इन दिनों जब देश में महाकुंभ का आयोजन हो रहा है, जिसमें देश-विदेश के लोग भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव और जिज्ञासा रखते हुए भारत में आ रहे हैं। इसी तरह से चौ॰ चरण सिंह विश्वविद्यालय के ‘बृहस्पति भवन’ में हिन्दी विभाग द्वारा आयोजित अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी में देश-विदेश से आए हुए हिन्दी विद्वानों का समागम हुआ। संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो॰ एस॰के॰ काक ने कहा कि भाषा सिर्फ एक माध्यम है, एक दूसरे से जुड़ने का, उसे आपस में बाँटने का माध्यम न बनाया जाए। हर भाषा को अपना विकास करने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। उनका कहना था कि भाषा का प्रयोग हमें विश्व स्तर पर निजी पहचान और अस्मिता को प्रमाणित करने के लिए करना चाहिए और हिन्दी की अभिवृद्धि के लिए प्रयास की ओर अग्रसर होना होगा, यदि हम सरकार के भरोसे रहे तो हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने में 62 साल तो बीत गए और भी कई साल ओर लगेंगे।
कार्यक्रम में उद्घाटन वक्तव्य देते हुए हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार श्री हिमांशु जोशी ने कहा कि आज हिन्दी दुनिया के 157 विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जा रही है और आँकड़े बताते है कि आज हिन्दी ने अंग्रेजी भाषा को बहुत पीछे छोड़ दिया है। उन्होंने कहा कि भारत आज एक अजीब संक्रमण काल के दौर से गुजर रहा है। एक ओर हम विकास के नए आँकड़ों को तो छू रहे हैं लेकिन नैतिकता के स्तर पर पिछड़ते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी जो आज विश्व के 132 देशों में फैली हुई है और 3 करोड़ अप्रवासी जिसे बोलते हैं, उस बोली का विकास मेरठ के गली कूचों में हुआ है। उन्होंने आँकड़े प्रस्तुत करते हुए बताया कि फीजी, मॉरीशस, गयाना, सूरीनाम, इंग्लैण्ड, नेपाल, थाईलैण्ड जैसे देशों में हिन्दी का व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है। उन्होंने कहा कि हिन्दी का सोया हुआ शेर अब जाग रहा है और इसकी दहाड़ पूरी दुनियाँ सुन रही है। उन्होंने कहा कि हिन्दी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक है और हिन्दी की शब्द संख्या भी अंग्रेजी के मुकाबले कहीं ज्यादा है। अंग्रेजी में केवल 10 हजार शब्द है जबकि हिन्दी की शब्द सम्पदा 2.50 लाख है। उन्होंने कहा कि अतीत हमारा था, वर्तमान हमारा है और भविष्य भी हमारा होगा। इजरायल का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दी समाज को अपनी आत्मालोचना करनी चाहिए कि हम आज तक हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रचारित नहीं कर पाए हैं। आज वक्त आ गया है कि सरकारों के भरोसे न रहकर अपने भरोसे हिन्दी का दीपक जलाएं। काका कालेलकर का उद्धरण देते हुए उन्होंने कहा कि ‘‘जो जितना अ-सरकारी वो उतना असरकारी’’। इस अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के आयोजन के लिए मेरठ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग को धन्यवाद देते हुए उन्होंने कहा कि कैंची वालों के शहर ने वो किया है जो दिल वालों का शहर दिल्ली नही कर पाया।
