पुणे दिनांक 25-26 जुलाई 2009 को पुणे में स्थित एस.एम.जोशी हिंदी माध्यमिक विद्यालय में महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे एवं महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी, मुम्बई (सांस्कृतिक कार्य विभाग, महाराष्ट्र शासन) के संयुक्त तत्वावधान में सर्व भारतीय भाषा सम्मलेन सुचारू रूप से संपन्न हुआ। कार्यक्रम का आरम्भ सरस्वती वन्दना से हुआ। दो दिवसीय इस कार्यक्रम के उद्घाटनकर्ता थे पद्मविभूषण, डॉ.मोहन धारिया (अध्यक्ष, वनराई व महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा, पुणे) एवं नंदकिशोर नौटियाल (कार्याध्यक्ष, महाराष्ट्र राज्य हिदी साहित्य अकादमी, मुम्बई)। मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित थे मा. ललितकुमार जैन (मैन आफ द इयर 2009, अध्यक्ष, पुणे बिल्डर्स असोसिएशन, पुणे), डॉ.सत्यपाल सिंह (कमीशनर आफ पुलिस, पुणे)। दिनांक 25-26 जुलाई 2009 को सर्व भारतीय भाषा सम्मलेन के प्रथम सत्र से लेकर चतुर्थ सत्र तक क्रमश: डॉ.सरोजा भाटे, डॉ.चंद्रकांत बांदिवडेकर, डॉ.मु.ब. शहा एवं डॉ. दामोदर खडसे की अध्यक्षता में सर्व संबंधित भाषा विषयतज्ञ मार्गदर्शक भिन्न-भिन्न भाषाओँ की विशेषता, विकास व योगदान के बारे में मार्गदर्शन करते रहे। सर्व भारतीय भाषाओं के इस अनूठे संगम में उत्तर-दक्षिण-पूरब और पश्चिम से आये भिन्न-भिन्न भाषाभाषी लेखकों-साहित्यकारों ने देश की सभी भाषाओं के बीच संवाद स्थापित करने की जरूरत पर बल दिया और कहा भारतीय संस्कृति के महीन तारों को जोड़ने का ठोस प्रयास अनुवाद के माध्यम से हो। लोग अंतरजाल (इंटरनेट) को अपनाए तथा हिन्दी को एक सूत्र में पिरोने हेतु संकल्पित रहें। राष्ट्रीय अस्मिता, संस्कृति एवं हिन्दी भाषा तथा साहित्य के सर्वोन्मुखी उन्नयन हेतु नित नए प्रयास किए जाए. लुप्त होती भाषाओं के कारण और निवारण पर भी चिंता व्यक्त की गयी। इस बात को स्वीकारा गया कि अंग्रेजी को अन्य भाषाओं के साथ सम्मिलित करने में हर्ज नहीं है पर उसे राष्ट्रभाषा के वैकल्पिक सेतु न माना जाए।
सत्र के दौरान भारतीय संत परम्परा का परिचय देते हुए डॉ.अशोक कामत ने भारतीय अस्मिता, संस्कृति का सम्मान व रक्षा करने में संतों की भूमिका कैसी रही व किस प्रकार वे जन-मन तक पहुँचने के लिए लोक भाषा को अपनाते थे, बताया और कहा कि हमें भी अन्य प्रान्तों की भाषा सीखनी चाहिए। इसके उपरांत कविता खर्वंदीकर ने अपने मधुर आवाज में संतवाणी प्रस्तुत किया। कार्यक्रम का संचालन गो.म.दाभोलकर और लक्ष्मी गिडवानी ने किया।
समापन सत्र में पारित हुए प्रस्ताव में एक स्वर से यह मांग की गयी है कि राजभाषा अधिनियम 1986 में जो संशोधन किये गये हैं, उन्हें तत्काल निरस्त किये जाएँ। अध्यक्षीय भाषण में नामदार किशन शर्मा जी ने कहा कि सभी भारतीय भाषाएँ हिन्दी के नेतृत्व में चलकर ही अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता की रक्षा कर पाने में समर्थ होंगी। भाषा भारती गीतमंच का आभार प्रकट किया तथा उन सारे विद्यार्थियों के गान को सराहा जो हर भाषा के गीतों को बड़े ही उत्साहपूर्वक सुरीली अंदाज़ में पेश किये जा रहे थे। इस अवसर पर पंडित हरिनारायण व्यास को 'कवि शिरोमणी' एवं डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित को 'साहित्य समीक्षक पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित जी की अस्वस्थता के कारण अनुपस्थित रहे।
अकादमी की ओर से कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने इस सर्वभाषा सम्मेलन के आयोजन के लिए वित्तीय सहयोग करने के लिए जहां राज्य सरकार का आभार व्यक्त किया, वहीं राज्य के उप मुख्य मंत्री आर.आर पाटिल की इस घोषणा का स्वागत किया कि महाराष्ट्र में ऐसा सम्मेलन हर वर्ष होना चाहिये।
अंत में विशेष सहयोगी व्यक्तियों का सम्मान महाराष्ट्र राष्ट्रभाषा सभा,पुणे के सचिव शेषराव जगताप ने किया व सभा के कार्याध्यक्ष सु.मो.शाह ने सम्मेलन को सफल बनाने में योगदान करने के लिए देश-भर से पधारे सभी भाषाओं के विद्वानों और अकादमी के सभी सदस्यों तथा सहयोगियों के प्रति आभार माना।
उल्लेखनीय बात यह है कि एस.एम.जोशी विद्यालय के महामहोपाध्याय दत्तोवामन पोतदार सभा गृह में, जहाँ यह समारोह संपन्न हुआ, एक पवित्र ज्ञान का मंदिर है जहाँ विद्यार्थियों में अनुशासन कूट-कूट कर भरी हुई है। धैर्य, कर्तव्य के प्रति निष्ठा व गुरुजनों के प्रति सम्मान को देख कर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज की यह युवा पीढी कल के सरताज होंगे.मात्र विद्यार्थी ही नहीं सभी शिक्षक- शिक्षिका गण भी उत्साही थे. दिल खुशी से भर गया। मैं आभार मानती हूँ कि इस सम्मलेन में मुझे एक व्याख्याता के रूप में भाग लेने के लिए अवसर प्रदान किया गया और ईश्वर से प्रार्थना है कि आगे भी ऐसे अवसर मिलते रहे।
सन् 85 में स्थापित 'परिचय' संस्था पिछले दो दशकों से भी ज़्यादा समय से साहित्यिक गतिविधियों के लिए बहुचर्चित रही है। संस्था की स्थापना अध्यक्षा 70 वर्षीय उर्मिल सत्यभूषण, जो स्वयं भी साहित्य में एक सशक्त हस्ताक्षर हैं, अपनी सदाबहार तथा कर्मठ शख्सियत द्वारा संस्था की गतिविधियाँ बनाए हुए हैं। हिंदी-उर्दू साहित्यकारों की सर्वाधिक लोकप्रिय संस्थाओं में से एक 'परिचय' भी है।
'परिचय' प्रतिमाह नई दिल्ली के 'Russian Cultural Centre' में साहित्यिक गोष्ठियां आयोजित करती है, जिन में पुस्तक लोकार्पण से ले कर किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर चर्चा तक अनेक गतिविधियाँ शामिल रहती हैं। कई काव्य गोष्ठियां भी इन गोष्ठियों का महत्वपूर्ण अंग हैं। संस्था की एक गतिविधि पुस्तक प्रकाशन भी है।
काव्य गोष्ठियों की शृंखला में दि. 23 जुलाई 2009 की काव्य गोष्ठी भी एक यादगार गोष्ठी रही जिस में मूलतः दो विशिष्ट कवयित्रियों - नमिता राकेश व ममता किरण - की कविताओं का पाठ हुआ व तदनंतर अन्य कई कवियों ने भी कविताएँ पढ़ी। गोष्ठी की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध कवि बालस्वरूप 'राही' ने की तथा मंच पर अन्य उपस्थित कविगण में थे उर्मिल सत्यभूषण, राजकुमार सैनी, सीमाब सुलतानपूरी व दिनेश मिश्र। संचालन सुपरिचित कवि अनिल वर्मा 'मीत' ने किया।
काव्य पाठ का प्रारंभ नमिता राकेश की कविताओं से हुआ। नमिता एम.ए (अंग्रेजी), एम.ए (इतिहास), पत्रकारिता डिप्लोमा व अन्य कई शैक्षणिक उपलब्धियों के अतिरिक्त अभिनय व खेल कूद से जुडी होने के साथ आकाशवाणी दूरदर्शन में भी सक्रिय रही। वर्त्तमान में वे भारत के आयकर विभाग में सहायक निदेशक हैं। वे छंद-मुक्त कविता, गीत व ग़ज़ल पर बराबर की निपुणता रखती हैं। इस गोष्ठी में पढ़ी गई व्यक्ति-मन के प्रतिबिम्ब रूप उनकी एक कविता यहाँ प्रस्तुत है-
एक पूरा दिन मुझे जीने के लिए कम पड़ता है/अधूरे रह गए कामों को अगले दिन करने की लालसा में/जा लेटती हूँ बिस्तर पर/अधूरी इच्छाएं, लालसाएं, आकांक्षाएं,अभिलाषाएं समेट कर/तह लगा कर/रख देती हूँ तकिये के नीचे//अपने पैर समेटते हुए/बंधनों की चादर तान लेती हूँ अपने ऊपर//पलकें बंद कर के सोने की कोशिश में/जाग जाते हैं न जाने कितने सोए हुए ख़याल//बंद पलकों के भीतर देखती हूँ/ उन्हें पूरा होते हुए/और न जाने कब सो जाती हूँ अगली सुबह के इंतज़ार में.
