Thursday, October 29, 2009

बेकल 'उत्साही' द्वारा क़ैसर अज़ीज़ के पहले दीवान 'तक़्मील-ए-आरज़ू' का लोकार्पण

रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला

क़ैसर अज़ीज़ दिल्ली का मुशायरों कवि गोष्ठियों में एक सुपरिचित नाम है तथा उर्दू में कई अच्छी ग़ज़लें उन्होंने मुशायरों में प्रस्तुत की हैं, हालांकि यह बात भी उतनी ही सत्य है कि अभी कैसर अज़ीज़ नाम के शायर को काफी दूर तक जाना है और उनमें काफी दूर तक जाने की पूरी क्षमता है. दि. 18 अक्टूबर 2009 को दिल्ली के 'ग़ालिब अकैडमी' सभागार में कैसर अज़ीज़ की ग़ज़लों के पहले मजमुए 'तक़्मील-ए-आरज़ू' (अभिलाषा-पूर्ति) का लोकार्पण सुविख्यात शायर बेकल 'उत्साही' ने किया. पर बेकल 'उत्साही' ने लोकार्पण के बाद अपने भाषण में बहुत रोचक तरीक़े से हास्य की एक लहर बिखेर दी और पुस्तक के शीर्षक को ले कर कैसर 'अज़ीज़' को संबोधित करते हुए चुटकी काटी कि अभी से आप की 'तक़्मील-ए-आरज़ू' (अभिलाषा पूर्ति) कैसे हो गई! पहले 'तामीर-ए-आरज़ू' (अभिलाषा निर्माण ) लिखते, फिर 'तफ़सील-ए-आरज़ू' (अभिलाषा का विस्तार) लिखते और फिर 'तक़्मील-ए-आरज़ू' (अभिलाषा पूर्ति) लिखते! दरअसल आज ज़माना वो है जब हर कोई तालियाँ बजवाना चाहता है या दाद सुनना. इसलिए प्रायः लोकार्पण करने वाली हस्ती यदि लोकार्पित पुस्तक की सीमाओं की ओर संकेत कर दे तो मुमकिन है कि सम्बंधित रचनाकार को ऐसा संकेत कटु लगे, पर बेकल साहब के बात कहने का अंदाज़ इतना खूबसूरत कि सब तरफ वाह वाह की धूम मच गई।


(बेकल 'उत्साही' का वक्तव्य)

इस अवसर पर वयोवृद्ध शायर मुनव्वर सरहदी की सदारत में एक मुशायरा भी हुआ जिस में ज़ुबैर अहमद 'क़मर', दर्द 'देहलवी', लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, मयकश अमरोहवी, सज्जाद 'झंझट', आबिद 'वफ़ा' सहारनपुरी, जितेन्द्र परवेज़, शफ़क़ 'बिजनौरी', ममता 'किरण', नमिता राकेश, निक्हत अमरोहवी, साजिद खैराबादी, क़री हुसैन, क़लीम जावेद, वीरेन्द्र 'क़मर', जगदीश रावतानी 'आनंदम', उस्मान मांडवी, शहादत अली निज़ामी, मास्टर निसार, क़ैसर 'अज़ीज़' आदि शायरों ने हिस्सा लिया। वैसे बेकल 'उत्साही' साहब ने अपने भाषण में यह भी कहा कि मुशायरे अब वो मुशायरे नहीं रहे, जो किसी ज़माने होते थे. वो तहज़ीब वो एहतराम (आदर) वो ऐतमाम (बंदोबस्त) धीरे धीरे मौसम की तरह बदलते जा रहे हैं. आज मुशायरा एक ताजिराना (व्यापारिक) फन हो गया है. पर आज के होने वाले मुशायरे के बारे में उन्होंने भरोसा किया कि मुशायरा प्रभावित करेगा और हम कुछ अदब (साहित्य) सुनेंगे. मुशायरे की कमान संभाली युवा शायर फ़ाक़िर अदीब ने और मुशायरे में आए शायरों का स्वागत करते हुए जब उन्होंने एक नज़र मंच पर विराजमान उर्दू -हिंदी के संगम पर डाली तो कहा:

जो कुछ भी हिंदी में लिखा, उर्दू में महसूस किया,
हम ने हिंदुस्तान ग़ज़ल की खुशबू में महसूस किया.