विशिष्ट अतिथि इजरायल से आए हिन्दी विभागाध्यक्ष, प्रो॰ गेनाडी स्लाम्पोर ने आर्थिक उदारीकरण के दौर में हिन्दी की ताकत के बारे में बताते हुए कहा कि हिन्दी के कारण बहुत से लोगों को रोजगार मिलने लगा। हिन्दी पढ़ाते हुए मुझे काफी उपलब्धि हुई। अक्षरम् और भारत सरकार द्वारा भी पुरस्कृत किया गया लेकिन मैं उन सभी पुरस्कारों को मिलने के पश्चात् न तो अक्षरम् और न भारत सरकार के प्रति कृतज्ञ हूँ बल्कि मैं तो अपने छात्रों के प्रति कृतज्ञ हूँ जिनकी वजह से मुझे रोजगार मिला हुआ है और इस काम से मुझे आत्मसंतुष्टी मिलती है। उनका यह भी कहना था कि अंग्रेजी में हम दिमाग की बात तो कह सकते हैं लेकिन दिल की बात नहीं। हिन्दी के अनेक रूपों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि भगवान शिव की तरह हिन्दी के भी कई सारे रूप हैं। मेरे जैसे विदेशी की समझ में नहीं आता कि मैं अपने बच्चों को मानक हिन्दी पढाऊँ या बोलचाल की हिन्दी। इन दोनों में इतना अधिक अन्तर है कि मानो यह दो भाषाएं हो। भारतीयों के सामने ये चुनौती है कि वह इन दोनों के बीच की कोई भाषा हमें बताएं जिसे हम दुनियाँ भर में पढ़ा सके।
मेरठ के सांसद और संसदीय राजभाषा समिति के सदस्य श्री राजेन्द्र अग्रवाल ने कहा कि अभिव्यक्ति, सामर्थ्य और साहित्य की दृष्टि से हिन्दी विश्व की सर्वाधिक समर्थ भाषा है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है आज भी इस देश के कार्यालयों में राजभाषा की स्थिति की समीक्षा करने के लिए किसी समिति की आवश्यकता पड़ती है यह हमारे देश के राजनैतिक नेतृत्व की कमजोरी की ओर संकेत करता है। हमारे नेतृत्व में इच्छा शक्ति का अभाव है। अंग्रेजी में भाषण देने वाले सांसदों को चुनौती देते हुए उन्होंने कहा कि जो सांसद संसद में भाषण देते हैं वे अपने चुनाव क्षेत्र में अंग्रेजी में भाषण देकर दिखाए। आज तन्त्र की भाषा गण की भाषा से अलग हो गई है। इससे जनता और सरकार के बीच संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो गई है। मैं हिन्दी के विश्व भाषा बनने के प्रति शत-प्रतिशत आश्वस्त हूँ। बाजार के साथ-साथ हिन्दी का भी निरन्तर विकास होगा। उन्होंने कहा कि हिन्दी देश की तो माँ है लेकिन मेरठ की बेटी है इसलिए हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने के लिए मेरठ के लोगों को विशेष प्रयास करना होगा।
लंदन से आए वरिष्ठ हिन्दी लेखक श्री नरेश भारतीय ने कहा कि मैं 1964 से विदेश में रह रहा हूँ और 46 वर्षों से पश्चिम के झरोखे से भारत को देखने का अभ्यस्त हो चुका हूँ। अंग्रेजों की नजर में आज भी भारत सपेरों और जादूगरों का देश है। भूमण्डलीकरण का श्रेय भी अंग्रेज खुद को ही लेते है जबकि वे भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति सदा से ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के आदर्श का पालन करती आई है। जिसका एक संक्षिप्त स्वरूप आज का वैश्वीकरण है। उन्होंने हिन्दी को अंग्रेजी की दासी बनाने की आलोचना करते हुए कहा कि हिन्दी भाषा को अंग्रेजी का पल्लू छोड़कर स्वावलम्बी रूप से विकसित होना होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा निश्चित रूप से हिन्दी को होना चाहिए लेकिन क्या उससे पहले हिन्दी को सच्चे अर्थों में राष्ट्र भाषा नहीं बनना चाहिए। मैं जब युवाओं से हिन्दी के अध्ययन के बारे में पूछता हूँ तो वो कहते हैं कि इससे ज्ञानार्जन तो कर सकते है किन्तु धनार्जन नहीं। आज हिन्दी को अपने ही देश में परायेपन का शिकार होना पड़ रहा है। पहले हमें स्वयं स्वाभिमानपूर्वक हिन्दी का सम्मान करना होगा। फिर देश के बाहर विदेशों में हिन्दी को स्थापित करने का प्रयास स्वतः ही सफल होता चला जायेगा। उन्होंने प्रवासी, अप्रवासी और अनिवासी शब्दों के प्रयोग पर आपत्ति जताते हुए कहा कि हम आज भी हृदय से भारतवासी है। इन शब्दों के प्रयोग से हमें पराया करने की जगह हमें भारतवंशी कहकर अपनी जड़ों से जुड़े रहने का सौभाग्य प्रदान करना चाहिए। आज हिन्दी भारतीय संस्कृति की संवाहिका बन चुकी है। अगर हम अपने देश में ही संस्कृति की दुर्गति दिखाई देगी तो अपने देश में हम क्या संदेश लेकर जायेंगे और अपनी युवा पीढ़ी को क्या आदर्श प्रदान करेंगे?
