Thursday, December 10, 2009

हर स्वरुप 'भंवर' के कविता संग्रह 'मर्यादा के सेतु' का लोकार्पण

रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला


श्याम 'निर्मम' , बाल स्वरुप 'राही' , शेरजंग गर्ग, उर्मिल सत्यभूषण
उर्मिल सत्यभूषण की संस्था 'परिचय साहित्य पारिषद' समय-समय पर काव्य गोष्ठियों के अतिरिक्त अन्य कई कार्यक्रम भी आयोजित करती है जिन में पुस्तक लोकार्पण भी एक महत्वपूर्ण गतिविधि है. दि. 19 नवम्बर 2009 को 'परिचय' की गोष्ठी हर माह की तरह नई दिल्ली में फिरोज़ शाह रोड स्थित 'Russian Centre of Science and Culture ' के सभागार में हुई तथा इस दिन सुपरिचित कवि हरस्वरूप 'भंवर' के, 'अनुभव प्रकाशन' द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह, 'मर्यादा के सेतु' का लोकार्पण हुआ. यह गोष्ठी विश्व-प्रसिद्ध रूसी कवियत्री व समालोचिका ज़िनैदा गिपीअस, जिन्हें रूसी काव्य जगत में 'प्रेम-कवियत्री' (The Poetess of Love ) के रूप में जाना जाता है, की याद को समर्पित थी. दि. 19 नवम्बर 2009 उनका जन्म-दिवस था. गोष्ठी की पूर्व सूचना के अनुसार लोकार्पण प्रसिद्ध साहित्य समालोचक डॉ. हरदयाल को करना था, पर उनके सहसा अस्वस्थ हो जाने के कारण सुप्रसिद्ध कवि बालस्वरूप राही द्वारा यह लोकार्पण किया गया. मंच पर उनके साथ श्याम 'निर्मम' , शेरजंग गर्ग तथा 'मर्यादा के सेतु' के रचनाकर हरस्वरूप 'भंवर' थे व 'परिचय' अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण. गोष्ठी का संचालन अनिल 'मीत' ने किया.

प्रायः पुस्तक-लोकार्पण के किसी भी कार्यक्रम में औपचारिक बधाई सन्देश, रचनाकार की प्रशंसा व तालियों की गड़गड़ाहट के अतिरिक्त चाय का लुत्फ़ उठा कर लोग रचनाकार को बधाई दे कर चल पड़ते हैं. पर हरस्वरूप 'भंवर' के कविता संग्रह की यह लोकार्पण गोष्ठी केवल गले मिल कर खुश होने वाली गोष्ठी न लग कर एक पुस्तक-चर्चा या काव्य-चर्चा की गोष्ठी लग रही थी, जिस में समकालीन कविता को ले कर सभी वक्ताओं ने बहुत महत्वपूर्ण बातें कही. इन सभी भाषणों में रचनाकार की अब तक बनाई साख की झलक स्पष्ट दिखाई दे रही थी, जिसे औपचारिक सम्मान सन्देश कह कर हल्के तौर पर नहीं लिया जा सकता था.

कवि हर स्वरुप 'भंवर' के इस से पूर्व दो गीत-संग्रह 'सिलवटों के वृत्त' ('हिंदी अकादमी' दिल्ली के 'साहित्यिक कृति पुरस्कार' से पुरस्कृत) व 'प्रभा के नीड़' प्रकाशित हो चुके हैं तथा वे 'हिंदी अकादमी' दिल्ली के उक्त पुरस्कार के अतिरिक्त 'कवि सभा' दिल्ली के काव्य-श्री पुरस्कार व महामना सम्मान 2004 आदि मिला कर कई पुरस्कार सम्मान प्राप्त कर चुके हैं.

गोष्ठी के प्रारंभ में रचनाकार को अपनी कुछ कविताएँ प्रस्तुत करने को कहा गया और उन्होंने सब से पहले एक लम्बी कविता प्रस्तुत की जिस में अंतिम पंक्तियों तक

आते आते सहसा एक दार्शनिकता सी अवतरित होने लगती है. कवि कई वर्ष पहले का एक बाल अनुभव वर्णित करते हैं जिसमें उन्हें प्रातः जनपथ पर चलते चलते ज़मीन पर एक रजत अठन्नी पड़ी मिल जाती है. कवि की कल्पना में असंख्य इच्छाएँ एक दौड़ सी लगाने लगती हैं और वे सोचते हैं कि इस रुपहली अठन्नी के वे पेड़े खाएं या एक पेन खरीद लें, या पंत निराला या बच्चन के मधुर गीतों की पुस्तक ले लें. पर जब वे वह अठन्नी एक मिठाई वाले को देते हैं तो मिठाई वाला उसे उलट-पलट कर उन के दिल को एक धक्का सा पहुंचा देता है कि यह अठन्नी तो खोटी है! तब कवि सहसा एक संत-नुमा प्रवचन कविता की अंतिम पंक्तियों में देते हैं:

