काव्यपाठ करते मु॰ अहसन, साथ में प्रो. साबिरा हबीब
लखनऊ की हिन्दी-ऊर्दू साहित्यिक परम्परा के रूप में एक और कड़ी के रूप में गुजिश्ता 19 जुलाई, 09 को सूर्योदय हाउसिंग सोसाइटी के कम्युनिटी हाल में एक बार फिर अलग-अलग पेशों से जुड़ें हुए शायरों और कवियों की एक महफि़ल सजाई गई। इसमें सेवा निवृत्त पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी, भारतीय वन सेवा के अधिकारी श्री मु. अहसन, लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रो. डा. साबिरा हबीब, बीरबल साहनी पुरावानस्पतिक संस्थान के वैज्ञानिक डा. चन्द्र मोहन नौटियाल, शायर श्री जमीन अहमद जमील, श्री मनीष शुक्ल, शायरा श्रीमती गजाला अनवर व वन विभाग में कार्यरत श्रीमती रेनू सिंह ने शिरकत की।
यह महफिल श्री मु. अहसन व श्री प्रदीप कपूर के प्रयासों से शुरू किए गए कार्यक्रम की अगली कड़ी थी। इन लोगों द्वारा विगत तीन वर्षों से लखनऊ स्थित ग़ैर पेशेवर कवियों व शायरों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक अनौपचारिक मंच उपलब्ध कराया जा रहा है। इसमें हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी के कवियों को आमंत्रित करके उनकी रचनाओं से रूबरू होने का लुत्फ़ उठाया जाता है। इस महफिल की निज़ामत लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डा. शाबिरा हबीब द्वारा की गई। महफिल में सूर्योदय सोसाइटी के निवासी श्री अंशुमालि टंडन, श्रीमती निशा चतुर्वेदी, श्री प्रदीप कपूर, श्री सुरेन्द्र राजपूत व लखनऊ के अन्य साहित्य प्रेमी गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।
डा. चन्द्र मोहन नौटियाल |
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''याद रखो अगर तुम एक ,
अबल, अदना से स्टेशन बने रहे,
तुम्हें प्रतिदिन, प्रतिपल,
शक्तिशाली रेल गाडि़या जगायेंगी.........''
श्रीमती रेनू सिंह ने अपनी भावनाओं को गीत के माध्यम से कुछ ऐसे व्यक्त किया-
''आंखों में सिमटी नदिया की हर बूंद भी झर जाती है,
मन रोता है जब अपनों से दूरी बढ़ जाती है''
डा. चन्द्र मोहन नौटियाल ने एक वैज्ञानिक दिमाग के संवेदनशील दिल में उपजी भावनाओं को कविता के माध्यम से सम्प्रेषित करते हुए सबको मोह लिया-
''जिसमें मिलन की ऊष्णता हो, और टीस दूरी की,
जीवन के उतराव और चढ़ाव के उच्छवास हों,
कविता यह सब है, और बहुत कुछ है..........''
