'परिचय' प्रतिमाह नई दिल्ली के 'Russian Cultural Centre' में साहित्यिक गोष्ठियां आयोजित करती है, जिन में पुस्तक लोकार्पण से ले कर किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा तक अनेक गतिविधियाँ शामिल रहती हैं। कई काव्य गोष्ठियां भी इन गोष्ठियों का महत्वपूर्ण अंग हैं। संस्था की एक गतिविधि पुस्तक प्रकाशन भी है।
काव्य गोष्ठियों की शृंखला में दि. 23 जुलाई 2009 की काव्य गोष्ठी भी एक यादगार गोष्ठी रही जिस में मूलतः दो विशिष्ट कवयित्रियों - नमिता राकेश व ममता किरण - की कविताओं का पाठ हुआ व तदनंतर अन्य कई कवियों ने भी कविताएँ पढ़ी। गोष्ठी की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कवि बालस्वरूप 'राही' ने की तथा मंच पर अन्य उपस्थित कविगण में थे उर्मिल सत्यभूषण, राजकुमार सैनी, सीमाब सुलतानपूरी व दिनेश मिश्र। संचालन सुपरिचित कवि अनिल वर्मा 'मीत' ने किया।
काव्य पाठ का प्रारंभ नमिता राकेश की कविताओं से हुआ। नमिता एम.ए (अंग्रेजी), एम.ए (इतिहास), पत्रकारिता डिप्लोमा व अन्य कई शैक्षणिक उपलब्धियों के अतिरिक्त अभिनय व खेल कूद से जुडी होने के साथ आकाशवाणी दूरदर्शन में भी सक्रिय रही। वर्त्तमान में वे भारत के आयकर विभाग में सहायक निदेशक हैं। वे छंद-मुक्त कविता, गीत व ग़ज़ल पर बराबर की निपुणता रखती हैं। इस गोष्ठी में पढ़ी गई व्यक्ति-मन के प्रतिबिम्ब रूप उनकी एक कविता यहाँ प्रस्तुत है-
एक पूरा दिन मुझे जीने के लिए कम पड़ता है/अधूरे रह गए कामों को अगले दिन करने की लालसा में/जा लेटती हूँ बिस्तर पर/अधूरी इच्छाएं, लालसाएं, आकांक्षाएं,अभिलाषाएं समेट कर/तह लगा कर/रख देती हूँ तकिये के नीचे//अपने पैर समेटते हुए/बंधनों की चादर तान लेती हूँ अपने ऊपर//पलकें बंद कर के सोने की कोशिश में/जाग जाते हैं न जाने कितने सोए हुए ख़याल//बंद पलकों के भीतर देखती हूँ/ उन्हें पूरा होते हुए/और न जाने कब सो जाती हूँ अगली सुबह के इंतज़ार में.
भारतीय समाज में नारी प्रारंभ से ही समाज के दमन व शोषण का शिकार रही है। इसे ले कर कोई कवयित्री किसी न किसी रूप में अपने मन के भाव कागज़ पर न उकेरे, यह असंभव है. नमिता द्वारा गोष्ठी में प्रस्तुत यह दोहा इसी बात का सबूत हैं।
जननी जग पोषित करे शोषित है वो आज
जो सृष्टि-जननी बनी गिरी उसी पर गाज.
गांव की ओर उमुख युवा पीढ़ी की विडम्बना व देश में चल रही घातक सियासत पर नमिता की कलम:
चार पैसे क्या कमाने गाँव से बेटा गया
फिर कभी वो पास बूढ़े बाप के आया नहीं.
और
हर तरफ मज़हब सियासत नस्लो-फिरका क़ौमो-जात
है कहाँ हिन्दोस्ताँ हम को नज़र आया नहीं.
