Friday, December 31, 2010

महेश दर्पण ‘पुश्किन के देस में’



‘रूस के बारे में अभी तक जो संस्मरण या यात्रा वृत्तान्त हिंदी में प्रकाशित हुए थे, वे सभी उन लेखकों ने लिखे थे जो आज से बीस-पच्चीस साल पहले यानी सोवियत काल में रूस गए थे. सोवियत संघ के बिखराव के बाद रूस काफी बदल गया है. रूस का जीवन भी अब पहले जैसा नहीं रहा. महेश दर्पण ने हाल ही में रूस की यात्रा करने के बाद इसी बदले हुए ज़माने का बेहद आत्मीय, सच्चा और सहज चित्र प्रस्तुत किया है’ यह परिचय है ‘सामयिक प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित महेश दर्पण की सद्यप्रकाशित यात्रा वृत्तान्त पुस्तक ‘पुश्किन के देस में’ का जो रूसी साहित्यकार ल्युद्मीला ख्खलोवा द्वारा इसी पुस्तक के फ्लैप पर दिया हुआ है.
महेश दर्पण हिंदी साहित्य जगत व पत्रकारिता के एक जाने माने हस्ताक्षर हैं जिन्होंने ‘अपने हाथ’ ‘चेहरे’ ‘मिट्टी की औलाद’ ‘वर्त्तमान में भविष्य’ ‘जाल’ ‘इक्कीस कहानियां’ ‘एक चिड़िया की उड़ान’ आदि जैसे सशक्त कहानी संग्रह हिंदी साहित्य को दिये हैं तथा अनेक सम्मानों यथा ‘पुश्किन सम्मान’, ‘साहित्यकार सम्मान’, हिंदी अकादमी का ‘कृति सम्मान’ व ‘पीपुल्स विक्ट्री अवार्ड’ आदि से सम्मानित हुए हैं.
दि. 15 दिसंबर 2010 को उर्मिल सत्यभूषण द्वारा संचालित ‘परिचय साहित्य परिषद’ के तत्वावधान में नई दिल्ली के फेरोज़शाह रोड स्थित ‘राशियन कल्चरल सेंटर’ में महेश दर्पण की पुस्तक ‘पुश्किन के देस में’ पर एक बेहद सारगर्भित व विचारोत्तेजक गोष्ठी हुई जिस की अध्यक्षता राजेंद्र यादव ने की तथा प्रसिद्ध कवि विष्णु चन्द्र शर्मा, चित्रा मुद्गल व रमेश उपाध्याय इस संगोष्ठी के विशिष्ट वक्ता रहे.
प्रारंभ में ‘राशियन कल्चलर सेंटर’ की येलेना शटापकिना ने पुष्प भेंट किये तथा ‘परिचय साहित्य परिषद’ की ओर से प्रसिद्ध कवि लक्ष्मीशंकर बाजपेयी ने मंच पर उपस्थित विशिष्ट गण को पुस्तकों के रूप में शब्द-पुष्प भेंट किये.
गोष्ठी में विषय प्रवर्तन स्वयं ‘परिचय साहित्य परिषद’ की अध्यक्षा उर्मिल सत्यभूषण ने किया और कहा कि इस पुस्तक में रूसी समाज का ऐसा जीवंत चित्रण है कि एक एक दृश्य आँखों के सामने घूमता सा नज़र आता है. ‘परिचय साहित्य परिषद’ की हर संगोष्ठी में ‘राशियन सेंटर’ की ओर से किसी न किसी प्रसिद्ध रूसी साहित्यकार का जीवन वृत्त स्क्रीन पर प्रस्तुत किया जाता है. उर्मिल सत्यभूषण ने कहा कि आज ‘पुश्किन के देस में’ पुस्तक की चर्चा उसी शृंखला की एक कड़ी जैसी है.
येलेना ने अंग्रेज़ी में भाषण करते हुए एक भारतीय द्वारा रूसी समाज पर लिखी गई एक और पुस्तक पर प्रसन्नता प्रकट की तथा यह भी कहा कि पुस्तक पठनीय है व उसमें रूसी पाठकों के लिये भी कई नई जानकारियाँ हैं.
महेश दर्पण ने संक्षिप्त भाषण अपनी पुस्तक का परिचय देते हुए कहा कि पुश्किन का देस केवल रूस ही नहीं है, वरन पुश्किन का देस भारत भी हो सकता है. उन्होंने रूसी साहित्यकारों की उन कई प्रदर्शनियों का ज़िक्र किया जो रूस में उन्हें देखने को मिली.
वरिष्ठ कवि कथाकार विष्णु चंद्र शर्मा ने महेश दर्पण की कहानियों में पारिवारिक संवेदना के संरक्षण की बात की. उन्होंने कहा कि परिस्थितियों के साथ रूस की तस्वीर बदली और महेश ने अपनी पुस्तक में बदलाव से पहले और बाद के रूस की अच्छी तुलना की है. उन्होंने भी महेश द्वारा वर्णित प्रदर्शनियों व रूसी समाज की झलकियों में चल्चित्रात्मकता का गुण होने की बात कही.
चित्रा मुद्गल ने कहा कि महेश दर्पण की यह पुस्तक एक उपन्यास सी लगती है और उन्होंने टूटते हुए रूसी समाज के जीवन में बहुत गहरे पैठ कर यह पुस्तक लिखी है. रूस के शहरों व गांवों का उन्हें बेहद प्रामाणिक विवरण इस पुस्तक में मिला तथा उन्होंने पुस्तक की पठनीयता की भी प्रशंसा की.



