Thursday, July 28, 2011

डायलॉग गोष्ठी का आमंत्रण


निमंत्रण पत्र को बड़ा करके देखने के लिए फोटो पर चटका लगाएं

Tuesday, July 12, 2011

सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था के कवि श्री देवानंद शिवराज के संग्रह अभिलाषा का लोकार्पण


बाएँ से दाएँ – भावना सक्सेना, डॉ॰विमलेश कांति वर्मा, पं॰हरिदेव सहतू, श्रीमति सहतू, श्री अरुण कुमार शर्मा, कवि श्री देवानन्द शिवराज, श्री मोती मारहे।

जीवन के अनुभव कब कविता बन जाते हैं इसका सटीक निर्धारण कठिन है। जरई रोपने की कड़ी धूप सहने के बाद जब धान फलती है तो किसान को कितना सुख देती है उसी का विवरण कविता बन जाता है। ऐसी ही कविताओं के एक संकलन "अभिलाषा" का लोकार्पण 29 जून 2011 को पारामारिबो की सांस्कृतिक संस्था माता गौरी के सभागार में प्रकाशन संस्था सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था द्वारा किया गया। बहुमुखी प्रतिभा वाले कवि, भजनिक, अभिनेता, हिंदी अध्यापक श्री देवानंद शिवराज की कविताएं सरल भाषा में व्यक्त भावोद्गगार हैं। श्री देवानंद आज भी अपने पूर्वजों की संस्कृति तथा परंपरा के समर्पित प्रचारक हैं और हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में लगे हुए हैं।

कार्यक्रम के मुख्य अथिति भारत के राजदूतावास के निमंत्रण पर सूरीनाम आए हिन्दी विद्वान डॉ॰ विमलेश कांति वर्मा थे, डॉ॰ वर्मा ने सूरीनाम में निरंतर हो रही साहित्यिक गतिविधियों की भूरी भूरी प्रशंसा की और सभी साहित्यकारों से लेखनरत रहने का आग्रह किया।
अभिलाषा का विमोचन साहित्य मित्र संस्था के अध्यक्ष पंडित हरिदेव सहतू, डॉ॰ विमलेश कांति वर्मा, प्रतिष्ठित सरनामी कार्यकर्ता श्री मोती मारहे, भारतीय राजदूतावास के चांसरी प्रमुख श्री अरुण कुमार शर्मा और हिन्दी व संस्कृति अधिकारी तथा अभिलाषा की संपादक श्रीमति भावना सक्सैना के हाथों हुआ। इस अवसर पर कवि गोष्ठी का आयोजन भी किया गया जिसमें सूरीनाम के कुछ प्रतिष्ठित कवियों ने कविता पाठ किया और कुछ प्रतिष्ठित कवियों की रचनाएँ छोटे बालकों ने पढ़ीं और सबका मन मोह लिया। श्री देवानन्द ने इस अवसर पर स्वरचित लयबद्ध गीत "कल्कतिया में लागे मेला अरकटियन करे गुहार" प्रस्तुत करके समां बांध दिया।
कार्यक्रम का कुशल संचालन डॉ॰ कार्मेन जगलाल, युवा कवयित्री ऩिशा झाकरी व डॉ॰ सरवन बख्तावर ने किया। श्रीमती सक्सेना ने पुस्तक में दिया पंडित सहतू का अध्यक्षीय संदेश पढ़ा जिसमें उन्होने कहा है " श्री देवानंद शिवराज एक सहृदय व समर्पित व्यक्ति हैं जो पिछले 48 वर्ष से हिंदी शिक्षण के प्रति समर्पित हैं और सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था के सक्रिय सदस्य हैं। संस्था का उद्देश्य सूरीनाम के हिंदी प्रेमियों को साहित्य रचना की ओर प्रेरित करना व प्रकाशन सुविधा उपलब्ध करना रहा है।मेरी हार्दिक अभिलाषा रही है की संस्था के सभी सदस्यों के एकल काव्य संकलन प्रकाशित हों। इस श्रृंखला में श्री देवानंद का काव्य संकलन अभिलाषा इस आशा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ कि यह अन्य सभी सदस्यों को इस दिशा में प्रयास करने की प्रेरणा प्रदान करेगा और शीघ्र ही हमें और संकलन देखने को मिलेंगे। मुझे विश्वास है कि अभिलाषा का सर्वत्र स्वागत होगा और यह प्रत्येक व्यक्ति के मन में नव अभिलाषाएं उत्पन्न करेगी।" कविताऊन पर प्रकाश डालते हुए उन्होने कहा - कि इस संकलन की कविताओं की एक विशेषता जहां विषयों कि व्यापकता है वहीं अर्थ विस्तार भी है। किसी भी कविता को शीर्षक नहीं देते हुए अर्थ ग्रहण पाठक के ऊपर छोड़ दिया गया है।
सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था का गठन वर्ष 2001 में किया गया था और तब से पंडित हरिदेव सहतू के दिशानिर्देश में संस्था के सभी सदस्य सुचारू रूप से साहित्य सृजन कर रहे हैं। संस्था का उद्देश्य हिंदी लेखकों को प्रेरित करना है।

रिपोर्ट व चित्र – भावना सक्सैना

सूरीनाम में सस्ता साहित्य मण्डल की हिन्दी शिक्षणोपयोगी पुस्तकों का लोकार्पण


बाएँ से दाएँ - भावना सक्सेना, पंडिता सुशीला मल्हू, महामहिम श्री सोढ़ी, श्रीमती मंजीत सोढ़ी

