रिपोर्ट- प्रेमचंद सहजवाला
काव्यपाठ करते सत्यनारायण ठाकुर
आज के इस उदारीकृत युग में, जहाँ अंग्रेज़ी ही नहीं, कई अन्य विदेशी भाषाएँ यथा जर्मन या फ्रेंच जानने वाले लोगों का भी देश में बहुत मान है, हिंदी भाषा की चिंता शायद कतिपय लोगों को उस दौर से भी अधिक सताती होगी, जब अकेले अंग्रेज़ी को ही हिंदी के 'कल्पित या 'तथाकथित' विस्थापन के लिए कोसा जाता था। मैं कुछ वर्ष पहले दूरदर्शन पर हो रही एक परिचर्चा देख रहा था, जो हिंदी भाषा पर थी। तब कुछ विद्वान इस बात से सहमत नहीं थे, कि हिंदी को किसी भी अन्य भाषा से कोई खतरा पैदा हो सकता है। मैं इसी बात को एक और तरीके से सोच रहा था। परिचर्चा में भाग ले रही मृणाल पांडे ने कहा कि हिंदी भाषा के लिए यह ज़रूरी नहीं कि सरकारी विभागों में हिंदी अनुभागों पर पैसा खर्च किया जाए। मृणाल का तात्पर्य यही था कि हिंदी भाषा को किसी बैसाखी की ज़रुरत नहीं है। मैं भी कमोबेश यही सोच रहा था कि जैसे प्यार स्वाभाविक होता है, वैसे ही हिंदी प्रेमियों के मन में हिंदी प्रेम की निर्झरिणी स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होती रहती होगी। विशेषकर हिंदी राज्यों में किसी भी स्टेशन पर चले जाइए, किताबों के स्टालों पर लटकी हुई, हंसती खिलखिलाती हिंदी पुस्तकें व पत्रिकाएँ आप का स्वागत करती नज़र आएंगी। बाज़ारों में हिंदी साहित्य-प्रेमी, पुस्तकों की दुकानों पर उत्साहित से अपनी मनपसंद पुस्तकें तलाशते नज़र आएँगे। बहरहाल, मैं इस बहस से बचते हुए कि हिंदी अनुभागों पर भारत सरकार को पैसा खर्चना चाहिए या नहीं, दि. 4 सितम्बर 2009 को 3 बजे उत्साहित सा 'भारत मौसम विज्ञान विभाग' के सभागार में जा बैठा, जहाँ हिंदी पखवाड़े की एक गतिविधि के रूप में, हिंदी काव्य प्रतियोगिता हो रही थी। मैं मौसम विभाग से सन् 2005 के अंतिम दिन को सेवानिवृत्त ज़रूर हुआ, परन्तु वहां के हिंदी पखवाड़ों से नाता तोड़ दूं, यह असंभव सा था। वहां हर साल कविता प्रतियोगिता व अन्य कार्यक्रमों में जाना मेरा नियम तो है ही, मेरा हिंदी-प्रेम कुछ ऐसा भी है, कि मैं शायद हिंदी पखवाड़े को एक त्यौहार की तरह प्रसन्नता से महसूस करता हूँ। 3 बजे सभागार हिंदी प्रेमियों से भर गया। वर्त्तमान हिंदी अधिकारी रेवा शर्मा के साथ प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल डॉ. हरीसिंह, श्री जे.एल गौतम व श्री शिव कुमार मिश्र मंच पर विराजमान हो गए और प्रतियोगिता शुरू हो गई। इस प्रतियोगिता में रामनाथ गुप्ता, निशित कुमार, सत्यनारायण ठाकुर, एम आर. कालवे, संतोष अरोरा, प्रवीण कुमार, अशोक कुमार. डी एन ठाकुर, पूनम सिंह, अंजना मिन्हास, जिग्गा कॉल, अरविन्द सिंह व अश्विनी कुमार पालीवाल आदि ने भाग लिया। इनमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जो काव्य रचना के साथ गंभीरता से जुड़े हैं और किसी भी सृजनरत स्थापित कवि से कम नहीं माने जाते। सत्यनारायण ठाकुर, अंजना मिन्हास, पूनम सिंह, जिग्गा कॉल व अरविन्द सिंह अपनी सशक्त कविताओं के कारण विभाग के हिंदी