श्रीमती गजाला अनवर ने अपनी बात को गज़ल के माध्यम से प्रस्तुत किया। गज़ल का मतला यूं है-
''अच्छा है कि चलता रहे ये रिश्ता कोई दिन और,
दे सकते हो बातों से दिलासा कोई दिन और''
महफिल में शिरकत कर रहे लखनऊ के प्रसिद्ध शायर श्री जमील अहमद जमील ने दो खूबसूरत गज़लें पेश करके सबको वाह-वाह कहने पर मजबूर कर दिया। गज़ल के चन्द अशआर पेश हैं-
''मेरी सदा पे जो घर से निकल के आयें हैं,
ये लोग मेरे ही सांचे में ढल के आएं हैं।''
'' मैं अपने दिल के टुकड़े जोड़कर फिर दिल बनाता हूं,
मैं तन्हा हूं तो अब तन्हाई को महफिल बनाता हूं।''
श्री मनीष शुक्ल ने कुछ इस अंदाज में अपने दिल की बात कही-
''सूरत नहीं मिली कभी सीरत नहीं मिली,
अपनी किसी भी शै से तबीयत नहीं मिली।''
महफिल का समापन श्री मु. अहसन के अशआर के साथ हुआ। वैसे तो श्री मु. अहसन अपनी खूबसूरत और बामाना नज़मों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस बार उन्होंने मुतफर्रिक अशआर से सबको लुत्फअंदोज़ कर दिया। चन्द अशआर यूं हैं-
''तुम जो मुझ से पूछो हो क्यों गर्क-ए-उदासी बैठा हूं मैं,
यूं समझों कुछ गिरती दीवारें हैं, थाम के बैठा हूं मैं।''
''वो फलक बोस इमारत है जहां,
मेरे गांव का पोखरा था वहां।''
''आसमां से आग बरसे या लपट उठ्ठे जमीं से,
उसको तो पत्थर तोड़कर ही शाम का चूल्हा जलाना है।''
काव्यपाठ करते महेश चन्द्र द्विवेदी
इसके बाद प्रो. साबिरा हबीब ने मक्सिम गोर्की की रूसी कविता का उर्दू में तरजुमा पेश करके सबको खयालों की एक अलग दुनिया में पहुंचा दिया और इसके साथ प्रो. साबिरा हबीब की खूबसूरत निजामत में चल रहा अदबी सफर अपने इख्तदाम तक पहुंचा। श्री मु. अहसन ने सूर्योदय सोसाइटी के श्री अंशुमालि टंडन व उनके पिता का आभार व्यक्त करते हुए आगामी 09 अगस्त, 2009 को दुबारा इसी जगह मिलने की सूचना के साथ सभी को धन्यवाद देते हुए कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की।
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15 पाठकों का कहना है :
इसमें सेवा निवृत्त पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी, भारतीय वन सेवा के अधिकारी श्री मु. अहसन, लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रो. डा. साबिरा हबीब, बीरबल साहनी पुरावानस्पतिक संस्थान के वैज्ञानिक डा. चन्द्र मोहन नौटियाल, शायर श्री जमीन अहमद जमील, श्री मनीष शुक्ल, शायरा श्रीमती गजाला आदि हो तो महफिल तो शानदार होगी .
नई खबरों की जानकारी मिली .सब की रचनाए अच्छी लगी . बधाई .
aapko mubarakbad ke aapne itni achchi mahfil sajai
agar mujhe bhi shamil hone ka sobhagya prapt hota to bhi apne ko bhagyashaali samajhta
mera taalluq Tilhar Shahjahanpur U.P se hai
dehli me karo bar hai agar aap ab koi goshti karen to khabar dijiyega
main inshhallah zaroor aaunga
dua ka talib
''तुम जो मुझ से पूछो हो क्यों गर्क-ए-उदासी बैठा हूं मैं,
यूं समझों कुछ गिरती दीवारें हैं, थाम के बैठा हूं मैं।''
''वो फलक बोस इमारत है जहां,
मेरे गांव का पोखरा था वहां।''
''आसमां से आग बरसे या लपट उठ्ठे जमीं से,
उसको तो पत्थर तोड़कर ही शाम का चूल्हा जलाना है।''
बहुत ही सुन्दर
महफिल में शामिल सभी लोगों को बधाई
यह रिपोर्ट मनीष शुक्ला ने तैयार की है और उन्हों ने अपने बारे में बड़ी विनम्रता से काम लिया है. वह उत्तर प्रदेश वित्त सेवाओं में एक बड़े पद पर तैनात हैं. नौजवान हैं, उर्दू के बहुत अच्छे शायर हैं और उर्दू लिपि में ही लिखते हैं. शहर के लोक प्रिय शायरों में हैं.
-मुहम्मद अहसन
shukria ahsan sahab
लखनऊ की हिन्दी-ऊर्दू साहित्यिक परम्परा के रूप में एक और कड़ी के रूप में गुजिश्ता 19 जुलाई, 09 को सूर्योदय हाउसिंग सोसाइटी के कम्युनिटी हाल में एक बार फिर अलग-अलग पेशों से जुड़ें हुए शायरों और कवियों की एक महफि़ल सजाई गई। इसमें सेवा निवृत्त पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी, भारतीय वन सेवा के अधिकारी श्री मु. अहसन, लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रो. डा. साबिरा हबीब, बीरबल साहनी पुरावानस्पतिक संस्थान के वैज्ञानिक डा. चन्द्र मोहन नौटियाल, शायर श्री जमीन अहमद जमील, श्री मनीष शुक्ल, शायरा श्रीमती गजाला अनवर व वन विभाग में कार्यरत श्रीमती रेनू सिंह ने शिरकत की।
" शायरी का गुलशन महकाने वाले इन फूलों को बअदब और निहायत खुलूस के साथ फ़राज़ का सलाम."