२३ जून २०११ को सूरीनाम में संस्था माता गौरी में भारत के राजदूतावास द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम के अवसर पर भारत के राजदूत श्री कंवलजीत सिंह सोढ़ी द्वारा नई दिल्ली की प्रकाशन संस्था सस्ता साहित्य मंडल के १४ बाल कहानियों के सचित्र ओंर सुरुचि पूर्ण सेट का लोकार्पण किया गया। राजदूतावास की हिंदी अधिकारी श्रीमती भावना सक्सैना द्वारा पुस्तकों का परिचय पढे जाने के पश्चात लोकार्पण के लिए पुस्तकें सूरीनाम साहित्य मित्र संस्था की सचिव पंडिता सुशीला बलदेव मल्हू ने प्रस्तुत की।

बहुरंगी चित्रों से सुसज्जित पुस्तकों की लेखिका हैं श्रीमती धीरा वर्मा और इन पुस्तकों के चित्रकार हैं संजय अहलुवालिया। पेयर इट सीरीज़ के इस सेट की सभी कहानियां अंग्रेजी अनुवाद में भी उपलब्ध हैं। अंग्रेजी अनुवाद सुनंदा वी. अस्थाना द्वारा किया गया है। यह हिन्दी शिक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण सेट है जिसके द्वारा अङ्ग्रेज़ी के माध्यम से हिन्दी सीखी जा सकती है।
इस चौदह कहानियों के सेट में जो पुस्तकें है। उनके शीर्षक हैं-

१. चतुर पीटर २. सूरज और चाँद ३. बाघ आया बाघ आया ४ . सिद्धार्थ ५. ग्वाला भैया ६ . अर्जुन 7. मोनिका 8. बहू की खोज 9. चाणक्य १०. सेर को सवा सेर ११ . कंकड़ की सब्जी १२ बुद्धिमान बीरबल 13. सुखी कौन 14. पंडितजी.


भव्य समारोह में उपस्थित श्रोतागण

धीरा वर्मा लेखिका संघ की उपाध्यक्ष हैं और पिछले चार दशकों से बच्चों के साहित्य पर काम कर रहीं हैं। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के स्लावोनिक और फ़ीनो-उग्रीयन विभाग में अतिथि प्राध्यापक हैं और भारत के वरिष्ठतम बल्गारियन अनुवादकों में हैं और उनके अनेक बल्गारियन साहित्यिक रचनाओं के अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। धीराजी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम ए किया है और डीसीसीडबल्यू के ‘पालना’ में सलाहकार मनोवैज्ञानिक के रूप में सेवा की है। आकाशवाणी पर उनकी सौ से ज़्यादा वार्ताएं प्रसारित हुई हैं।

रिपोर्ट – भावना सक्सैना, अताशे (हिंदी व संस्कृति), भारत का राजदूतावास, पारामारीबो, सूरीनाम

Monday, July 4, 2011

वाराणसी में पुस्तक लोकार्पण- समारोह तथा परिचर्चा गोष्ठी


पुस्तक लोकार्पण करते हुए बाये से क्रमशः रचनाकार श्री जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’, बी.आर. बिप्लवी, न्यायमूर्ति गणेश दत्त दुबे, मेयार सनेही, प्रो. चौथी राम यादव एवं प्रो. वशिष्ठ अनूप

26-6-2011
वाराणसी जनपद के गिलट बाजार मुहल्ले में स्थित नव रचना कानवेन्ट स्कूल के सभागार में रविवार दिनांक 26-6-2011 को प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ तथा सर्जना साहित्य मंच के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित समारोह में वरिष्ठ दलित कवि, कथाकार व शायर जवाहर लाल कौल ‘व्यग्र’ के सद्यः प्रकाशित ग़ज़ल-संग्रह ‘रुकती नही ज़बान’ का लोकार्पण एवं परिचर्चा का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। समारोह के विशिष्ट अतिथि न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) गणेश दत्त दुबे थे। अध्यक्षता प्रख्यात शायर मेयार सनेही तथा संचालन उदय प्रताप स्वायत्तशासी महाविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष व जलेस की वाराणसी इकाई के अध्यक्ष डॉ. राम सुधार सिंह द्वारा किया गया। इस अवसर पर शहर एवं शहर के बाहर के अनेकानेक साहित्यकार, कवि, शायर व सुधी श्रोतागण की अच्छी-खासी उपस्थिति रही।

पुस्तक पर परिचर्चा से पूर्व इसके रचनाकार ‘व्यग्र’ जी ने अपनी रचना-प्रक्रिया पर बोलते हुए बताया कि वह मूलरूप से कवि हैं लेकिन ग़ज़ल की लोकप्रियता ने उन्हें ग़ज़ल लिखने के लिए प्रेरित किया। इसके शीर्षक के चयन पर विशेष बल देते हुए उन्होंने खुलासा किया कि यह दलित वैचारिकी का प्रतिनिधित्व करता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्रोफेसर व ग़ज़ल के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. वशिष्ठ अनूप ने सबसे पहले बोलते हुए ग़ज़ल की उत्पत्ति एवं विकास के इतिहास को रेखांकित किया। फारसी, उर्दू, हिन्दुस्तानी से होती हुई वर्तमान स्वरूप तक पहुँचने में एक लम्बा सफ़र तय किया है ग़जल ने। ग़ज़ल के केन्द्र में दुख ही विभिन्न स्वरूपों में हमेशा से रहा है। यही दुख आम जन की पीड़ा के रूप में विस्तार पाता है वर्तमान गज़ल में। रचना की अन्तर्वस्तु बदलती है तो शिल्प भी बदल जाता है। यही नहीं, अन्तर्वस्तु के सामने शिल्प अकसर धराशायी हो जाता है। उन्होंने कहा कि कौल जी की ग़ज़लें पढ़ते हुए उन्हें महेश ‘अश्क’ का यह शेर याद आया- ‘जबाँ खुलेगी तो क्या हो कह नहीं सकता, मगर मैं और अधिक चुप रह नहीं सकता।’ दलित रचनाकार ज़बान खोलते हैं तो तमाम सवाल पैदा होते हैं। पूरी परम्परावादी सोच को प्रश्नांकित करते हैं। अपने प्रश्नों से पूरी व्यवस्था को तार-तार कर देते हैं। यही नकार, यही प्रश्नाकुलता, यही असहमति का स्वर, कौल जी की ग़ज़लों का केन्द्रीय तत्व है जो आद्यान्त अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। इस स्वर में न हकलाहट है, न दब्बूपन और न ही हीन भावना बल्कि एक अदम्य अपराजेय जिजीविषा है। यह दबाये-कुचले दलितों को अपना हक माँगने के लिये प्रेरित करती है। स्वस्थ समाज के नव-निर्माण में निश्चय ही इस ग़ज़ल संग्रह की अपनी दूरगामी भूमिका होगी।

