Friday, April 24, 2009

औपनिवेशिक साहित्य भारतीय मनीषा का साहित्य नहीं है- चित्रा मुद्गल

कोच्चि विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में राष्ट्रीय संगोष्ठी

तमाम भौगोलिक विविधता के बावजूद भारतीयता का भाव प्रकृति से मिलता है, जो बच्चों के मन में गहरे पैठता है। ये कहना है प्रख्यात कथा लेखिका चित्रा मुद्गल का। वह कोच्चि विज्ञान एवं प्राद्यौगिकी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में यू.जी.सी. के डी.आर.सी. प्रोजेक्ट के तहत द्विदिवसीय (24-25 मार्च, 2009) राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्‍घाटन कर रही थीं, जिसका विषय था ‘भारतीयता और समकालीन हिन्दी कथा साहित्य।’ हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ एन. मोहनन की अध्यक्षता में आरंभ हुई संगोष्ठी का उद्घाटन करती हुई चित्रा मुद्गल ने कहा कि औपनिवेशिक साहित्य भारतीय मनीषा का साहित्य नहीं है, बल्कि औपनिवेशिक मानसिकता ने ही मिट्टी-पानी डालकर उसे सींचा है। लगभग दो घंटे तक दिए अपने धाराप्रवाह बीज भाषण के बीच श्रीमती मुद्गल ने कहा कि समाज जितना कठिन होगा, उसका जीवन और साहित्य भी उतना ही जटिल होगा। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस देश का बौद्धत्व, महावीरत्व, शंकराचार्यत्व, इस्लामत्व, ईसाइत्व आदि सब का सब केवल इस देश की मिट्टी-पानी में सना-पगा है और हमारी भारतीयता का हिस्सा है।

उद्‍घाटन सत्र में अतिथियों का स्वागत संगोष्ठी की संयोजक डॉ के. वनजा ने किया, जबकि डॉ पी.ए.शमीम अलियार एवं डॉ एन.मोहनन द्वारा चित्रा मुद्गल को शॉल एवं स्मृतिचिह्न प्रदान कर उनका सम्मान किया। इस अवसर पर प्रसिद्ध कवि-समालोचक एवं ‘नई धरा’ के संपादक डॉ शिवनारायण ने विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका ‘अनुशीलन’ के ‘दिनकर विशेषांक’ का लोकार्पण किया, जबकि ‘अनुशीलन’ के ‘महादेवी वर्मा विशेषांक’ का लोकार्पण कथाकार डॉ॰ कलानाथ मिश्र को समर्पित करते हुए चित्रा मुद्गल ने किया।

दूसरे सत्र में मुख्य वक्ता के रुप में ‘नई धरा’ के संपादक डॉ॰ शिवनारायण ने ‘समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में भारतीयता’ विषयक भाषण करते हुए कहा कि समकालीन कथा साहित्य में भारत का भौगोलिक रुप उसका मृण्मयी रुप है, जबकि उसका आध्यात्मिक-सामाजिक रुप ही उसका चिण्मयी रुप है। आत्मवादी रुप बहुत महत्वपूर्ण होता है, जिस कारण मनुष्य के इस जनसंघर्षी रुप की अभिव्यक्ति हिन्दी कहानियों में हुई है। डॉ शिवनारायण ने चित्रा मुद्गल सहित नासिरा शर्मा, कमल कुमार, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, उदय प्रकाश, शरद सिंह, वीरेन्द्र जैन, दूध्नाथ सिंह, मधुकर सिंह, कमलेश्वर, काशीनाथ सिंह आदि की कहानियों की विशद चर्चा करते हुए कहा कि पीड़ा की तपस्या की तरह जीने से ही दृष्टि को विस्तार मिलता है या कि अंदर का नर्क जितना बड़ा होगा, उतना ही बड़ा स्वर्ग बाहर रचा जाएगा।

चित्रा मुद्गल की अध्यक्षता में सम्पन्न इसी सत्र में डॉ॰ शशिधर (बंगलूरू) और डॉ वेलायुध्न (कालड़ी) ने भी अपने-अपने पत्र प्रस्तुत करते हुए कथा साहित्य में भारतीयता की चेतना को पुष्ट किया। अंत में चित्रा मुद्गल ने डॉ शिवनाराण के विद्वतापूर्ण व्याख्यान की प्रशंसा करते हुए कहा कि भारतीय पारिवारिक सम्बन्धें एवं परिकल्पनाओं में भारतीयता का महान रुप निहित है। उन्होंने आत्मचिंतन पर बल देते हुए सेवा, त्याग, भाईचारा, विश्वास जैसे मूल्यों को बरकरार रखने की बात कही।

25 मार्च को संगोष्ठी का तीसरा सत्रा डॉ शिवनारायण की अध्यक्षता में आरंभ हुआ, जिसमें मुख्य वक्ता के रुप में चर्चित कथाकार डॉ॰ कलानाथ मिश्र ने कहा कि आधुनिकता के भीतर भी अपने संस्कारों को जीवित रखना चाहिए, जिससे भारतीयता अपने चैतन्य रुप में परिपुष्ट रहेगा। उन्होंने कहा कि आज अधिकतर सम्बन्ध जिये नहीं जा रहे ढोये जाते हैं, लेकिन हमारे ढोने और पश्चिम के ढोने में जो अंतर है, उसे उघारने का प्रयास समकालीन कहानियों में चित्रित हुआ है। अपनी सांस्कृतिक मूल्यों में हुए परिवर्तन को चित्रित करते हुए भी उसके प्रति एक आग्रह का भाव भी समकालीन कथा साहित्य में है। इस क्रम में डॉं॰ मिश्र ने कई महत्वपूर्ण समकालीन कहानियों की चर्चा की। इस अवसर पर पंजाब विश्वविद्यालय के डॉ॰ बैजनाथ प्रसाद ने शिवप्रसाद सिंह के उपन्यास ‘वैश्वानर’ के विशेष संदर्भ में भारतीयता को उद्‍घाटित किया, जबकि डॉ॰ सुमा ने महिला कथा लेखिकाओं के उपन्यासों में भारतीयता को प्रस्तुत किया। डॉ॰ अनीता ने समकालीन आंचलिक उपन्यासों में भारतीयता पर प्रकाश डालते हुए अंचलों में भारतीयता के जीवंत होने का
मिशाल पेश किया।

इस सत्र के अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ॰ शिवनारायण ने कहा कि भारतीयता को समय सापेक्ष मूल्यों के संदर्भ में विश्लेषित करते हुए उसके उदान्त सौन्दर्य की परख होनी चाहिए, तभी उसकी चेतना का विकास दिखाई पड़ेगा। इसके साथ ही उन्होंने साधुमत की अभिव्यक्ति के संरक्षण को ही साहित्य का मूल धर्म बताया और साहित्य को उसके चैतन्य रुप में समझने की हिदायत दी, न कि उसके स्थूल रुप में।
अंतिम सत्र डॉ॰ कलानाथ मिश्र की अध्यक्षता में आरंभ हुआ, जिसमें डॉ॰ रामप्रकाश, डॉ॰ जयकृष्णन्, सुश्री शीना, सुश्री टेरेसा आदि ने अपने शोध प्रपत्र प्रस्तुत किए।
कोच्चि विज्ञान एवं प्राद्यौगिकी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में पहली बार प्रो॰ एन. मोहनन एवं डॉ॰ के. वनजा के प्रयास से सम्पन्न इस राष्ट्रीय संगोष्ठी को सपफल बनाने में सभी विभागीय शिक्षकों एवं छात्रा-छात्राओं के साथ-साथ स्थानीय कॉलेजों के हिन्दी शिक्षकों ने भी भारी संख्या में अपनी सक्रिय उपस्थिति से सहयोग किया।

प्रस्तुतिः
डा0 शशिधरण
(रीडर हिन्दी विभाग)
कोच्चि विश्वविद्यालय, कोच्चि (केरल)

Thursday, April 23, 2009

डॉ॰ अजित गुप्ता के नवीनतम उपन्यास 'अरण्य में सूरज' का लोकार्पण


20 अप्रैल 2009 को भोपाल में उदयपुर की लेखिका डॉ॰ अजित गुप्ता के नवीनतम उपन्यास 'अरण्य का सूरज' का लोकार्पण हुआ। लोकार्पण समारोह में मध्‍यप्रदेश साहित्‍य अकादमी के निदेशक डॉ. देवेन्‍द्र दीपक, प्रसिद्ध व्‍यंग्‍यकार एवं कवि माणिक वर्मा, गीतकार दिनेश प्रभात सहित बड़ी संख्‍या में भोपाल के साहित्‍यकार उपस्थित थे।

यह उपन्‍यास राजस्‍थान में मेवाड़ क्षेत्र की जनजातियों पर आधारित है। ग्‍यारहवीं शताब्‍दी तक राजा रहे जनजाति समाज के अपने कानून थे और आज भी हैं। उसी के अन्‍तर्गत 'मौताणा' प्रथा का जन्‍म हुआ और आज विकृत रूप में उसी समाज का अहित कर रही है। इस समस्‍या पर आजतक किसी लेखक की कलम नहीं चली, डॉ॰ अजित गुप्ता ने मौताणे सहित बाल मजदूरी और बालविवाह की समस्‍याओं को भी प्रमुखता से उठाया है। यह पुस्तक दिल्ली के सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है।

डॉ॰ अजित बहुत लम्बे अर्से से लेखन में सक्रिय हैं। शब्‍द जो मकरंद बने, सांझ्‍ा की झंकार (कविता संग्रह), अहम् से वयम् तक (निबन्‍ध संग्रह), सैलाबी तटबन्‍ध (उपन्‍यास), अरण्‍य में सूरज (उपन्‍यास), हम गुलेलची (व्‍यंग्‍य संग्रह), बौर तो आए (निबन्‍ध संग्रह), सोने का पिंजर (अमेरिका-यात्रा का संस्मरण) इत्यादि इनकी प्रकाशित पुस्तकें हैं।