नमिता के बाद आई दूसरी विशिष्ट कवयित्री ममता किरण 'राष्ट्रीय सहारा', 'पंजाब केसरी', 'शाह टाईम्स', 'जे बी जी टाईम्स', व 'सिटी चैनल' आदि से सम्बद्ध रह कर अब स्वतंत्र लेखन कर रही हैं। भारतीय नारी का एक संवेदनात्मक हृदय व गीत-गज़ल तथा छंद-मुक्त काव्य पर अपनी अनूठी पकड़ के कारण प्रायः काफी डिमांड में रही हैं।
उन्होंने 'SAARC Writers' Conference' 'Indian Society of Authors' व 'ग़ालिब अकादेमी' आदि अनेक गोष्ठियों में काव्य पाठ किये हैं. इन्टरनेट पर 'रेडियो' सबरंग पर भी तरन्नुम में उनके मधुर गीत सुने जा सकते हैं। नारी की समाज में स्थिति को वे किस संवेदनात्मक तरीके से व्यक्त करती हैं, इस का मर्मस्पर्शी उदहारण है उन की एक गज़ल का यह शेर:
हाथ में मेरे नहीं एक भी निर्णय बेटी,
कोख मेरी है मगर कैसे बचा लूं तुमको.
आज इस उदारीकरण और आधुनिकतम शिक्षा व प्रौद्योगिकी की बाढ़ में भी एक शर्मनाक सत्य यह है कि जन्म से पहले, कोख में ही बेटी की हत्या कर दी जाती है।
प्रायः साहित्य समीक्षक प्रेम-कविताओं को औरताना लेखन कह कर नकार देते हैं, पर नारी मन की शाश्वत समर्पण भावना के आगे ऐसे आलोचकों के तर्क धराशयी रह जाते हैं। जैसे:
सारी दुनिया चाहे जो कहती रहे
मैं जिसे पूजूँ वही भगवन है.
ममता किरण ने कई गोष्ठियों में एक ग़ज़ल तरन्नुम में गाई है, जिस का मतला है:
कोई आंसू बहाता है, कोई खुशियाँ मनाता है
ये सारा खेल उसका है, वही सब को नचाता है
इस शेर से मुझे यही शिकायत रही है कि ऐसे दार्शनिक/किस्मतवादी शेर व्यवहारिक व यथार्थ काव्य का हिस्सा नहीं होने चाहिए। पर इसी ग़ज़ल के दो अन्य शेर कवियत्री के चिंतन फलक में विस्तार के दर्शन भी कराते हैं:
बहुत से ख्वाब ले कर के वो आया इस शहर में था
मगर दो जून की रोटी बमुश्किल ही जुटाता है.
घड़ी संकट की हो या फिर कोई मुश्किल बला भी हो
ये मन भी खूब है रह रह के उम्मीदें बंधाता है.
ममता जी द्वारा प्रस्तुत एक छंद-मुक्त व कुछ कुछ लम्बी सी कविता की ये पंक्तियाँ ही कवियत्री की विस्तृत व वैयक्तिकता-मुक्त सोच से साक्षात्कार कराती हैं:
जन्म लूं यदि मैं फूल बन.
खुशबू बन महकूँ,
प्रार्थना बन कर-बद्ध हो जाऊं,
अर्चना बन अर्पित हो जाऊं,
शान्ति बन निवेदित हो जाऊं,बदल दूं गोलियों का रास्ता,
सीमा पर खिल खिल जाऊं.
जिन अन्य कवियों ने काविताएं पढ़ी, उनमें कुछ अच्छी काव्य पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं:
देवेन्द्र 'मांझी'
किसी को कुछ किसी को कुछ किसी को कुछ बताते हैं/यहाँ कुछ लोग अपनी ही हकीक़त भूल जाते हैं.
चिराग़ जैन
एक पल सूरज छिपा और फिर उजाला हो गया/लेकिन इस में चाँद का किरदार काला हो गया/साज़िशें सूरज निगलने की रची थी चाँद ने/पर वो अपनी साज़िशों का खुद निवाला हो गया.
(इस गोष्ठी से एक दिन पूर्व ही शताब्दी का सब से बड़ा सूर्य ग्रहण था, इस लिए चराग़ की चंद्रमा पर यह चुटकी सब को बहुत भा गई)।
दिल्ली में मैं पिछले चंद वर्षों में कई काव्य गोष्ठियों में गया और इन में मैं ने बहुत सुखद अनुभूति के साथ हिंदी व उर्दू गज़लकारों का अनूठा सम्मेलन भी देखा।
हिंदी और उर्दू दोनों की प्रसिद्व हस्तियों के एक ही मंच पर आने से इस विवाद के कोई अर्थ नहीं रह जाते कि हिंदी ग़ज़ल बेहतर कि उर्दू। उदाहरण के तौर पर मंच पर उपस्थित उर्दू शायरी के एक जाने माने हस्ताक्षर सीमाब 'सुल्तानपुरी' ने जो ग़ज़ल पढ़ी उस के मतले से ही हॉल तालियों की गड़गडाहट से गूँज उठा :
उसको खबर नहीं थी कि वो दायरे में था
सदियों से चल रहा था मगर रास्ते में था.
