Sunday, October 3, 2010

भावबोध की अपेक्षा मनुष्यबोध व जनबोध कविता की प्राथमिक शर्तें हैं - प्रो. नित्यानंद तिवारी

सत्रः 3 । दिन- प्रथम । केदारनाथ अग्रवाल पर समग्र


खगेन्द्र ठाकुर

1 अक्टूबर । वर्धा
2-3 अक्तूबर 2010 को महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी वि.वि., वर्धा में आयोजित संगोष्ठी “बीसवीं सदी का अर्थ और जन्मशती का सन्दर्भ” के पहले दिन तीसरे सत्र के रूप में कवि केदारनाथ अग्रवाल पर केन्द्रित परिचर्चा का आयोजन किया गया। सत्र की अध्यक्षता प्रो. नित्यानन्द तिवारी ने एवं संचालन अरुणेश शुक्ला द्वारा किया गया।

प्रथम वक्ता के रूप में प्रो. खगेन्द्र ठाकुर ने केदार की कविताओं की आलोचना के सन्दर्भ की चर्चा में कलावादी आलोचना की मीमांसा करते हुए कालिदास, भारवि, माघ व दण्डी के साहित्य के टीकाकारों का उल्लेख किया। पिछड़े, वंचित व उपेक्षित वर्ग के प्रति केदार की कविता की पक्षधरता, सामाजिकता व उनकी राजनीतिपरक कविताओं के अनेकानेक उदाहरणों से उन्होंने अपनी बात पुष्ट की।

प्रो. अजय तिवारी ने प्रगतिशील आलोचना पर पक्षपात के आरोपों का खण्डन करते हुए अज्ञेय व केदारनाथ अग्रवाल पर केन्द्रित मौलिक पुस्तकों का प्रश्न उठाया। साथ ही रामविलास शर्मा द्वारा दी गई प्रगतिशीलता की ‘जनता की तरफ़दारी’ की परिभाषा को रेखांकित किया। स्त्री की अस्मिता का प्रश्न, परम्परा, परंपरा के पलायनवादी पक्ष आदि को अज्ञेय, नागार्जुन, केदार आदि के सन्दर्भ में उन्होंने व्याख्यायित किया और कहा कि इतिहास में जिसकी जो भूमिका व स्थान है, उसे वही दिया जाना चाहिए। उस से कम देना भी अन्याय होगा व उस से अधिक देना भी अन्याय। साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन में इस यथार्थ का बोध बहुत आवश्यक है। प्रगतिशील आलोचना पर लगाए जाते आरोपों को सिरे से खारिज करते हुए उन्होंने कहा कि जिनमें यथोचित बल नहीं वे पंजा लड़ाने क्यों चले। अजय तिवारी ने जोड़ा कि नागार्जुन, केदार व शमशेर प्रतिबद्धता व संघर्ष के कवि हैं। जिस कवि में परम्परा अमरता का रूप पाती है, वही कवि अमर होता है। केदार इस अर्थ में अद्वितीय हैं।


श्रोता

“तद्‍भव” के सम्पादक अखिलेश का वक्तव्य केदार की कविताओं के स्त्री पक्ष, स्वकीय प्रेम, स्त्रीचेतना को आज इक्कीसवीं सदी के स्त्री विमर्श के समक्ष तुलनात्मक दृष्टि से मूल्यांकित करने से प्रारम्भ हुआ। विवाह और परिवार, संयुक्त परिवार का परिवेश, सौभाग्य के चिह्न आदि सन्दर्भों व उनके द्वन्द्व पर केन्द्रित उनके आलेख में केदार जी की कई बहुत सुन्दर कविताओं को आज के परिप्रेक्ष्य में पुनर्मूल्यांकित किया गया। केवल देह के शोषण के विरुद्ध या उसी की मुक्ति के अर्थ-मात्र में नहीं अपितु समग्र स्त्रीचेतना और स्त्री मुक्ति के रचनाकार के रूप में केदार के काव्य के उक्त पक्ष को उन्होंने सुचिन्तित ढंग से उद्‍घाटित किया।


प्रो. नित्यानंद तिवारी

अध्यक्षीय उद्‍बोधन में प्रो. नित्यानन्द तिवारी ने अज्ञेय से सम्बन्धित कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण संस्मरण सुनाते हुए कई ऐतिहासिक तथ्यों का उद्‍घाटन किया। केदार व नागार्जुन के जनकवि होने व जनकवि होने की पक्षधरता के लिए उठाए खतरों का उल्लेख भी उन्होंने किया। उन्होंने कहा कि कविता यदि कवि की कार्यशाला में जाकर रची जाती है व एक रचनात्मक उत्पाद बनती है तो आप जनकवि नहीं हो सकते। भावबोध की अपेक्षा मनुष्यबोध व जनबोध इसकी प्राथमिक शर्तें हैं। जिसमें जितना लोकपक्ष अधिक होगा, वह उतने अर्थों में जनकवि होने की ओर होता है, इन अर्थों में अज्ञेय, केदारनाथ अग्रवाल व नागार्जुन की कविताओं को देखा जाए तो स्थिति स्पष्ट हो जाती है।

धन्यवाद ज्ञापन के साथ सत्र को संक्षेप में समेट देना पड़ा। रात्रि में नागार्जुन की कविताओं की नाट्यप्रस्तुति के अत्यन्त्त रोचक व भावन कार्यक्रम के उत्साह व तैयारी को ध्यान में रखते हुए सत्र में होते विलम्ब को टालने की दॄष्टि से केदारनाथ अग्रवाल पर केन्द्रित सत्र के कुछ अन्य वक्ताओं को आगामी दिन के सत्रों में सम्मिलित करने का निर्णय लेना पड़ा।

2 अक्तूबर के अन्तिम कार्यक्रम के रूप में नागार्जुन की कविताओं के रोमांचक नाट्यमंचन को खचाखच भरे सभागार ने खूब सराहा। देर रात तक चले 2 अक्तूबर के समस्त कार्यक्रमों में दर्शकों, श्रोताओं व अध्येताओं का उत्साह देखते ही बनता था। वैचारिक सत्रों में श्रोताओं की भारी उपस्थिति ने विश्वविद्यालय की गरिमा बढ़ाई। मध्य रात्रि तक खुले प्रांगण में लेखकों की आत्मीय बैठक ने इस द्विदिवसीय संगोष्ठी को पारिवारिकता का-सा संस्पर्श प्रदान किया।

रिपोर्ट- डॉ. कविता वाचक्नवी