गौरतलब है कि हिन्द-युग्म डॉट कॉम के बैठक मंच पर इनके यात्रा-संस्मरण 'सोने का पिंजर' को धारावाहिक रूप में प्रकाशित किया जा रहा है।

Tuesday, April 21, 2009

22 कवियों की उपस्थिति में आनंदम की नौवीं गोष्ठी सम्पन्न


हर महीने के दूसरे रविवार को दिल्ली का पश्चिम-विहार इलाका कवियों की शब्दताल पर थिरकता है। अवसर होता है आनंदम संस्था की मासिक काव्य-गोष्ठी का। यह गोष्ठी विगत् 9 महीनों से आयोजित हो रही है। दिल्ली के आसापास और कई बार काफी दूर के कवि भी इस कविता-पूजन के लिए जमा होते हैं। कुछ अपनी सुनाते हैं और कुछ औरों की सुनते हैं। नौवीं आनंदम काव्य गोष्ठी 12 अप्रैल 2009 को संस्था-प्रमुख जगदीश रावतानी के निवास स्थान पर संपन हुई । इसमे अनुराधा शर्मा, संजीव कुमार, साक्षात भसीन, मुनव्वर सरहदी, दरवेश भरती, मनमोहन तालिब, ज़र्फ़ देहलवी, डॉ॰ विजय कुमार, शिलेंदर सक्सेना, प्रेमचंद सहजवाला, शहादत अली निजामी, दर्द देहलवी, मजाज़ साहिब, नूर्लें कौसर कासमी, रमेश सिद्धार्थ, अख्तर आज़मी, अहमद अली बर्की, दीक्षित बकौरी, डॉ शिव कुमार, अनिल मीत, इंकलाबी जी और जगदीश रावतानी जैसे नये-पुराने कवि शरीक हुए। गोष्ठी की अध्यक्षता दरवेश भरती ने की । संचालन जगदीश रावतानी ने किया।

एक सार्थक बहस भी की गयी जिसका विषय था "साहित्य की दशा और दिशा" जिसमें डॉ रमेश सिद्धार्थ, डॉ विजय कुमार, कुमारी अनुराधा शर्मा और डॉ॰ दरवेश भारती ने अपने विचार रखे।

काव्य गोष्ठी की शुरूआत से पहले ये दुखद सूचना दी गयी कि जाने-माने साहित्यकार विष्णु प्रभाकर जी का देहांत हो गया है। एक और दुखद समाचार यह था के बलदेव वंशी के जवान पुत्र का भी हाल ही में देहांत हो गया।
दो मिनट का मौन धारण कर के उनकी आत्माओं की शान्ति और परिवार के सदस्यों को सदमा बर्दाशत करने की हिम्मत के लिए प्रार्थना की गयी।

काव्य गोष्ठी में पढ़े गए कुछ कवियों के कुछ शे'र/ पंक्तियाँ प्रस्तुत है-

डॉ अहमद अली बर्की:
वह मैं हूँ जिसने की उसकी हमेशा नाज़बर्दारी
मगर मैं जब रूठा मनाने तक नही पंहुचा
लगा दी जिसकी खातिर मैंने अपनी जान की बाज़ी
वह मेरी कबर पर आँसू बहाने तक नही पहुँचा

अख्तर आज़मी:
ख़ुद गरज दुनिया है इसमें बाहुनर हो जाइए
आप अपने आप से ख़ुद बाखबर हो जाइये
जिसका साया दूसरों के द्वार के आंगन को मिले
ज़िन्दगी की धुप मैं ऐसा शजर हो जाइये

डॉ विजय कुमार:
प्यासी थी ये नज़रें तेरा दीदार हो गया
नज़रों में बस गया तू और तुझसे प्यार हो गया

डॉ दरवेश भारती:
इतनी कड़वी ज़बान न रखो
डोर रिश्तों की टूट जायेगी

जगदीश रावतानी:
जहाँ-जहाँ मैं गया इक जहाँ नज़र आया
हरेक शै में मुझे इक गुमां नज़र आया
जब आशियाना मेरा खाक हो गया जलकर
पड़ोसियों को मेरे तब धुँआ नज़र आया

मुनव्वर सरहदी:
ज़िन्दगी गुज़री है यूँ तो अपनी फर्जानों के साथ
रूह को राहत मगर मिलती है दीवानों के साथ

गोष्ठी का समापन दरवेश भरती जी के व्याख्यान और उनकी एक रचना के साथ हुआ। जगदीश रावतानी ने सबका धन्यवाद किया।

Sunday, April 19, 2009

चिटठा-लेखन तथा अंतर्जाल पत्रकारिता : द्विदिवसीय कार्यशाला

'व्यष्टि से समष्टि तक वही पहुंचे जो सर्व हितकारी हो'-- संजीव सलिल


जबलपुर, १९ अप्रैल २००९. ''चिटठा लेखन वैयक्तिक अनुभूतियों की सार्वजानिक अभिव्यक्ति का माध्यम मात्र नहीं है, यह निजता के पिंजरे में क़ैद सत्य को व्यष्टि से समष्टि तक पहुँचने का उपक्रम भी है. एक से अनेक तक वही जाने योग्य है जो 'सत्य-शिव-सुन्दर' हो, जिसे पाकर 'सत-चित-आनंद' की प्रतीति हो. हमारी दैनन्दिनी अंतर्मन की व्यथा के प्रगटीकरण के लिए उपयुक्त थी चूंकि उसमें अभिव्यक्त कथ्य और तथ्य तब तक गुप्त रहते थे जब तक लेखक चाहे किन्तु चिटठा में लिखा गया हर कथ्य तत्काल सार्वजानिक हो जाता है, इसलिए यहाँ तथ्य, भाषा, शैली तथा उससे उत्पन्न प्रभावों के प्रति सचेत रहना अनिवार्य है. अंतर्जाल ने वस्तुतः सकल विश्व को विश्वैक नीडं तथा वसुधैव कुटुम्बकम की वैदिक अवधारणा के अनुरूप 'ग्लोबल विलेज' बना दिया है. इन माध्यमों से लगी चिंगारी क्षण मात्र में महाज्वाला बन सकती है, यह विदित हो तो इनसे जुड़ने के अस्त ही एक उत्तरदायित्व का बोध होगा. जन-मन-रंजन करने के समर्थ माध्यम होने पर भी इन्हें केवल मनोविनोद तक सीमित मत मानिये. ये दोनों माध्यम जन जागरण. चेतना विस्तार, जन समर्थन, जन आन्दोलन, समस्या निवारण, वैचारिक क्रांति तथा पुनर्निर्माण के सशक्त माध्यम तथा वाहक भी हैं.''

उक्त विचार स्वामी विवेकानंद आदर्श महाविद्यालय, मदन महल, जबलपुर में आयोजित द्विदिवसीय कार्यशाला के द्वितीय दिवस प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए मुख्य वक्ता आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा ने व्यक्त किये.

विशेष वक्ता श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव 'विनम्र' ने अपने ५ वर्षों के चिटठा-लेखन के अनुभव सुनाते हुए प्रशिक्षुओं को इस विधा के विविध पहलुओं की जानकारी दी. उक्त दोनों वक्ताओं ने अंतरजाल पर स्थापित विविध पत्र-पत्रिकाओं तथा चिट्ठों का परिचय देते हुए उपस्थितों को उनके वैशिष्ट्य की जानकारी दी.

संगणक पर ई मेल आई डी बनाने, चिटठा खोलने, प्रविष्टि करने, चित्र तथा ध्वनि आदि जोड़ने के सम्बन्ध में दिव्य नर्मदा के तकनीकी प्रबंधक श्री मंवंतर वर्मा 'मनु' ने प्रायोगिक जानकारी दी. चिटठा लेखन की कला, आवश्यकता, उपादेयता, प्रभाव, तकनीक, लोकप्रियता, निर्माण विधि, सावधानियां, संभावित हानियाँ, क्षति से बचने के उपाय व् सावधानियां, सामग्री प्रस्तुतीकरण, सामग्री चयन, स्थापित मूल्यों में परिवर्तन की सम्भावना तथा अंतर्विरोधों, अश्लील व अशालीन चिटठा लेखन और विवादों आदि विविध पहलुओं पर प्रशिक्षुओं ने प्रश्न किया जिनके सम्यक समाधान विद्वान् वक्ताओं ने प्रस्तुत किये. चिटठा लेखन के आर्थिक पक्ष को जानने तथा इसे कैरिअर के रूप में अपनाने की सम्भावना के प्रति युवा छात्रों ने विशेष रूचि दिखाई.

संसथान के संचालक श्री प्रशांत कौरव ने अतिथियों का परिचय करने के साथ-साथ कार्यशाला के उद्देश्यों तथा लक्ष्यों की चर्चा करते हुए चिटठा लेखन के मनोवैज्ञानिक पहलू का उल्लेख करते हुए इसे व्यक्तित्व विकास का माध्यम निरूपित किया.

सुश्री वीणा रजक ने कार्य शाला की व्यवस्थाओं में विशेष सहयोग दिया तथा चिटठा लेखन में महिलाओं के योगदान की सम्भावना पर विचार व्यक्त करते हुए इसे वरदान निरुपित किया. द्विदिवसीय कार्य शाला का समापन डॉ. मदन पटेल द्वारा आभार तथा धन्यवाद ज्ञापन से हुआ. इस द्विदिवसीय कार्यशाला में शताधिक प्रशिक्षुओं तथा आम जनों ने चिटठा-लेखन के प्रति रूचि प्रर्दशित करते हुए मार्गदर्शन प्राप्त किया.