‘सोच विचार’ मासिक पत्रिका के संरक्षक/संयोजक डॉ. जितेन्द्र नाथ मिश्र का मानना था कि ग़ज़ल की लोकप्रियता से प्रभावित होकर व्यग्र जी द्वारा इस विधा को अपनाना इंगित करता है कि वह संवादरत रहना चाहते हैं। इनकी रचनाओं की अन्तर्वस्तु के कारण वह व्यग्र जी का सम्मान करते हैं। वह जैसा सोचते हैं वैसा लिखते हैं। हमारे पहले के लोगों ने जहाँ छोड़ा था, व्यग्र जी उसके बाद शुरू करते हैं। सेवानिवृत्त जिला जज तथा कवि चन्द्रभाल सुकुमार का कहना था कि ग़ज़ल की लोकप्रियता इसीलिये है क्योंकि प्रत्येक दौर की विसंगतियों से लड़ने के लिए जिस स्वर की आवश्यकता होती है, वह उसमें है। व्यग्र जी को अनेक विधाओं का रचनाकार बताते हुए उन्होंने कहा कि ‘युगस्रष्टा’ नामक महाकाव्य के सृजन बाद भी उनकी भूख समाप्त नहीं हुई है। यह साहित्य और समाज दोनों के लिए सुखद है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के डॉ. विद्यानन्द मुद्गल का कहना था कि किसी भी रचना के दो आवश्यक तत्व होते हैं- शाश्वत सत्य और सामायिकता। मीर, ग़ालिब, जोश, इक़बाल को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि प्रत्येक दौर के रचनाकारों की रचनाओं में ये तत्व मौजूद हैं। व्यग्र जी भी शाश्वत सत्य एवं सामायिकता बोध के रचनाकार हैं।

दलित रचनाकार एवं समीक्षक मूलचन्द सोनकर ने प्रश्न खड़ा किया कि भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में ऐसी रचनाओं की उपयोगिता क्या है? पाठ्यक्रमों के माध्यम से आज भी चमत्कारी नायकों का ही महिमामंडन किया जा रहा है। समाज की विसंगतियों की भयावह सच्चाई से आज भी भविष्य की पीढ़ियों को अनभिज्ञ रखा जा रहा है। परिणाम स्वरूप आज भी शोषक एवं शोषित मनोवृत्ति की विभाजक रेखा वाले समाज का निर्माण हो रहा है। जीवन के अप्रिय प्रश्नों को शालीनतापूर्वक सुनकर उनका हल सुझाने वाली पीढ़ी तैयार करने के लिए आवश्यक है कि पाठ्यक्रमों से चमत्कारी नायकों को हटा कर जीवन की विसंगतियों को उजागर करने वाले दलित/पिछड़े वर्ग से आये नायकों और दलित साहित्य को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाये। गोरखपुर से पधारे प्रख्यात शायर बी.आर. बिप्लवी का कहना था कि स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए मूलचन्द सोनकर के सवालों से टकराना जरूरी हैं। उन्होंने कहा कि जहाँ कथ्य कविता से बड़ा होता है वहाँ कविता नहीं, कथ्य ही सर पर चढ़कर बोलता है। व्यग्र जी के संग्रह को गज़ल की कसौटी पर नहीं कथ्य की कसौटी पर कसकर देखना चाहिए।

न्यायमूर्ति गणेश दत्त दुबे ने इस तथ्य को रेखांकित किया कि व्यग्र जी अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में फैले अंधविश्वास पर प्रहार करते हैं। प्रो. चौथी राम यादव को इस बात का मलाल था कि हिन्दी आलोचना ने ग़ज़ल का संज्ञान नहीं लिया। राजनैतिक आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी दलितों, वंचितों को सामाजिक व आर्थिक आज़ादी नहीं मिली। कौल जी इन्हीं के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। इनकी रचनाओं में कबीर जैसी प्रश्नाकुलता है। इनके संग्रह की ग़ज़लें कान से नहीं पेट से सुनने के लिए हैं। भरे पेट का दर्शन अलग होता है। इसी दर्शन के चलते वामपंथियो के राज में दलितों की जमीन छीनकर पूंजीपतियों को दे दी जाती है। सामाजिक मुक्ति और प्रतिष्ठा का सवाल दलितों के लिये आज भी सबसे बड़ा सवाल है। इसी सवाल से कबीर ने भी टक्कर लिया था और फुले, अम्बेडकर ने भी। इसी सवाल से आज व्यग्र जैसे रचनाकार भी टक्कर ले रहे हैं। इसलिये इस बात की निश्चितता है कि उम्मीद की लौ बुझने नहीं पायेगी। अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में मेयार सनेही ने व्यग्र जी के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं सामाजिक सरोकारों का चर्चा करते हुए उनके संग्रह के लिए अपनी बधाई दी।