दिल्ली में हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह व मिर्ज़ा ग़ालिब और अमीर खुसरो के मकबरों की शरण में बने इस सभागार में जहाँ शराब और शबाब से जुड़ी शायरी भी थी, वहीं खुदा-परस्ती या वतन परस्ती भी अपनी जगह कायम थी. कभी कभी बहुत कठिन या फारसी मिश्रित उर्दू मंच व श्रोताओं के बीच एक दीवार भी खड़ी कर देती है, लेकिन यहाँ सभागार में उपस्थित अधिकांश श्रोतागण उर्दू के खासे जानकार लगे. हिंदी व उर्दू की सशक्त गज़लों नज़्मों ने समा बाँध लिया. मुशायरे की शम्मा जलाने वालों में से वरिष्ठ शायर जुबैर अहमद 'क़मर' की ग़ज़ल का एक शेर:

उन की मर्ज़ी खुदा की रज़ा बन गई,
रुख हवा का इधर से उधर हो गया.


शफ़क़ साहब ने संवेदना से ओत प्रोत एक ग़ज़ल पढ़ी:

कफस में हंसते थे गुलशन में आ के रोने लगे,
परिंदे अपनी कहानी सुना के रोने लगे.
बिछुड़ने वाले अचानक जो बरसों बाद मिले,
वो मुस्कराने लगे मुस्करा के रोने लगे.
(कफस = पिंजर).


किसी किसी की शायरी से हास्य भी फूटा, जैसे सज्जाद 'झंझट':

मैं 'झंझट' हूँ विरासत में मिली है शायरी मुझको,
मेरे अब्बा के दादा जान के दादा भी शायर थे.


लेकिन हास्य के नाम कहीं कहीं फ़िल्मी फूहड़ता भी परोसी गई:

हज़ारों दिल तेरे वादे पे ऐसे टूट जाते हैं,
कि जैसे हाथ से गिरते ही अंडे फूट जाते हैं ('झंझट').


लक्ष्मीशंकर वाजपेयी की बहु-आयामी शायरी ने सभागार को खूब प्रभावित किया. जैसे समाज की एक कटु सच्चाई को अभिव्यक्त करता यह शेर :

उन्हीं के हिस्से में पतझड़ के सिलसिले आए,
जो सब से आगे थे आए बहार लाने में


और लक्ष्मीशंकर वाजपेयी का महानगरीय व्यस्तता से मोक्ष पाने का अंदाज़:

खुदा से बोलूँगा, अब मुझको अपने पास ही रख,
फिज़ूल जाता है सब वक़्त आने जाने में.


नमिता राकेश की चुस्त-दुरुस्त शायरी:

चलने से पहले रास्ते लगते हैं पुर-ख़तर,
जब चल पड़े तो पैरों को कांटे क़बूल थे.

(पुर-ख़तर = खतरे से भरे )

नमिता अक्सर पुरुष को नारी के चुनौती भरे दो टूक स्वर ज़रूर सुनाती हैं. जैसे:

माना कि तुम बादल हो, बरसना चाहते हो,
मगर यह मत भूलो, मैं भी नदी हूँ, बहाना जानती हूँ.


पर जहाँ नमिता राकेश नारी पुरुष का समीकरण ठीक करने में लगी थी, वहीं भारतीय समाज के शाश्वत अवयव यानी 'घर-परिवार' से जुड़ी संवेदनाओं को क़लम-बद्ध करने में में ममता 'किरण' अपनी जगह लाजवाब रही:

बाग़ जैसे गूंजता है पंछियों से,
घर मेरा वैसे चहकता बेटियों से


और

आया खिलौना घर में नया जब से ऐ 'किरण'
दादी को दिन गुजारना मुश्किल नहीं रहा.