Thursday, April 16, 2009

झाँसी में हुआ अ. भा. राष्ट्रभाषा सम्मेलन का आयोजन

झाँसी। 09 अप्रैल, 2009 को दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'हम सब साथ साथ' द्वारा अ. भा. राष्ट्रभाषा सम्मेलन का भव्य आयोजन किया गया। सम्मेलन के दौरान राष्ट्रभाषा विचार संगोष्ठी, काव्य गोष्ठी एवं लघु पत्र-पत्रिका प्रदर्शनी व श्रीमती कुंती हरीराम की चित्र प्रदर्शनी के आयोजन के साथ ही देश भर से चयनित किए गए हिन्दी सेवियों को हिन्दी के प्रति की गई उनकी सेवाओं के आधार पर हिन्दी सेवी सम्मान से अलंकृत किया गया।
सम्मेलन का आयोजन दो सत्रों में किया गया। प्रथम सत्र का शुभारम्भ माँ सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण एवं श्री साकेत सुमन चतुर्वेदी द्वारा ग़ज़ल रूप में रचित व किशोर श्रीवास्तव द्वारा स्वरबद्ध की गई सरस्वती वंदना से हुआ। इसके पश्चात ‘भारतीय भाषाओं के समन्वय में राष्ट्रभाषा हिन्दी की भूमिका व योगदान’ विषय पर विद्वानों ने अपने विचार प्रस्तुत किए। विद्वानों में सर्वश्री सुरेश चंद्र शुक्ल (नार्वे), राम प्रकाश खेड़ा एवं विनोद बब्बर (नई दिल्ली), श्री सुभाष चंदर (गाज़ियाबाद) के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रथम सत्र में सम्मेलन के मुख्य अतिथि पद्मश्री डा. श्याम सिंह ‘शशि’ एवं अध्यक्ष श्री जानकीशरण वर्मा ने उपर्युक्त विषय पर अपने सारगर्भित विचार प्रस्तुत किए।
सम्मेलन के दूसरे सत्र का शुभारम्भ उड़ीसा से पधारी बाल नृत्यांगना कु. प्राची पल्लवी के ओडिसी नृत्य के मनमोहक प्रदर्शन से हुआ। तत्पश्चात सम्मेलन में सम्मान हेतु चयनित प्रतिभागियों ने सम्मेलन के विषय पर अपने ओजस्वी विचार एवं काव्य रचनाएं प्रस्तुत कीं।
सम्मेलन के दौरान सर्वश्री सत्यपाल निश्चिंत, डा. अनामिका रिछारिया, सुषमा भंडारी एवं राजीव नामदेव की विभिन्न कृतियों का विमोचन भी किया गया। सम्मेलन के प्रथम सत्र का संचालन जहाँ कु. ज्योति श्रीवास्तव ने किया वहीं द्वितीय सत्र का संचालन व आभार प्रदर्शन पत्रिका के कार्यकारी संपादक श्री किशोर श्रीवास्तव ने किया।
सम्मेलन के अंत में देश के दूरदराज क्षेत्रों से चयनित प्रतिभागियों सर्वश्री डा. राज गोस्वामी, हरिकृष्ण (दतिया), डा. वीरेन्द्र कुमार दुबे (जबलपुर), कुन्ती हरीराम, डा. अनामिका रिछारिया, साकेत सुमन चतुर्वेदी, सृष्टि सिन्हा (झॉंसी), सत्यपाल निश्चिंत (नौएडा), राजकुमार जैन राजन (आकोला), सुषमा भंडारी, निर्मल वालिया (दिल्ली), गोपाल आचार्य (मनासा), डा. पुनीत बिसारिया (ललितपुर), भारत विजय बगेरिया, राजीव नामदेव (टीकमगढ़), ‘ाशांक मिश्र भारती (पिथौरागढ़), नरेश सचदेवा (सोनीपत), डा. किशोर अरोरा (ग्वालियर), पी. दयाल श्रीवास्तव (छिंदवाड़ा), राजकिशोर ‘ार्मा (आगरा), अरुणा चैहान, (रायपुर), के. एल. दीवान (हरिद्वार) एवं सरकारी कार्यालयों के प्रतिनिधियों सर्वश्री डा. अंगद प्रसाद (इम्फाल, मणिपुर), प्रदीप कुमार उनियाल (रुड़की), अनीता परीडा (बालेश्वर, उड़ीसा), अशोक कुमार (दिल्ली) आदि को अतिथियों द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की उत्तम एवं सराहनीय सेवाओं के लिए झॉंसी की रानी लक्ष्मीबाई की आकर्षक प्रतिमा एवं प्रमाण पत्र देकर हिन्दी सेवी सम्मान से अलंकृत किया गया। सम्मेलन में हिन्दी की उत्कृष्ट सेवा के लिए मुंबई की हिन्दी सेवी डा. तारा सिंह को राष्ट्रीय हिन्दी सेवी सम्मान से अलंकृत किया गया।


प्रस्तुतिः श्रीमती शशि श्रीवास्तव (संपादक- हम सब साथ साथ),
916- बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेल नगर, नई दिल्ली-110008
फोनः 24568464 मो. 9868709348, 9968396832

Monday, April 13, 2009

खटिमा में हुआ बालसाहित्यकारों का सम्मेलन


11 अप्रैल 2009 को खटईमा (उधम सिंह नगर, उत्तराखंड) में बाल साहित्यकारों का एक सम्मेलन आयोजित किया गया। यह आयोजन बालकल्याण संस्था, खटिमा और नेशबल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में हुआ। इस संगोष्ठी में देश भरके बालसाहित्यकारों ने भाग लिया, जिनमें से अधिकांश को बालसाहित्य शिरोमणि से नवाजा गया। नेशनल बुक ट्रस्ट ने इस अवसर पर एक संगोष्ठी का भी आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता डॉ॰ श्याम सिंह शशि ने की। इस अवसर पर नेशनल बुक ट्रस्ट और अनेकों बालसाहित्यकारों की पुस्तकों का विमोचन भी किया गया।

प्रस्तुत है चित्रों से भरी यह रिपोर्ट-





प्रस्तुति- शमशेर अहमद खाँ, केन्द्रीय हिन्दी प्रशिक्षण संस्थान

Friday, April 10, 2009

राष्ट्रपति से बालसाहित्यकारों एवं बालकल्याण से जुड़े प्रतिनिधियों की भेंट और बालसाहित्य संरक्षण के प्रस्ताव


08 अप्रैल 2009,सायं 6.00 बजे दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में ८० से अधिक लोगों के एक समूह ने, जिसमें २० से अधिक बाल साहित्यकार भी शामिल थे, महामहिम प्रतिभा देवी पाटिल से मुलाक़ात की और बाल-साहित्यारों के प्रोत्साहन हेतु तथा बालसाहित्य के संरक्षण हेतु कुछ प्रस्ताव रखे। प्रस्ताव द हिंदु, यंग वर्ल्ड के संपादक ज़ियाउस्सलाम, डॉ. हरिभाओ खांडेकर एवं डॉ.शकुंतला कालरा की ओर से रखे गये।

कार्यक्रम की शुरूआत में श्री प्रकाश जायसवाल,गृह राज्यमंत्री,भारत सरकार, डॉ. श्याम सिंह शशि, डॉ. राष्ट्रबंधु, शमशेर अहमद खान और रामनाथ महेंद्र की ओर से महामहिम को पुष्पगुच्छ भेंट किया गया। इसके पश्चात डॉ. कृष्णशलभ ने अभ्यागतों का सामान्य परिचय करवाया। श्री जयजगन्नाथ, श्री अनिल कुमार मिश्र, बीरेंद्र महंती, विनोद अग्रवाल, जियाउस्सलाम, शमशेर अहमद खान, नागेश पांडेय संजय, श्रीमती शालिनी गुप्त, श्रीमती मिनती पटनायक, श्रीमती शकुंतला कालरा इत्यादि ने राष्ट्रपति को पुस्तकें भेंट की। गौरतलब है कि हिन्द-युग्म के बाल-मंच 'बाल-उद्यान' के सलाहकार-संपादक ज़ाकिर अली "रजनीश" भी बालसाहित्यकारों की इस मंडली में शामिल थे। उन्होंने भी महामहिम से भेंट की।

इसके बाद राष्ट्रपति ने समक्ष निम्लनिखित प्रस्ताव रखे गये-

1. भारतीय बालसाहित्य की गौरवमयी परंपरा रही है, उसे अक्षुण्ण रखने एवं इसमें सतत विकास हेतु बालविश्वविद्यालय अथवा बालसाहित्य अकादमी की स्थापना पर विचार किया जाय।

2. बालसाहित्यकारों को भी अधिकृत पत्रकारों की भांति सरकारी सुविधाएं दी जाएं। यथा- कुछ राज्यों ने बालसाहित्य संगोष्ठी के दौरान राज्य परिवहन निगम की बसों में निःशुल्क यात्रा की छूट दी है, ऐसी छूट सभी राज्यों से दिलवाई जाए। यही सुविधा रेल में भी दिलवाई जाए।

3. राज्यसभा व लोक सभा में बालसाहित्यकारों के लिए सीट आरक्षित की जाए।

4. पद्मपुरस्कारों में बालसाहित्यकारों को भी शामिल किया जाए।

5. बालसाहित्यकारों को सरकारी चिकित्सा निःशुल्क उपलब्ध कराई जाए।

6. बालसाहित्य के अनुरक्षण के लिए केंद्रीय पुस्तकालय की व्यस्था की जाए।


इन प्रस्तावों के अनुमोदन के बाद महामहिम राष्ट्रपति का उद्‍बोधन हुआ।

Thursday, April 9, 2009

देवी नांगरानी के अंग्रेजी कविता-संग्रह 'The Journey' का विमोचन


(पुस्तक के विमचोन अवसर पर नंदकिशोर नौटियाल, खन्ना मुजफ़्फ़पुरी, वासुदेव निर्मल, आलोक भट्टाचार्या)