सभागार में एक सशक्त पुस्तक पर इतनी गंभीर चर्चा सुनते हुए हिंदी के कई जाने माने हस्ताक्षर यथा केवल गोस्वामी, हरिपाल त्यागी, सुरेश उनियाल, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, वीरेंद्र सक्सेना प्रेम जनमेजय आदि भी उपस्थित थे. रमेश उपाध्याय ने भी अपने भाषण में इस पुस्तक के औपन्यासिक प्रारूप होने की बात कही और कहा कि इस प्रकार मानो एक नई विधा का जन्म हुआ है. उन्होंने कहा कि ‘पुश्किन के देस में’ पुस्तक केवल उन्हें नहीं वरन उनके समस्त परिवार को बहुत अच्छी लगी.
अपने अध्यक्षीय भाषण में राजेंद्र यादव एक ‘नॉस्टाल्’ज्या सा महसूस करते हुए साठ वर्ष पहले के काल में पहुँच गए जब उन्होंने आगरा में चेखव को पढ़ना शुरू किया था. उन्होंने कलकत्ता की ‘नैशनल लाइब्रेरी’ में भी चेखव को खूब खंगाला. वैसे अपने समय में ही राजेंद्र यादव ने अपने किसी आत्याकथ्य में यह कहा था कि वे स्वयं को चेखव के अधिक निकट पाते हैं. उन्होंने काफी वर्ष पहले रूस पर लिखी हुई प्रभाकर द्विवेदी की पुस्तक ‘पार उतर कहं जइहोँ’ का सन्दर्भ दे कर कहा कि उस पुस्तक की तरह ‘पुश्किन के देस में’ भी एक लंबे अरसे तक उनकी स्मृति में रहेगी.
वैसे देखा जाए तो हिंदी साहित्य के कई कालजयी हस्ताक्षर रूसी साहित्य से प्रभावित रहे, यह बात स्वयं अपने आप में सर्वविदित है. जब भारत ब्रिटिश जैसी उपनिवेशवादी शक्ति के अधीन था तब भारत के स्वाधीनता संघर्ष से जुड़े कई नेताओं यथा नेहरु, सुभाषचंद्र बोस व भगत सिंह पर रूस के समाजवाद की बहुत गहरी छाप रही. भगत सिंह की जीवनी देखी जाए तो यह भी कहा जा सकता है कि यदि उन्हें मृत्युदंड न मिलता तो भारतीय समाज को एक और लेनिन मिल जाता. साहित्य में भी प्रेमचंद और मैक्सिम गोर्की के व्यक्र्तित्वो कृतित्वों की परस्पर समानता सर्वविदित है. प्रेमचंद ने स्वयं अपनी सोच व साहित्य पर गोर्की के प्रभाव की बात कही थी. नई कहानी के दौर में भी मोहन राकेश राजेन्द्र यादव जैसे सशक्त हस्ताक्षर चेखव से पूर्णतः प्रभावित थे. रूस अब भले ही पहले जैसा रूस नहीं रह गया है और न ही भारत ही पहले सा समाजवादी रहा है, बाज़ार के दबाव में भारत के रूप में भी आमूलचूल परिवर्वन लगातार आ रहे हैं. पर इस के बावजूद भारतीय और रूसी समाज में अब भी कुछ ऐसा बचा है जो उन्हें अपने प्रारंभिक समय से जोड़ता है. ‘पुश्किन के देस में’ जैसी पुस्तकें उसी समाज के एक एक्स-रे सी लगती हैं जो बदला तो तेज़ी से है पर अपनी कोख को शायद भूल नहीं पाया है व जिसमें अभी भी उस समय के कई अच्छी बुरे अवशेष बचे हैं. ‘पुश्किन के देस में’ जैसी अन्य कई रचनाओं की आवश्यकता है जो इस विषय को गंभीर शोध की तरह लें और भारत के अमरीका से नैकट्य व रूस से धीमी धीमी बढ़ती दूरी पर अपने चिंतन की प्रचुर रौशनी डालें.

रिपोर्ट – प्रेमचंद सहजवाला