कनाडा से प्रकाशित होने वाली ‘वसुधा’ पत्रिका की सम्पादक श्रीमती स्नेह ठाकुर ने श्री नरेश भारतीय की बात का समर्थन करते हुए कहा कि हम भारतवंशी लोगों को वनवास दे दिया गया है। राजा रामचन्द्र तो 14 वर्ष बाद वनवास से लौट आये थे लेकिन हमें आज तक लौटने का मौका नहीं दिया गया है। उन्होंने कहा कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के समय महात्मा गाँधी से लेकर सुभाषचन्द्र बोस तक सब ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में मानने का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि अब हम सभी को अपनी कथनी को अपनी करनी बनाने का दायित्व निभाना है। अगर हम अकेले-अकेले भी चले तो अनेक ऐसे लोग जुड़ जायेंगे कि उनका एक समुदाय बन जायेगा। हिन्दी के उत्थान का दायित्व हम सभी का है और सभी को इसे आगे बढ़ाना होगा, भारतवंशियों को भी और भारतीयों को भी। अगर अपने देश में हिन्दी आगे नहीं बढ़ेगी तो हम बाहर इसका प्रचार-प्रसार कैसे करेंगे, हम एकदिन शिखर अवश्य छू लेंगे। कर्म पर डटे रहकर ही हम संशय को दूर कर सकते हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार श्री से.रा. यात्री ने हिन्दी के विश्व भाषा बनने के मार्ग की बाधाओं का जिक्र करते हुए कहा कि मेरठ खड़ीबोली का गढ़ है और इसी गढ़ के विश्वविद्यालय में 36 वषों तक हिन्दी का पाठ्यक्रम प्रारम्भ नहीं हुआ। हमें इसके कारणों की पड़ताल करनी होगी। बात दरअसल यह है कि हमनें राजनीतिक स्वतन्त्रता तो प्राप्त कर ली लेकिन सांस्कृतिक स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं की। हम अपनी संस्कृति की अच्छी बातों को बाहर के देशों द्वारा पहचानी जाने के बाद ही स्वीकार करते हैं। आज हमारे देश में आदमी क्षेत्र भाषा और अपने स्वार्थों में बंटा हुआ है। जिसके कारण हिन्दी सही मायनों में राष्ट्रभाषा नहीं बन पा रही है। उन्होंने कहा कि हिन्दीभाषी लोगों में भी किसी अन्य भारतीय भाषा को सीखने के प्रति उत्सुकता नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि थर्डग्रेड भाषा होने के बाद भी हिन्दी आज राज्य के कार्यों की भाषा बनी हुई है। हिन्दी वालों को स्वयं को बदलना चाहिए। अंग्रेजी को अन्य प्रदेश इसलिए स्वीकार करते हैं कि हिन्दी वाले उनके परिवेश, उनकी भाषा को उस तरह से स्वीकार नहीं करते हैं। आज स्थिति यह है कि हिन्दी के अध्यापक भी अपने बच्चों को ऊँचे अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं। हमें यह मानसिकता बदलनी होगी।
ब्रिटेन में पूर्व हिन्दी अताशे तथा वर्तमान में राजभाषा में सहायक निदेशक श्री राकेश दुबे ने प्रोजेक्टर प्रजेन्टेशन के माध्यम से हिन्दी की निरन्तर होती वृद्धि को दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत किया। श्री दुबे ने हिन्दी की दुनिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य को दर्शाते हुए लगभग 150 देशों में हिन्दी प्रयोग पर तथ्यात्मक प्रस्तुती दी। देश में हिन्दी भाषी राज्यों तथा पत्रकारिता एवं मीडिया जगत् में हिन्दी की स्थिति पर भी उन्होंने विस्तृत विवरण प्रस्तुत किए।