समारोह में अध्यक्ष मेयार सनेही सहित रोशन लाल ‘रोशन’, तरब सिद्दीकी, शमीम ग़ाज़ीपुरी, सुरेन्द्र वाजपेयी, डॉ. सईद निज़ामी़ इत्यादि रचनाकारों ने अपनी रचनाएँ सुनाकर इस अवसर में चार चाँद लगाये। प्रगतिशील लेखक संघ के कोषाध्यक्ष अशोक आनन्द के आभार प्रदर्शन के साथ समारोह का समापन हुआ।
दिनांक: 27-6-2011


प्रस्तुति
मूल चन्द सोनकर
48 राज राजेश्वरी नगर
गिलट बाज़ार वाराणसी- 221002
मो. 09415303512
ई.मे. priyamoolchand@gmail.com

Sunday, July 3, 2011

राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए सम्मान हेतु प्रविष्टियाँ आमंत्रित

हमेशा की तरह इस स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भी संस्था की ओर से राष्ट्र-भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में उल्लेखनीय योगदान के लिए साहित्यकारों एवं पत्रकारों को सम्मानित किये जाने की योजना है। ये सम्मान अहिन्दी भाषी तथा हिन्दी भाषी क्षेत्रों के विद्वानों के लिए अलग-अलग श्रेणियों में होगे। कम से कम 5 वर्षों से कार्यरत सज्जन ही अपनी प्रविष्टि भेजें। सादे कागज पर आत्मवृत्त (पूर्ण परिचय), रंगीन चित्र, प्रकाशित पुस्तक/रचनाओं की छाया प्रति प्रमाण स्वरूप संलग्न करें। प्राप्त उपलब्धियांे का ब्यौरा हिन्दी के संवर्द्धन के लिए किये गये प्रयास/आंदोलन का विवरण भी भेजे। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता के लिए किसी भी प्रकार के रचनात्मक कार्यों को भी सम्मानित किये जाने की योजना है। यह कार्य लेखन, चित्रकारिता, कार्टून, आंदोलन, जन जागरण के किसी भी रूप में हो सकता है। प्रमाण सहित प्रविष्टि भेजें। अंतिम तिथि 31 जुलाई।
संपर्क - पंचवटी लोकसेवा समिति द्वारा यथासंभव
ए-121, गली न.-10, हस्तसाल रोड़
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

अंडमान में 'सरस्वती सुमन' के लघु कथा विशेषांक का विमोचन और ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' पर संगोष्ठी

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘चेतना’ के तत्वाधान में स्वर्गीय सरस्वती सिंह की 11 वीं पुण्यतिथि पर 26 जून, 2011 को मेगापोड नेस्ट रिसार्ट में आयोजित एक कार्यक्रम में देहरादून से प्रकाशित 'सरस्वती सुमन' पत्रिका के लघुकथा विशेषांक का विमोचन किया गया. इस अवसर पर ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी का आयोजन भी किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में श्री एस. एस. चौधरी, प्रधान वन सचिव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, अध्यक्षता देहरादून से पधारे डा. आनंद सुमन 'सिंह', प्रधान संपादक-सरस्वती सुमन एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर एवं डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर उपस्थित रहे.

सरस्वती सुमन के लघुकथा विशेषांक का विमोचन
कार्यक्रम का आरंभ पुण्य तिथि पर स्वर्गीय सरस्वती सिंह के स्मरण और तत्पश्चात उनकी स्मृति में जारी पत्रिका 'सरस्वती सुमन' के लघुकथा विशेषांक के विमोचन से हुआ. इस विशेषांक का अतिथि संपादन चर्चित साहित्यकार और द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव द्वारा किया गया है. अपने संबोधन में मुख्य अतिथि एवं द्वीप समूह के प्रधान वन सचिव श्री एस.एस. चौधरी ने कहा कि सामाजिक मूल्यों में लगातार गिरावट के कारण चिंताजनक स्थिति पैदा हो गई है । ऐसे में साहित्यकारों को अपनी लेखनी के माध्यम से जन जागरण अभियान शुरू करना चाहिए । उन्होंने कहा कि आज के समय में लघु कथाओं का विशेष महत्व है क्योंकि इस विधा में कम से कम शब्दों के माध्यम से एक बड़े घटनाक्रम को समझने में मदद मिलती है। उन्होंने कहा कि देश-विदेश के 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं और 10 सारगर्भित आलेखों को समेटे सरस्वती सुमन के इस अंक का सुदूर अंडमान से संपादन आपने आप में एक गौरवमयी उपलब्धि मानी जानी चाहिए.

युवा साहित्यकार एवं निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में लघुकथाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के इस दौर में साहित्य को संवेदना के उच्च स्तर को जीवन्त रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने आप में समेटकर देखना चाहिए एवं साहित्यकार के सत्य और समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिये। श्री यादव ने समाज के साथ-साथ साहित्य पर भी संकट की चर्चा की और कहा कि संवेदनात्मक सहजता व अनुभवीय आत्मीयता की बजाय साहित्य जटिल उपमानों और रूपकों में उलझा जा रहा है, ऐसे में इस ओर सभी को विचार करने की जरुरत है.

संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर ने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में समग्रता के स्थान पर सीमित सोच के कारण उन विषयों पर लेखन होने लगा है जिनका सामाजिक उत्थान और जन कल्याण से कोई सरोकार नहीं है । केंद्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान के निदेशक डा. आर. सी. श्रीवास्तव ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज बड़े पैमाने पर लेखन हो रहा है लेकिन रचनाकारों के सामने प्रकाशन और पुस्तकों के वितरण की समस्या आज भी मौजूद है । उन्होंने समाज में नैतिकता और मूल्यों के संर्वधन में साहित्य के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला । डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय ने अंडमान के सन्दर्भ में भाषाओँ और साहित्य की चर्चा करते हुए कहा कि यहाँ हिंदी का एक दूसरा ही रूप उभर कर सामने आया है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य का एक विज्ञान है और यही उसे दृढ़ता भी देता है.

