्थाश्रम में कोई भी साठ वर्षीय व्यक्ति वनों में जा कर झोंपड़ी में रहेगा और शास्त्राध्ययन करता रहेगा, जब कि उस की पत्नी का कोई उल्लेख उस में नहीं है. क्या पत्नी अपनी संतान पर आश्रित रहेगी? साथ ही मनु-स्मृति के कई अमानवीय प्रावधानों के ज़िक्र करते हुए सहजवाला ने बताया कि यदि कोई ब्राह्मण किसी दलित महिला से शादी करता भी है तो वह उसे अपने घर, यानी ससुराल में नहीं लाएगा. वह मायके में ही रहेगी और जब कभी ब्राह्मण को उस के साथ रात बितानी होगी तो वह अपना खाना व पीने का पानी तक अपने घर से ले जाएगा. पत्नी के साथ सम्भोग से पहले वह पूरे शरीर को घी से मलेगा और इस पर भी तुर्रा यह कि उस दलित पत्नी से जो संतान होगी, उसे ब्राह्मण पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार न रहेगा!

यदि शूद्र ने ब्राह्मण को गाली दे दी तो दंड-स्वरुप उसे अपनी जिव्हा पर जलता हुआ लोहा रखना पड़ेगा तथा यदि शूद्र ने ब्राह्मण को लात मार दी तो उस का पांव काट दिया जाएगा और थप्पड़ मारा तो हाथ. यदि दलित किसी ब्रह्मिण महिला का बलात्कार करेगा तो सज़ाए-मौत और यदि इस से उलट ब्राह्मण किसी दलित महिला का बलात्कार करेगा तो केवल कुछ धन-राशि दंड-स्वरुप देने से ही न्याय हो गया समझो.

क्योंकि लेखक अनुच्छेद-दर-अनुच्छेद हिंदू समाज की सर्वाधिक कुत्सित प्रथाओं पर प्रहार कर रहे थे, इसलिए गोष्ठी के अंत में खूब गर्मा-गर्म चर्चा चली. धरमदासानी ने सीधा सवाल पूछा कि कभी आप तीर्थ-यात्रियों की बात करते हैं, कभी जाति-प्रथा की तो कभी बाबा साहेब आम्बेडकर की, आखिर आप कहना क्या चाहते हैं? सहजवाला ने बताया कि क्यों कि उन्होंने पुस्तक के आठ अध्यायों में से केवल दो ही पढ़े, अतः पूरी पुस्तक के पढ़े जाने पर यही पता चलेगा कि वे हिंदू समाज की असामान्यताओं का पर्दा-फाश कर रहे हैं तथा अमानवीय प्रथाओं यथा सती प्रथा आदि पर समाज के बुद्धिजीवियों को आड़े हाथों ले रहे हैं. डॉ. विजय ने पूछा कि आप Hinduism को कैसे परिभाषित करते हैं? सहजवाला ने बताया कि Hinduism को Way of Life कर के परिभाषित किया गया है, जिस में विवाह के अनेक प्रकारों में से ‘राक्षस विवाह’ भी था जिस के अनुसार कोई क्षत्रिय किसी भी लड़की का अपहरण कर सकता है और यदि किसी की हिम्मत हो तो युद्ध कर के अपहृत लड़की को बचा ले. क्षत्रिय युद्ध जीतने पर अपहृत लड़की से ज़बरदस्ती विवाह कर सकता है. उदहारण के तौर पर उन्होंने भीष्म पितामह का प्रसंग लिया जिन्होंने तीन राजकुमारियों अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का अपहरण उनके राज-महल में हो रहे स्वयम्वर से ही कर लिया था. राक्षस विवाह का सन्दर्भ दे कर भीष्म पितामह ने कहा था कि इस प्रकार अपहरण करना ‘मनु-स्मृति’ के अनुसार जायज़ था. परन्तु सहजवाला ने कहा कि पंडित जवाहरलाल नेहरु जैसे विचारकों ने Live and Let Live को Hinduism परिभाषा कर के माना है. मनमोहन तालिब ने सहजवाला से सीधा प्रश्न किया कि क्या आप Hinduism में सचमुच विश्वास करते हैं? सहजवाला ने कहा कि वे पहचान से हिंदू हैं, पर हृदय से वे वास्तव में Buddhist हैं और गौतम बुद्ध की सरल शिक्षाओं में अधिक विश्वास करते हैं. बहस के अंत में ‘आनंदम’ अध्यक्ष जगदीश रावतानी ने कहा कि धर्म रूपी पहचान ने व्यक्ति और देश को बहुत नुकसान पहुँचाया है. हमें चाहिए के हम अपनी पहचान एक इंसान के रूप में दें, न कि राष्ट्र या धर्म के रूप में . उनकी इस बात से सभी सहमत थे अंत में उन्होंने इसी सन्दर्भ में अपना एक ताज़ा शेर सुनाया:

ज़रूरत नहीं मंदिरों मस्जिदों की,
मैं इंसान में ही खुदा चाहता हूँ.

इस पर खूब तालियाँ बजी और धन्यवाद प्रस्ताव के साथ गोष्ठी संपन्न हुई.

रिपोर्ट- ‘आनंदम’ रिपोर्ट विभाग