उद्घाटन सत्र के अन्त में चौ॰ चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी ने समस्त अतिथियों और आगंतुकों को धन्यवाद ज्ञापित किया।
‘गैर हिन्दी भाषी राज्यों में हिन्दी’ नामक द्वितीय सत्र की अध्यक्षता प्रो॰ गंगाप्रसाद ‘विमल’ ने की। विशिष्ट वक्ताओं और अतिथियों में प्रो॰ ललितम्बा, अखिल कर्नाटक साहित्य अकादमी, बंगलौर, प्रो॰ वी॰ के॰ मिश्रा, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला, डॉ॰ नजमा मलिक, हिन्दी विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय, गुजरात, डॉ॰ गुरमीत, डॉ॰ अशोक कुमार, हिन्दी विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंड़ीगढ़, प्रो॰ देवराज, अध्यक्ष हिन्दी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय, इम्फाल तथा डॉ॰ प्रवीणा, हिन्दी विभाग, चेन्नई विश्वविद्यालय, हैदराबाद ने सहभागिता की।
प्रो॰ देवराज ने हिन्दी भाषा और भूमण्डलीकरण के अखिल भारतीय स्वरूप को लेकर कहा कि जिस नवजागरण के दम पर हम आजादी पाने का दम्भ भरते हैं उसमें सम्पूर्ण भारत की अवधारणा थी और हमें उसे स्वीकार करना होगा। हिन्दी के जिस विकास पर हम गर्व कर रहे हैं। उसको बनाने में देशीय भाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान है। कोई भी भारतीय परम्परा तब तक भारतीय नहीं है जब तक उसमें असम और कन्याकुमारी नहीं हैं। गैर हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी की स्थिति इस बात पर निर्भर करती है कि हम उन लोगों के बारे में क्या धारणा रखते हैं? भूमण्डलीकरण की अवधारणा को लेकर उनका कहना था कि भूमण्डलीकरण एक आर्थिक अवधारणा है, मूलतः बाजार की अवधारणा। वैश्वीकरण का अर्थ एक मायने में अमेरिकी बाजार का प्रसार है। हिन्दुस्तान में तो वैश्वीकरण एक मायने में पहले ही आ चुका था। एक समग्रता की कल्पना भारत में पहले ही रही है। यदि हम भक्ति आन्दोलन को भी देखे तो पूर्वोत्तर को समझे बिना हम भक्ति आन्दोलन को नहीं समझ सकते। अगर हिन्दी के विकास को आप आगे बढ़ाना चाहते हैं तो तुलनात्मक अध्ययन पद्धति को अपनाना होगा। इस अवसर पर प्रो0 देवराज ने कहा कि भूमण्डलीकरण के दौर में भाषाओं की स्थिति को लेकर हिन्दी भाषा के सामने चुनौतियाँ तो हैं पर संकट नहीं। प्रौद्योगिकी और बाजार के साथ हिन्दी जितना सामंजस्य स्थापित करेगी उतनी ही तीव्र गति से वृद्धि करेगी। उन्होंने कहा कि हिन्दी के मठाधीश पूर्वोत्तर क्षेत्रों की पूर्ण रूप से उपेक्षा करते हैं और जब तक पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति का सम्यक् विश्लेषण नहीं किया जाएगा तब तक हिन्दी के प्रति सम्पूर्ण समझ विकसित नहीं हो सकती।
गुजरात विश्वविद्यालय से आयी हुई डॉ॰ नजमा मलिक ने गुजरात में हिन्दी की भूमिका और संत काव्य परम्परा में गुजरात के योगदान की ओर इंगित किया। उनका मानना था कि गुजरात का भक्ति आन्दोलन में बहुत बड़ा योगदान है और हमें इसे समझना होगा, नहीं तो हमारी समझ हिन्दी को लेकर अधूरी रह जाएगी। चीजों को सम्पूर्णता में समझने की आवश्यकता है।