अंडमान से प्रकाशित एकमात्र साहित्यिक पत्रिका 'द्वीप लहरी' के संपादक डा. व्यास मणि त्रिपाठी ने ने साहित्य में उभरते दलित विमर्श, नारी विमर्श, विकलांग विमर्श को केन्द्रीय विमर्श से जोड़कर चर्चा की और बदलते दौर में इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया. उन्होंने साहित्य पर हावी होते बाजारवाद की भी चर्चा की और कहा कि कला व साहित्य को बढ़ावा देने के लिए लोगों को आगे आना होगा। पूर्व प्राचार्य डा. संत प्रसाद राय ने कहा कि कहा कि समाज और साहित्य एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से यदि किसी एक पर भी संकट आता है, तो दूसरा उससे अछूता नहीं रह सकता।

कार्यक्रम के अंत में अपने अध्यक्षीय संबोधन में ‘‘सरस्वती सुमन’’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक आनंद सुमन सिंह ने पत्रिका के लघु कथा विशेषांक के सुन्दर संपादन के लिए श्री कृष्ण कुमार यादव को बधाई देते हुए कहा कि कभी 'काला-पानी' कहे जानी वाली यह धरती क्रन्तिकारी साहित्य को अपने में समेटे हुए है, ऐसे में 'सरस्वती सुमन' पत्रिका भविष्य में अंडमान-निकोबार पर एक विशेषांक केन्द्रित कर उसमें एक आहुति देने का प्रयास करेगी. उन्होंने कहा कि सुदूर विगत समय में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम घटनाएं घटी हैं और साहित्य इनसे अछूता नहीं रह सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोगों में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अनुराग बढ़ रहा है, वह चिन्ताजनक है एवं इस स्तर पर साहित्य को प्रभावी भूमिका का निर्वहन करना होगा। उन्होंने रचनाकरों से अपील की कि वे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य समाज के निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका निभाएं। इस अवसर पर डा. सिंह ने द्वीप समूह में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए और स्व. सरस्वती सिंह की स्मृति में पुस्तकालय खोलने हेतु अपनी ओर से हर संभव सहयोग देने का आश्वासन दिया।

कार्यक्रम के आरंभ में संस्था के संस्थापक महासचिव दुर्ग विजय सिंह दीप ने अतिथियों और उपस्थिति का स्वागत करते हुए आज के दौर में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन पर चिंता व्यक्त की । कार्यक्रम का संचालन संस्था के उपाध्यक्ष अशोक कुमार सिंह ने किया और संस्था की निगरानी समिति के सदस्य आई.ए. खान ने धन्यवाद ज्ञापन किया। इस अवसर पर विभिन्न द्वीपों से आये तमाम साहित्यकार, पत्रकार व बुद्धिजीवी उपस्थित थे.

बाजारवाद और साहित्य पर संगोष्ठी संपन्न हुई

श्रीडूंगरगढ़. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के स्वर्ण जयंती वर्ष के अंतर्गत आयोजन श्रृंखला में 'बाजारवाद और समकालीन साहित्य' विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया. राजस्थान साहित्य अकादमी के सहयोग से आयोजित इस संगोष्ठी के मुख्य वक्ता युवा आलोचक और बनास के सम्पादक पल्लव ने विषय पर दो व्याख्यान दिए. दिल्ली के हिन्दू कालेज में अध्यापन कर रहे पल्लव ने अपने पहले व्याख्यान में बाज़ार,बाजारवाद ,भूमंडलीकरण और पूंजीवाद की विस्तार से चर्चा करते हुए इनके अंतर्संबंधों पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि साहित्य अपने स्वभाव से ही व्यवस्था का विरोधी होता है और आधुनिक हिन्दी साहित्य का विकास उपनिवेशवाद और पूंजीवाद से लड़ते हुए हुआ है. प्रेमचंद के प्रसिद्द लेख 'महाजनी सभ्यता' का उल्लेख करते हुए उन्होंने समकालीन कथा साहित्य में बाजारवाद से प्रतिरोध के उदाहरण दिए. रघुनन्दन त्रिवेदी की कहानी'गुड्डू बाबू की सेल', महेश कटारे की 'इकाई,दहाई...',अरुण कुमार असफल की'पांच का सिक्का',उमाशंकर चौधरी की 'अयोध्या बाबू सनक गए हैं' तथा गीत चतुर्वेदी की 'सावंत आंटी की लड़कियाँ' की विशेष चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि साहित्य जरूरत और लालसा के अंतर की बारीकियां समझाकर पाठक को विवेकवान बनाता है. पल्लव ने कहा कि एकल ध्रुवीय विश्व व्यस्था और संचार क्रान्ति ने बाजारवाद को बहुत बढ़ावा दिया है,जिससे मनुष्यता के लिए नए संकट उपस्थित हो गए हैं.

