द्वितीय सत्र में मंचासीन- (दाएँ से) राजकिशोर, कृपाशंकर चौबे, सुरेंद्र वर्मा, गंगा प्रसाद विमल, बलराम प्रसाद त्रिपाठी, शम्भू गुप्त
1 अक्टूबर । वर्धा
महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी वि.वि. में 2 व 3 अक्टूबर 2010 को आयोजित संगोष्ठी (बीसवीं सदी का अर्थ और जन्मशती का सन्दर्भ) के उद्घाटन सत्र के पश्चात आयोजित प्रथम सत्र दोपहर 3 बजे से "अज्ञेय पर एकाग्र" के रूप में संपन्न हुआ। कार्यक्रम की अध्यक्षता गंगा प्रसाद विमल ने व संचालन डॉ शम्भु गुप्त ने किया।
पटना से आए प्रो. बलराम तिवारी ने अज्ञेय पर केन्द्रित अपने संबोधन में जिन तथ्यों को रेखांकित किया, वे हैं- "अज्ञेय जिस रोमांटिक प्रवृत्ति के लिए बदनाम हैं, वह वस्तुतः उन में है ही नहीं उलटे वे तो एंटी रोमांटिक प्रवृत्ति से ग्रस्त हैं। अपनी बात की पुष्टि के लिए उन्होंने कुछ उद्धरण भी दिए
- "यथास्थिति के प्रति विद्रोह ही अज्ञेय को अमर बनाता है।"
- "हमारे समाज में भाई बहन सम्बन्ध को लेकर जो टैबूज़ हैं शेखर भी उन टैबूज़ को तोड़ नहीं पाते..यह नैतिकतामूलक ग्रंथि का ही अवबोध है"
- "अगर शिल्प व शास्त्र पर मार्क्सवादी विचारक ध्यान देते हैं तो यह अज्ञेय की देन है"
आगामी वक्ता के रूप में युवा कथाकार शशिभूषण ने अपने वक्तव्य में कहा कि लेखक अपने कृतित्व द्वारा समाज को कितना आगे ले जाने का साहस रखता है यह उस लेखक की प्रतिबद्धता से ही प्रकट होता है। प्रश्न यह उठता है कि अज्ञेय अपनी प्रतिबद्धता पर अंतिम समय तक स्थिर क्यों नहीं रह पाए। ओम थानवी को उद्धृत करते हुए शशि ने अज्ञेय पर हर समय लगाए जाते आरोपों का उल्लेख किया व एक पुत्र के पिता होने के आरोप को भी उद्धृत करते हुए समाज व आलोचना की विसंगतियों पर प्रहार किए। वक्तव्य के अंत में शशि ने खरे शब्दों में कहा कि सीमाएँ अज्ञेय में हैं, उस मार्क्सवादी आलोचना में भी हैं, जो अज्ञेय को देखती हैं।
आगामी वक्तव्य मनोज कुमार पाण्डेय ने दिया। जमशेदपुर से पधारीं विजय शर्मा ने प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट किया कि मैं अज्ञेय को सबसे महान रचनाकार के रूप में स्थापित करने के लिए नहीं खडी हूँ- "अज्ञेय कान्तिकारी थे, जो बहुत प्रभावित करने वाला तथ्य था किन्तु स्वयं अज्ञेय ने इस पर बहुत चुप्पी बनाए रखी है। एक समकालीन लेखक के सद्य : प्रकाशित लेख में उनकी क्रांतिकारिता के अनेक विस्तार जानकर अज्ञेय पर बहुत गुस्सा आया कि वे स्वयं चुप क्यों रहे।"
गाँधीवादी चिन्तक राजकिशोर ने अज्ञेय की पत्रकारिता वाले पक्ष पर अब तक हिन्दी में किसी महत्वपूर्ण कार्य के न होने पर अत्यंत खेद प्रकट किया। उन्होंने व्यंग्यपूर्ण ढंग से चुटकी लेते हुए कहा कि हमारे साहित्य समाज में पत्रकारिता एक ओबीसी विधा है। दूसरी ओर इस पर क्षोभ जताया कि हमारे पत्रकारिता क्षेत्र में काम करने वालों से स्वयं जाकर पूछ लीजिए उनमें से बहुमत अज्ञेय को जानता तक न होगा। स्थिति इतनी सोचनीय है कि कोई अज्ञेय के पत्रकारितावंश को आगे बढ़ाने वाला तक नहीं है।
-"अज्ञेय जी की विचारधारा में अन्तर्विरोध सदा बने रहे किन्तु ये अन्तर्विरोध विचारधारा के अभाव में नहीं थे".
अज्ञेय की पत्रकारिता की भाषा पर केन्द्रित अपने सम्बोधन में कृपाशंकर चौबे ने राजकिशोर के वक्तव्य के कई तथ्यों का विरोध करते हुए पत्रकारिता के कुछ स्तम्भों के उल्लेख के साथ अज्ञेय की परम्परा के जीवित रहने के प्रमाण दिए। भाषा व लिपि सम्बन्धी कई नियमों को उन्होंने क्रमवार दोहराया।
अन्तिम वक्ता के रूप में प्रो. सुरेन्द्र वर्मा की उपस्थिति ने सभा को गरिमा प्रदान की।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में गंगाप्रसाद विमल ने कहा कि अज्ञेय के समक्ष हिन्दी आलोचना बौनी रही,आलोचना के पास वे औजार नहीं थे जो अज्ञेय की रचनाधर्मिता को माप सकती। अज्ञेय अपने समय के सबसे विरल व प्रतिभाशाली रचनाकार थे. हिन्दी आलोचना उनके बिना आगे बढ़ ही नहीं सकती। अज्ञेय ने पश्चिम के समक्ष भारतीय मनीषा व भाषा को अत्यन्त सम्मानजनक स्थान दिलाया।
धन्यवाद ज्ञापन के साथ सत्र समाप्त हुआ।
रिपोर्ट- डॉ॰ कविता वाचक्नवी
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