उर्दू की ही दो और विभूतियाँ:
दर्द 'देहलवी'
अब मेरे दिल को छोड़ के जाना तो है नहीं
वैसे भी ग़म का कोई ठिकाना तो है नहीं.
अहमद मजाज़ 'अमरोहवी'
मुझे तुझ से कुछ शिकायत न हुई न है न होगी
तेरा वस्ल मेरी किस्मत न हुई न है न होगी
मेरे दिल ने तुझ को चाहा तुझे बार बार पूजा
कि कबूल ये इबादत न हुई न है न होगी.
कार्यक्रम संचालक अनिल वर्मा 'मीत' ने चार पंक्तियों में दिल की महिमा गाई-
आहों का पहरा होता है/दर्द जहाँ ठहरा होता है/दिल इक छोटी चीज़ सही पर/सागर से गहरा होता है.
अंत में अध्यक्ष बाल स्वरुप 'राही' ने दोनों विशिष्ट कवियत्रियों व अन्य कवियों को बधाई दी और एक ग़ज़ल भी प्रस्तुत की जिस का मतला है:
अपनी हस्ती के सबूतों को मिटाने के लिए
याद करता हूँ तुझे रोज़ भुलाने के लिए
साहित्यकार और शब्द-शिल्पी शायद पर्यायवाची शब्द हैं, और इसी सन्दर्भ में मुझे उर्मिल सत्यभूषण की एक ग़ज़ल का यह शेर अक्सर याद रहता है, जो ऐसी सशक्त गोष्ठियों पर अपनी निर्णायक बात को स्पष्ट रूप से कहता है:
मैं जहाँ में शब्द-फूलों को रहूँगी बाँटती,
एक खुशबू की तरह हर दिल को मैं महकाऊँगी.
गोष्ठी रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
5 पाठकों का कहना है :
सभी की रचनाएं काबिले तारीफ है.
बधाई.
परिचय से परिचय हुआ ..फोटो से मिलन हुआ .सभी की रचनाये एक से बड़कर एक थीं . खबर की नई सौगात मिली . बधाई .
हर किसी का अपना अंदाज़ था.
अहमद मजाज़ 'अमरोहवी' साहब की रदीफ़ बढ़िया लगी
मुझे तुझ से कुछ शिकायत न हुई न है न होगी
तेरा वस्ल मेरी किस्मत न हुई न है न होगी
मेरे दिल ने तुझ को चाहा तुझे बार बार पूजा
कि कबूल ये इबादत न हुई न है न होगी.
तो वही चिराग़ जैन की फिलोसफी
एक पल सूरज छिपा और फिर उजाला हो गया/लेकिन इस में चाँद का किरदार काला हो गया/साज़िशें सूरज निगलने की रची थी चाँद ने/पर वो अपनी साज़िशों का खुद निवाला हो गया.
चिंतन फलक का क्या कहना
बहुत से ख्वअब ले कर के वो आया इस शहर में था
मगर दो जून की रोटी बमुश्किल ही जुटाता है.
घड़ी संकट की हो या फिर कोई मुश्किल बला भी हो
ये मन भी खूब है रह रह के उम्मीदें बंधाता है.
सारे कवियों की बधाई.
परिचय से परिचय करवाने के लिए हिन्दयुग्म का आभारी.
नमस्कार. इस गोष्ठी रिपोर्ट में ममता किरण व नमिता राकेश की कविताओं का एक एक विडियो क्लिप है. पर यदि पाठक दोनों कवियत्रियों की अन्य कई कविताओं के विडियो क्लिप भी देखना चाहें तो लोग ओं करें www.youtube.com और search में डालें pcsahajwala2005. धन्यवाद.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)