Wednesday, August 25, 2010

आज़ादी को समर्पित 'परिचय' साहित्य परिषद’ गोष्ठी



हिंदी गज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार का एक शेर है:

जियें तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिये

अपने वतन की छांव तले जीने और उसी वतन की शानो-शौकत के लिये जान दे देने वाले जांबाज़ जवानों व त्याग की प्रतिमूर्ति कई महापुरुषों ने आखिर समुद्र को मथ कर आज़ादी का अमृत देश को समर्पित कर ही दिया. किन्तु दुष्यंत की उसी गज़ल का मतला आज़ादी रुपी उस वरदान के एक दूसरे रूप को सामने लाता है:

कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिये
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये !

आज़ादी की विरासत के हक़दार होने की कसौटी पर शायद हम सब पूरी तरह खरे नहीं उतरे. लेकिन इन तमाम आत्माकलनों के बावजूद यह भी सत्य है कि आज़ादी-दिवस देश का हर व्यक्ति बहुत प्रसन्नता व उत्साह से मनाता है. केवल 15 अगस्त नहीं, वरन अगस्त का पूरा महीना देश में कई जगह आज़ादी से जुड़े समारोह होते रहते हैं जिन में लोग प्रफुल्लित से हिस्सा लेते हैं. उर्मिल सत्यभूषण की 'परिचय साहित्य परिषद' ने भी दि. 20 अगस्त 2010 को अपनी मासिक गोष्ठी देश की आज़ादी को समर्पित की और एकत्रित कवियों ने देश व समाज से जुडी कविताएं पढ़ कर आज़ादी के उन परवानों को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की, जिनके लिये देश सर्वोपरि था और निजी जीवन कोई अहमियत नहीं रखता था. गोष्ठी हर माह की तरह नई दिल्ली के फिरोज़शाह रोड स्थित Russian Centre for Science and Culture के सभागार में हुई. इस गोष्ठी में Indian Council of UN Relations महासचिव श्री के. एल. मल्होत्रा मुख्य अतिथि थे. इस गोष्टी का एक मुख्य आकर्षण यह भी था कि उर्दू के जाने माने शायर ‘मासूम’ गाज़ियाबादी ने काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता की. 'मासूम' वतन की शायरी में अपना सानी नहीं रखते और अन्य विषयों पर भी वे शायरी में अग्रणी माने जाते हैं तथा दिल्ली के मुशायरों में अक्सर उनकी उपस्थिति गरिमामय मानी जाती है.

बरसात के मौसम के बावजूद गोष्ठी शुरू होते न होते कई शायर आ गए. इस गोष्ठी में लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने देश की तरफ आँख उठा कर देखने वालों को ललकारता एक मुक्तक प्रस्तुत किया:

वक्त आएगा तो काँटों से चुभन मांगेंगे
वक्त आएगा तो शोलों से तपन मांगेंगे

तुमको देखे तो कोई आँख उठा कर ऐ वतन
हम तो हँसते हुए मरघट से कफ़न मांगेंगे

वहीं लखीमचंद्र ‘सुमन ने भी चुनौती भरे स्वर में पढ़ा:

जिस्म भारत है मेरा दिल मेरा कश्मीर समझ
मेरे हर अंग को हर प्रान्त की तस्वीर समझ

किसी भी अंग को दुश्मन की नज़र छू ले अगर
वो ‘सुमन’ अंग है दुश्मन के लिये तीर समझ.

ममता किरण जो सटीक से सटीक शब्दावली व प्रभावशाली शैली के लिये जानी-मानी हैं, ने सियासतदानों पर अंगुली उठा कर उनका पर्दाफाश किया:

बशर के बीच पहले भेद करते हैं सियासतदां
ज़रूरत फिर जताते हैं किसी कौमी तराने की

शहीदों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उन्होंने पढ़ा:

वतन की नींव पर मिट्टी जमा है जिन शहीदों की
कभी भी भूल मत करना उन्हें तुम भूल जाने की

दिल्ली की काव्य गोष्ठियों व मुशायरों की एक अन्य जानी मानी हस्ती हैं रविन्द्र शर्मा ‘रवि’ जिन का शब्द शब्द मर्म-स्पर्शी है. उनका ध्यान देश के सन्दर्भ में किसानों पर गया और उनकी गज़ल का एक शेर था:

किसी के वास्ते बरसात है बदला हुआ मौसम
किसी के वास्ते यह साल भर की आस होता है.