भारतीय समाज में नारी प्रारंभ से ही समाज के दमन व शोषण का शिकार रही है। इसे ले कर कोई कवयित्री किसी न किसी रूप में अपने मन के भाव कागज़ पर न उकेरे, यह असंभव है. नमिता द्वारा गोष्ठी में प्रस्तुत यह दोहा इसी बात का सबूत हैं।
जननी जग पोषित करे शोषित है वो आज जो सृष्टि-जननी बनी गिरी उसी पर गाज.
गांव की ओर उमुख युवा पीढ़ी की विडम्बना व देश में चल रही घातक सियासत पर नमिता की कलम:
चार पैसे क्या कमाने गाँव से बेटा गया फिर कभी वो पास बूढ़े बाप के आया नहीं.
और
हर तरफ मज़हब सियासत नस्लो-फिरका क़ौमो-जात है कहाँ हिन्दोस्ताँ हम को नज़र आया नहीं.
नमिता के बाद आई दूसरी विशिष्ट कवयित्री ममता किरण 'राष्ट्रीय सहारा', 'पंजाब केसरी', 'शाह टाईम्स', 'जे बी जी टाईम्स', व 'सिटी चैनल' आदि से सम्बद्ध रह कर अब स्वतंत्र लेखन कर रही हैं। भारतीय नारी का एक संवेदनात्मक हृदय व गीत-गज़ल तथा छंद-मुक्त काव्य पर अपनी अनूठी पकड़ के कारण प्रायः काफी डिमांड में रही हैं।
उन्होंने 'SAARC Writers' Conference' 'Indian Society of Authors' व 'ग़ालिब अकादेमी' आदि अनेक गोष्ठियों में काव्य पाठ किये हैं. इन्टरनेट पर 'रेडियो' सबरंग पर भी तरन्नुम में उनके मधुर गीत सुने जा सकते हैं। नारी की समाज में स्थिति को वे किस संवेदनात्मक तरीके से व्यक्त करती हैं, इस का मर्मस्पर्शी उदहारण है उन की एक गज़ल का यह शेर:
हाथ में मेरे नहीं एक भी निर्णय बेटी, कोख मेरी है मगर कैसे बचा लूं तुमको.
आज इस उदारीकरण और आधुनिकतम शिक्षा व प्रौद्योगिकी की बाढ़ में भी एक शर्मनाक सत्य यह है कि जन्म से पहले, कोख में ही बेटी की हत्या कर दी जाती है।
प्रायः साहित्य समीक्षक प्रेम-कविताओं को औरताना लेखन कह कर नकार देते हैं, पर नारी मन की शाश्वत समर्पण भावना के आगे ऐसे आलोचकों के तर्क धराशयी रह जाते हैं। जैसे:
सारी दुनिया चाहे जो कहती रहे मैं जिसे पूजूँ वही भगवन है.
ममता किरण ने कई गोष्ठियों में एक ग़ज़ल तरन्नुम में गाई है, जिस का मतला है:
कोई आंसू बहाता है, कोई खुशियाँ मनाता है ये सारा खेल उसका है, वही सब को नचाता है
इस शेर से मुझे यही शिकायत रही है कि ऐसे दार्शनिक/किस्मतवादी शेर व्यवहारिक व यथार्थ काव्य का हिस्सा नहीं होने चाहिए। पर इसी ग़ज़ल के दो अन्य शेर कवियत्री के चिंतन फलक में विस्तार के दर्शन भी कराते हैं:
बहुत से ख्वाब ले कर के वो आया इस शहर में था मगर दो जून की रोटी बमुश्किल ही जुटाता है.
घड़ी संकट की हो या फिर कोई मुश्किल बला भी हो ये मन भी खूब है रह रह के उम्मीदें बंधाता है.
ममता जी द्वारा प्रस्तुत एक छंद-मुक्त व कुछ कुछ लम्बी सी कविता की ये पंक्तियाँ ही कवियत्री की विस्तृत व वैयक्तिकता-मुक्त सोच से साक्षात्कार कराती हैं:
जन्म लूं यदि मैं फूल बन. खुशबू बन महकूँ, प्रार्थना बन कर-बद्ध हो जाऊं, अर्चना बन अर्पित हो जाऊं, शान्ति बन निवेदित हो जाऊं,बदल दूं गोलियों का रास्ता, सीमा पर खिल खिल जाऊं.
जिन अन्य कवियों ने काविताएं पढ़ी, उनमें कुछ अच्छी काव्य पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत हैं:
देवेन्द्र 'मांझी'
किसी को कुछ किसी को कुछ किसी को कुछ बताते हैं/यहाँ कुछ लोग अपनी ही हकीक़त भूल जाते हैं.
चिराग़ जैन
एक पल सूरज छिपा और फिर उजाला हो गया/लेकिन इस में चाँद का किरदार काला हो गया/साज़िशें सूरज निगलने की रची थी चाँद ने/पर वो अपनी साज़िशों का खुद निवाला हो गया.
(इस गोष्ठी से एक दिन पूर्व ही शताब्दी का सब से बड़ा सूर्य ग्रहण था, इस लिए चराग़ की चंद्रमा पर यह चुटकी सब को बहुत भा गई)।
दिल्ली में मैं पिछले चंद वर्षों में कई काव्य गोष्ठियों में गया और इन में मैं ने बहुत सुखद अनुभूति के साथ हिंदी व उर्दू गज़लकारों का अनूठा सम्मेलन भी देखा।
हिंदी और उर्दू दोनों की प्रसिद्व हस्तियों के एक ही मंच पर आने से इस विवाद के कोई अर्थ नहीं रह जाते कि हिंदी ग़ज़ल बेहतर कि उर्दू। उदाहरण के तौर पर मंच पर उपस्थित उर्दू शायरी के एक जाने माने हस्ताक्षर सीमाब 'सुल्तानपुरी' ने जो ग़ज़ल पढ़ी उस के मतले से ही हॉल तालियों की गड़गडाहट से गूँज उठा :
उसको खबर नहीं थी कि वो दायरे में था सदियों से चल रहा था मगर रास्ते में था.
उर्दू की ही दो और विभूतियाँ:
दर्द 'देहलवी'
अब मेरे दिल को छोड़ के जाना तो है नहीं वैसे भी ग़म का कोई ठिकाना तो है नहीं.
अहमद मजाज़ 'अमरोहवी'
मुझे तुझ से कुछ शिकायत न हुई न है न होगी तेरा वस्ल मेरी किस्मत न हुई न है न होगी मेरे दिल ने तुझ को चाहा तुझे बार बार पूजा कि कबूल ये इबादत न हुई न है न होगी.
कार्यक्रम संचालक अनिल वर्मा 'मीत' ने चार पंक्तियों में दिल की महिमा गाई-
आहों का पहरा होता है/दर्द जहाँ ठहरा होता है/दिल इक छोटी चीज़ सही पर/सागर से गहरा होता है.
अंत में अध्यक्ष बाल स्वरुप 'राही' ने दोनों विशिष्ट कवियत्रियों व अन्य कवियों को बधाई दी और एक ग़ज़ल भी प्रस्तुत की जिस का मतला है:
अपनी हस्ती के सबूतों को मिटाने के लिए याद करता हूँ तुझे रोज़ भुलाने के लिए
साहित्यकार और शब्द-शिल्पी शायद पर्यायवाची शब्द हैं, और इसी सन्दर्भ में मुझे उर्मिल सत्यभूषण की एक ग़ज़ल का यह शेर अक्सर याद रहता है, जो ऐसी सशक्त गोष्ठियों पर अपनी निर्णायक बात को स्पष्ट रूप से कहता है:
मैं जहाँ में शब्द-फूलों को रहूँगी बाँटती, एक खुशबू की तरह हर दिल को मैं महकाऊँगी.