देवी नागरानी के अंग्रेज़ी काव्य संग्रह The Journey का विमोचन किरणदेवी सराफ ट्रस्ट के सहयोग से समारोह कीर्तन केंद्र सभागृह, विले पार्ले, मुंबई में १७ मार्च, २००९ को संपन्न हुआ। पुस्तक का विमोचन प्रसिद्ध उद्योगपति एवं समाजसेवी श्री महावीर सराफ जी के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ । कार्यक्रम की अध्यक्षता की - 'महाराष्ट्र हिंदी साहित्य अकादमी' के अध्यक्ष श्री नंद किशोर नौटियाल जी ने। विशिष्ट अतिथि के रूप में महानगर के अनेक गणमान्य एवं साहित्य के शीर्षस्थ कवि, पत्रकार पधारे ।

जिनमें प्रमुख अतिथी थे - श्री वासुदेव निर्मल, प्रख़्यात सिंधी शायर। मुख्य अतिथि- कुतुबनुमा की संपादिका डा॰राजम नटराजम पिल्लै, प्रमुख वक्ता- श्री आलोक भट्टाचार्य, फिल्म कथाकार श्री जगमोहन कपूर, अंजुमन संस्था के अध्यक्ष एवं प्रमुख शायर खन्ना मुजफ्फरपुरी, डा॰ संगीता सहजवाणी, अध्यक्ष हिंदी डिपार्टमेंट, आर.डी. कालेज। कार्यक्रम का संचालन किया मंचो के प्रसिद्ध संचालक श्री अनंत श्रीमाली ने कार्यक्रम का प्रारंभ माँ सरस्वती पर माल्यार्पण एवं दीप प्रज्जवलन से किया गया। माँ सरस्वती का आव्हान श्री हरिशचंद्र ने वंदना को अपने कण्ठ से अभिनव स्वर प्रदान कर किया।

पुस्तक के विमोचन के उपरांत श्री आलोक भट्टाचार्य ने Sounds of Silence नामक रचना का पाठ करते हुए अपने विचार प्रकट किये। डा॰राजम ने अपने भाव प्रकट करते हुए देवी जी को बधाई दी। श्री जगमोहन कपूर ने अपने विचार लेखन पर प्रस्तुत किये, खन्ना मुजफ्फरपुरी ने इस अवसर के अनुकूल कई दोहों का पाठ किया।

डा॰ संगीता सहजवाणी ने The Journey की कुछ रचनाओं के संदर्भ में विशेष टिप्पणी करते हुए कहा " कि रचनाओं को पढ़ने के पश्चात जाने अनजाने में मन उस सत्य के साथ जुड़। जाने को करता है, पढते पढते सुकून का आलम घेर लेता है" रामप्यारे रघुवंशी, ने अपनी संस्था की ओर से अपनी साथियों सहित देवी नागरानी जी का फूलों से सन्मान किया। मौजूद कवि गण समारोह में मौजूद थे‍ रत्ना झा, रामप्यारे रघुवंशी, शोभा भवानी, गिरिश जोशी, रश्मी गितेश, शिप्रा वर्मा, रमेश श्रीवास्तव ललू, मधु अरोड़ा, उषा गुप्ता, अविनाश दीक्षित, मंजू गुप्ता, विश्वामित्र भेरवानी

उसके पश्चात काव्य गोष्टी शुरू हुई जिसमें अनेकों कावि भागीदार रहे। जिनमें थे कुमार शैलेन्द्र जी, श्रीमती ज्योति गजभिये, खन्ना मुज़फ्फ़रपुरी, डा. वफा सैलेश, शायर उबेद आज़म, संगीता सहजवाणी, कुलवंत सिंह, प्रमिला शर्मा, श्री कपिल कुमार, डा. वफा सैलेश, शायर उबेद आज़म, जनाब माहिर, नंदलाल थापर, और त्रिलोचन सक्सेना,

इस अवसर पर देवी नागरानी की रचनाओं पर टिप्पणी करते हुए अध्यक्ष श्री नौटियाल जी ने बहुभाषी रचनात्मक प्रस्तुतियों के लिये उन्हें विशेष बधाई दी। कार्यक्रम के अंत में देवी नागरानी ने माँ सरस्वती सहित सभी आगंतुकों का हार्दिक दिल से धन्यवाद किया ।

Wednesday, April 8, 2009

पहली पुस्तक लेखक के लिए एक अद्‍भुत घटना होती है- समीर लाल

दो दिन बीते. न कोई कमेंट, न अधिक ब्लॉग विचरण. कोई ब्लॉग वैराग्य जैसी बात भी नहीं बस शनिवार को लंदन रुकते हुए कनाडा वापसी की तैयारी है तो बस!! समयाभाव सा हो लिया है. इस बीच मेरी पहली पुस्तक 'बिखरे मोती' भी पंकज सुबीर जी और रमेश हटीला के अथक परिश्रम के बाद छप कर आ ही गई. छबि मिडिया याने बैगाणी बंधुओं ने कवर सज्जा भी खूब की.

अपनी पहली पुस्तक यूँ भी किसी लेखक के लिए एक अद्भुत घटना होती है और तिस पर से यह रोक कि परम्परानुसार बिना विमोचन आप इसे मित्रों को दे भी नहीं सकते. मन को मना भी लूँ तो हाथ को कैसे रोकूँ जो कुद कुद कर परिवार और मित्रों को पुस्तक पढ़वाने और वाह वाही लूटने को लालायित था.

याद आया कि मैने अपने पुत्र पर रोक लगाई थी कि बिना सगाई वधु के साथ घूमने नहीं जाओगे और सगाई हमारे आये बिना करोगे नहीं. बेटे ने तो़ड़ निकाली कि रोका का फन्कशन कर लेता हूँ फिर सगाई जब आप कनाडा से आ जायें तब. क्या अब घूम सकता हूँ? बेटा बाप से बढ़कर निकला और हम चुप. बस उसी को याद करते सुबीर जी को फोन लगाया. विमोचन कनाडा में हमारे गुरुदेव कम मार्गदर्शक कम मित्र कम अग्रज राकेश खण्डॆलवाल जी से ही करवाना है और इस बात पर मैं अडिग हूँ तो फिर पुस्तक कैसे बाटूँ?
अनुभवी पंकज सुबीर जी ने सोच विचार कर सलाह दी कि रोका टाइप एक अंतरिम विमोचन कर लिजिये और बांट दिजिये. मुख्य विमोचन कनाडा में कर लिजियेगा. बेटे को रोका जमा था और हमें ये.

आनन फानन, प्रमेन्द्र महाशक्ति इलाहाबाद से आ ही रहे थे, एक ब्लॉगर मीट रखी गई और वरिष्ट साहित्यकार आचार्य संजीव सलिल जी के कर कमलों से अन्तरिम विमोचन हुआ.
कार्यक्रम में आचार्य संजीव सलिल, प्रमेन्द्र, तारा चन्द्र, डूबे जी कार्टूनिस्ट, गिरिश बिल्लोर जी, संजय तिवारी संजू, बवाल, विवेक रंजन श्रीवास्तव, आनन्द कृष्ण, महेन्द्र मिश्रा और मैं उपस्थित था. संजीव जी ने विमोचन किया और सभी ने किताब से एक एक रचना पढ़ी. भाई पंकज सुबीर, रमेश हटीला जी, बैगाणी बंधुओं का विशेष आभार व्यक्त किया गया.

इस अवसर पर लिए गये कुछ चित्र और विस्तृत रिपोर्ट महेन्द्र मिश्रा जी प्रस्तुत कर ही चुके हैं.
वैसे बवाल की कव्वाली, विवेक जी और गिरिश बिल्लोरे जी कविता ने कार्यक्रम का समा बांध दिया.

प्रस्तुति- समीर लाल


अंतरिम विमोचन:बिखरे मोती



अंतरिम विमोचन:बिखरे मोती


अंतरिम विमोचन:बिखरे मोती

Monday, April 6, 2009

दिल्ली में हुआ तेजेन्द्र शर्मा पर केन्द्रित पुस्तक 'वक़्त के आइने में' का विमोचन



लंदन के चर्चित हिन्दी कहानीकार तेजेन्द्र शर्मा पर प्रकाशित अभिनंदन-ग्रंथ 'वक़्त के आइने में' का लोकार्पण नई दिल्ली के राजेन्द्र भवन सभागार में हुआ। पुस्तक का विमोचन वरिष्ठ आलोचक प्रो॰ नामवर सिंह, वरिष्ठ कहानीकार कृष्णा सोबती और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव ने किया। इस अभिनंदन-ग्रंथ के संपादक हरि भटनागर हैं जो एक वरिष्ठ कथाकार हैं और चर्चित साहित्यिक पत्रिका रचना-समय के संपादक भी हैं। इस पुस्तक में देश-विदेश के कथा आलोचकों तथा कहानीप्रेमियों की तेजेन्द्र की कहानियों पर रायों को संकलित किया गया है। अपने सम्पादकीय वक्तव्य में हरि भटनागर ने कहा कि जब वे इंडिया टुडे के लिए पिछले साठ सालों में प्रकाशित श्रेष्ठ २५ कहानियों का संकलन कर रहे थे तो उन्होंने तेजेन्द्र की एक कहानी 'कब्र का मुनाफ़ा' को भी इसमें ज़गह दी थी। यह जानने के बाद उनको कई धमकी भरे खत और फोन आए। उन्हें बहुत अफसोस था कि ज्यादातर पाठक-लेखक नाम से कहानियाँ पढ़ते हैं और उसपर अपनी राय बनाते हैं।

