इस गोष्ठी को यहाँ सुना भी जा सकता है।
भूपेन्द्र कुमार और प्रेमचंद सहजवाला
'आनंदम' संस्था की नव वर्ष गोष्ठी 11 जनवरी 2009 को संस्था के संस्थापक जगदीश रावतानी के निवास पश्चिम विहार में आयोजित की गई। गोष्ठी में मुनव्वर सरहदी, ज़फर देहलवी, जगदीश रावतानी, पी के स्वामी, मनमोहन तालिब, डॉ रेखा व्यास, रमेश सिद्धार्थ, साक्षात भसीन, प्रेमचंद सहजवाला, राम निवास इंडिया, पंडित प्रेम बरेलवी, आशीष सिन्हा 'कासिद', जितेंदर प्रीतम, रविन्द्र शर्मा रवि, भूपेन्द्र कुमार, डॉ. सत्यपाल चबर, कैसर अजिग, सुरेंदर पम्मी व सपना संजीव दत्त ने हिस्सा लिया। गोष्ठी का संचालन भूपेंद्र ने किया तथा प्रारम्भ में प्रेमचंद सहजवाला ने आगंतुक कवियों को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए कहा कि कविता 'अभिव्यक्ति की उत्कट इच्छा' से ही पनपती है। अपने कॉलेज के दिनों का एक रोचक उदहारण देते हुए उन्होंने बताया कि तब तो अक्सर कुल्फी वाले के बक्से पर भी एक शेर लिखा रहता:
बन जाते हैं सब रिश्तेदार जब ज़र पास होता है,
टूट जाता है गरीबी में जो रिश्ता ख़ास होता है.
गोष्ठी में जर्फ़ देहलवी ने अपनी गज़लों से वाह-वाह की धूम मचा दी। उनके दो दिलचस्प शेर थे:
कुछ के जैसा मैं हूँ और कुछ मेरे जैसे हैं यहाँ,
किस को अपना मैं कहूं और किस को बेगाना कहूं।
कुछ मुझे वो और कुछ मैं उस को देता हूँ फरेब,
उसको दीवाना कहूं या ख़ुद को दीवाना कहूं।
रविन्द्र शर्मा 'रवि' हमेशा की तरह सशक्त गज़लों के साथ उपस्थित थे। बिछडे हुए साथियों की प्रतीक्षा में रत लोगों की स्थिति का एक अंदाजे-बयान:
हवा चुपचाप अपना काम करके जा चुकी होगी
सभी इल्ज़ाम चिंगारी के जिम्मे हो गए होंगे
शजर की मौत का इस शहर में मतलब नहीं कोई
बहुत होगा तो आकर कुछ परिंदे रो गए होंगे
जगदीश रावतानी की कविता राजनीती पर एक करारा प्रहार थी:
राजनीति और कूटनीति ने अपदस्थ कर सबको / विचारों से बना दिया भिखारी / दुर्भाग्य, इन्सान से बदल कर आदमी हुआ मराठी या बिहारी
सहजवाला ने अपनी ग़ज़ल के एक शेर में मुंबई पर हुए आतंकी हमले के मद्दे-नज़र पूरे सिस्टम पर प्रहार किया:
साज़िश से बेखबर थे, सब शहर के मसीहा
घर जल गया तो सारे निकले कुएं बनाने।
मुनव्वर सरहदी हमेशा की तरह सदाबहार रहे और अपने हास्य शेरों से सब के बेतहाशा हंसा कर माहौल को तनाव-मुक्त कर दिया।
ग़ज़ल, ग़ज़ल है मुहब्बत की आरती के लिए
ये शेर फूल है पूजा की तश्तरी के लिए।
क़रीब आती हैं कालेज की जब हसीनाएँ
मैं अपने इश्क़ का सिक्का उछाल लेता हूँ।
ख़ुदा का शुक्र है सब हिन्दी पढ़ने वाली हैं
मै उर्दू बोल कर हसरत निकाल लेता हूँ।
अंत में जगदीश रावतानी ने सभी कवियों का हार्दिक धन्यवाद किया व गोष्ठी सम्पन्न हुई।
जगदीश रावतानी
गोष्ठी में पढ़े गये कुछ और ग़ज़लों/कविताओं के अंश-
सर्वश्री ज़र्फ़ -
एक शीरीं आलमे एहसासे मयख़ाना कहूँ
ज़िंदगी को मैं हक़ीक़त या कि अफ़साना कहूँ
है जहाँ में दरमियाँ ख़ुशियों के ग़म का मसविदा
मैं इसे बज़्मे मसर्रत या कि ग़मख़ाना कहूँ
जितेन्द्र प्रीतम -
तुम्हारी गली में मैं आता रहूँगा
में गाता रहा हूँ मैं गाता रहूँगा
प्रेमचन्द सहजवाला -
दुनिया में आए थे जो तारीख़ को बनाने
अब गुमशुदा हैं लोगों उनके पते ठिकाने
साजिश से बेख़बर थे सब शहर के मसीहा
घर जल गया तो सारे निकले कुएँ बनाने
पी.के. स्वामी -
क़रीब होती है उनकी मंज़िल, जो तेरे ग़म में समा रहे हैं
जो दूर होते हैं ख़ुद से अपने, क़रीब तेरे ही आ रहे हैं
रूह को जो ख़ुशी न पहुँचे तो क्या किया ज़िन्दगी में हमने
जो बाँटते हैं सुरूर पै हम वो लुत्फ़े मय वो ही पा रहे हैं
रमेश सिद्धार्थ (रेवाड़ी से)-
रात भर आँखें तरसीं सपन के लिए
जैसे तरसे है बेवा सपन के लिए
क़ैसर -
दिलों में हमको निहाँ मिलेगा
यहाँ नहीं तो वहाँ मिलेगा
सजदे में जा कर तो देखो
सुकून वहाँ कितना मिलेगा
डॉ. रेखा व्यास -
शाम ढलने लगी, घर को चलने लगी
रात बाघिन सी हमको छलने लगी
खेत खलिहान मैदान ताल तलैया
भोर सूरज के संग में मचलने लगी
गीत ग़ज़लों का व्यास बढ़ा जब से ही
रेखा तू भी आग उगलने लगी
भूपेन्द्र कुमार -
सोना है जिसे आज भी सड़कों के किनारे
कैसे कहेगा वो नया साल मुबारक।
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पाठक का कहना है :
सबके अपने-अपने रंग.
सबके अपने-अपने रूप.
समझ-सराह सके सबको,
जो- उसको ही मानें भूप.
'सलिल' रपट यह रोचक है-
पढ़कर मिलता है आनंद.
साबित यह भी होता है-
ताक़तवर है कितना छंद.
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