लखनऊ की हिन्दी-ऊर्दू साहित्यिक परम्परा के रूप में एक और कड़ी के रूप में गुजिश्ता 19 जुलाई, 09 को सूर्योदय हाउसिंग सोसाइटी के कम्युनिटी हाल में एक बार फिर अलग-अलग पेशों से जुड़ें हुए शायरों और कवियों की एक महफि़ल सजाई गई। इसमें सेवा निवृत्त पुलिस महानिदेशक श्री महेश चन्द्र द्विवेदी, भारतीय वन सेवा के अधिकारी श्री मु. अहसन, लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रो. डा. साबिरा हबीब, बीरबल साहनी पुरावानस्पतिक संस्थान के वैज्ञानिक डा. चन्द्र मोहन नौटियाल, शायर श्री जमीन अहमद जमील, श्री मनीष शुक्ल, शायरा श्रीमती गजाला अनवर व वन विभाग में कार्यरत श्रीमती रेनू सिंह ने शिरकत की।
यह महफिल श्री मु. अहसन व श्री प्रदीप कपूर के प्रयासों से शुरू किए गए कार्यक्रम की अगली कड़ी थी। इन लोगों द्वारा विगत तीन वर्षों से लखनऊ स्थित ग़ैर पेशेवर कवियों व शायरों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए एक अनौपचारिक मंच उपलब्ध कराया जा रहा है। इसमें हिन्दी, उर्दू व अंग्रेजी के कवियों को आमंत्रित करके उनकी रचनाओं से रूबरू होने का लुत्फ़ उठाया जाता है। इस महफिल की निज़ामत लखनऊ विश्वविद्यालय की प्रोफेसर डा. शाबिरा हबीब द्वारा की गई। महफिल में सूर्योदय सोसाइटी के निवासी श्री अंशुमालि टंडन, श्रीमती निशा चतुर्वेदी, श्री प्रदीप कपूर, श्री सुरेन्द्र राजपूत व लखनऊ के अन्य साहित्य प्रेमी गणमान्य नागरिक उपस्थित थे।
डा. चन्द्र मोहन नौटियाल
सबसे पहले श्री महेश चन्द्र द्विवेदी द्वारा अपनी कविता 'एक अदना सा रेलवे स्टेशन' का पाठ किया गया:-
''याद रखो अगर तुम एक , अबल, अदना से स्टेशन बने रहे, तुम्हें प्रतिदिन, प्रतिपल, शक्तिशाली रेल गाडि़या जगायेंगी.........''
श्रीमती रेनू सिंह ने अपनी भावनाओं को गीत के माध्यम से कुछ ऐसे व्यक्त किया-
''आंखों में सिमटी नदिया की हर बूंद भी झर जाती है, मन रोता है जब अपनों से दूरी बढ़ जाती है''
डा. चन्द्र मोहन नौटियाल ने एक वैज्ञानिक दिमाग के संवेदनशील दिल में उपजी भावनाओं को कविता के माध्यम से सम्प्रेषित करते हुए सबको मोह लिया-
''जिसमें मिलन की ऊष्णता हो, और टीस दूरी की, जीवन के उतराव और चढ़ाव के उच्छवास हों, कविता यह सब है, और बहुत कुछ है..........''
श्रीमती गजाला अनवर ने अपनी बात को गज़ल के माध्यम से प्रस्तुत किया। गज़ल का मतला यूं है-
''अच्छा है कि चलता रहे ये रिश्ता कोई दिन और, दे सकते हो बातों से दिलासा कोई दिन और''
महफिल में शिरकत कर रहे लखनऊ के प्रसिद्ध शायर श्री जमील अहमद जमील ने दो खूबसूरत गज़लें पेश करके सबको वाह-वाह कहने पर मजबूर कर दिया। गज़ल के चन्द अशआर पेश हैं-
''मेरी सदा पे जो घर से निकल के आयें हैं, ये लोग मेरे ही सांचे में ढल के आएं हैं।''
'' मैं अपने दिल के टुकड़े जोड़कर फिर दिल बनाता हूं, मैं तन्हा हूं तो अब तन्हाई को महफिल बनाता हूं।''
श्री मनीष शुक्ल ने कुछ इस अंदाज में अपने दिल की बात कही-
''सूरत नहीं मिली कभी सीरत नहीं मिली, अपनी किसी भी शै से तबीयत नहीं मिली।''
महफिल का समापन श्री मु. अहसन के अशआर के साथ हुआ। वैसे तो श्री मु. अहसन अपनी खूबसूरत और बामाना नज़मों के लिए जाने जाते हैं, लेकिन इस बार उन्होंने मुतफर्रिक अशआर से सबको लुत्फअंदोज़ कर दिया। चन्द अशआर यूं हैं-
''तुम जो मुझ से पूछो हो क्यों गर्क-ए-उदासी बैठा हूं मैं, यूं समझों कुछ गिरती दीवारें हैं, थाम के बैठा हूं मैं।''
''वो फलक बोस इमारत है जहां, मेरे गांव का पोखरा था वहां।''
''आसमां से आग बरसे या लपट उठ्ठे जमीं से, उसको तो पत्थर तोड़कर ही शाम का चूल्हा जलाना है।''
काव्यपाठ करते महेश चन्द्र द्विवेदी
इसके बाद प्रो. साबिरा हबीब ने मक्सिम गोर्की की रूसी कविता का उर्दू में तरजुमा पेश करके सबको खयालों की एक अलग दुनिया में पहुंचा दिया और इसके साथ प्रो. साबिरा हबीब की खूबसूरत निजामत में चल रहा अदबी सफर अपने इख्तदाम तक पहुंचा। श्री मु. अहसन ने सूर्योदय सोसाइटी के श्री अंशुमालि टंडन व उनके पिता का आभार व्यक्त करते हुए आगामी 09 अगस्त, 2009 को दुबारा इसी जगह मिलने की सूचना के साथ सभी को धन्यवाद देते हुए कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा की।
प्रसिद्ध रंग कर्मी हबीब तनवीर और मनोहर सिंह को समर्पित
चुन्नी बाबू के रूप में गिरीश और पारो के रूप में प्रभा
शिमला।
पिछले दिनों शिमला के ऐतिहासिक गेयटी थियेटर में अखिल भारतीय रंग एवं कला मंच ’डिजाइन इंडिया’ द्वारा भारत में पहली बार, बांग्ला उपन्यासकार शरत्चन्द्र की अमर कृति देवदास पर आधारित तथा प्रख्यात लेखक श्री जगदम्बा प्रसाद दीक्षित द्वारा मंच के लिए रूपान्तरित नाटक देवदास की दो सफल प्रस्तुतियां अभिमन्यु पांडेय के निर्देशन में की गई। अभिमन्यु पिछले कई वर्षों से मुम्बई में रंगमंच तथा छोटे पर्दे की गतिविधियों से सक्रिय रूप से जुड़े रहे हैं। हाल ही में उनके द्वारा निर्देशित नाटक ’मैं एकाकी’ काफी चर्चा में रहा है जिसके अब तक 19 मंचन हो चुके हैं।
इस नाटक को करने का श्रेय शिमला के कलाकार गिरीश हरनोट को जाता है जो पिछले पांच सालों से मुम्बई में कई सीरियलों में अभिनय कर चुके है और बड़े कमर्शियल ब्रांडों के विज्ञापनों में मॉडल के रूप में अपनी व्यावसायिक पहचान बना चुके हैं। दीक्षित ने इस नाटक के मंचन का उत्तरदायित्व गिरीश को सौंपा जिन्होंने इसके मंचन के लिए अपनी गृहभूमि शिमला चुनी और गेयटी थियेटर के जिर्णोद्धार के ऐतिहासिक अवसर पर स्थानीय कलाकारों के साथ इसकी दो सफल प्रस्तुतियां 6 और 10 जुलाई, 2009 को बिना किसी सरकारी सहयोग से कीं। इन प्रस्तुतियों का सम्पूर्ण संयोजन ’डिजाइन इंडिया’ के मुख्य संरक्षक एवं समन्वयक एस.आर हरनोट किया। इन प्रस्तुतियों को प्रसिद्ध रंग कर्मी हबीब तनवीर और हिमाचल वासी मनोहर सिंह को समर्पित किया गया।
कलाकारों के साथ मुख्य अतिथि कृष्ण किशोर
डिजाइन इंडिया द्वारा प्रस्तुत नाटक देवदास का प्रतिपादन रूपान्तरकार ने आज के देशकाल के सामाजिक सरोकारों के दृष्टिगत अलग ढंग से किया है जिसकी वजह से इस कथा को एक नया रूप मिला है। क्षरित हो रहे ठेठ रूढ़िग्रस्त बांगला समाज और सांस्कृतिक परिवेश की कथा होते हुए भी नाटक का यह संस्करण मूलतः एक अति यर्थाथवादी मंचीय निष्पादन है जो हमारे समय की नई पीढ़ियों के आंतरिक आक्रोश और भावोन्नयन को जाहिर करता है। यह नाटक बीती सदी के पहले दशक में लिखा गया था जिसका अब तक तीन बार फिल्मांकन हुआ है। हर बार एक नए देवदास की कल्पना लेकर। नाटक के इस रूप में इसका पहली बार मंचन हुआ है, एक बिल्कुल नए और समसामयिक भावबोध के साथ। प्रस्तुत नाटक की विशेषता यह है कि इसका स्थायी भाव प्रेम की असफलता के साथ-साथ उससे उत्पन्न मनुष्य के अस्तित्व की दुश्वारियां भी हैं जिन्हें नाटककार दीक्षित ने मूलतः जीवन और मरण के विचारबिन्दुओं के माध्यम से हल किया है। यह एक श्रेण्य नाटक है जिसे समझने और सही आस्वादन के लिए आम और सुधि दर्शक को इसके एब्सर्ड शैली-शिल्प और ठोस विचार-दर्शन की गहराईयों व जटिलताओं से भी गुजरना होगा तथा नाटक की विलक्षण विरूपता से साक्षात्कार करना होगा।
