Sunday, June 7, 2009

हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य संगोष्ठी संपन्न

शमशेर अहमद खान

दिनांक 6 जून 2009 को उत्तरप्रदेश भाषा संस्थान, लखनऊ और भारतीय साहित्य सांस्कृतिक संबंध परिषद, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में राष्ट्रीय बाल साहित्य संगोष्ठी का आयोजन भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद ,नई दिल्ली
स्थिति आजाद भवन के मल्टीपर्पज हॉल में संपन्न हुआ। एक पूर्ण दिवसीय संगोष्ठी का उद्‍घाटन वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार डॉ. कन्हैया लाल नंदन ने किया। इस अवसर के मुख्य अतिथि वीरेंद्र गुप्त थे, किंतु किंही कारणवश वे उपलब्ध नहीं हो सके। इसलिए उनका प्रतिनिधित्व डॉ.अजय गुप्ता (सम्पादक, गगनांचल) ने किया। इस सत्र की अध्यक्षता डॉ. राजेंद्र अवस्थी जी ने की।

बाल साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा पर चिंतनपरक आलेख पढ़ने वाले विद्वानों में डॉ. हरिकृष्ण देवसरे,डॉ. राजेंद्र अवस्थी, डॉ. अलका पाठक, डॉ. शेरजंग गर्ग, डॉ. द्रोणवीर कोहली, डॉ. सूर्यकुमार पाण्डेय आदि प्रमुख थे।

बालसाहित्य से संबंधित पढ़े गए आलेखों में डॉ. अलका पाठक का लेख काफी संतुलित रहा। उन्होंने हास्य-हास्य में वह सब कुछ कह दिया जिसे चिंतनपरक संगोष्ठी में विचार किया जाता है। वे अपने आलेख का अंत करते हुए कहती हैं----“ वही पीछे छूटा बचपन जब पच्चीसबरस, पचास बरस बाद अपने बच्चे या बच्चे के बच्चे के रूप में खडा हो जाता है तो यह जरूरी एवरेस्ट यह आवश्यक सागर सिकुड़ते हैं और छोटे होते जाते हैं,इतने –इतने छोटे कि नन्हीं- नन्हीं हथेलियों में राजा जी की गैया खो जाती है, मिलती है गुदगुदी में, खिलखिलाहट में—आटे बाटे चने चटाके,चैंऊ-मैऊ, झू झू के पाऊं कर के और वही सवाल कि चल चल चमेली बाग में क्या- क्या खिलाएंगे; सूरज एक पूरा चक्कर लगाकर सुबह- दोपहर शाम को रूप बदलने के बाद फिर वहीं से शुरू हो गई कहानी…. कुछ बदला तो था पर बदला हुआ गया कहां ! वही बच्चा, वही कहानी, वही नानी और एक था राजा , एक थी रानी. दोनों मर गए खत्म कहानी.”

इस संगोष्टी में बालसाहित्य संबंधी उठाए गए मुद्दे बच्चों के भविष्य की ओर इंगत करते थे। एक तरफ जहां सूचना एवं प्रौद्योगिकि की क्रांति से उपजी सूचनापरकता माध्यमों के साहित्य में प्रयोग की बात थी वहीं भारत के उन नौनिहालों कि चिंता थी जिन्हें स्कूल का मुंह भी देखने को नसीब नहीं होता ऐसे में बालसाहित्य की दशा और दिशा निर्धारित करना बेमानी लगता है। चूँकि इस दिशा में समग्र रूप से कोई समेकित कार्य नहीं हुआ है इसलिए हर कोई अपनी ढ्पली अपना राग गाए चला जा रहा है। फिर भी अंधेरी रात में जुगनू की चमक ही भरपूर लगती है। लेकिन फिर भी अगर-मगर करते हुए चला जाय तो मंजिल मिलेगी ही मिलेगी।


प्रस्तुति- शमशेर अहमद खान, 2-सी, प्रैस ब्लाक, पुराना सचिवालय, सिविल लाइंस दिल्ली---110054। Shamsher_53@rediffmail.com, ahmedkhan.shamsher@gmail.com

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2 पाठकों का कहना है :

Shamikh Faraz का कहना है कि -

साहित्य से जुडी खबरें हम तक पहुँचने के लिए हिन्दयुग्म का बहुत बहुत आभार

Manju Gupta का कहना है कि -

aisi goshti bal shahitya ko aage badane mein shayak hai aur chintan, khabar ke liye aabhar.



Manju Gupta.

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