अपने दूसरे व्याख्यान में पल्लव ने उपन्यासों के सन्दर्भ में बाजारवाद की चर्चा में कहा कि उपन्यास एक बड़ी रचनाशीलता है जो प्रतिसंसार की रचना करने में समर्थ है. हिदी के लिए यह विधा अपेक्षाकृत नयी होने पर भी बाजारवाद के प्रसंग में इसने कुछ बेहद शक्तिशाली रचनाएं दी हैं. उन्होंने काशीनाथ सिंह के चर्चित उपन्यास 'काशी का अस्सी' को इस सम्बन्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण कृति बताया. उन्होंने कहा कि यह उपन्यास भारतीय संस्कृति पर बाजारवाद के हमले और इससे प्रतिरोध कर रहे सामान्य लोगों के जीवन का सुन्दर चित्रण करता है. उपन्यास के एक रोचक प्रसंग का पाठ कर उन्होंने बताया कि साम्प्रदायिकता किस तरह बाजारवादी व्यवस्था की सहयोगी हो जाती है और जातिवाद, राजनीति उसकी अनुचर,यह उपन्यास सब बताता है. वस्तु मोह के कारण संबंधों में हो रहे विचलन को दर्शाने के लिए कथाकार स्वयंप्रकाश के उपन्यास 'ईंधन' को यादगार बताते हुए कहा कि इस कृति में लेखक ने भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया के साथ साथ अपने पात्रों का जीवन चित्रित किया है,जो ना केवल इसे विश्वसनीयता देता है अपितु उदारीकरण के कारण आ रहे नकारात्मक मूल्यों की पड़ताल भी करता है. ममता कालिया के 'दौड़' और प्रदीप सौरभ के 'मुन्नी मोबाइल' को भी पल्लव ने इस प्रसंग में उल्लेखनीय बताया.
इससे पहले कवि-आलोचक चेतन स्वामी ने विषय प्रवर्तन किया तथा मुख्य अथिति चुरू से आये साहित्यकार डॉ. भंवर सिंह सामोर ने लोक के सन्दर्भ में उक्त विषय की चर्चा की.
अध्यक्षता कर रहे सुविख्यात कथाकार मालचंद तिवाड़ी ने कहा कि बाजारवाद ने जीवन में भय की ऐसी नयी उद्भावना की है जिसके कारण कोई भी निश्चिन्त नहीं है. तिवाड़ी ने कहा कि समकालीन रचनाशीलता ने प्रतिगामी विचारों से सदैव संघर्ष किया है जिसका उदाहरण कहानियों व कविताओं में बहुधा मिलता है. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के अध्यक्ष श्याम महर्षि ने समिति के स्वर्ण जयंती वर्ष के आयोजनों की जानकारी दी. संयोजन कर रहे कवि सत्यदीप ने आभार व्यक्त किया. आयोजन में नगर के साहित्य प्रेमियों व युवा विद्यार्थियों ने भागीदारी की.

Saturday, July 2, 2011

फ़ज़ल इमाम मल्लिक को राजीव गांधी एक्सिलेंस अवार्ड

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रीय हिंदी समाचार पत्रिका ‘सीमापुरी टाइम्स’ ने युवा साहित्यकार, स्तंभकार और पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्लिक को साहित्य व पत्रकारिता के क्षेत्र में उलेखनीय योगदान के लिए ‘राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड-२०११’ से नवाजा। सम्मान दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में आयोजित समारोह में केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने दिया। सम्मान के तौर पर उन्हें एक स्मृति चिन्ह और सनद दिया गया। इस मौके पर कांग्रेस सांसद अनु टंडन भी मौजूद थीं।

बिहार के शेख़पुरा जिले के चेवारा के निवासी फ़ज़ल इमाम मल्लिक दिल्ली से प्रकाशित हिंदी दैनिक ‘जनसत्ता’ से जुड़े हैं। उन्होंने साहित्यिक पत्रिका ‘सनद’ और ‘ऋंखला’ का संपादन भी किया। इसके अलावा काव्य संग्रह ‘नवपलव’ और लघुकथा संग्रह ‘मुखौटों से परे’ का संपादन भी कर चुके हैं। दूरदर्शन के उर्दू चैनल से उन पर एक ख़ास कार्यक्रम ‘सिपाही सहाफत के’ प्रसारित भी हुआ है। इससे पहले पिछले हफ्ते उन्हें दिल्ली में ही आयोजित एक समारोह में रोशनी दर्शन पत्रिका ने दस साल पूरे करने के मौके पर उन्हें ‘चित्रगुप्त सम्मान’ से नवाज चुकी है। साल पूरे करने के मौके पर उन्हें ‘चित्रगुप्त सम्मान’ से नवाज चुकी है।
बतौर खेल पत्रकार जनसत्ता से जुड़े फ़ज़ल इमाम मल्लिक ने क्रिकेट और हाकी के मैचों को तो कवर किया साथ ही दूसरे खेलों के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों को भी कवर किया है। दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क के लिए फुटबाल, टेनिस, एथलेटिक्स, बास्केटबाल और फुटबाल के मैचों में बतौर कमेंटेटर भी मैचों का आंखो देखा हाल भी बयान किया है। राष्ट्रीय सहारा के उर्दू चैनल में बतौर खेल विशेषज्ञ भी जुड़े रहे हैं।

हेमंत फाउंडेशन द्वारा स्थापित हिन्दी उर्दू मंच का उद्धघाटन हुआ


हेमंत फाउंडेशन तथा उर्दू मरकज़ द्वारा स्थापित हिन्दी उर्दू मंच का उद्घाटन समारोह २५ जून संध्या ६ बजे उर्दू मरकज़ सभागार मे सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम का आरंभ अतिथियों का पुष्पगुच्छ सहित स्वागत सम्मान से हुआ। मंच की अध्यक्ष चर्चित लेखिका संतोष श्रीवास्तव ने इन खूबसूरत पंक्तियों से मंच के उद्देश्यों पर प्रकाश डाला- 'हिन्दी की एक बहन कि जो उर्दू ज़बान है/ वो इफ्तखारे कौम है भारत की शान है/ हिन्दी ने एकता के गुंचे खिलाए है/ उर्दू बहारे गुलशने हिन्दुस्तान है। उन्होंने कहा कि यह मंच दोनों भाषाओं की साहित्यिक एकता के लिये स्थापित किया गया है। आज का दिन साहित्य जगत की तारीख में दर्ज होगा। हम समय समय पर मुशायरा कवि सम्मेलन, सेमिनार, वर्कशाप आयोजित करेंगे साथ ही दोनों भाषाओं के साहित्यकारों की पुस्तकों का हिन्दी उर्दू में अनुवाद भी करायेंगे ताकि हम एक दूसरे के करीब आ सकें। संतोष जी ने अपनी गज़ल 'जिस्म से जान तक तू ही समाया लगता है' सुनाकर श्रोताओं का मन मुग्ध कर लिया।