पारो के रूप में स्वाति और चौधरी के रूप में राकेश
नाटक में अभिमन्यु पांडेय-देवदास, गिरीश हरनोट-चुन्नी बाबू और चैधरी महाशय की भूमिका में राकेश शर्मा थे जबकि पहली प्रस्तुति में पार्वती का किरदार उषा और चन्द्रमुखी का रितिका ने निभाया और दूसरी प्रस्तुति में ये भूमिकाएं उषा और प्रभा ने निभाई। ये चारों लड़कियां कथक की छात्राएं हैं जिनके सुलझे हुए अभिनय से यह कदापि नहीं लगा कि इन्होंने पहली बार किसी नाटक में अभिनय किया हैं। अभिमन्यु पांडेय ने जहां देवदास का किरदार अत्यन्त गंभीर और कलात्मक मुद्रा में निभाया वहां चुन्नी बाबू के किरदार में गिरीश हरनोट ने दर्शकों को बेहतरीन अभिनय से खूब हंसाया। महाशय की भूमिका में राकेश शर्मा ने दर्शकों के मन में अच्छी छाप छोड़ी। राकेश शिमला दूरदर्शन में समाचार वाचक के रूप में कार्यरत हैं। नाटक के प्रचार संयोजक जगदीश हरनोट थे। इस नाटक के लिए गीत व संगीत मुम्बई में ही तैयार किया गया है। गीतकार वी.के.मेहता हैं जिन्हें पामेला जैन, परमानंद यादव और रमीन्द्र जैसे प्रसिद्ध गायकों ने अपनी मधुर आवाज़ से संवारा है।
पहली प्रस्तुति में मुख्य अतिथि श्री कृष्ण किशोर, आस्टिन यूएसए से प्रकाशित इण्डो-अमेरिकन पत्रिका ’अन्यथा’ एवं अंग्रेजी पत्रिका 'Otherwise' के संपादक थे जिन्होंने डिजाइन इंडिया को पच्चास हजार रूपए के सहयोग देने की घोषणा की। उनके साथ प्रसिद्ध दलित लेखक व चिंतक मोहनदास नैमिशराय भी मौजूद थे। दूसरी प्रस्तुति में मुख्य अतिथि-श्रीमती आशा स्वरूप, मुख्य सचिव, हि॰प्र॰ सरकार एवं विशेष अतिथि के रूप में श्री मंजूर एहतेशाम, प्रख्यात कहानीकार पधारे जिन्होंने नाटक और कलाकारों की भूमिकाओं को खूब सराहा।
हर महीने के दूसरे रविवार को आयोजित होने वाली आनंदम् की 12वीं काव्य गोष्ठी पश्चिम विहार में जगदीश रावतानी आनंदम् के निवास स्थान पर 12 जुलाई, 2009 को जनाब ज़र्फ़ देहलवी की अध्यक्षता में संपन्न हुई। कहना न होगा कि इसके साथ ही आनंदम् की गोष्ठियों के सिलसिले को शुरू हुए एक साल भी पूरा हो गया। इस गोष्ठी की ख़ास बात ये रही कि कुछ शायर जो कुछ अपरिहार्य कारणों से नहीं आ पाए उन्होंने वीडियो टेली कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए इस गोष्ठी में शिरकत की जिसमें जनाब अहमद अली बर्क़ी आज़मी और पी के स्वामी जी भी शामिल थे।
हमेशा की तरह गोष्टी के पहले सत्र में “क्या कविता / ग़ज़ल हाशिए पर है?” विषय पर चर्चा की गई जिसमें ज़र्फ़ देहलवी, मुनव्वर सरहदी, शैलेश कुमार व जगदीश रावतानी ने अपने-अपने विचार रखे। निष्कर्ष रूप में ये बात सामने आई कि चूंकि पहले की बनिस्पत अब मलटीमीडिया की मौजूदगी से काव्य गोष्टियों, सम्मेलनो व मुशायरों में श्रोताओं की कमी दिखाई देती है पर कविता कहने व लिखने वालों व गम्भीर किस्म के श्रोताओं में इज़ाफ़ा ही हुआ है। इंटर नेट ने कवियों को अंतर-राष्ट्रीय ख्याति दिला दी है।
दूसरे सत्र के अंतर्गत गोष्ठी में पढ़ी गई कुछ रचनाओं की बानगी देखें –
अहमद अली बर्क़ी आज़मी- कौम है, किसका पैग़ाम है, क्या अर्ज़ करूँ ज़िन्दगी नामे गुमनाम है, क्या अर्ज़ करूँ कल मुझे दूर से देख के करते थे जो सलाम पूछते हैं तेरा क्या नाम है, क्या अर्ज़ करूँ
दर्द देहलवी- कहते हैं नेकियों का ज़माना तो है नहीं दामन भी नेकियों से बचना तो है नहीं। हर कोई गुनगुनाए ग़ज़ल मेरी किसलिए इक़बाल का ये तराना तो है नहीं।
शैलेश कुमार सक्सैना- आज फिर वह उदास है, जिसका दिमाग़ दिल के पास है जो मिला रहे हैं दूध में ज़हर, उन्हीं के हाथ में दारू का गिलास है।
जगदीश रावतानी आनंदम् के साथ मनमोहन शर्मा तालिब
मनमोहन शर्मा तालिब- गुरबत को हिकारत की निगाहों से न देखो हर शख्स न अच्छा है न दुनिया में बुरा है। सभी प्यार करते हैं एक दूसरे से मुहब्बत माँ की ज़माने से जुदा है।
क़ैसर अज़ीज़- जाने किस हिकमत से ऐसी कर बैठे तदबीरें लोग ले आए मैदाने अमल में काग़ज़ की शमशीरें लोग। रंज ख़ुशी में मिलना जुलना होता है जो मतलब से अपनी दया की खो देंगे इक दिन सब तासीरें लोग।
जगदीश रावतानी आनंदम् के साथ भूपेन्द्र कुमार
भूपेन्द्र कुमार – बासी रोटी की क़ीमत तो तुम उससे पूछो यारो जिसको ख़ाली जेबें लेकर साँझ ढले घर आना है। तूफानों से क्रीड़ा करना है अपना शौक़ पुराना भागे सारी दुनिया ग़म से अपना तो याराना है।
जगदीश रावतानी आनंदम्- सुलझ जाएगी ये उलझन भी इक दिन तेरी जुल्फों का पेचो ख़म नहीं है। अमन है चैन है दुनिया में जगदीश फटे गर बम तो भी मातम नहीं है।
पी.के. स्वामी- दोस्तों को देख कर दुश्मन सदा देने लगे जिन पे तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे। कुछ सिला मुझको वफाओं का मेरी पाने तो दो ज़हर के बदने मुझे तुम क्यों दवा देने लगे।
मुनव्वर सरहदी- मुझे आदाबे मयख़ाना को ठुकराना नहीं आता वो मयकश हूँ जिसे पी कर बहक जाना नहीं आता। दिले पुर नूर से तारीकियाँ मिटती हैं आलम की मुनव्वर हूँ मुझे ज़ुल्मत से घबराना नहीं आता।
जगदीश रावतानी आनंदम् के साथ ज़र्फ़ देहलवी
ज़र्फ देहलवी- गाँव की मिट्टी, शहर की ख़ुशबू, दोनों से मायूस हुए वक़्त के बदले तेवर हमको, दोनों में महसूस हुए।
खेल खिलंदड़, मिलना-जुलना, अब न रहे वो मन के मीत भूल गईं ढोलक की थापें, बिसर गए सावन के गीत चिड़ियों की चहकन सब भूले, भूले झरनों का संगीत तरकश ताने प्रचुर हुए सब, मृदुता में कंजूस हुए।
अंत में अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में जनाब ज़र्फ़ देहलवी ने आनंदम् के एक साल पूरा होने पर बधाई दी और नए कवियों को जोड़ने व कविता को आधुनिक तकनीक के ज़रिए एक नए मुकाम तक पहुँचाने के लिए प्रशंसा की और सबके प्रति धन्यवाद प्रकट किया।