आधारवक्तव्य देते हुए युवा कहानीकार और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में प्राध्यापक अजय नावरिया ने कहा कि तेजेन्द्र की कहानियाँ समय की उपज हैं जो भारत के बाहर भारतीयों की ज़िदगियों को देखने का अवसर देती हैं। तेजेन्द्र की कहानियों और उनके व्यक्तित्व के कई आयाम हैं, जिन्हें इस पुस्तक में सुसंकलित किया गया है। उन्हें यह ग्रंथ बहुत ज़रूरी लगता है।

कार्यक्रम के संचालक अजीत राय ने बताया कि वे २ साल पहले तक तेजेन्द्र शर्मा को कथाकार नहीं मानते थे। वे उन्हें विश्व हिन्दू परिषद का समर्थक और कट्टर हिन्दूवादी मानते थे। जब वे लंदन गए तो तेजेन्द्र ने उन्हें कुछ कहानियाँ पढ़ने को दी, लेकिन उन्होंने उसे कूड़े में फेंक दिया। लेकिन जब पढ़ा तो पढ़ते चले गए, उनके सामने एक नई दुनिया खुल गई।

कार्यक्रम के मुख्य-अतिथि प्रो॰ नामवर सिंह ने तेजेन्द्र को एक समर्थ कथाकार बताया और यह उम्मीद व्यक्त की कि वे भविष्य में और भी प्रौढ़ कहानियाँ लिखेंगे। हरि भटनागर ने कहा कि वे आने वाले समय में अन्य साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर भी इस तरह के संकलन के प्रकाशन की योजना बना रहे हैं।

नूर ज़हीर ने इस ग्रंथ में संकलित सुधा ओम धींगरा का तेजेन्द्र के नाम पत्र पढ़कर सभी दर्शकों को भाव-विभोर कर दिया। राजेन्द्र यादव ने भी इस कार्यक्रम तथा इस अभिनंदन-ग्रंथ का स्वागत किया। उन्होंने प्रवासी रचनाकार से यह सवाल भी पूछा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद भारत में लगातार उपजी तनाव की स्थिति के लिए क्या उनका सोने की ईंटें भेजना जिम्मेदार नहीं है। प्रवासी साहित्यकारों को अपनी लेखनी को कभी इस गुत्थी को सुलझाने में भी इस्तेमाल करना चाहिए।

कृष्णा सोबती ने तेजेन्द्र को एक कुशल कहानीकार बताया और कुछ-एक कहानियों के दृश्य तथा वक्तव्य पढ़कर सुनाए। उनकी एक कहानी 'टेलीफोन लाइन' को उन्होंने 'पहले हाथ का माल' यानी भोगी गई कहानी बताया और कहा कि लेखन-पाठन के इतने लम्बे तजुर्बे के बावज़ूद उन्हें यह बिलकुल अंदाज़ा नहीं था कि यह कहानी यहाँ खत्म होगी।

कार्यक्रम में कहानीकार कन्हैयालाल नंदन, लीलाधर मंडलोई, मुम्बई से सूरज प्रकाश, मधु अरोरा, जमशेदपुर से विजया शर्मा, भोपाल से आशा सिंह, हंगरी की हिन्दी विद्वान मारिया, सुभाष नीरव इत्यादि साहित्यकार उपस्थित थे।

‘यूटोपिया’ के अंत की बात करना, भारतीय संदर्भों में सही नहीं है- पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी

हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ
राष्ट्रीय संगोष्ठी
समकालीन रचनाकार एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)
दिनांक: 27-28 मार्च 2009

चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में दिनांक 27-28 मार्च 2009 को ‘‘समकालीन रचनाकर एवं रचनाएं (सन् 1980 के बाद के रचनाकाल पर केन्द्रित)’’ विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी में विभिन्न ख्याति नाम विषय विशेषज्ञों ने शिरकत की।
संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में सुधीश पचौरी, मीडिया विशेषज्ञ एवं समीक्षक (प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय, हिन्दी विभाग), प्रो. बी. एन. राय, उपन्यासकार एवं सम्पादक (कुलपति अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, गुजरात), जितेन्द्र श्रीवास्तव (युवा आलोचक, प्रवक्ता इग्नू), अखिलेश (कथाकार एवं सम्पादक तद्भव), प्रो. गंगा प्रसाद विमल (कथाकार एवं पूर्व निदेशक केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, दिल्ली), निर्मला जैन (समीक्षक एवं पूर्व प्राध्यापक एवं विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली) आदि विषय विशेषज्ञों ने समकालीन रचना धर्मिता को विभिन्न दृष्टि और आयामों से विश्लेषित किया है।
संगोष्ठी के प्रथम सत्र में बोलते हुए सुप्रसिद्ध समीक्षक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष सुधीश पचैरी ने कहा कि समकालीन रचनाकर्म में त्वरित स्थिति और परिस्थितियों का प्रतिबिंब है। रघुवीर सहाय, अज्ञेय को संदर्भित करते हुए उन्होंने कहा कि जो रचनाकार कालजीवी होता है, वही कालजयी भी होता है। वर्तमान साहित्य में रसवाद विशेषतया समाकालीन कविता का विश्लेषण करते हुए पचौरी ने कहा समकालीन कविता में काल की स्थितियाँ केंद्रित नहीं है। बाजार, सूचना तंत्र, मीडिया आदि के युग्म ने समकालीन साहित्य के लिए कई प्रश्न खडे़ कर दिये हैं और साहित्य समकालीन रचनाकार को उन प्रश्नों के हल खोजने होंगे। बाजार को रचनाकारों को एक अवसर के रूप में देखना होगा।
पचौरी जी ने कहा कि ये समकालीन रचना समय के बजाय विषमकालीन रचना समय कहा। उन्होंने साहित्य में बदलाव का प्रस्थान बिन्दु 1975 को माना। साहित्य, राजनीति और समाज के लिए उत्तर कालीन व्यवस्था वह नहीं रही जो पहले थी। केन्द्र में एक पार्टी के शासन की धारणा समाप्त हो गई। चैधरी चरण सिंह ने गठबन्धन की सरकार बनाई। आज जो सम्मिलित सरकार है उसका बीज 1967 में पड़ा था। 1975 में बेचैनी और मोहभंग का दमन हुआ। 1989 में इसका फिर उत्कर्ष हुआ।

आम तौर पर समकालीन रचना प्रक्रिया इससे अछूती नहीं। 1947 के आस-पास एक मुहावरा था ‘नई कविता’। सब तक में पहुँचना उद्देश्य था कवियों का। सभी ने कहा नई राहों के अन्वेषी हैं हम। वे सभ्यता तक सोचा करते थे। इसके बिना कोई बड़ी कविता संभव नहीं थी। आपातकाल का पहला काम था पत्रकारिता का अंत कर देना। सूचनाएं 1989 के बाद विस्फोट के रूप में सामने आने लगी। खोजपूर्ण पत्रकारिता सामने आई। साहित्य पर इसका क्या असर हुआ साहित्य में इसका मूल्यांकन नहीं हुआ। श्रीकांत वर्मा ने कहा ‘इन्दिरा हटाओ, हम कहते हैं कि गरीबी हटाओ’। ‘मगध’ में श्रीकांत वर्मा ने कहा ‘कौशल में विचारों की कमी है।’ अगर रघुवीर सहाय को हम स्मरण करें तो पाते हैं कि वो पहले कवि हैं जो कहते हैं कि विचारों की कमी है। रघुवीर सहाय आम आदमी के पक्ष में खडे थे। वो कहते हैं कि ‘आत्महत्या के विरूद्ध’, ‘भाषा को बचाओ’, ‘नकल से बचो’, ‘राजनीति के वर्चस्वताओं से बचो’, इससे पहले यही बात मुक्तिबोध कह चुके थे। 1980 के दशक में मंगलेश डबराल, वेणु गोपाल, आलोक धन्वा, ऋतुराज महत्वपूर्ण नाम है। इनमें से कई कवि रघुवीर सहाय को अपना गुरू मानते हैं लेकिन उन पर अपनी कविता नहीं करते, उनका मुहावरा अलग है। रघुवीर सहाय न्यूनतम पर कविता करते हैं आज की कविता समूचे रस भिन्न की कविता है। आजादी के बाद जो थोड़ा बहुत रस था कि कुछ बदलेगा लेकिन वह भी टूट गया। उन्होंने कहा कि सत्ता के व्यापक अर्थ हैं आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक सत्ता हमारे संविधान में रहती है और संविधान में हम रहते हैं। समकालीन कविता का विधान क्या है इस पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि तमाम वे विषय है जो एक आम आदमी को उद्वेलित करते हैं। इसमें छोटी-छोटी चीजें उठाई गई हैं। बहुत दिनों तक हिन्दी कविता में फूल-पत्ती का रोल रहा। इस कविता में फिर से घर, पत्नी, नानी याद आने लगी।

उन्होंने मुक्तिबोध का जिक्र करते हुए कहा कि रचना प्रक्रिया ज्यों-ज्यों बढ़ती है। वह जटिल होती जाती है। कविता में अनुभव शब्दों को तलाशते हुए अर्थ को तलाशते हुए निकलते हैं। इसे कोई नहीं पकड़ सकता। उन्होंने कहा कि समकालीन कविता में कथन ही स्ट्रक्चैर है। कवि अपने समय के दबाव का ऐसा शिकार हो गया है कि उसे तुरंत प्रक्रिया करनी है। समकालीन रचना में जो विषमता है वह तना हुआ समय है। इसमें कोई गुंजाइश ही नहीं है। उन्होंने कहा कि जीवन गद्यात्मक है ये कहा जाता है। पद्य काफी सोचे-विचारने के बाद लिखा जाता है। ‘वाक्यम रसात्मकम काव्यम’ आज के कवियों कि स्थिति पर बोलते हुए कहा कि इन कवियों के नाम हटा दीजिए, कविताओं के शीर्षक हटा दीजिए तो पहचानना मुश्किल हो जाएगा कि कविता किसकी है क्योंकि बनाने के पीछे मेहनत नहीं कि गई। मैं नहीं समझता कि कहानी लिखना, कविता लिखना इतना ही आसान है जितना मेरा बोलना, आपका सुनना। कविता क्षणभंगुरता को टिकाना है। शिल्प मीनिंग को ठहराता है। समकालीन समय अनफिक्स समय है। कविता के लिए यूटोपिया चाहिए, स्वप्न चाहिए। स्वप्न के बिना अगर कविता संभव है तो वह आज की कविता है। ये नित्यकर्म की कविता है। मैं अपनी तात्कालिकता से दूर ही नहीं हो पा रहा।