कार्यक्रम के अध्यक्ष डा. अब्दुल सत्तार दलवी ने कहा कि हेमंत फाउंडेशन तथा उर्दू मरकज़ ने हिन्दी उर्दू मंच की स्थापना कर प्रशंसनीय कार्य किया है। हिन्दुस्तान के माहौल के लिए यह ज़रूरी था। इससे दोनों ज़बानों के साहित्यकारों की हौसला अफ़जाई होगी, उनके ज़ज्बे की कद्र होगी।

उर्दू मरकज़ के अध्यक्ष जुबैर आज़मी ने कहा कि एक जमाना था कि जब छोटी-छोटी महफिलें यहां जुटा करतीं थीं जिसमें हिन्दी उर्दू की नामी हस्तियां कैफ़ी आज़मी, मज़रुह सुल्तानपुरी, कमलेश्वर, नारायण सुर्वे आदि शिरकत करते थे। आज उसी रिवायत को हम आगे बढ़ा रहे हैं और दूर तलक जाने का ज़ज्बा रखते हैं।

इस काव्य गज़ल संध्या में उर्दू के शायर रियाज़ मुन्सिफ़, वकार आज़मी, रेखा रोशनी, शादाब सिद्दीकी, फारुक आशना, सैयद रियाज़, जमील मुर्सापुरी, सोहेल अख्तर, जुबैर आज़मी,रफ़ीक जाफ़र, अब्दुल अहद साज़ ने अपनी गज़लें पढ़ीं वहीं मंच की कार्याध्यक्ष तथा शायरा सुमीता केशवा ने 'हद में रहने की बात करते हो' सुना कर वाह-वाही पाई। उर्दू के वरिष्ठ शायर दाऊद कश्मीरी ने रवीन्द्र नाथ टैगोर के शेर बांग्ला भाषा में सुनाये। हरि मृदुल, कैलाश सेंगर,आलोक भट्टाचार्य, शिल्पा सोनटक्के और अनीता रवि ने अपनी कविताओं से समा बांध दिया। इस मंच के लिए महाराष्ट्र साहित्य अकादमी तथा लाहौर से फैज़ अहमद फैज़ की बेटी मुनीज़ा हाशमी ने बधाई संदेश भेजा। कार्यक्रम का संचालन आलोक भट्टाचार्य तथा आभार जुबैर आज़मी ने किया।

Friday, July 1, 2011

रंग महोत्सव 2011 30 जून से 3 जुलाई के मध्य आयोजित होगा

30 जून 2011 से 3 जुलाई 2011 के बीच 'द फिल्म एंड थिएटर सोसाइटी' नई दिल्ली के लोधी रोड में 'रंग महोत्सव' का आयोजन कर रही है। यह रंगमंच का बहुत बड़ा आयोजन है जिसमें 7 अलग-अलग कार्यक्रम निर्धारित है। कार्यक्रम का पूरा विवरण सोसाइटी की आधिकारिक वेबसाइट पर देखें।

आप इस महोत्सव के कार्यक्रमों के टिकटों की ऑनलाइन खरीद-फरोस्त भी कर सकते हैं। इसके लिए लॉगिन करें- http://www.buzzintown.com/delhi/event--rang-festival-indian-arts/id--422119.html

कार्यक्रम के फेसबुक पेज़ से जुड़ें।

hindyugm.com इस महोत्सव का ऑनलाइन मीडिया पार्टनर है।

कुछ खास तथा प्रसिद्ध नाटकों की झलकी यहाँ प्रस्तुत है।

प्रस्तुति: अर्जुन का बेटा



तिथि: ०२ जुलाई, २०११
समय: सायं ०७ बजे
स्थान: अलायेंज फ्रंकाईस, लोधी रोड, दिल्ली
टिकट: रूपए ३००, २०० एवं १००
लेखन एवं निर्देशन: अतुल सत्य कौशिक
अर्जुन का बेटा... यह नाम अपने आप में रोमांच की अनुभूति कराने वाला है..अभिमन्यु, एक लव्य, घटोत्कच महाभारत इतिहास के कुछ ऐसे पात्र हैं जिन्होंने इतिहास के अधिक पन्ने तो नहीं खर्च करवाए, परन्तु युगों युगों तक के लिए युवाओं के लिए प्रेरणा एवं रोमांच का स्त्रोत छोड़ गए.. कहने वाले कहते हैं की इस संसार में दो ही कहानियाँ हैं. रामायण और महाभारत. हम सभी कहीं न कहीं इन्हीं दो कहानियों के पात्र हैं... और विभिन्न मंचों और माध्यमों के द्वारा सुनायी जाने वाली कहानियां भी कहीं न कहीं इन्हीं दो महकथाओं से निकलती या इनसे मिलाती जुलती हैं..फिर मन में विचार आता है अगर ऐसा हो तो फिर कहने के लिए नया क्या है.. सब तो कहा जा चुका होगा अब तक.. मगर ऐसा नहीं हैं.. इन दो महागाथाओं में कुछ पात्र कहीं दबे या छुपे रह गए और उन्हीं में से एक है अर्जुन का बेटा.. अभिमन्यु..