हिंदी भाषा साहित्य परिषद (खगडिय़ा) ने साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योग्यदान के लिए अपना सर्वोच्च सम्मान 'स्वतंत्रता सेनानी रामोदित साहु सम्मान' युवा साहित्यकार व पत्रकार फ़ज़ल इमाम मल्लिक को एक भव्य समारोह में दिया गया। यह सम्मान हर साल देश के किसी एक साहित्यकार को दिया जाता है। परिषद ने प्रेमचंद स्मृति पर्व के समापन के मौके पर फ़ज़ल इमाम मल्लिक को सम्मानित किया। सम्मान स्वरूप उन्हें स्मृति चिन्ह, चादर व मानपत्र दिया गया। फ़ज़ल इमाम मल्लिक जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में बतौर वरिष्ठ उपसंपादक जुड़े हैं। साहित्यिक पत्रकारिता के दौरान उन्होंने पटना से 'सनद' और 'शृंखला' पत्रिका निकाली थी। 'सनद' अब दिल्ली से प्रकाशित हो रही है और हिंदी साहित्य में उसकी अपनी पहचान है। इसके अलावा काव्य संग्रह 'नवपल्लव' और लघुकथा संग्रह 'मुखौटों से परे' का संपादन भी उन्होंने किया है। फ़ज़ल इमाम मल्लिक को इससे पहले राष्ट्रीय स्तर के कई पुरस्कार और सम्मान मिल चुके हैं। पत्रकारिता के अलावा कहानी, कविता और लघुकथाएं देश की तमाम बड़ी-छोटी पत्रिकाओं में प्रकाशित। 'जनसत्ता' में बतौर खेल पत्रकार अपने करियर की शुरुआत करने वाले फ़ज़ल इमाम मल्लिक ने दूरदर्शन के नेशनल नेटवर्क के लिए फुटबाल, टेनिस, एथलेटिक्स व बास्केटबाल की कमेंट्री भी दी है। पिछले साल रायपुर में लघुकथा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योग्यदान के लिए 'सृजन सम्मान' संस्था द्वारा उन्हें सम्मानित किया जा चुका है। हाल ही में दुबई की इंटरनेट पत्रिका 'अभिव्यक्ति' द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में 'फ़ज़ल इमाम मल्लिक की कहानी 'उदास आंखों वाला लडक़ा' पुरस्कृत।
कथा यू.के. सम्मान समारोह में भगवानदास मोरवाल और मोहन राणा सम्मानित
10 जुलाई 2009 । लंदन
(बैठे हुए बाएं से मोहन राणा, ज़कीया ज़ुबैरी, टोनी मैकनल्टी, मधु अरोड़ा, श्रीमती मोहन राणा। खड़े हुएः आनंद कुमार, तेजेन्द्र शर्मा, विभाकर बख़्शी, के.सी. मोहन, रवि शर्मा, इंदिरा, अजित राय)
ब्रिटेन के सांसद और पूर्व आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री टोनी मैक्नल्टी ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ़ कॉमन्स में आयोजित एक गरिमामय समारोह में हिन्दी के सुपरिचित कथाकार भगवानदास मोरवाल को उनकी अनुपस्थिति में 15वां अंतर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान प्रदान किया। किसी कारणवश मोरवाल पुरस्कार लेने लंदन नहीं आ सके। यह सम्मान मोरवाल के नवीनतम उपन्यास ‘रेत’ (राजकमल प्रकाशन) के लिये दिया गया। उनकी ओर से यह सम्मान उनके मित्र और दिल्ली के सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय ने प्राप्त किया। इस अवसर पर उन्होंने ब्रिटेन के हिन्दी लेखकों के लिये स्थापित ‘पद्मानंद सम्मान’ ब्रिटिश हिन्दी कवि मोहन राणा को उनके ताज़ा कविता संग्रह ‘धूप के अन्धेरे में’ (सूर्यासत्र प्रकाशन) के लिये प्रदान किया। इस सम्मान का यह दसवां साल है।
टोनी मैक्नल्टी ने लंदन एवं ब्रिटेन के अन्य क्षेत्रों से बड़ी संख्या में आए एशियाई लेखकों और ब्रिटिश साहित्य प्रेमियों को संबोधित करते हुए कहा कि भाषा संगीत की तरह होती है। यदि आप किसी दूसरे की भाषा समझते हैं तो आप ज़िन्दगी की लय को समझ सकते हैं। दूसरों की भावनाओं को समझ सकते हैं। भाषा में आप सपने रच सकते हैं। इस तरह भाषा के माध्यम से आप मनुष्यता तक पहुंच सकते हैं। उन्होंने हिन्दी में अपना भाषण शुरू करते हुए कहा की भाषाओं के माध्यम से हम सभ्यताओं के बीच संवाद स्थापित कर सकते हैं। भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं बल्कि आपकी पहचान होती है। उन्होंने कहा कि कथा यू.के. पिछले कई वर्षों से ब्रिटेन में बसे एशियाई समुदाय के बीच भाषा और साहित्य के माध्यम से संवाद स्थापित करने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है।
हाउस ऑफ़ लॉर्डस में भारतीय मूल के सांसद लॉर्ड तरसेम किंग ने कहा कि ब्रिटेन जैसे देश में सारी भाषाएं एक दूसरे की पूरक हैं। अंग्रेज़ी जानना हिन्दी का विरोध नहीं है। उन्होंने कहा कि कथा यू.के. भाषा और साहित्य के क्षेत्र में काम कर रही संस्थाओं के बीच समन्वय का काम कर रही है।
लेबर पार्टी की काउंसलर और कथा यू.के. की सहयोगी संस्था एशियन कम्यूनिटी आर्ट्स की अध्यक्ष ज़कीया ज़ुबैरी ने भगवानदास मोरवाल के पुरस्कृत उपन्यास ‘रेत’ का परिचय देते हुए कहा कि लेखक ने काफ़ी शोध के बाद एक ऐसी कथा पेश की है जिसका समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाना चाहिये। इस उपन्यास में कंजर जाति की स्त्रियों के जीवन संघर्ष का ऐसा प्रमाणिक चित्रण है कि पाठक चकित रह जाता है।
लंदन में नेहरू सेंटर की निदेशक मोनिका कपिल मोहता ने कहा कि कथा यू.के. को अब ब्रिटेन के साथ साथ युरोप, अमरीका और अन्य देशों में भी अपनी गतिविधियों की नेटवर्किंग करनी चाहिये। भारतीय उच्चायोग में मंत्री समन्वय आसिफ़ इब्राहिम ने कहा कि भाषा एवं संस्कृति के बिना जीवन अधूरा है। इसे बचाने की हर संभव कोशिश करनी चाहिये। उच्चायोग के हिन्दी एवं संस्कृति अधिकारी आनंद कुमार ने कथा यू.के. के प्रयासों की सराहना करते हुए विदेशों में हिन्दी के नाम पर हो रही गतिविधियों में गंभीरता और गुणवत्ता लाने की वक़ालत की।
कथा यू.के. के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा ने 15 वर्षों की कथा-यात्रा को याद करते हुए कहा कि मुंबई से शुरू हो कर हम ब्रिटेन की संसद तक पहुंचे हैं। अब हम अपनी गतिविधियों को नया विस्तार देना चाहते हैं। कथा यू.के. आने वाले दिनों में विदेशों में और भारत में हिन्दी भाषा और साहित्य से जुड़े कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का आयोजन करने जा रही है। इससे विश्व स्तर पर हो रहे निजि प्रयासों की नई नेटवर्किंग सामने आएगी।
इस अवसर पर मोहन राणा ने सम्मान स्वीकार करते हुए अपनी नई कविताओं का पाठ किया। पुरस्कृत उपन्यास रेत उपन्यास पर सुशील सिद्धार्थ एवं मोहन राणा के काव्य संकलन धूप के अन्धेरे में पर गोबिन्द प्रसाद के आलेखों का पाठ किया गया। इंदु शर्मा की पुत्री दीप्ति कुमार ने भगवानदास मोरवाल और ललित मोहन जोशी ने मोहन राणा का परिचय दिया। मधु अरोड़ा (मुंबई) ने कथा यू.के. 15 वर्षों की यात्रा का विवरण दिया। सरस्वती वंदना जटानील बैनरजी ने प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन किया सनराइज़ रेडियो के लोकप्रिय कलाकार रवि शर्मा ने।
कथा यू.के. के इस आयोजन में हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती एवं अंग्रेज़ी भाषा के लेखक बड़ी संख्या में शामिल हुए। पूर्व पद्मानंद सम्मान विजेता डा. गौतम सचदेव, दिव्या माथुर एवं गोविन्द शर्मा के अतिरिक्त समारोह की गरिमा बढ़ाने के लिये मौजूद थे सर्वश्री मधुप मोहता, प्रो. अमीन मुग़ल, प्रो. जगदीश दवे, बलवन्त जानी (भारत), के.सी. मोहन (प्रलेस - पंजाबी), डा. इतेश सचदेव (सोआस विश्विद्यालय), कैलाश बुधवार, डा. नज़रूल इस्लाम, अचला शर्मा, वेद मोहला, ग़ज़ल गायक सुरेन्द्र कुमार एवं इन्द्र स्याल, इलाहबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुधीर नारायण सक्सेना, अनुज अग्रवाल (सूर्यास्त्र प्रकाशन), डा. हबीब ज़ुबैरी, महेन्द्र दवेसर, जय वर्मा, डा. महीपाल वर्मा, विभाकर बख़्शी एवं रमेश पटेल।