कैसर 'अज़ीज़' ने अपने दीवान के शीर्षक 'तक़्मील-ए-आरज़ू' का उपयोग किताब की तीन चार ग़ज़लों में किया है. यहाँ जो ग़ज़ल उन्होंने पढी, उस का एक शेर:

'तक़्मील-ए-आरज़ू' का नया एक बाब लिख,
तू लिख सके तो जागती आँखों का ख्वाब लिख
.
( बाब = अध्याय).

जगदीश रावतानी अपने 'सेकुलर' अंदाज़ में सदा-बहार लगे. होली और ईद के दिन गले मिलने की खुशियों की बराबरी अभिव्यक्त करता उनके यह शेर बहु-प्रशंसित है ही:

दिन ईद का है आ के गले से लगा मुझे,
होली पे जैसे तू मुझे मलता गुलाल है...


और यहाँ भी उन्होंने ईद की ख़ुशी के बहाने भारत के सर्व-धर्म-समभाव रुपी अनमोल मूल्य को व्यक्त किया:

गले लगा के मिला ईद सब से जब भी मैं
कोई भी फ़र्क़ किसी में कहाँ नज़र आया.


जहाँ एक तरफ उर्दू-हिंदी का संगम बेहद खुश-मिज़ाजी का माहौल पैदा कर रहा था, वहीं सभागार में उपस्थित अलग अलग मज़हबों के लोगों का संगम भी एक खुश-मिज़ाजी भरा माहौल ही पैदा कर रहा था. यह बात दीगर है कि कोई कोई शायर बहुत संकीर्ण तरीक़े से शायरी को एक सांप्रदायिक शक्ल भी दे रहा था, जो नहीं होना चाहिए. जहाँ एक तरफ हिंदी में आज भी कृष्ण-प्रेम या राम-भक्ति पर उत्कृष्ट कविताओं को समुचित स्थान मिला हुआ है, वहीं पैगम्बर के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त करने वाली शायरी भी हर जगह पसंद की जाती है, जैसे ज़ुबैर अहमद 'कमर' साहब द्वारा पढ़ा हुआ यह शेर:

नूर से जगमगाने लगे बामो-दर,
मुस्तफा का जिधर से गुज़र हो गया
(बामो-दर = छत और दरवाज़े, मुस्तफा = पैग़म्बर),

पर भक्ति काव्य अलग है, साम्प्रदायिकता या सियासतबाज़ी अलग. मुशायरे के शुरू में संचालक फ़ाक़िर 'अदीब' ने 'मुहब्बत' पर जो लाजवाब पंक्तियाँ कही, वही 'मुहब्बत' अगर मज़हब की दीवारें तोड़ कर एक मुशायरा बन कर जगमगाए तो बेहतर:

'मुहब्बत' जो खुदा का पैगाम है,
'मुहब्बत' जो आसमान से ज़मीन पर एक लाख चौबीस हज़ार* बार उतारी गई,
'मुहब्बत' जो राधा की पलकों पर मोहन का इंतज़ार बन जगमगाई,
'मुहब्बत' जो सुलगते हुए सहराओं में लैला-मजनू का ग़म बन कर भटकी...

(एक लाख चौबीस हज़ार* बार से तात्पर्य कि ईश्वर ने इतनी बार पृथ्वी पर अवतार-पैग़म्बर भेजे, जो इंसानी प्रेम का पैगाम ज़मीन पर लाए).

शायरी दिल की सादगी से जन्म लेती है, और सादगी और निश्छलता ही उस का त-आरुफ़ है, इस लिए अंत में बेकल 'उत्साही' द्वारा पढ़े गए शेरों में से एक को उद्धृत न करुँ तो यह रिपोर्ट अधूरी रह जाएगी:

सादगी सिंगार हो गई
आइनों की हार हो गई.


(मुशायरे के आखिर में बतौर तोहफे के कैसर 'अज़ीज़' के दीवान 'तक़्मील-ए-आरज़ू' की एक एक प्रति सब को मिली और चाय तथा मिष्ठान का पैकेट भी)।