प्रेमियों के बीच लोकप्रिय हैं। चाहे अंजना मिन्हास की कविताओं में उभरता गांव का nostalgia हो, या नए दौर में शिद्दत से महसूस होता अपनी सभ्यता का ह्रास। चाहे सत्यनारायण ठाकुर द्वारा तरन्नुम में गाया प्रसिद्ध गीत 'सवेरे सवेरे' हो, या फिर जिग्गा कॉल की 'कश्मीर' पर सशक्त कविता। ये सब यहाँ की चर्चित कविताएँ हैं। इस बार लेकिन सब को चित्त कर गई पूनम सिंह. पूनम सिंह बहुत सुन्दर गीत ही नहीं लिखती, वरन् बहुत मधुर गायन कला में भी निपुण हैं। पिछले कई हिंदी दिवसों पर विभाग कर्मचारियों अधिकारीयों के बच्चों ने जो सांस्कृतिक कार्यक्रम व नृत्य प्रस्तुत किये, उन का निदेशन भी पूनम ने किया। इस बार उन्होंने हिंदी भाषा की अर्चना 'हे हिंदी तुम्हारा अभिनन्दन' को जब गाया तो निर्णायक मंडल व हिंदी अधिकारी समेत पूरा सभागार अभिभूत था:
मौसम कार्यालय परिसर में/नूतन खुशियाँ बरसा जाओ/हे हिंदी तुम्हारा अभिनन्दन/
इस दुनिया की भाषाओँ में/ हैनाम तुम्हारा ज्योतिर्मय/तुम सरस्वती का मंदिर हो/ज्ञान सुधा बरसा जाओ/हे हिंदी तुम्हारा अभिनन्दन/
ऋषियों की तुम कल्पना हो/ कवियों की तुम साधना हो...
पुराने दिनों का nostalgia और पुराने दिनों की हमारी जीवन-शैली की दर्द भरी याद शायद हर कवि की एक दुखती रग होती होगी. विज्ञान और मशीन से हमारी निश्छलता और अपनेपन का ह्रास सा हो गया है, ऐसा महसूस न करने वाला शायद ही कोई कवि हो। यहाँ मौसम विभाग की एक सशक्त कवयित्री अंजना मिन्हास ने बीते दिनों के खो जाने के दर्द को पढ़ कर आँखें नम कर दी:
न जाने गए वो दिन कहाँ/जो इतना ज़माने में बदलाव आया/तरक्की के नाम पर जमा हुआ डर/और अमीरी के नाम पर प्यार का अकाल छाया/ए.सी. की ठंडक ने दरवाज़े किये बंद/रिश्तों पर भी ऐसी सिटकनी लगा दी/ माँ भी आती है खटखटा के दरवाज़ा कमरे में/ पड़ोसियों की तो हमने सूरत भुलाई/ मशीन और पैसे ने ऐसा ज़ोर दिखाया/ satellite से संपर्क करा दिया सभी का/ पर धरती पर अपनों ने अपनों को भुलाया/ क्या पाने चले थे हम और क्या गँवा बैठे...
एक तरफ खोई हुई विरासत तो दूसरी तरफ प्यार भरा अपना घर. कवयित्री जिग्गा कॉल अपना बरसों पुराना घर भी बेचने को तैयार नहीं, क्योंकि:
वो जो घर था मेरा/ वो मकान नहीं घर था मेरा/ सुरमई शाम, सुनहरा था सवेरा मेरा/ हंसती थी जहाँ दूब, किरणों का था डेरा/ वो मकान नहीं घर था मेरा/
वो जो ड्योढ़ी थी हमारी/ रोका नहीं था उस ने किसी अजनबी को/ टोका नहीं था किसी हिन्दू या मुसलमाँ को/ खुली बांहों में प्रेम बांटता/ वो जो घर था मेरा/ वो मकान नहीं घर था मेरा...
मकान और घर के भेद को इतने संवेदनात्मक तरीके से अभिव्यक्त किया गया कि सुन कर प्रसिद्ध शायर इफ्तेखार 'आरिफ' का प्रसिद्ध शेर याद आ जाता है:
मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे,
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
जहाँ मकान घर नहीं लगता, वहां मन विछिन्न सा है। और जहाँ कोई घर को मकान समझ कर खरीदने की कोशिश करता है, वहां यह चेतावनी, कि वो मकान नहीं, घर था मेरा...