प्रस्तुति- दीप्ति कुमार (संयोजक– कथा यू.के. सम्मान समिति)
नागपुर, 10 जुलाई। मराठी भाषा के दिग्गज कवि कुसुमाग्रज के लोकप्रिय गीत ' वेडात मराठे वीर दौडले सात' के हिंदी गीतानुवाद की गूंज आज महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी की वेबसाइट पर सुनाई पड़ी। वेबसाइट का लोकार्पण आज अकादमी द्वारा आयोजित द्वितीय सर्व भारतीय भाषा सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह के हाथों हुआ। इस वेबसाइट पर सुरेश भट, कुसुमाग्रज जैसे मराठी के प्रसिद्ध कवियों के लोकप्रिय मराठी गीतों के हिन्दी अनुवाद की संगीतबद्ध प्रविष्टियाँ डाली गई हैं। मराठी गीतों का हिन्दी अनुवाद जहाँ हिन्द-युग्म के कवि तुषार जोशी ने किया है, वहीं उन गीतों में हिन्द-युग्म के ही प्रसिद्ध गायक सुबोध साठे ने अपनी आवाज़ दी है। अकादमी आने वाले दिनों में इस वेबसाइट पर मराठी के सभी प्रसिद्ध कवियों की कविताओं के हिन्दी अनुवाद को सस्वर प्रस्तुत करना चाहती है। जहाँ इस वेबसाइट का डिजाइन नागपुर की कम्पनी वेब-एन-मीडिया टेक्नोलॉजी लिमिटेड ने किया वहीं इसे विकसित करने और इसके प्रबंधन की जिम्मेदारी शैलेश भारतवासी को सौंपी गई है।
वेबसाइट के लोकार्पण के बाद अपना वक्त देते कृपाशंकर सिंह
सर्व भारतीय भाषा सम्मेलन के तीन दिवसीय आयोजन की शुरुआत आज नागपुर के इंडियन मेडिकल एसोसिएशन हॉल में हुई। रविवार शाम तक चलनेवाले इस सम्मेलन में लगभग सभी भारतीय भाषाओं के विद्वान कुल 10 सत्रों के दौरान हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की स्थिति, उनकी विकास प्रक्रिया एवं उनके अंतस्संबंधों पर चर्चा करेंगे । शनिवार से सम्मेलन के चर्चा सत्रों का आयोजन सीताबर्डी के महाराजबाग रोड स्थित म्योर मेमोरियल हॉस्पिटल के डाइ आर्च हॉल में किया गया है । आज उद्घाटन सत्र में वेबसाइट की जानकारी देते हुए अकादमी के कार्याध्यक्ष डॉ. नंदकिशोर नौटियाल ने कहा कि महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी की वेबसाइट से हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ विश्व समुदाय से भी जोडऩे का द्वार खुलेगा। नौटियाल के अनुसार इस वेबसाइट को http://www.maharashtrahindi.org पर देखा जा सकता है ।
कृपाशंकर सिंह
गौरतलब है कि अकादमी भाषाई एकता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता को मूर्त रूप देने के लिए सर्व भारतीय भाषा सम्मेलन का आयोजन पिछले वर्ष से करती आ रही है । सम्मेलन के चर्चा सत्रों में एक महत्त्वपूर्ण सत्र शनिवार की शाम चार बजे अनुवाद एवं तकनीकी क्रांति को लेकर आयोजित किया गया है । इस सत्र के दौरान विश्व के पहले द्विभाषीय समांतर कोश (थिसॉरस) का प्रदर्शन किया जाएगा और मशीनी अनुवाद की अत्याधुनिक तकनीकों से भी दर्शकों को परिचित कराया जाएगा । इसी सत्र में उन तकनीकों की जानकारी भी दी जाएगी जिनकी मदद से भारतीय भाषाओं में भी कम्प्यूटर एवं इंटरनेट पर उतनी ही आसानी से काम किया जा सकता है, जैसे अंग्रेजी में होता आ रहा है।
उद्घाटन सत्र में अपना वक्तव्य देते महाराष्ट्र सरकार के मंत्री अनीस अहमद
कविवर ओम व्यास का निधन आज सुबह 2:45 बजे अपोलो हास्पिटल में हो गया। अंतिम यात्रा AIIMS शवगृह से दिल्ली हवाई अड्डा के लिए 8 जुलाई की दोपहर 12:30 बजे शुरू होगी। पाठकों को याद होगा कि 8 जून 2009 को सड़क दुर्घटना में ओमप्रकाश आदित्य समेत तीन कवियों की मौत हो गई थी। कवि ओम व्यास भी उसी दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हुए थे और अपोलो हास्पिटल, दिल्ली में ज़िंदगी और मौत से संघर्ष कर रहे थे। कवि ओम व्यास 'ओम' की गिनती मंच के प्रमुख व्यंगकारों और हास्य-कवियों में होती है।
आलोचना- कितनी भी समर्थ हो- कभी अंतिम वाक्य नहीं होती
हिन्दी के शीर्ष आलोचक प्रो. आनंद प्रकाश दीक्षित दिल्ली में गुरुवार को अपनी पुस्तक ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ के लोकार्पण के अवसर पर अपनी वृद्धावस्था एवं अस्वस्थता के कारण पुणे से नहीं आ सके थे, किंतु इस अवसर पर पढ़े जाने के लिए उन्होंने पुस्तक के प्रकाशक, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली के प्रबंध निदेशक सुरेन्द्र मलिक को एक पत्र भेजा था, जिसका पाठ उक्त अवसर पर किया गया। यह महत्त्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक पत्र हम अपने पाठकों के अवलोकनार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी बिंदु पर यह भी बताना समीचीन होगा कि प्रो. नामवर सिंह ने दीक्षित जी के महत्त्वपूर्ण दाय का स्मरण करते हुए कहा-यह हिन्दी में पहली बार हुआ है कि किसी कृति के लोकार्पण के साथ उसी कृति पर एक महत्त्वपूर्ण आलोचना-ग्रंथ का भी लोकार्पण हुआ हो। जिसके लेखक स्वयं हिन्दी के बड़े आचार्य हैं।
प्रिय श्री सुरेन्द्र जी,
सादर सस्नेह नमः!
श्री ‘उद्भ्रांत’ की काव्यकृतियों के साथ-साथ मेरी पुस्तक ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ के लोकार्पण-समारोह में 2 जुलाई को मेरा उपस्थित रहना संभव न होगा। आयु के इस छियासिवें ढलान पर गिरता स्वास्थ्य लंबी उड़ान भरने के अनुमति नहीं देता। अभाग्य मेरा! उपस्थित रह पाता तो पंक्तेय साहित्यिक मित्रों तथा नई पीढ़ी के सूर्योदयी सारस्वत समुदाय से मिलकर कुछ ज्ञान-समृद्ध हो पाता। मेरी उपस्थिति की इतनी ही सार्थकता हो सकती थी। उससे वंचित रह जाने का मुझे गहरा दुःख है।
त्रेतायुगीन स्त्री और दलित की स्थिति का चित्रण और सबलीकरण कवि का अभिष्ट
इस अवसर पर मुझसे कुछ अपेक्षित हो सकता तो यही कि मैं लोकार्पित की जाने वाली रचनाओं, विशेषतः ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’, के विषय में उसके रचना-तंत्र और बहुत हुआ तो अपने रचना-कर्म को लेकर परिचय के दो शब्द कहूँ। लेकिन ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ तो एक आलोचनात्मक कृति है। ‘त्रेता’ काव्य के बिना उसका अस्तित्व ही कहाँ? अतः उसका परिचय भी प्रकारांतर से ‘त्रेता’ का ही परिचय है। अगर उससे अलग कुछ और हो सकता है तो शंका, उत्सुकता अथवा जिज्ञासावश इतना जानना ही कि आखि़र मैंने इसे क्यों लिखा? लिखा, इसलिए कि मुझसे लिखा लिया गया। जी! कवि के द्वारा नहीं, ‘त्रेता’ के द्वारा। ‘त्रेता’ की मूल प्रति पढ़कर मैं अपने आप-आप को रोक ही नहीं सका कि चुप रहूँ। उठाए हुए कामों को त्वरा कर मैंने यह पुस्तक लिखी है। एक रौ में, गो कि अनर्थक और अतिरिक्त भावुकता को संयमित करते, साधते हुए। पर काव्य के द्वारा विवश किया जाना अपने-आप में उसके रचनाकार की कवित्व-शक्ति के द्वारा विवश किया जाना ही नहीं है तो और क्या है? और इस अर्थ में कहूँ कि कवि के द्वारा विवश किया गया, तो क्या वह मिथ्या होगा? कवि को उसके श्रेय से वंचित करना क्या उचित होगा?