डॉ॰ गुरमीत, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्ड़ीगढ का कहना था कि आज वैश्वीकरण के युग में हम अंग्रेजी के बिना अपना जीवन नहीं चला सकते। अंग्रेजी को भी भारतीय भाषाओं के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। अंग्रेजी के लडने के बहाने हम क्षेत्रीय भाषाओं से भी दूर हो गए हैं। भारतीय भाषाओं के लेखकों को भी हिन्दी में शामिल किया जाए। पंजाबी और हिन्दी को भी हमें एक साथ समझना होगा। हिन्दी को परंपरागत आधारों से आगे बढ़ना होगा अर्थात सूर, कबीर, तुलसी पर हम ज्यादा दिन तक टिके नहीं रह सकते। आज हिन्दी तब बढ़ेगी जब वह बाजार की भाषा बनेगी। बहुविविधता और बहुलता की आज अत्यन्त आवश्यकता है। हमें हिन्दी के आकाश को अनिवार्य रूप से विस्तार देना होगा। नहीं तो हिन्दी दायरों में सिमट कर रह जाएगी। मुक्तिबोध के साथ अवतार सिंह पास को भी पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता है और दक्षिण से भी नए कवियों को शामिल कर हम हिन्दी को महत्वपूर्ण रूप दे सकते हैं। उनका कहना था कि भाषाओं में अखिल भारतीयता का पुट होना अत्यंत आवश्यक है। वक्त की जरूरत के अनुसार भाषा को बाजार से भी जोड़ना होगा। हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में अखिल भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट अनुवाद को भी शामिल किया जाना चाहिए।
डॉ॰ अशोक कुमार, पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ ने कहा कि आज जो हिन्दी का अस्तित्व है वह इस बात पर निर्भर करता है कि उसको आगे तक ले जाने वाले लोग कितने हैं? हमें दायरों से बाहर निकलना होगा। आज जो हिन्दुस्तान एशिया का नेतृत्व कर रहा है उसमें हिन्दी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने आधुनिक युग में कबीर की जरूरत की ओर ध्यान दिलाया। अन्त में वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ग्लोबलाइजेशन के युग में हिन्दी बनी रहेगी यदि प्राणपन से लगे रहें।
अन्य विशिष्ट वक्ताओं में प्रो॰ वी॰ के॰ मिश्रा, (हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला) ने कहा कि पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी की स्थिति उत्साहजनक है। अरूणाचल प्रदेश में हिन्दी में काफी काम हो रहा है। यदि हमें अखण्ड भारत की कल्पना करनी है तो हम किसी एक प्रदेश के दायरों से बाहर निकलकर सम्पूर्ण भारत को एक नजरिये से देखना होगा और हमें एक यात्री की तरह होना होगा। हिन्दी सरकारी मशीनरी से आगे न बढ़ी है और न बढ़ पाएगी बल्कि यह तो श्रमवीरों की भाषा है और श्रम से ही आगे बढ़ पाएगी। उन्होंने कहा कि हिन्दी भाषा इस वजह से आगे नहीं बढ़ रही है कि सरकार इसके प्रचार-प्रसार में योगदान दे रही है बल्कि यह तो दूरदराज के क्षेत्रों में फैले हुए मनीषियों की साधना का परिणाम है।