उद्‍घाटन सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वी0एन0 राय ने कहा कि श्रेष्ठ रचनाएं प्रत्येक काल में एक समान होती है। वर्तमान कविता के बारे में बोलते हुए श्री राय ने कहा कि कविता निजता के संकट से गुजर रही है। यह काल रचना धर्मिता की दृष्टि से संक्रमण का काल है। अपने वक्तव्य के अंतिम दौर में एक टिप्पणी कर उन्होंने माहौल को गरमा दिया। श्री राय ने कहा इस्लामिक लोगों और साम्यवादियों को अमेरिका से विरोध है और वे अपनी संतानों को अमेरिका ही नौकरी के लिए भेजना चाहते हैं। उन्होंने साहित्य जनसरोकारों के लिए आवश्यक बताया तथा यह कह कर भी एक सनसनी पैदा की कि यदि समकालीन कविता के कई कवियों के नाम हटाकर उल्लेख किया जाए तो वे एक समान लगती हैं।

प्रथम सत्र की अध्यक्षता प्रो. एस.के. काक, कुलपति, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ने की। आधुनिक हिन्दी कविता में रस के गायब होने पर उन्होंने चिंता जताई। उनका मानना था आम पाठक साहित्य को आनंद के लिए पढ़ता है और रस समाप्त होने पर उसे निराशा हाथ लगती है। प्रो. काक ने अतिथियों को स्मृति चिह्न प्रदान किये।
इस अवसर पर कला संकाय की अध्यक्ष प्रो. अर्चना शर्मा ने विश्वविद्यालय में इस तरह की शैक्षणिक गतिविधियों की आवश्यकता बताई। उन्होंने अतिथियों का स्वागत भी किया।

प्रथम सत्र का संचालन करते हुए प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी, अध्यक्ष हिन्दी विभाग ने कहा साहित्य सहित भाव का नाम है और वह सांचों को बनाता नहीं, बल्कि तोड़ता है। लोक पक्षघरता ही साहित्य की उपादेयता तय करती है।
उन्होंने कहा कि समकालीनता समय सापेक्ष स्थिति है। समय सापेक्षता का आशय किसी खास कालावधि के लिए लिया जाता है। आधुनिक, समसामयिक, समकालीन, वर्तमान सहित कई ऐसे शब्द हैं जो पर्याय की तरह भी प्रयोग में आते हैं और हम जब भी समकालीन शब्द प्रयोग में लाते हैं तो हम उसकी कालावधि के तत्कालीन सन्दर्भों को भी उसमें जोड़ते हैं। हिन्दी दुनिया में समकालीन शब्द को कई तरह से परिभाषित किया जाता रहा है परन्तु हम जिस सन्दर्भ से इस संगोष्ठी को जोड़ रहे हैं, वह पारिभाषिक महत्व के साथ-साथ कालसापेक्षता के वर्तमान प्रभावकारी बिन्दुओं से जुड़ा हुआ है।

हिन्दी की समकालीन रचनाधर्मिता का अपना विशेष महत्व है। हिन्दी रचनाकारों की दुनिया में एक विशेष समय है आपातकाल के बाद का भारत, वह भारत, जहाँ अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगने के बाद पहली बार लगा था कि क्या अंग्रेजों की तरह भारत में भारत के आमजन द्वारा चुनी, कही जा रही जनप्रतिनिधियों की सरकार का आचरण भी किंचित रूप में अंग्रेज सरकार जैसा ही होगा। किन्हीं अर्थों में यह सरकार भी क्या उसी तरह आचरण करेगी जैसी कि विदेशियों की सत्ता में होता रहा है।
गोष्ठी को 1980 के बाद के समय में रखने का एक कारण यह भी रहा कि हिन्दी दुनिया में सन् 1980 के बाद भारी बदलाव दिखाई देते हैं जिनमें भूमण्डलीकरण के असर की बात को लें या उत्तर आधुनिकता संबंधी विमर्श को। स्त्री विमर्श, दलित विमर्श तथा जनजातीय विमर्श का समय भी यही है। भारतीय राजनीति में हुई तमाम तरह की दुरभिसंधियां भी इसी काल की हैं, जब आपातकाल के बाद आर्थिक घोटालों से उत्पन्न विक्षोभ, धार्मिक, जातीय तथा साम्प्रदायिक उन्माद को चरम पर पहुँचाकर सत्ता हस्तान्तरण हुए और खुले तौर पर साम्प्रदायिक तथा जातीय ताकतों के नाम पर सत्ता के लिए वोट मांगे गए, लिए गए, सत्ता बदली परन्तु नहीं बदला तो सत्ता का चरित्र। जिस तरह चीन युद्ध के बाद छलावे का अहसास भारतीय जनता को हुआ था ऐसा ही एहसास आज भी है। जिन घोषणापत्रों, वायदों, उम्मीदों, संभावनाओं पर सत्ता बदली वे जस के तस रहे। वायदा करने वालों ने खुले आम जनता को झांसे दिए। र्पािर्टयां, सरकारें, चेहरे बदले। छोटे दलों के आकार बडे़ हुए, बडे़ दल, दलदल में धँसे और सत्ता परिवर्तन जिनके भी बीच हुआ लगभग वे एक दूसरे की बी काॅपी बनने में लगे रहे। हाँ यह बात अवश्य गंभीरता से मानने की है कि लोकतंत्र में सत्ता के नए समीकरण तथा एक दल के स्थान पर बहुदलीय सरकारों का भी यह समय है।

आर्थिक सन्दर्भों तथा विश्वव्यापी परिप्रेक्ष्य में अगर देखते हैं तो यह समय पर्याप्त हलचल का है। निजीकरण की वापसी, धन्नासेठों की सरकार को प्रभावित करने की क्षमता की वापसी, सामन्ती परिवारों का पुनः लोकतन्त्र पर परोक्ष्य, आर्थिक तथा राजनैतिक ताकत के रूप में कब्जा, एकध्रुवीय विश्व तथा भारत सहित विश्व की तीसरी दुनिया के देशों की गुटनिरपेक्षता की ताकतों की मौजूदगी की अप्रासंगिकता, आतंकी शक्तियों का विश्वपटल पर नग्न प्रदर्शन ही नहीं, यूएनओ की शक्तियों का एक ही देश के पक्ष में दोहन तथा उसके नाम पर कई देशों पर अत्याचार भी इस समय का सच है तो आर्थिक हिस्से में भारत के मध्य वर्ग की ताकतवर उपस्थिति तथा मीडिया के रूप अभिव्यक्ति के नए औजार की उपस्थिति भी इसी काल में हुई।

यह समय इस रूप में भी विशिष्ट है कि साहित्य, कला तथा संगीत का परिचय नए रूप में हमारे सामने आ रहा है। वास्तविक दुनिया के समानान्तर आभासी दुनिया भी दिखाई देने लगी है। ऐसे समय में साहित्य इन तमाम स्थितियों से कैसे दो-चार कर रहा है। यह विचारणीय है। साहित्य समाज में व्याप्त घटनाओं का लिखित दस्तावेज होता है। आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों का शब्द प्रामाणिक आकलन करता है। आदिकाल और मध्यकाल के रचनाकर्म पर धार्मिक और परलौकिक दबाव थे किन्तु आधुनिक युग तर्क और विज्ञान से लैस होकर आता है। विकास को लेकर निश्चित विचारधाराएं और संरचनाओं से लोगों का मोहभंग हुआ और सोच के अद्यतन विकल्प शोधने का प्रयास जारी रहा। यह वहीं समय था जब, नक्सलवाद, आतंकवाद, सम्प्रदायवाद, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक, दलित-स्वर्ण, बाजारवाद और दृश्य-श्रव्य माध्यमों में ‘शब्द’ पर दबाव की बात की जाने लगी।

यह विश्वविद्यालय स्तरीय संगोष्ठी जो 1980 के बाद के साहित्य अर्थात समकालीन रचनाधर्म का विश्लेषण करने का प्रयास है। आठवें दशक के आस-पास साहित्य और समाज में हाशिये का प्रश्न बड़ी तेजी से उभरा, स्त्री और दलित चेतना के उभार के परिणाम स्वरूप साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, के स्वर की अनुगूंज सुनाई पड़ी। स्वानुभूति सहानुभूति, समानुभूति और सहजानुभूति आदि मुद्दे भी इस समय में ही साहित्य में अंकित होते हैं। अनुभूति की प्रामाणिकता दलित साहित्य का केन्द्र है, यह बिल्कुल ऐसा ही है जैसे कहा जाता है ‘जाके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जानै पीर पराई। अनुभूति की गहन संपृक्ता ने रचनात्मक सरोकारों को भी व्यापक बनाया।

सन् 1980 के बाद का समय महिला सशक्तिकरण का भी समय है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पुरूषों के साथ कदमताल करते हुए उन्होंने नवीन क्षितिजों को स्पर्श किया। परंपरागत क्षेत्रों के साथ गैर परंपरागत क्षेत्रों सेना, कृषि, उड्डयन व्यवसाय आदि में भी उनकी हिस्सेदारी बढ़ी। राजनीति में भी उन्होंने अपने लिए अधिक ‘स्पेस’ की मांग करनी शुरू कर दी। आठवें दशक के अंत में और नवंे दशक के शुरूआती दौर में महिला लेखकों की एक बड़ी जमात, तीव्र अनुभूति प्रवण दृष्टि और रचनात्मक सरोकारों के साथ स्त्री मन और स्त्री जीवन का प्रामाणिक स्कैच खीचते हैं।