‘त्रेता’ को पढ़ते हुए मेरे कई अनुमान ग़लत साबित हुए। नाम के आधार पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘द्वापर’ की याद आई। लेकिन नाम-साम्य कभी-कभी कितना भ्रामक हो सकता है, यह रहस्य बनने से पहले ही खुल गया। काव्य के कुछ पन्ने पलटने से लगा था ‘त्रेता’ और कुछ नहीं, थोड़े फेर-बदल के साथ प्रस्तुत किया गया रामकथा-काव्य है। सोचा, चलो अच्छा हुआ; आयु के इस मोड़ पर ‘राम-नाम सुमिरन के बहानो’ है। पढ़ते-पढ़ते यह अनुमान भी पंगु प्रतीत होने लगा। पंगु इसलिए कि यह सत्य होते हुए भी कि इस काव्य का मूलाधार भी है रामकथा ही वह उस अर्थ में सत्य नहीं है जिस अर्थ में परंपरित रामकथा-काव्यों में दीख पड़ती है। रामकथा का गायन कवि का उद्दिष्ट नहीं है, न उसका वैसा क्रम-व्यवस्थापन ही है। कवि का इष्ट है त्रेता युग में विभिन्न जातियों, वर्गों, वर्णों आदि की विभिन्न वय और कर्म वाली स्त्रियों की पुरुष-वर्चस्व वाले समाज में सामाजिक स्थिति का आकलन करना। वर्तमान में प्रचलित स्त्री-विमर्श के विभिनन पहलुओं से त्रेता-युगीन स्त्री की स्थिति का चित्रण और सबलीकरण कवि का अभीष्ट है। पर वह अकेला ही नहीं है। दलित-विमर्श उसका दूसरा अभीष्ट है। रामकथा का विराट फलक उसके इन दोनों अभीष्टों की संपूर्ति का साधन है, साध्य नहीं। ‘त्रेता’ वस्तुतः उत्तर-आधुनिकता का काव्य है, जिसका निर्मिति में समाजवादी-समतावादी प्रगतिशील तत्वों का भी योगदान है।
‘त्रेता’ एक रचनाविधान जटिल है-एक प्रकार से स्वयं कवि के लिए चुनौती भरा और पाठक की काव्यबोध-शक्ति की परीक्षा लेता हुआ। वाल्मीकि, तुलसी, बौद्ध और द्रविड़ रामकथा का संघात है ‘त्रेता’। वाल्मीकि का यथार्थ और तुलसी का अवतारवाद दोनों एकत्र हैं। चरित्रों और घटनाओं में कवि की समकालीन समस्याओं का नियोजन अलग। सबकी संभावित आपसी टकराट से पार पाने का विश्वस्त मार्ग निकाल लेना कवि की कुशलता का ही प्रमाण है।
दीखने में ऊपरी तौर पर काव्य का संपूर्ण ढाँचा कथात्मक लंबी मुक्तक कविताओं के संग्रह जैसा है, जिसमें प्रत्येक पात्र (स्त्री-पात्र) की कथा स्वतंत्रा रूप से प्रायः जन्म लेती और वहीं समाप्त हो जाती है, प्रबंध काव्य के लिए आवश्यक शास्त्रविहित कथावस्तु के विकास, उत्थान-पतन और फल-परिणाते आदि की नियमित संरचना का पालन यहाँ नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में इसे महाकाव्य तो क्या सामान्य प्रबंधकाव्य कहने में भी कठिनाई होती है। लेकिन कवि ने इसे महाकाव्य कहा है और हमने भी आरंभ में इसे ‘अनिबद्ध-निबद्धकाव्य’ की संज्ञा देते हुए महाकाव्यत्व-विवेचन के प्रसंग में, महाकाव्य के स्वरूपाधायक नवीन तत्वों का निर्धारण करने के साथ, महाकाव्य ही स्वीकार किया है। हमारी दृष्टि में ‘त्रेता’ काव्य शास्त्रीय रुढ़ियों में सेंध मारने वाला काव्य तो है ही, उन आधुनिक कविकर्मरत रचनाकारों की उस धारणा का ध्वंस करने वाला काव्य भी है जो वर्तमान को महाकाव्य की रचना के अनुकूल नहीं मानते।
विभिन्न जातियों-वर्गों-वर्णों की त्रेतायुगीन स्त्रियों की सामाजिक स्थिति का आकलन ही त्रेता का अभिष्ट है उत्तर आधुनिक महाकाव्य त्रेता की निर्मिती में समाजवादी-समतावादी और प्रगतिशील तत्वों का भी योगदान है।
प्रश्न अभी और भी बहुत-से हैं। लेकिन उल्लेख के लिए यहाँ दो ही सही। जटिल काव्य-रूप के कारण विकट प्रश्न नाग्रव का है। क्या श्रीराम कथा-नायक है और सीता नायिका? क्या ‘त्रेता’ नायिका प्रधान काव्य है? क्या कालिदास के ‘रघुवंश महाकाव्य की भांति इसे भी नायक (अर्थात् नायिका) बहुल काव्य माना जाय? क्या शास्त्रोक्त नायिका ही यहाँ नायक है? दूसरा प्रश्न इससे भी विकट है। ‘उद्भ्रांत’ की एक सिद्धहस्त गीतकार की छवि पर विमुग्ध कुछ विदग्ध कवि मित्र उनकी मुक्तछंद रचना देखकर संदेह से भर उठते हैं। प्रश्न करते हैं-‘इसमें कविता कहाँ है?’ आलोचक की दृष्टि से यह प्रश्न हमारे विचार का मूल बिंदु होना ही चाहिए था। ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ में इन और ऐसे प्रश्नों के हमने यथामति उत्तर दिए हैं।
इस सबके बाद यह जानना रंजक होगा कि ‘त्रेता’ को महाकाव्य कहते हुए भी हमने उसके कवि को कहीं ‘महाकवि’ नहीं कहा है। हमारे लिए अभी यह प्रश्न अनिर्णीत है कि महाकाव्य का रचयिता कवि अधिकार-सिद्ध रूप में महाकवि मान लिया जा सकता है या कि उस पद के लिए किन्हीं और मूल्यों का संधान करना होगा!