विशिष्ट वक्ता प्रो॰ ललितम्बा (अखिल कर्नाटक हिन्दी साहित्य अकादमी, बेंगलुरू) का कहना था कि मैं हिन्दी की पक्षधर इसलिए हूँ कि भारतीय संस्कृति को हिन्दी ने जोड़ा है। एक अखिल भारतीय समाज हिन्दी में व्याप्त है। अंग्रेजी का इतिहास गुलामी के इतिहास से जुड़ा हुआ है और यह एक दूरागत भाषा है। दक्षिण में हिन्दी की स्थिति बेहतर है और तमिलनाडु आदि को भी इसी नजरिए से समझ सकते हैं। दक्षिण की हिन्दी बिल्कुल वक्त के साथ चल रही है। आधुनिक विषयों पर साहित्य में शोध हो रहा है। कोई रचना यदि इस वर्ष प्रकाशित होती है तो अगले वर्ष हिन्दी में उस पर शोध करा दिया जाता है। लेकिन हमें इस बात को भी समझना होगा कि रामचन्द्र शुक्ल के बाद कोई बड़ा इतिहास ग्रन्थ हिन्दी में नहीं लिखा गया, जिसमें समग्रता हो। हमें हिन्दी को आधुनिक दृष्टिकोण से देखना होगा।
डॉ॰ प्रवीणा (हिन्दी विभाग, चेन्नई विश्वविद्यालय, हैदराबाद) का मानना था कि हिन्दी पट्टी से अलग हिन्दी में काम करने वाले लोगों को कई समस्याओं से जूझना पड़ता है। मेरा मानना है कि हिन्दी से बैर मत करो हिन्दी अपनी भाषा है यदि उत्तर और दक्षिण भारत के बीच बैर मिटाना है तो जोड़ने वाली भाषा का प्रयोग करो और यह कनेक्टिंग भाषा हिन्दी हो सकती है।
सत्र की अध्यक्षता कर रहे प्रसिद्ध कहानीकार (भूतपूर्व प्राध्यापक, जे॰एन॰यू॰, दिल्ली) का मानना था हिन्दी को हिन्दी पट्टी की संकीर्णता से मुक्त करना होगा। हमें भाषा को लचीला रखना होगा और यह भी ध्यान रखना होगा कि अन्य देशों की हिन्दी को भी उनकी निज पहचान के साथ स्वीकार करें क्योंकि सूरीनामी हिन्दी और मॉरीशस की मॉरीशसी हिन्दी को मेरठ की हिन्दी के पैमानों से नहीं समझा जा सकता।
हमें तुलनात्मक साहित्य और तुलनात्मक अध्ययन को बढ़ावा देना होगा। अनुवाद इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। ग्लोबल आधार पर अनुवाद रोजगार का बड़ा माध्यम है और हम अंग्रेजी का भी विरोध नहीं कर सकते। अंग्रेजी आज यंत्र माध्यम और विश्व की भाषा है। हमें अंग्रेजी के मैकनिज्म को समझना होगा। भाषाओं का अपना मिजाज होता है और भाषाएं दबाव के द्वारा नहीं फैलती बल्कि जनभावनाओं के द्वारा आगे बढ़ती है और हमें हिन्दी पट्टी के बाहर उन जनभावनाओं को उत्पन्न करना होगा जो हिन्दी की स्वीकार्यता को संभव बना सके।
धन्यवाद ज्ञापन देते हुए इस संगोष्ठी के संयोजक और हिन्दी विभागाध्यक्ष, चौ॰ चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि मेरठ विश्वविद्यालय ने अपने पाठ्यक्रम में हिन्दी के अखिल भारतीय स्वरूप का ध्यान रखा है और संत गंगादास जैसे कवियों को भी शामिल किया है जो अपने स्वरूप में अखिल भारतीय है। न केवल क्षेत्रीय साहित्य बल्कि प्रवासी साहित्य को भी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में समाहित किया गया है और ग्लोबलाइजेशन के दौर में रोजगार की दृष्टि से जनसंचार के पाठ्यक्रम को भी चलाने की योजना है। उन्होंने सभी देश-विदेश से आयें अतिथियों का आभार व्यक्त किया।
सत्र का संचालन डॉ॰ अशोक मिश्र ने किया। सत्र का संचालन करते हुए उन्होंने वैश्वीकरण के दौर में हिन्दी की स्थिति को उत्साहवर्धक बताया क्योंकि हिन्दी आज बाजार की भाषा है और हिन्दी को बाजार बहुत आगे लेकर जाएगा।
