संवाददाता आनन्दम् की 8वीं मासिक गोष्ठी शिवा एन्क्लेव पश्चिम विहार में जगदीश रावतानी के निवास पर होली-मिलन के रूप में संपन्न हुई। गोष्ठी की अध्यक्षता वरिष्ठ शायर मुनव्वर सरहदी ने की। इस बार गोष्ठी का आरंभ
“हिन्दी-उर्दू ग़ज़ल और उरूज़” पर एक सार्थक बहस से हुआ। इस दौर में
मुनव्वर सरहदी, दरवेश भारती और
दर्द देहलवी ने अपने-अपने विचार रखे और श्रोताओं की जिज्ञासाओं के जवाब दिए। जहाँ दरवेश भारती ने उरूज की नियमावली को लाज़मी बताया वहीं
मुनव्वर साहब इस बात से इत्तफाक़ न रखते हुए ज़ोर दे रहे थे कि
अहंग(तरन्नुम) में जो बात सहज रूप में आ जाए उसी को आधार मान कर ग़ज़ल कहनी चाहिए। भूपेन्द्र कुमार के एक प्रश्न के उत्तर में भारती जी का कहना था कि फारसी की स्वीकृत बहरों के अलावा रुक्न को ध्यान में रखते हुए नई बहर भी ईजाद की जा सकती है। मगर देहलवी जी का मानना यह था कि अदब इस बात की इजाज़त नहीं देता कि हम किसी नई बहर में ग़ज़ल कहें। बहरहाल चर्चा विरोधाभासी व रोचक होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी रही।
गोष्ठी के काव्य चक्र की शुरूआत
क़ैसर अज़ीज़ ने अपनी ग़ज़लों से की –
मिटा दे जो नफरत की तारीकियाँ वो
चिराग़े मुहब्बत जलाने दो हमको
ये ज़ातों के पहरे ये धर्मों का बन्धन
ये दीवार सारी गिराने दो हमको
भूपेन्द्र कुमार ने होली के अवसर पर एक बृज लोक गीत प्रस्तुत किया–
होरी खेलत नेता भैया
पाँच बरस में एक बेर ही आवे होली संसद की
तरस गए नेता मोरे भैया, करें कब ताता थैया
साहिबे ख़ाना
जगदीश रावतानी ने अपनी ताज़ा रचनाओं से ख़ूब वाहवाही बटोरी। होली पर उनकी नज़म कुछ यूँ थी–
भीगे तन मन और चोली, हिन्दू मुस्लिम सब की होली
तू भी रंग जा ऐसे जैसे, मीरा थी कान्हा की हो ली।
डॉ अहमद अली बर्क़ी ने होली के रंग को ऐसे बयाँ किया-
भर दे होली ज़िन्दगी में आपकी खुशियों के रंग
आपके इस रंग में पड़ने न पाए कोई भंग
आजकल के हालात पर तंज़ करते हुए
प्रेमचंद सहजवाला ने अपने सधे हुए अंदाज़ में कहा-
चल पड़ा है इस मुल्क में भी तालिबानी सिलसिला
कर रहे हैं क़ैद साँसों को हया के नाम पर
दर्द देहलवी ने अपने दर्द को कुछ यूँ व्यक्त किया-
लब खोलकर भी कुछ नहीं कह पाई ज़िन्दगी
ख़ामोश रह कर मौत ने सब कुछ कह दिया
“ग़ज़ल के बहाने” नामक पुस्तक शृंखला के लेखक
दरवेश भारती ने नए तेवर की ग़ज़ल कुछ यूँ कही-
ये बनाते हैं कभी रंक कभी राजा तुम्हें
ख्वाब तो ख़्वाब हैं ख़्वाबों पे भरोसा न करो
प्यार कर लो किसी लाचार से बेबस से फकत
चाहे पूजा किसी पत्थर की करो या न करो
इस गोष्ठी के अध्यक्ष
मुनव्वर सरहदी ने होली और हास्य व्यंगय के रस से महफिल को सराबोर कर दिया-
बाप बनना भी कोई मुश्किल है, गोद ले लो किसी का जाया हो
हमको रखना है दाद से मतलब, शेर अपना हो या पराया हो
गोष्ठी का संचालन
नमिता राकेश ने बेहद हसीन और रोचक अंदाज़ में किया।
अंत में सभी ने एक दूसरे को गुलाल लगा तथा गले मिलकर होली की शुभकामनाएँ दीं। होली के रंग में सराबोर होकर हँसी के ठहाकों और मिष्ठान्न तथा चायपान के साथ गोष्ठी संपन्न हुई। आनन्दम के सचिव जगदीश रावतानी ने सभी आगन्तुकों का तहेदिल से धन्यवाद किया।
कुछ और उल्लेखनीय शेर/काव्यांश भी देखें-
मुनव्वर सरहदी-होनी रंगों का तमाशा ही नहीं, इसके दिल में प्यार भी भरपूर है
है कोई दुश्मन तो लग जाए गले, ये मेरे त्यौहार का दस्तूर है
यार ने तेरे आना है तू होली खेल, सब कुछ खोकर पाना है तू होली खेल
मल दे गहरा रंग तू उसके चेहरे पर, रूठा यार मनाना है तो होली खेल
डॉ. दीपांकर गुप्त-महकें मेरे गाँव में, कई रंग के फूल
पर पथरीले शहर में, उगें सिर्फ बबूल
सोती ही रही हो तो भले लाचार रही हो
जाग जाए तो शक्ति का अवतार है नारी
जगदीश रावतानी-परिन्दे तो बनाते हैं बहुत से घर
हमें लगती है उम्र इक घर बनाने में
संभल कर चल कि इज़्ज़त पल में लुटती है
जिसे सालों लगेंगे फिर बनाने में
भूपेन्द्र कुमार-दासी जिसकी होने को कविता को अभिलाषा वह कबीर है
चलती हो जिसके आगे घुटवन-घुटवन भाषा वह कबीर है
नमिता राकेश-आज क्या सोच के पलकों पे आँसू
घर की चौखट पे कोई मुसाफिर ठहरा तो नहीं
देखो मुझ पे रंग मत डालो
इन गालों पर तो पहले ही लाली है शर्मो हया की
वीरेन्द्र कमर-जिस तरफ नज़रे इनायत आपकी हो जाएगी
तीरगी दम तोड़ देगी रोशनी हो जाएगी
आप लाएँ तो सही उर्दू ज़बाँ गुफ्तार में
सामने दुश्मन भी सही तो दोस्ती हो जाएगी
साक्षात भसीन-कोई कवि तो कोई शायर है और है कोई कवि गवैया
रसीली महफिल है आनन्दम् की जमा यहाँ छोटे-बड़े सब रसैया
डॉ. मनमोहन तालिब-तू है मेरी निगाह में खिला हुआ गुलाब
तेरा वजूद ख़ुशबू तेरा हुस्न लाजवाब
तबस्सुम आँसुओं में ढल गया है
ख़ुशी ग़म से कितना फ़ासला है
दो आँसू ग़ैर के दुख पर बहुत हैं
मदद इंसान की नज़रे ख़ुदा है।