दूसरा प्रश्न जो हमें विकल करता है, और जिसे हमने उठाया भी है, कुछ समाधान भी दिया है, यह कि यदि गद्य में कल्पित कथा के आधार पर कहानियों और उपन्यासों की रचना प्रभावी ढंग से की जा सकती है तो प्रबंध काव्य की रचना कल्पित कथा के आधार पर क्यों नहीं की जाती या नहीं की जा सकती? हम इसका कोई प्रामाणिक और आश्वस्तिकारी उत्तर खोजना चाहते हैं।
अब शायद यह कहना शेष नहीं है कि इस अन्तर्यात्रा में आलोचक की क्या भूमिका रही है। तमाम संवाद-विवाद में उलझते हुए वह कवि के अंतर्तम तक पहुँचने के लिए यलवान रहा है। फिर भी, क्योंकि यह एक पहल है और आलोचक साहित्य के लोकतंत्र का विश्वासी है और इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि यदि कविता कभी ख़त्म नहीं होती तो आलोचना भी, कितनी समर्थ क्यों न हो, अंतिम वाक्य नहीं होती, अतः अपनी इस प्रस्तुति की प्रवर्तन और दिशा-संकेत मानकर वह काव्यमर्मी विद्जनों के त्रेता-विषयक विवेचनात्मक परिणामों की अवगति के लिए समुत्सुक है।
कृप्या उचित समझे तो मेरे इस नातिविस्तृत निवेदन को आयोजन में पढ़े जाने का गौरव प्रदान करें ताकि अपनी अनुपस्थिति के दोष से मैं कुछ मुक्त हो सकूँ।
"उद्भ्रांत की गीत की साधना घूम-फिर कर बार-बार प्रकट होती है। उन्होंने गीत से शुरू किया था। उनके छंदों की लय से यही पता चलता है। उनमें गहरा समकालीन बोध है मगर वे छंदों की लय अपनी मुक्त छंद की कविताओं में भी ले आए।’ ‘अनाद्यसूक्त’ उनकी अब तक की सर्वोत्तम कृति है जहाँ उन्होंने शब्दों के मितव्यय से बड़ी बात कहने का सफल प्रयोग किया है।’ उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि ‘उद्भ्रांत जी अब साठ साल के हो गए हैं और इस कार्यक्रम को उनकी षष्ठिपूर्ति समारोह के रूप में मैं देखता हूँ और उन्हें शतायु होने की शुभकामनाएं देता हूँ। अब उन्हें दूसरों की किताबों का विमोचन करना चाहिए।’
उन्होंने कहा कि ‘‘रवीन्द्रनाथ भी एक महाकाव्य लिखना चाहते थे लेकिन एक गीत में वे कहते हैं कि यह अब संभव नहीं है क्योंकि सरस्वती के नर्तन से उसके पांवों की गति लगातार उस सुगठन को तोड़ रही है जो महाकाव्य की रचना का आधार होता है। हिन्दी में भी महाकाव्य की रचना पीछे छूट गई। उद्भ्रांत ने महाकाव्य लिखने का प्रयास किया है। यह हिन्दी में पहली बार हो रहा है कि एक कवि रामायण काल की दर्जनों स्त्रियों की कहानी को एक सूत्र में बांध रहा है। उद्भ्रांत ने अनेक स्त्री पात्रों के माध्यम से समकालीन प्रश्नों और जीवन यथार्थ पर जो बात कही है वह एकदम नई बात है। इससे पहले कभी यह बात किसी अन्य की सोच में नहीं आई। उद्भ्रांत ने लोक में विद्यमान स्मृतियों का भी यहाँ अतिक्रमण किया है। शबरी का प्रसंग ऐसा ही प्रसंग है। शबरी बेर खाने बढ़ा राम का हाथ, मन में आये इस भाव के चलते, पकड़ लेती है कि कहीं वे खट्टे हों! और इस तरह की अनेक नई उद्भावनाएँ 'त्रेता' में हमें मिलती है। इन्होंने 'त्रेता'की भूमिका में और काव्य में भी यह लिखा है कि त्रेता दरअसल कलि है और कलि ही त्रेता है।
उक्त विचार शिखर आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने उद्भ्रांत की दो पुस्तकों ‘त्रेता’ और ‘अनाद्यसूक्तः’ तथा हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक प्रो. आनंद प्रकाश दीक्षित द्वारा लिखित आलोचना ग्रंथ ‘त्रेता: एक अन्तर्यात्रा’ के लोकार्पण के अवसर पर गांधी शांति प्रतिष्ठान में व्यक्त किया। नामवर सिंह ने जोड़ा कि हिन्दी-साहित्य के पुस्तक-लोकार्पण के इतिहास में यह पहली बार हो रहा है कि एक कृति का लोकार्पण हो रहा है और उसी के साथ हिन्दी के एक बड़े आचार्य की आलोचना कृति का विमोचन हो रहा है।
इस अवसर पर सम्पन्न हुई विचार-गोष्ठी ‘मिथक के अनाद्य से उठता समकालीन’ में पटना से पधारे जाने-माने प्रगतिशील आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि मिथकों का इस्तेमाल प्रायः यथार्थ को समझने के लिए किया जाता रहा है, परंतु उद्भ्रांत ने ‘त्रेता’ के माध्यम से इसे समकालीन को समझने का माध्यम बनाया है। समकालीन की एक परम्परा होती है जो नीचे से ऊपर की ओर जाती है अर्थात् वह समाज के व्यापक समूह को उसके बहाने समझने की कोशिश करती है लेकिन जो लोग इसे चक्रीय मानते रहे हैं वे प्रायः इनका गैर राजनीतिक इस्तेमाल करते रहे हैं। उद्भ्रांत जिस प्रकार ‘त्रेता’ की स्त्रियों को अपने महाकाव्य में प्रतिष्ठित करते हैं, वह एक नई बात है। उन्होंने उन मिथकों को काफी हद तक तोड़ा है जो अपने आसपास के चरित्रों को निगल जाते हैं।
डॉ. बली सिंह ने कहा कि मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला के बहाने ‘साकेत’ में स्त्री के गहरे अंतर्द्वंद्व को एक ऊँचाई प्रदान की। उसके बाद से महाकाव्य की रचना फिर कभी संभव नहीं हुई। उद्भ्रांत का ‘त्रेता’ पढ़ते हुए उसकी याद आना स्वाभाविक है। उन्होंने अंजना बक्शी की ‘माँ’ पर लिखी कविताओं में व्यक्त प्रश्नवाचकता के बहाने उद्भ्रांत द्वारा उठाए गए चरित्रों से उभरते प्रश्नों को रेखांकित किया।
दूरदर्शन के वरिष्ठ अधिकारी एवं साहित्य मर्मज्ञ धीरंजन मालवे ने उद्भ्रांत को बधाई देते हुए उनके काव्य ‘अनाद्यसूक्त’ को अद्भुत और बिग बैंग की उपाधि दी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए सुरेश शर्मा ने विजयदेव नारायण साही द्वारा 1958 में की गई महाकाव्य के अंत की घोषणा की याद की। उन्होंने कहा कि उद्भ्रांत ने उस टूटी हुई कड़ी को फिर से जोड़ दिया है।
इस मौके पर वयोवृद्ध आलोचक डॉ॰ आनन्द प्रकाश दीक्षित द्वारा प्रेषित की गई चिट्ठी तथा ‘अनाद्यसूक्त’ पर पीयूष दइया की टिप्पणी का भी पाठ हुआ। डॉ. दीक्षित ने अपनी चिट्ठी में लिखा है कि जिस तरह कविता कभी खत्म नहीं होती, उसी तरह आलोचना-चाहे वह कितनी भी समर्थ हो-कभी अंतिम वाक्य नहीं होती। मैंने ‘त्रेता’ को महाकाव्य अवश्य कहा है लेकिन उद्भ्रांत को महाकवि नहीं कहा है। हमारे लिए यह प्रश्न अनिवार्य है कि महाकाव्य का रचयिता कवि अधिकार-सिद्धरूप में महाकवि मान लिया जा सकता है या कि उस पद के लिए किन्हीं और मूल्यों का संधान करना होगा। पीयूष दईया का मानना था कि यह एक कठिन व दुर्निवार काव्य-कृति है। प्रारम्भ में उद्भ्रांत ने ‘त्रेता’ और ‘अनाद्यसूक्त के कुछ काव्यांशों का अत्यंत प्रभावशाली पाठ किया।
धन्यवाद ज्ञापन नेशनल पब्लिशिंग हाऊस के श्री कमल जैन ने किया।
प्रस्तुति- रामजी यादव द्वारा श्रीमती कृपा गौतम एच-81, पालिका आवास, सरोजिनी नगर, नई दिल्ली - 110023
नई दिल्ली। 1 जुलाई 2009 को भारतीय स्टेट बैंक के पुराना सचिवालय स्थिति शाखा में स्थापना दिवस बडी शालीनता के साथ मनाया गया। सर्वप्रथम मुख्य शाखा प्रबंधक श्री महेंद्र सिंह को बैंक के कार्मिकों ने पुष्प गुच्छ भेंट कर और शपथ ग्रहण कर पारदर्शी बैंकिंग में अपनी अकीदत प्रकट की। मुख्य शाखा प्रबंधक श्री सिंह ने आते ही बैंक का काया-कल्प कर दिया जिसकी झलक वहां की साफ-सफाई और स्वच्छ बैंकिंग में देखी जा सकती है। एक ऐसा भी दौर था जब वहां सफाई नाममात्र की थी किंतु कुशल प्रशासक वह होता है जो सर्वप्रथम अपने आस-पास के वातावरण को साफ सुथरा रखता है। जिसकी मिसाल श्री सिंह साहब स्वंय हैं. आज न केवल बैंक कर्मी बल्कि ग्राहक भी इस शाखा में बैंकिंग कर गौरवान्वित महसूस करता है. विश्वास नहीं तो आप भी यहां अपना खाता खोलकर लाभांवित हो सकते हैं। तो देरी किस बात की। स्थापना दिवस की झलकियों से आप भी रूबरू हो ले। ये चित्र क्या कहते हैं-
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