कवि सत्यनारायण ठाकुर के लिए कवि होना उनकी शख्सियत का केवल एक आयाम है। उनकी शख्सियत का मुख्य परिचय है इस देश की प्राचीन, ऋषियों मुनियों द्वारा 'वरदान' स्वरुप दी गई भारत की सांस्कृतिक सम्पदा के प्रति सरोकार। इसलिए उन्होंने ब्रिटिश के समय लॉर्ड मैकॉले द्वारा भारत में लाई गई आधुनिक अंग्रेज़ी शिक्षा पर प्रहार किया। वैसे इस बात पर मतभेद भी हो सकते हैं कि लॉर्ड मैकॉले की शिक्षा से भारतीय समाज को फ़ायदा हुआ कि नुकसान। उस शिक्षा के आने पर तो भारत की नारी भी शिक्षित होने लगी। वर्ना तब तक भारत की नारी स्कूल तो क्या, किसी पुरुष से बात तक नहीं कर सकती। उस शिक्षा से नारी पुरुष समानता स्थापित हुई व नारी को अपने अधिकारों से परिचय मिला। पर सत्यनारायण ठाकुर का मानना है कि मैकॉले की शिक्षा से भारत की मूल संस्कृति का ह्रास हुआ। वे कहते हैं:
अंग्रेज़ों के अनुचर हो कर/ शिक्षित समाज इतराता है/ मैकॉले के मानस पुत्रों का/ अट्ठहास सुनाई देता है ...विश्व विजय के सपने दे कर/ भारत को प्रस्थान किया/ अंग्रेज़ों ने आ कर छल से/ सब कुछ अपना बदल दिया....
कवि अरविन्द सिंह ने फूल की वेदना को इस प्रकार प्रकट किया:
मैं फूल हूँ/ छीन लो मुझ से मेरी सुगंध/ क्यों कि तोड़ डालना चाहता हूँ/ मैं इस देह के सारे अनुबंध... तुम्हारी श्रद्धा के लिए/ मैं चढ़ता रहा/ तुम्हारी अभिव्यक्ति बन/ मैं टूटता रहा/ अपना ही घाव बन गया/ और दुनिया के लिए टूटना/ हमारा स्वाभाव बन गया...
काव्यपाठ करते शिव कुमार मिश्रा
सरकारी विभाग में जहाँ अंग्रेज़ी में काम करती फाईलें सरपट दौड़ती हैं और कंप्यूटर के keyboard पर चलती हुई अंगुलियाँ तेज़ी से कुछ टाइप करती रहती हैं, वहां यह स्वाभाविक है कि कई लोग हिंदी के प्रति अपने प्रेम को निश्छल शब्दों में एक निश्छल अभिव्यक्ति भी दें। ज़रूरी नहीं कि सब स्थापित कवि हों, पर हिंदी और अपनी संस्कृति व देश के प्रति इन का प्रेम इन की पंक्तियों से स्पष्ट छलकता है. कवि अश्विनी कुमार पालीवाल की कुछ पंक्तियाँ:
लोकतंत्र का रथ/ समता के पहियों पर चल सकता है/ राष्ट्र प्रेम ही इस का अच्छा संचालन कर सकता है/ किन्तु आज संसद के रथ में/ रिश्वत के घोड़े जुटे हुए हैं/ इसीलिए दो चार माफिया/ इस के रोड़े बने हुए हैं ...भोगो तुम सत्ता को/ पर सोचो कहीं दाग़ नहीं लग जाए/ अपने ही घर के चराग़ से/ आग नहीं लग जाए...
अपने देश पर गौरव महसूसती कवि अशोक कुमार की ये पंक्तियाँ
वेद पुराणों के धारक हम/ रामायण गीता हैं क्या कम/ भारत दर्शन उच्च कोटि का/ उपनिषदों में ज्ञान चोटी का/ ऋषि मुनि वैज्ञानिक सम थे/ करो ज़रा पहचान/ हाँ करो ज़रा पहचान/ ये अपना हिन्दुस्तान/ ये अपना हिन्दुस्तान...
मौसम विभाग में मौसम पर कविता न हो, यह कैसे हो सकता है. कवयित्री संतोष अरोड़ा:
चक्रवात बना समुद्र में/ बादल छाए घने घने/ ज़ोर ज़ोर से तेज़ हवाएं/ कानों में करें शनै शनै...