उपभोक्तावाद और भूमण्डलीकरण के विमर्श का दायरा निरंतर बढ़ता गया और सन् 1990 के बाद सूचना-संचार, प्रौद्योगिकी के संजाल का तमाम सामाजिक-साहित्यिक विचारधाराओं पर गहरा असर पड़ने लगा। साहित्य पर बाजारगत दबाबों की छायाएँ स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी थी। इस समय में बाजार नामक आदिम संस्था का विरोध रिवाज के रूप में प्रचलित हुआ। संपूर्ण साहित्य का मूल स्वर रसात्मकता की अवधारणा से ज्यादा सामाजिकता की और होता चला गया। आठवें दशक के अन्त में सोवियत संघ का विघटन दो ध्रुवीय विश्व का अंत बन गया। अमेरिका का वर्चस्व और एक धु्रवीय विश्व की स्थापना इस समय की महत्वपूर्ण घटना थी। सन् 1990 के बाद का साहित्य अपने स्वरूप में बहुलतावाद का समर्थन कराता है।
कथा साहित्य के क्षेत्र में यह काल प्रयोग धार्मिता से सराबोर रहा। संरचना और भाषा के स्तर पर उत्कृष्ट उपन्यास इसी समय में आए। विमर्शों की धार सान पर त्रीव हुई और विमर्शों का अतिवादी स्वरूप भी इस समय दिखाई देता है। उपन्यास और कहानी में विषय वैविध्य भी इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता है। इस समय में साहित्य पर गद्य का दबाव भी इस रचना समय को पकड़ने का महत्वपूर्ण सूत्र है। इस दौर में उपन्यास और कहानी संकलनों का प्रकाशन कविता की तुलना में अधिक हुआ।

पुराने स्थापित नामों के बरक्स नई ऊर्जा से लबरेज रचनाकर सन् 1990 और उसके बाद की कालावधि में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराते हैं और यह पीढ़ी थाती को आगे तक ले जाने में सक्षम है। देखे जीवन और भोगे जीवन के बीच के वैषम्य को आज का साहित्य कम कर रहा है। यह देखे जीवन और भोगे जीवन के एकाकार होने की प्रक्रिया है।

पाश्चात्य दुनिया ने जब इतिहास का अंत और विचारधाराओं के अंत की बात की लगभग उसी समय में हिन्दी पट्टी में वैचारिक आग्रह ने जोर पकड़ा। यह भी काबिलेगौर है कि पाश्चात्य विचारधाराओं और रचनात्मक पूर्वाग्रहों का हिन्दी जगत पर कोई बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा। स्थानीयता का दबाव, समसामयिक कृतियों का महत्वपूर्ण बिन्दू है, आज की कविताएं शब्द चयन विषय चयन में स्थानीय गली-कूचों और निज लोक परंपरा का वहन अधिक कर रही हैं। ग्राम्य जीवन पर इस समय में कई बेहतरीन कविताएं लिखी गई। अनुभूतियों की प्रखरता और मुखरता भी अस्सी के बाद के रचना समय की विशेषता है।वैश्वीकरण के अपने सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव हो सकते हैं। आमजन के लिए सूचनाओं की प्राप्ति और संपर्क साधनों की गति में त्रीव गति से वृद्धि हुई। उपग्रहीय संस्कृति और बाजारों का एकीकरण इस युग के सूत्र वाक्य थे। यह भी रोचक विषय है कथा साहित्य और कविता में इस सूचना समय का बड़ा प्रामाणिक वर्णन और विश्लेषण हुआ। संचार माध्यमों से जुड़े हुए रचनाकारों का इस युग में महत्वपूर्ण अवदान है। मानवीय संबंधों में निरंतर बढ़ रही दूरियों और एकाकीपन की प्रवृत्ति का प्रसार जिस त्रीव गति से हुआ उस छीजने की प्रक्रिया पर साहित्य जैसे मरहम लगाने का उपक्रम करता है।

साहित्य पर दृश्य-श्रव्य माध्यमों का एक बड़ा प्रभाव यह भी हुआ कि स्वयं के मन की गुत्थियों को शब्द के माध्यम से खोलने का जोर-शोर से प्रसार होने लगा। इस समय आत्म कथाओं का एक बड़े दौर शुरू हुआ। स्त्री लेखिकाओं ने तल्ख सच्चाईयों और भोगे हुए यथार्थ को कागज पर शब्दशः उतार डाला। ये आत्मकथाएँ संवेदनाओं का अद्भुत आख्यान हैं।
समीक्षा और आलोचना में भी यह समय सार्थक रहा। पुरानी पीढ़ी के समीक्षकों ने वर्तमान समीक्षा पद्धति के लिए नए क्षेत्रों का विस्तार किया। नई पीढ़ी के आलोचकों का योगदान इन मायनों में महत्वपूर्ण है कि वह आलोचना को स्वायत्त कर्म के रूप में देखते हैं। समसामयिक समीक्षक साहित्य को केवल रसानुभूति के निकष पर ही नहीं कसता बल्कि अन्य समाज विज्ञानों से उसको संबद्ध कर अपने निष्कर्ष देता है। इस संगोष्ठी में आठवें दशक से लेकर अद्यतन साहित्य और उसमें व्याप्त प्रवृतियों पर विचार-विमर्श किया जाएगा। वर्तमान समय में जब शब्द की अस्मिता पर संकट होने की आशंका व्यक्त की जा रही है तब रचनाकारों और विशेषज्ञों का क्या मानना है? यह जानना महत्वपूर्ण होगा।

द्वितीय सत्र जो समकालिन कविता पर केन्द्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने की। इस सत्र में वक्ता के रूप में डा. जितेन्द्र श्रीवास्तव (युवा समीक्षक एवं आलोचक) हिन्दी विभाग, इग्नू, दिल्ली, डा. महेश आलोक, प्रख्यात कवि, शिकोहाबाद आदि ने अपने विचार व्यक्त किये। समकालीन कविता पर बोलते हुए प्रख्यात युवा कवि एवं समीक्षक डा. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा सन् 1990 के बाद की कविता को समझने के लिए नऐ औजारों और प्रविधियों की आवश्यकता है। रचनात्मकता की दृष्टि से उन्होंने इस समय को उत्कृष्ट बताया। रचनाकर्म के क्षेत्र में युवा कवि तमाम तरह के विषयों को स्पर्श कर रहे हैं। पूर्व वक्ताओं द्वारा कविता के लिये की गई संकट की आशंका को उन्होंने एक सिरे से नकार दिया।
प्रख्यात कवि डा. महेश आलोक ने समकालीन कविता को गहन मानवीय सरोकरों से सबंद्ध बताया। कविता के क्षेत्र में आंचलिक पृष्ठभूमि से संबंद्ध जितने कवि आज रचनाकर्म में सक्रिय हैं। इतनी बहुलता कभी नहीं थी। विषय चयन के क्षेत्र में कविता में वास्तविक जनतंत्र वर्तमान समय में लागू हुआ। समकालीन कवि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों को अपनी अभेद दृष्टि से देख और परख रहा है। यह काल ‘हाशिये के जीवन’ का वर्णन काल है। सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रख्यात जनवादी कवि पद्मश्री लीलाधर जगूड़ी ने कहा बेशक विचारधाराओं के अंत की बात की जा रही हो, साहित्य नहीं मर सकता। समकालीन कविता के विभिन्न पक्षों की गहरी पड़ताल करते हुए उन्होंने कहा आज की युवा पीढ़ी के पास नये स्वप्न और आकांक्षाएं हैं। ‘यूटोपिया’ के अंत की बात करना, भारतीय संदर्भों में सही नहीं है। भारत में साहित्य लोक से गहन संबंद्ध है। अतः यूटोपियाज के अंत का प्रश्न ही नहीं उठता। लीलाधर जगूड़ी ने समकालीन कविता के साथ ही सूचनाओं के विस्फोट काल में हिन्दी भाषा की स्थिति पर भी अपने विचार व्यक्त किये।

इस सत्र का संचालन डा. अनिल त्रिपाठी जे.एस.सी. कालेज सिकन्दराबाद ने किया। सत्र का संचालन करते हुए वर्तमान कविता को वर्तमान युग की मांग बताया। इस रचनाकर्म को निष्पक्ष दृष्टि से देखने की आवश्यकता पर बल दिया।
इस संगोष्ठी के तृतीय सत्र में अखिलेश, (कहानीकार, संपादक तद्भव), श्री प्रेम जनमेजय, श्री दामोदर दत्त दीक्षित, (सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार) आदि ने शिरकत की। इस सत्र की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कहानीकार एवं उपन्यासकार गंगा प्रसाद विमल ने की। प्रेम जनमेजय ने संगोष्ठी में बोलते हुए कहा कि व्यंग्य विद्या पर दृश्य-श्रव्य माध्यमों के रिऐलिटी कार्यक्रमों का प्रभाव पड़ा है आज चुटकुले, लतीफे को ही व्यंग्य समझ लिया गया है किन्तु यह एक गहरी विद्या है। सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार दामोदर दीक्षित ने कहा वर्तमान समाज में व्यंग्य ने अपना ‘स्पेस’ तलाश कर लिया है।