द्रोणाचार्य गुरु द्वारा रचाए गए चक्रव्यूह में वीर अभिमन्यु मारा गया है और महाराज युधिस्ठिर भागे भागे पितामह भीष्म के पास आये हैं यह पुचने की अब अर्जुन के आने पर उसको क्या उत्तर देंगे.. क्या कहेंगे जब वो अपने पुत्र के बारे में पूछेगा.. वो पितामह को बताते हैं किस वीरता से अभिमयु लड़ा... और किस वीरता से वो लड़ाई में मरा गया... दूसरी ओर सोलह साल के अभिमन्यु की चौदह साल की पत्नी उत्तरा धरमराज युधिस्तिर ये पूछना चाहती है की अभिमन्यु आज रण से लौट के आएगा या नहीं.. पितामह अर्जुन तक ये सन्देश भिजवाते हैं की अब समय है की उठ कर प्रतिशोध लिया जाए.. और अवकाश के समय में गीता पर वाद विवाद किया जाए.. अंत में माधव ये बताते हैं की चक्रव्यूह में सिर्फ अभिमन्यु ही नहीं फंसा रह गया, अपितु हर मानुष्य चक्रव्यूह में फंसा है और फंसा रहेगा क्यूंकि चक्रव्यूह से बाहर आते ही तो जीवन मुक्ति मिल जाएगी..

दिल्ली में होना वाला रंग मंच सुविधा-प्रधान बन कर रह गया है.. परन्तु इसके विपरीत अर्जुन का बेटा चुनौती की स्वीकारता है.. यह नाटक कविता शैली में खेला गया है और इस में युध्ध के दृश्यों का मंचन रौंगटे खड़े कर देने वाला है.. इस में मुख्य भूमिका निभा रहे सत्येंदर मलिक जो की पंजाब युनिवेर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ़ थियेटर से रंग विद्या की पढाई भी कर रहे हैं कहते हैं "इस तरह का कोई प्रयोग अंतिम बार धरमवीर भारती जी के अँधा युग में देखा गया था.. यह नाटक वापस वही लहर लेकर आएगा".. आशा है यह नाटक दिल्ली के दर्शकों को एक बार फिर याद दिलाएगा की भारतीय साहित्य कितना सशक्त है कैसे एक अच्छी लेखनी और सटीक निर्देशन किसी भी तरह के नाटक को लोकप्रिय बना कर प्रस्तुत कर सकती है..



प्रस्तुति : कूबड़ और काकी

तिथि : ०३ जुलाई, २०११
समय : सायं ०७ बजे
स्थान : अलायेंज फ्रंकाईस, लोदिही रोड, दिल्ली
टिकट : रूपए ३००, २०० एवं १००
लेखन एवं निर्देशन : अतुल सत्य कौशिक
भारतीय साहित्य की कल्पना एक ऐसे वृक्ष के रूप में की जा सकती है जिस ने उपन्यास, नाटक, कविता, महाकाव्य इत्यादि के रूप में अपनी शाखाएं चहुँ ओर फैला रखी हैं. लघु कथाएँ भी इसी वृक्ष एक शाखा हैं जिनकी पहुँच यदि बाकी शाखाओं से अधिक नहीं तो उन से कम भी नहीं है. इस वृक्ष को अपनी कृतियों से सींचने और लघु कथाओं की शाखा को और अधिक विस्तृत करने में मुंशी प्रेमचंद औ धरमवीर भारती का योगदान सदा ही उल्लेखनीय रहेगा. ये दोनों ही लेखक सदा ही ऐसे लघु कथाएँ लिखने में सफल रहे जिनमे पाठक को अपने जीवन से जुड़े प्रश्न भी दिखे और कहीं न कहीं उन के अर्थ भी मिले. फिल्म्स एंड थिएटर सोसायटी ने इन दो महान लेखको की दो लघु कथाओं को एक साथ एक ही मंच पर प्रस्तुत कर एक नए नाटक, कूबर और काकी का सृजन करने का उल्लेखनीय कार्य किया है.

भारत सदा से ही गाँवों का देश रहा है और फिल्म्स एंड थियेटर सोसायटी का यह नाटक "कूबड़ और काकी" भी गाँवों में बस रहे उस भारत के दर्शन करवाता है. यधपि नाटक की कथावस्तु दो पत्रों, बूढी काकी और गुलकी, के इर्द गिर्द घुमती है परन्तु यह नाटक भिन्न भिन्न प्रकार के, अनेको रंग लिए कई पत्र लाकर खड़ा कर देता है जिन में हमें समाज का वह रूप देखने को मिलता है जो सदा से ही ऐसा है. यह नाटक एक ओर तो उस बूढी काकी की कहानी सुनाता है जिस के जीवन में जिह्वा स्वाद के अतिरिक्त कोई और स्वाद नहीं बचा था तो दूसरी ओर उस कुबड़ी गुलकी की कहानी भी सुनाता है जिसके पति ने लात मर कर उसको घर से बहार निकाल दिया और वह अपने गाँव में दरिद्रता पूर्ण जीवन जी रही है. इन दो प्रमुख पत्रों के इर्द गिर्द यह नाटक चतुर रूपा, सदा चिल्लाने वाली घेघा बुआ, साबुन बेचने वाली और समाज से सदा लड़ने को आतुर सत्ती, कोढ़ी मिरवा, समाज सेविका बहन जी, नीच भूप्देव जैसे कई अन्य पात्रों से भी मिलवाता है. दिल्ली के रंगमंच में अपना सिक्का जमा चुके पारुल सचदेवा, नेहा पण्डे, अंकुर आहूजा और आशिमा प्रकाश सरीखे कलाकार अपने अदभुत अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देता है.

इस नाटक में गाया बजाया गया लोक संगीत किसी भी सभागार में पूर्ण रूप से ग्रामीण वातावरण पैदा कर देता है. नाटक के लेखक और निर्देशक अतुल सत्य कौशिक द्वारा लिखे गए और ब्रम्ह्नाद द्वारा गए और बजाये गए गीत अत्यंत कर्णप्रिय हैं. इसके साथ ही यह नाटक लोक नृत्य की कुछ मोहक झलकियाँ दिखाता भी है.