अहसान जी को आज शे'र पढ़ते देखना बहुत अच्छा लग रहा है...
शे'र भी लाजवाब कहे हैं हुजूर ने....
दुआ है के ये महफिलें यूं ही चलती रहे....
''तुम जो मुझ से पूछो हो क्यों गर्क-ए-उदासी बैठा हूं मैं,
यूं समझों कुछ गिरती दीवारें हैं, थाम के बैठा हूं मैं।''
wallah
ahsan bhaai aap bhi kuch kam nahi .badhaai sweekaaren aur apne naye kavi mahoday maneesh ji ko bhi mbaarak baad de hmaari taraf se bhi .
मनु और नीलम जी,
शुक्रिया. दर असल यह उर्दू वाले भी बड़े अजीब लोग हैं. जब तक शे'एर न कहो, शाएर मानता ही नहीं कोई. तो मजबूरन अब शे'एर कहने पड़ रहे हैं. वरना मैं तो नज्मों वाला आदमी हूँ. और खैर ग़ज़ल कहने की तो सलाहियत व हुनर मुझ में है भी नहीं.
वो हुनर से अपने ग़ज़ल कहता रहा उम्र भर
मेरी नज्मों के खाके खून ए दिल से बनते रहे
-अहसन
ps- मनीष ने अब हिन्दयुग्म देख लिया है , अब वो ही वो दिखाई दें गे यहाँ
अहसन साहब के शेअर सबसे जानदार लगे. बहुत ही ज्यादा जज़्बात दिखाई दिए. एक शेअर ने तो निराला जी की कविता याद दिला दी.
''तुम जो मुझ से पूछो हो क्यों गर्क-ए-उदासी बैठा हूं मैं,
यूं समझों कुछ गिरती दीवारें हैं, थाम के बैठा हूं मैं।''
''वो फलक बोस इमारत है जहां,
मेरे गांव का पोखरा था वहां।''
''आसमां से आग बरसे या लपट उठ्ठे जमीं से,
उसको तो पत्थर तोड़कर ही शाम का चूल्हा जलाना
आखिरी वाले शेअर ने ये पन्तियाँ या दिला दी.
वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन प्रिय,कर्म-रत मन,
गुरू हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:
सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रुप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रूई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगी छा गई,
प्राय: हुई दुपहर:
वह तोड़ती पत्थर।
shamikh,
i am really moved. i owe you heart felt thanks for your words of encouragement. and i take your words as a backing that i can take my ash'aar seriously now.
i have an age old relationship woth pilibhit, your town. i was DFO there 1984-86. still i visit the place occasonly for some official business. next time when i visit Barreily or pilibhit , i wd like to say hello to you.
and in the last, you are a good poet and writer, take it from me.
with utmost regards and affection,
ahsan
9415409325
wo aakhiri she'er june ki us tapti dopahri mein lucknow mein gomti barrage ke paas ban rahe smaarkon ke liye patthhar todte mazdooron ko dekh kar apne aap dil se nikal gaya. un dinon is saal ki garmi ki shiddaton se akhbaar bhare hue the.
haan ek baat aur, us waqt khud main apni sarkaari A/C gaadi se jaa raha tha.
ahsan
ahsan sahab bahut achcha laga aapne mere bare meri tareef ki. shukriya. agar aapka kabhi pilibhit aana hoga to aapse zaroor mulaqat hogi.
this is my cell no.
+91 9760354047
aapne lucknow me mazdooro ko patthar todte dekhkar likha tha wo sher.
maine suna hai shyad nirala ji ne bhi allahbad ke raste me kisi aurat ko pathhar todte dekhkar hi wo kavita likhi hai.
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