इस सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. गंगा प्रसाद विमल ने कहा समकाल जैसी कोई अवधारणा कम से कम साहित्य पर लागू नहीं हो सकती। यदि कोई ऐसी अवधारणा साहित्य पर लागू होती तो कबीर, तुलसी, मीरा, मुक्तिबोध आज प्रसांगिक न होते। साहित्य में मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं। गंगाप्रसाद विमल ने वाई जुई चीन में 1200 वर्ष पहले पैदा हुए और वह सत्ता के प्रतिपक्ष के रूप में जाने जाते हैं। वक्तव्य के अंत में समकालीन रचनाओं को प्रोत्साहन की उन्होंने आवश्यकता बताई। इस सत्र का संचालन डा. प्रज्ञा पाठक एन.ए.एस. कालेज, मेरठ ने किया।

राष्ट्रीय संगोष्ठी का चतुर्थ सत्र एवं समापन सत्र दिनांक 28 मार्च 2009 को सम्पन्न हुआ। यह सत्र हिन्दी आलोचना पर केन्द्रित रहा सत्र की अध्यक्षता करते हुए प्रो. निर्मला जैन ने कहा कि आलोचना बहुत है, आलोचक बहुत कम है। जबकि कवियों और रचनाकारों का कहना है कि आलोचना का क्षेत्र बहुत कम है लगभग खाली पड़ा है। वास्तव में ईमानदार आलोचक सिर्फ एक पाठक होता है। वह किसी लिंग या धर्म से प्रभावित होकर आलोचना नहीं करता। उन्होंने विश्वविद्यालय शोध प्रबन्धों पर तीखे व्यंग्य करते हुए कहा कि इन शोध प्रबन्धों का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। तमाम तरह कि गैर जरूरी रचनाओं पर भी शोध हो रहा है। शोध की वस्तुनिष्ठता, शोध की गुणवत्ता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रो0 निर्मला जैन ने आधुनिक समय को दौड़ भाग वाला समय बताते हुए कहा कि वर्तमान रचनाकार इन त्वरित क्षणों के टकराव से अपनी रचना ऊर्जा को तलाश करता है। श्रोताओं के प्रश्नों का जवाब देते हुए उन्होंने आलोचना और रचनाकार के द्वन्द आदि स्थितियों को साहित्य के भविष्य के लिए घातक बताया। साहित्यकार का माक्र्सवादी अथवा गैर माक्र्सवादी होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है कि वह गहन मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत हो। उन्होंने तमाम तरह की राजनैतिक विचारधाराओं के खाँचे में बंटे हुए साहित्य से आप कालजयी होने की उम्मीद नहीं कर सकते। सूर, कबीर, तुलसी इस वजह से प्रासंगिक हैं कि काल उनकी रचनाओं में एक महत्वपूर्ण तत्व बनकर आता है और प्रत्येक समय में उनकी प्रमाणिकता बनी रहती है।

इसी क्रम में प्रो. स्मिता चतुर्वेदी ने कहा कि जब हम किसी कृति को परखते हैं, देखते हैं तो हम उसकी आलोचना भी करते हैं। आलोचना पाठक और लेखक के बीच के विचारों की कशमकश है। इन्होंने कहा कि खराब रचना इतनी खतरनाक नहीं होती, जितनी खराब आलोचना। जब हम किसी रचना के अन्दर यात्रा करते हैं तब वह आलोचना कहलाती है। उन्होंने दलित विमर्श और नारी विमर्श पर बोलते हुए कहा कि केवल दलित ही दलित की पीड़ा समझता है और कभी-कभी नारी विमर्श और दलित विमर्श पर लिखने वालों में खीचातान होती रहती है। आज के आलोचक का दायित्व बहुत बड़ा है और शायद इसी लिए आलोचना कम लिखी जा रही हैं।

दूरदर्शन से आये प्रसिद्ध मीडियाकर्मी एवं पत्रकार डा. अमरनाथ ‘अमर’ (पिछले दिनों ‘गणेश शंकर विद्यार्थी’ पुरस्कार से सम्मानित) का कहना था कि दूरदर्शन ने समकालीनता की अवधारणा को बहुत आगे तक बढ़ाया है प्रत्येक युग के रचनाकार को उसने अपने केन्द्र में लिया है। देश की सामासिक सांस्कृतिक को अभिव्यक्त करते हुए विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों पर टेलीफिल्म, साक्षात्कार प्रस्तुत कर दूरदर्शन ने समाज को एक नई दिशा दी है। उपग्रहीय संस्कृति के दौर में दूरदर्शन के कार्यक्रमों मे गांव, देहात का अक्स लगातार उभरता रहा है।

संगोष्ठी में विशिष्ठ अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो. एस. वी. एस. राणा ने कहा कि साहित्य समाज को गति देता है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग के स्वप्न आकांक्षओं को वह अभिव्यक्त करता है। जो साहित्य सामाज से जितनी गहराई से जुड़ा होगा। वह उतना ही काल के सापेक्ष्य होगा।

सत्र का संचालन करते हुए एम. एम. कालेज, मोदीनगर के डा. जे. पी. यादव ने कहा कि वर्तमान साहित्य नए आयामों और नये क्षितिजों को छू रहा है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग की साहित्य में हिस्सेदारी बढ़ी है वास्तव में साहित्य में प्रजा तंत्र वर्तमान समय में शुरू हुआ है। समाज के बहुसंख्यक वर्ग अपनी संवेदनाओं की बडे़ प्रमाणिक अंदाज में वर्तमान रचना समय में अभिव्यक्ति करता जा रहा है।

संगोष्ठी में प्रश्नोत्तरी के दौरान विपिन कुमार शर्मा, मोनू सिंह, डा. त्रिपाठी, राजेश ढांड़ा, सहित कई शिक्षिकों एवं छात्र-छात्राओं ने विशेषज्ञों से प्रश्न पूछे। इस अवार पर डा. प्रज्ञा पाठक, डा. ललिता यादव, डा. अशोक मिश्रा, डा.0 महेश आलोक, डा. प्रवेश साती, ऋतु सिंह, मंमता, डा. अर्चना सिंह, डा. साधना तोमर, दीपा, डा. स्नेहलता गुप्ता, डा. नवीन कुमार शर्मा, कु. नीतू चैधरी, डा. गजेन्द्र सिंह, कु. नीतू चैधरी, श्रीमती निर्मला देवी, प्रकाश चन्द्र बंसल, ईश्वर चन्द गंभीर, डा. रवीन्द्र कुमार, गजेन्द्र सिंह, राजेश कुमार, सुमित कुमार, विवके सिंह, अंजू, निवेदिता, ममता, नेहा पालनी अमित कुमार, मोनू, जोगेन्द्र सिंह, अरूण कुमार, पारूल, दीपक कुमार, अजय कुमार आदि शिक्षक एवं छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।

प्रस्तोता- डा. रवीन्द्र कुमार

Saturday, April 4, 2009

फिर हुया संगम कला-विज्ञान का


मुम्बई बी.ए.आर.सी. के साहित्य प्रेमियों ने कला, साहित्य और सामाजिक कार्यों के प्रोत्साहन हेतु "सबरस" नामक समूह की शुरुवात की है| साहित्य सृजन में अपने किये गए प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए, २९ मार्च २००९ के दिन मुम्बई में चेम्बूर इलाके के कलेक्टर कालोनी में एक काव्य गोष्टी का आयोजन किया गया| इसमें प्रवासी भारतीय साहित्य प्रेमियों की मौजूदगी इसे अंतराष्ट्रीय स्तर का बना देती है|आइये गोष्टी का एक सुखद सफ़र करते हैं ...

मुख्य अतिथि- अमेरिका से आयी प्रवासी भारतीय श्रीमती डॉ सरिता मेहता और गजलकार श्रीमती देवी नांगरानी |

अन्य वरिष्ठ साहित्य सृजक- श्रीमती शुक्ला शाह जिन्होंने नारी साहित्य सृजन को एक सम्मानजनक स्थान दिलवाया है, रंजन नटराजन जो "कुतुबनुमा" नामक पत्रिका की संपादिका हैं।

आयोजक- " सबरस " समूह, जिनमें कवि कुलवंत, श्री गिरीश जोशी और प्रमिला शर्मा सक्रीय रहें|

संचालक- लोचन सक्सेना

काव्य गोष्टी रचना पाठ- शाम ५.३० बजे काव्य गोष्टी की शुरूआत हुयी| माँ शारदा को नमन करते हुए, संचालक ने मुख्य अतिथि का परिचय दिया| प्रमिला शर्मा ने सभी उपस्थित रचनाकारों को गुलाब पुष्प देकर स्वागत किया|
रचनाओं के सुनने और सुनाने का सिलसिला शुरू हुया और रात ८.४५ तक चलता ही रहा| देवी नांगरानी ने अपनी ग़ज़ल गा कर सुनाई| वरिष्ट रचनाकार कपिल कुमार ने दोहे कहे। नीरज गोस्वामी ने गज़लें गायीं | नंदलाल थापर ने अपनी रचना "चूड़ी" सुनाई| शकुन्तला शर्मा जी ने देश भक्ति रचना गायी| मानिक मूंदे, जो मराठी के भी रचनाकार हैं, अपनी हिन्दी की समसामयिक रचना सुनाकर लोगों का ध्यान आकर्षित करते रहे | मुख्य अतिथि डॉ सरिता मेहता ने भी अपनी ग़ज़ल सुनाई | कवि कुलवंत ने " मुखौटा " की बातें अपनी रचना से की| अवनीश तिवारी ने देवी सरस्वती पर अपने छंद कहे और बसंत पर रचना सुनाई |

इसके अतिरिक्त ओमप्रकाश चतुर्वेदी, प्रमिला शर्मा, मंजू गुप्ता, त्रिलोचन, कुमार जैन था अन्य कई रचनाकारों ने रचना पाठन किया | गीत, ग़ज़ल, शेर, छंद और दोहे से सजी इस महफ़िल का समापन सभी के मेल मिलाप और आशीष-आशीर्वाद से हुआ|

मुम्बई से अवनीश एस तिवारी