तब मैंने समझा माया जग/ रजत अठन्नी सा/ सिक्का है केवल खोटा/ रूपजाल केवल धोखा है.
वैसे गोष्ठी में हुए भाषणों से भी और डॉ. हरदयाल द्वारा लिखी भूमिका में भी यह कहा गया है कि कवि हर स्वरुप 'भंवर' के पास विषयों की विविधता है. पर विविधता भानुमती के पिटारे का रूप धारण करती है या कवि के विस्तृत अनुभव की ओर संकेत करती है, यह फैसला समीक्षक या सुधी पाठक, संग्रह को पूरी तरह पढ़ कर ही कर पाएंगे. रचनाकार जब हर-फन-मौला बनता है तो अच्छा परिणाम निकलता है या वह अपने किसी विशिष्ट रूप से वंचित रह जाता है, यह प्रश्न स्वयं कवि के लिए भी महत्वपूर्ण बन जाता है. कवि द्वारा कविता-पाठ के बाद नमिता राकेश ने साहित्यकार अश्विनी कुमार द्वारा लिखा हुआ एक पत्र पढ़ा, क्यों कि अश्विनी कुमार स्वयं उपस्थित न हो सके थे. इस पत्र में कहा गया कि 'साहित्यकार किसी भी मत या वाद से प्रभावित हो, पर मानवीयता के मूल्यों में उस की गहरी आस्था होनी चाहिए. 'मर्यादा के सेतु' पढ़ कर कहा जा सकता है कि 'भंवर' जी हिंदी के शीर्ष एवं गंभीर साहित्यकारों में से हैं. वे एक जागरूक, सजग एवं आत्म-विश्वासी व्यक्ति हैं. जीवन के प्रति उनका अनुभव वैविध्यपूर्ण और परिपक्व हो चुका है. प्रकृति के प्रति उन का आसक्ति-भाव व उस का मानवीयकरण जहाँ उन्हें छायावादी कवियों के समकक्ष खड़ा करता है, वहीं शोषितों एवं दलितों के प्रति सहानुभूति व आक्रोश उन्हें प्रगतिवादी बनाता है'. पत्र में संग्रह की कविता 'व्यवधान' (p 24 ) उद्धृत की गई जिस में एक चट्टान किसी मेनका सरीखी सरिता के मोहपाश में न बंध कर अपने चरित्र के ठोसत्व को बर-करार रखे स्वयं टूटते हुए झुकते हुए दूसरों को उठाती है और मासूम चेहरों के आंसुओं को पोंछती हुई उन्हें सीने से लगती है. सरिता का चरित्र-चित्रांकन करती निम्न पंक्तियाँ पत्र में पढ़ी गई व सभागार में तालियों द्वारा उन्हें सराहा भी गया:

सरिता मेरे जीवन से/ अठखेली करना चाहती है/ मेनका रुनझुन/ नृत्य से मेरे अस्तित्व को/ डिगाना चाहती है/ मुझे अपने घुंघराले अलक-पाश में/ बाँध लेना चाहती है/ मर्यादा के पथ से भटका कर / मेरे अंतस के कुंवारेपन को / लूट लेना चाहती है/ मुझे अनन्य प्रलोभन दे कर/ चरणों को अनचाहे ही/ पखारती हुई मुझे सद्मार्ग से/ विचलित करना चाहती है.

मुझे व्यक्तिगत तौर पर कहीं लगा कि इस प्रकार की अभिव्यक्ति बीते हुए ज़मानों के महाकाव्यों के उदात्त पात्रों की सी लगती है तथा इन्हें पढ़ कर मन को एक सुखद अनुभूति सी होती है.
अगला भाषण श्याम 'निर्मम' का था और उन्होंने छंद व छंद-मुक्त कविता पर कहा कि इन दोनों की लड़ाई आज की नहीं वरन बरसों पुरानी है. जब निराला जी ने छंद-बद्ध गीत लिखने के बाद सहसा छंद-मुक्त कविताएँ लिखनी शुरू की तब लोगों ने उसे नहीं माना, लेकिन 'अज्ञेय' के तार सप्तक के बाद कविता की धारा ही एकदम से बदल गई. पर उन्होंने एक बेहद महत्वपूर्ण बात यह कही कि गीत या छंद से छंद-मुक्त कविता की तरफ जाना महज़ एक स्वाभाविक प्रक्रिया है. यह इस पर निर्भर करता है कि रचनाकार का अनुभव व उस की चेतना किस तरह से बाहर आना चाहते हैं तथा सायास ही गीत या ग़ज़ल लिखने बैठना ज़रूरी नहीं. 'भंवर' जी की कविताओं के बारे में निर्मम' जी ने यह कहा कि इन कविताओं की भाषा के स्तर को ले कर पाठक को शिकायत हो सकती है, क्यों कि यह भाषा आधुनिक नहीं लगती. पर साथ ही यह भी कि इन कविताओं को पढ़ कर पाठक को शांति का अनुभव हो सकता है. यदि मेरी ऊपर कही हुई बात को श्याम 'निर्मम' जी की बात से मिलाया जाए तो 'मर्यादा के सेतु' के रचनाकार हर स्वरुप 'भंवर' की शख्सियत कुछ हद तक आध्यात्मिकता-दार्शनिकता से प्रभावित लगती है. पर केवल यही तत्व इस संग्रह को परिभाषित करता हो, ऐसा नहीं है. एक नज़र संग्रह की एक कविता 'गुनाहों के पड़ाव' (जो मैंने बाद में आकर घर में पढ़ ली) के निम्न अंश पर डालें:


हृदयहीनता इस का एगमार्क है/ कटुता इस का विज्ञापन है/ दया से इसका कोई लगाव नहीं/ कामुकता इस की धरोहर है/ गंदे नालों में इस के अरमान तैरते हैं/ वासना धमनियों में गतिमान है/ आँखों में खुमार का आलम है/ सच्चाई इस के के नाम से कतराती है/ शराफत कोसों दूर भागती है/ झूठ को सच और सच को झूठ साबित करना/ इसका बाएँ हाथ का काम है/ व्यर्थ में ही गुनहगार/ दादागिरी के लिए बदनाम है/ गुनाहों के अपने कानून हैं/ न्याय से इस का कोई सरोकार नहीं/ अदालत के शिकंजों से भी/ वह बच निकलता है/ मानवता का गला दबा कर ही / वह शरीफों पर राज करता है...
उक्त उक्त पंक्तियाँ आज के पूरे संसार पर भी लागू हो सकती हैं, सियासत पर भी व आज के किसी भी गुनाहगार पर भी

अगले वक्ता शेरजंग गर्ग थे और अपने भाषण में उन्होंने 'भंवर' जी द्वारा पढ़ी गई कविताओं की प्रशंसा करते हुए कहा कि उनकी कविताएँ सुनते हुए उन्हें अनायास कई अच्छे अच्छे कवि याद आए, यथा शिवमंगल 'सुमन' आदि और एक बात उन्हें अच्छी लगी कि 'भंवर' जी ने हिंदी के बड़े-बड़े कवियों के सामानांतर कुछ लिखने का प्रयास किया है. उन्होंने भी एक महत्वपूर्ण बात कही कि 'भंवर' जी ने पहले गीत लिखे और अब मुक्त-छंद कविता पर आ गए हैं पर केवल कविता के रूपों को बदलते रहने से काम नहीं चलेगा. सुरेन्द्र वर्मा के प्रसिद्ध उपन्यास 'मुझे चाय चाहिए' का सन्दर्भ दे कर वे बोले कि लोग तो गद्य में भी कविता लिखते हैं. 'भंवर' जी के व्यक्तित्व की प्रशंसा कर के उन्होंने कहा कि वे बहुत भले इंसान हैं और ऐसे भले इंसान ही सच्चे कवि हैं व कविता लिखने के अधिकारी हैं. फिर सभागार में हास्य का प्रसार सा करते उन्होंने कहा कि सच्चे कवियों के संकलन बहुत कम हैं.
अपने अध्यक्षीय भाषण में बालस्वरूप राही ने सभागार में अपने चिर-परिचित हास्य-विगलित तरीके से कहकहे बिखेर दिए. उन्होंने कहा कि व्यंग्यकार प्रेम जनमजेय के किसी व्यंग्य-संग्रह के लोकार्पण पर प्रसिद्ध साहित्यकार ज्ञान चतुर्वेदी भी आए थे और उन्होंने कहा था कि किसी भी पुस्तक का जब लोकार्पण होता है तो उस पुस्तक की स्थिति नव-वधु जैसी होती है और जिस प्रकार नव-वधु की सब तारीफ करते हैं कि यह बहुत सुन्दर है, वैसे ही लोकार्पित पुस्तक की भी हर प्रकार से तारीफ होती है. पर उन्होंने यह माना कि आज 'भंवर' जी की कविताओं की जो भी प्रशंसा की गई, वह केवल औपचारिक नहीं थी, बल्कि जो भी कहा गया वह सब सही कहा गया. सभागार में निरंतर हास्य बिखेरते हुए उन्होंने कहा कि 'भंवर' जी की प्रशंसा ऐसे लोगों ने की है जो स्वयं बहुत अच्छे कवि हैं और जिस प्रकार एक सुन्दर नारी दूसरी सुन्दर नारी की प्रशंसा नहीं करती, ऐसे ही एक कवि यदि दूसरे कवि की प्रशंसा करता है तो यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है.