इस सत्र में लगभग 250 प्रतिभागी और विभिन्न छात्रों और शोधार्थियों ने हिस्सा लिया। जिनमें विपिन शर्मा, अजय, मोनू, राजेश, अंचल, अन्जू, गजेन्द्र, ललित, अमित आदि विद्यार्थी शामिल थे।
इसी दिन सायं 6ः00 बजे ‘बृहस्पति भवन’ में ‘कवि गोष्ठी’ का आयोजन किया गया। जिसमें श्रीमती जय वर्मा, स्नेह ठाकुर, प्रो॰ ललितम्बा, प्रो॰ देवराज, डॉ॰ सिद्धेश्वर तथा मेरठ के कवियों में श्री ओंकार ‘गुलशन’, डॉ॰ रामगोपाल ‘भारतीय’, शिवकुमार शुक्ल, डॉ॰ मौ॰ असलम सिद्दीकी आदि ने अपना काव्य-पाठ कर श्रोताओं को मन्त्रमुग्ध कर दिया। कवि गोष्ठी का संचालन ‘अमित भारतीय’ ने किया।
13 फरवरी 2010 को अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन प्रातः 09ः30 बजे तृतीय सत्र ‘वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी’ विषय पर केन्द्रित रहा। सत्र की अध्यक्षता अमेरिका से आए कहानीकार और मीडिया विशेषज्ञ श्री उमेश अग्निहोत्री ने की। बीज वक्तव्य देते हुए सर्जनात्मक लेखन महात्मा गांधी केन्द्र मोकान, मॉरीशस के अध्यक्ष श्री हेमराज सुन्दर ने कहा की मॉरीशस में प्रकाशन गृहों के अभाव के कारण हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बाधा उत्पन्न हो रही है। यद्यपि वहाँ के विद्यार्थी भारतीय संस्कृति और हिन्दी भाषा में अत्यंत रूचि लेते हैं। वहाँ विश्वविद्यालय स्तर पर हिन्दी में शोध की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।
लंदन से आई कवयित्री और ब्लॉग संपादक सुश्री कविता वाक्चनवी ने कहा की भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी में विकास की अपार संभावनाएं हैं। भारत के बाहर हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक लेखन गुण की दृष्टि से मॉरीशस में तथा संख्या की दृष्टि से यू0के0 में हो रहा है। आज जिस वैश्वीकरण की बात हो रही है वह बाजर से प्रेरित है। जबकि भारतीय परंपरा में भी सदियों से ‘वसुधैव कुटूम्बकम’ के रूप में यह प्रक्रिया जारी रही है। लेकिन हमारी परंपरा एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को जोड़ने वाली है, व्यक्ति को अलगाव में डालने वाली नहीं है।
ब्रिटेन से पधारे कवि श्रीराम शर्मा ‘मीत’ ने कहा की इंग्लैड में आबादी का 4 प्रतिशत हिस्सा अप्रवासियों का है जिनमें भारतीयों की सबसे ज्यादा संख्या है। हिन्दी की स्थिति पर विचार करते हुए उन्होंने कहा की विदेशों में रहने वाले भारतीय खुद की मातृभाषा पंजाबी, बंगाली आदि बताते हैं; हिन्दी नहीं। हिन्दी को विश्व भाषा बनाने से पहले हमें सच्चे अर्थोे में पहले उसे राष्ट्रभाषा बनाना होगा।
ब्रिटेन से आई कवयित्री श्रीमती जया वर्मा ने भी ब्रिटेन में हिन्दी की स्थिति पर प्रकाश डाला उन्होंने आशा प्रकट की कि अपने प्राण एवं जीवन शक्ति के बल पर हिन्दी शीघ्र ही विश्वभाषा के स्थान पर आसीन होगी।
श्री हरजेन्द्र चौधरी ने कहा कि यदि देश ऊपर उठेगा तो भाषा भी ताकतवर होगी। ‘अक्षरम्’ संस्था के अध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने कहा कि आज विश्व की बड़ी भाषाएं व्यावसायिक होती जा रही हैं। आज हिन्दी के क्षेत्र में सबसे बड़ी क्रान्ति यह होगी कि हिन्दी को इन्टरनेट की भाषा बनाया जाए।