उन्होंने ज़िन्दगी की मीमांसा करते हुए एक बेहद दार्शनिक शेर भी कहा:

कभी खामोश लम्हों में मुझे एहसास होता है
कि जैसे ज़िन्दगी भी रूह का बनवास होता है.

सुमित्रा वरुण ‘काफिर’ ने अपनी कविता में सच्चे मन से एक प्रार्थना प्रस्तुत की:

कोई धर्म ऐसा मिले हमें, जिस में कोई बंधन न हो
कोई प्रार्थना ऐसी मिले, जिस में रुदन क्रंदन न हो

तो भूपेंद्र कुमार जो हिंदी भाषा में महारत रखते हैं, ने जीवन्तता का सन्देश दिया:

शिकस्ता हाल में कब तक रहेंगे हम बताओ तो
गिरेंगे हम अगर सौ बार फिर भी गिर के उठाना तय है.

शोभना मित्तल की कविता में भी वही चिंता व्याप्त थी जो देश की जनता के मन में व्याप्त है कि क्या हम आज़ादी को उस का असली रूप दे पाए:

स्वतंत्रता तो मिली / लेकिन मोल हम उस का आंक न पाए / हर साल मनाते हैं स्वाधीनता दिवस / आस्था के कैलेंडर पर छाप न पाए.

साक्षात् भसीन

नफरत कहिये या कहिये इसे आग
नफरत से बड़ी कोई भी नहीं आग

अर्चना त्रिपाठी ने कुछ दोहे तथा एक कविता प्रस्तुत की. जैसे:

पिंजरे से लड़ कर हुआ जो लोहू लुहान
वही समझता आज़ादी, आज़ादी की शान

डॉ. सत्यवती शर्मा ने सरहदों की बात की जो देशों और व्यक्तियों के बीच विकराल रूप धारण किये रहती हैं:

जब नहीं सरहद गगन में/ जब नहीं सरहद पवन में/ जब नहीं सरहद अगन में/ जब नहीं सरहद सागर की उठती गिरती तरंग में/ जब नहीं सरहद नयन के अश्रुओं की धार में/ फिर खड़ी क्यों सरहदें इंसान के व्यवहार में.

प्रेमचंद सहजवाला

अब कहाँ से आएँगे वो लोग जो नायाब थे,
रात की तारीकियों में टिमटिमाते ख्वाब थे

शहीदों के प्रति:

सुबह आए इसलिए वो रात भर जलते रहे
रौशनी से लिख रहे वो इक सुनहला बाब थे

कुछ अन्य कवि:

नागेश चन्द्र

कामनवेल्थ के बाद गेम एक और मालिक करवा दो / भागें लोग तमाम किन्तु दिल्ली को स्वर्ग बना दो/ झोंपड़-पट्टी हटे दिखे चहुँ दिस हरियाली/ गगनचुम्बी रेस्तरां से दिखे सूप की प्याली.

एस नंदा ‘नूर’

जो दाता ने बख्शी हमें ज़िन्दगानी
सदा हम कोई उसका मकसद बनाएं

अंतिम बाज़ी ‘मासूम’ गाजियाबादी की थी जिन की शायरी सुनने का सब को बेताबी से इंतज़ार था. ‘मासूम’ जी ने एक से बढ़ कर एक गज़लें प्रस्तुत की तो उपस्थित श्रोतागण में भी ‘वाह वाह’ करने की स्फूर्ति सी आ गई. कुछ शेर:

चमन लुटने का ही इक गम नहीं इस का भी सदमा है
कि इन हालात में कैसे निगहबानों को नींद आई
ज़माने में तो पसमंज़र भी इन आँखों ने देखे हैं
कि जब इंसानियत रोई तो हैवानों को नींद आई.

गोष्ठी के अंत में ‘परिचय साहित्य परिषद’ अध्यक्ष उर्मिल सत्यभूषण ने मुख्य अतिथि व ‘मासूम’ गाजियाबादी तथा सभी कवियों का धन्यवाद किया व देश के सन्दर्भ में कुछ दोहे प्रस्तुत कर के गोष्ठी संपन्न की:

जागो प्रहरी देश के, किस की देखें बाट
देश द्वार के काठ को रही दीमकें चाट

मैंने अपनी ज़िन्दगी कर दी तेरे नाम
भारत माँ जननी मेरी ऐ माँ तुझे प्रणाम

संचालन अनिल वर्मा ‘मीत’ का था.

रिपोर्ट– ‘परिचय रिपोर्ट विभाग’