निर्णायक मंडल में से निर्णायक शिव कुमार मिश्र एक प्रतिभाशाली कवि हैं। पिछले कई हिंदी दिवसों पर उनकी व्यंग्य कविताएँ व गंभीर कविताएँ श्रोताओं को अभिभूत करती रही हैं। आज वे निर्णायक थे तो क्या, प्रतियोगिता समाप्त होते ही उन से भी कोई उत्कृष्ट कविता प्रस्तुत करने की गुज़ारिश की गई और सब की आशाओं के अनुरूप उन्होंने जो कविता पढ़ी, वह शायद आज की सशक्ततम कविता रही। कुछ पंक्तियाँ:
अतीत से सीख/ वर्त्तमान की चोट/ भविष्य की रूपरेखा/ न चाहते हुए बहुत कुछ लिखा/ कुछ अपनों में/ कुछ परायों में/ समझता हूँ/ समझाता हूँ/ वेदना के संग/ धीरज रख कर अब भी मैं गुनगुनाता हूँ/ मुस्कराता हूँ/ शायद इसलिए/ मैं कोई कविता बनाता हूँ ...
कैसे जियें/ किसके लिए जियें/ जियें और क्यों जियें/ जीने का अर्थ/ अर्थहीन हो गया है/ जिस के लिए जीता हूँ/ जीने नहीं देता/ जिस के लिए मरता हूँ/ मरने नहीं देता/ कौन सा बम चिथड़ों में बदल दे/ कब बहा ले जाएं उफनती नदियाँ/ कहीं किसी हादसे के चटखारे लेते चैनलों में/ मेरा नाम उछल न जाए/ सोचता हूँ/ समझता हूँ/ फिर भी भूल जाता हूँ/ शायद इसलिए/ मैं कोई कविता सुनाता हूँ...
काव्यपाठ करती अंजना
जब मैं शाम के झुटपुटे में सब के साथ बाहर निकला तो लगा था कि मैं इतनी देर किसी और ही दुनिया में था। आस पास की इमारतों में अक्षर बदलते कंप्यूटर स्क्रीनों की दुनिया के बीच, मैंने अपने भीतर भी एक स्क्रीन चमकता देखा, जिस में विभिन्न कवियों की काव्य पंक्तियाँ लहरा रही थी, इतरा रही थी...
मौसम विभाग के सभी हिंदी प्रेमियों को हिंदी पखवाड़ा मुबारक...
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7 पाठकों का कहना है :
Khubsurat kavitayen...shivkumarji ki kavita lajabab...ma bhi ati hai darvaja khatkhatake...aj ki jindgi ko baya karti hai.sunder prastuti ke liye premchandji ko dhanyvaad.Ap sabhi logo ko 'HINDI PAKHWADA' mubarak.
अच्छा लगा रपट पढ़ कर और कविताऐं सुन कर.
यह पढ़ कर बहुत अच्छा लगा कि सहजवाला को हिंदी पखवाड़े में एक त्यौहार जितनी ख़ुशी मिलती है. उन के द्वारा उद्धृत काव्य पंक्तियाँ भी बहुत सुन्दर हैं, विशेषकर अंजना और जिग्गा कॉल की. पर सहजवाला ने एक महत्वपूर्ण विवाद भी छेड़ दिया है. क्या हिंदी को हिंदी अनुभागों रुपी बैसाखियों की सचमुच ज़रुरत है? करोड़ों रूपए खर्च कर के भी सरकारी काम अंग्रेजी में ही होता है. जब कि हिंदी साहित्य अपनी शक्ति बरकरार रखे है. लगभग सब दूरदर्शन धारावाहिक भी हिंदी हैं और अधिक से अधिक फिल्में भी हिंदी में. सरकारी कामकाज इस उदारीकरण के युग में अंग्रेज़ी में चले तो भी क्या है. हिंदी प्रेम, जैसा कि सहजवाला ने कहा है, हृदय से उपजता है न कि फाइलों से. मैं समझती हूँ कि सरकार को पैसा बचा कर हिंदी अनुभाग बंद कर देने चाहियें जब कि हिंदी पखवाड़ा हिंदी प्रेमी एक सांस्कृतिक गतिविधि की तरह हर सरकारी विभाग में मना सकते हैं - शालिनी शर्मा
मौसम हिंदी पखवाडा व्यंग्य -हास्य की कविताओं से सरोबार मजेदार लगा .१४ .९ .२००९ हिंदी दिवस की सब को शुभ कामनाएं .
ए कद्दू दिमाग शालिनी, हिंदी अनुभाग नहीं होंगे तो हिंदी पखवाडे कहाँ मनाएंगे तेरे सर पर ! - उर्मिल शर्मा
सहजवाला जी की बहुत ही अच्छी रिपोर्ट और सभी की कवितायेँ पसंद आईं. हर किसी का अपना अंदाज़ था. आरिफ साहब का यह शे'र बहुत पसंद आया.
मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे,
मैं जिस मकान में रहता हूँ उस को घर कर दे
Ask ke mosam kese rhega
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