संग्रह के शीर्षक की और संकेत करते हुए उन्होंने कहा कि यह केवल 'मर्यादा के सेतु' नहीं हैं बल्कि ये वो सेतु हैं जिन पर चल कर एक छंद-बद्ध कविता लिखने वाला कवि मुक्त-छंद की ओर जाता है और मुक्त छंद लिखने वाला कवि छंद बद्ध कविता की ओर जाता है. वैसे मैंने एक बात लक्ष्य की कि हर स्वरुप 'भंवर' जी ने अपने संग्रह के शीर्षक के नीचे लिखा है 'मुक्त छंद कविता संग्रह'. मेरे मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक था कि क्या कविता संग्रह को अलग से छंद-बद्ध या मुक्त छंद कविता संग्रह लिखना उचित है? ऐसे तो कविता अकारण खानों में बाँट जाएगी और एक कविता की तुलना दूसरी कविता से केवल उस पर लगे लेबल के आधार

पर होगी. यानी छंद-बद्ध कविता की तुलना छंद-बद्ध से और मुक्त-छंद की मुक्त-छंद से.

बहु-चर्चित कवि अभिरंजन कुमार ने तो अपने कविता संग्रह 'उखड़े हुए पौधे का बयान' (नेशनल पुब्लिशिंग हाउस 2006) की भूमिका 'छंद अब स्वछन्द' में छंद-मुक्त कविता को भी तीन खानों में बाँट दिया है: (1) लगभग छंद (2) मध्यवर्ती छंद और (3) लगभग मुक्त! कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले कविता-संग्रहों के लेबल भी इसी प्रकार हों: लगभग-छंद कविता-संग्रह, मध्यवर्ती-छंद कविता-संग्रह और लगभग-मुक्त कविता-संग्रह! इतनी जटिलता व छूआ-छूत की उपलब्धि क्या है, यह समझ से परे है. कम से कम मेरी. मुमकिन है कि इस बात की भी डिमांड होने लगे कि समीक्षक अपनी अलग पहचान बनाएं कि आप कौन से समीक्षक हैं: छंद-बद्ध कविता के, लगभग-छंद कविता के या मध्यवर्ती-छंद के या लगभग-मुक्त के! मैंने इस गोष्ठी में खड़े हो कर शेरजंग गर्ग से यह प्रश्न किया. परन्तु समय के अभाव में उस समय उत्तर नहीं मिल पाया. इस के कुछ दिन बाद मैंने स्वयं कवि हर स्वरुप 'भंवर' जी से ही यह प्रश्न पूछा कि क्या कविता-संग्रह पर मुक्त छंद कविता-संग्रह लिखना ज़रूरी है. कवि स्वयं कोई ठोस विचार नहीं रखते थे सो उन्होंने कहा कि कुछ भी लिखा जा सकता है. कुछ दिन बाद शेरजंग गर्ग जी को फ़ोन कर के पूछा तो वे स्पष्ट बोले कि 'मुक्त छंद कविता संग्रह' लिखने की कोई ज़रुरत ही नहीं थी. वे यहाँ तक बोले कि गीत-संग्रह पर भी कविता-संग्रह लिख कर कोष्ठक में गीतों का संकलन लिखा जा सकता है'. कोई ज़माना था कि कहानी व उपन्यास का मूल्यांकन करने के लिए कथावस्तु, उद्देश्य, चरित्र-चित्रांकन, वातावरण, शिल्प व शैली नाम के छः तत्व बनाए गए थे. परन्तु बाद के दशकों के कहानीकारों-उपन्यासकारों ने कृति को समग्र रूप में लेना अधिक समीचीन समझा. जब सब कुछ अच्छी तरह घुलमिल गया तो अब कविताओं के बीच यह साम्प्रदायिकता कैसी?

लोकार्पण के बाद गोष्ठी के अंतिम सत्र में 'खुला मंच' के रूप में उपस्थित कई कवियों ने अपनी कवितायेँ पढ़ी. पर इस सत्र की अंतिम दो पंक्तियाँ अध्यक्ष बाल स्वरुप 'राही' की थी जो मुझे आज की यादगार पंक्तियाँ लगी:

एक बाज़ार सी लगती है ये दुनिया 'राही'
तुम भी दो चार दुकानों से बना कर रखना !


काव्यपाठ करते कवि हर स्वरुप 'भंवर'

पुनश्च - इस रिपोर्ट के बहाने मैंने चंद प्रश्न उछाले हैं. रिपोर्ट के सुधी पाठक इन तमाम प्रश्नों के बारे में क्या विचार रखते हैं, जानना चाहूँगा.