सत्र की अध्यक्षता करते हुए अमेरिका से आए श्री उमेश अग्निहोत्री ने कहा की हिन्दी ऐसी भाषा है जो कभी मर नहीं सकती। उन्होंने बताया कि महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि अंग्रेजी न होती तो हिन्दी संपर्क भाषा होती।
चतुर्थ सत्र ‘सूचना प्रौद्योगिकी एवं हिन्दी’ की अध्यक्षता बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी के कुलपति प्रो॰ एस॰वी॰एस॰ राणा ने की। बीज वक्तव्य देते हुए इग्नू के हिन्दी एवं मानविकी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो॰ वी॰रा॰ जगन्नाथन ने कहा की मशीन आधुनिक समय में काफी परिवर्तन और क्रांतिकारी अवधारणाओं को संभव बना सकती है। इसका उपयोग हम हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए कर सकते हैं। हिन्दी को हमें सूचना प्रौद्योगिकी से जोड़ना होगा। आज भारत में अनेक ऐसी संस्थाएं कार्यरत हैं जो इस कार्य को अत्यंत निष्काम भाव से संपन्न कर रही हैं।
प्रसिद्ध प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ श्री विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा की आज कम्प्यूटर के व्यापक प्रयोग के बावजूद हिन्दी वाले उससे वंचित हैं। हिन्दी में साहित्य से इतर अन्य विधाओं तथा पत्रकारिता, विज्ञान आदि का जिक्र न के बराबर होता है। उन्होंने बताया कि आज ऐसे अनेक कम्प्यूटर प्रोग्राम एवं कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर माजूद हैं जो हिन्दी में कार्य करने में पूर्णतः सक्षम हैं। उन्होंने अपने प्रस्तुतीकरण के माध्यम से लोगों की ऑंखे खोल दी।
ब्रिटेन में भारत के पूर्व संस्कृति एवं हिन्दी अताशे श्री राकेश दुबे ने कहा कि संस्कृत का तिरस्कार करके हमने उसे पीछे डाल दिया है जबकि वह कम्प्यूटर के लिए उपर्युक्त भाषा है। इसको भविष्य में अपनाना ही होगा जिससे कि पूरे भारतीय भाषाओं के लिए हमें एक विशिष्ट भाषा रूप मिल सकेगा ।
सत्र के अध्यक्ष प्रो॰ एस॰वी॰एस॰ राणा ने उम्मीद जताई की जैसी सुविधाएं कम्प्यूटर आदि सूचना तंत्र में अंग्रेजी में मौजूद हैं शीघ्र ही हिन्दी में भी यही स्थिति होगी।
पंचम सत्र
‘अनुवाद और हिन्दी’ की अध्यक्षता प्रसिद्ध भाषाशास्त्री एवं एम॰डी॰यू॰, रोहतक से पधारे के प्रो॰ नरेश मिश्र ने की। बीज वक्तक्य देते हुए कुमायूं विश्वविविद्यालय से पधारे डॉ॰ सिद्धेश्वर ने कहा कि हिन्दी में अनुवाद और अनुवादक को वह महत्व नहीं मिलता जो एक मूल रचनाकार को मिलता है। जबकि अनुवाद भी एक रचनात्मक कार्य हैं। दूसरी भाषाओं के साहित्य से हम अनुवाद के माध्यम से ही परिचित हो पाते हैं। उन्होंने अनुवादक की पीड़ा को व्यक्त करते हुए कहा की यदि हिन्दी की अनुवादित पुस्तकों में कहीं अनुवाद का नाम दिया भी जाता है तो वह अत्यंत छोटे शब्दों में होता है।
महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के साहित्य संकायाध्यक्ष प्रो॰ सूरज पालीवाल ने अनुवाद साहित्य में किए गए कार्यों पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आज हिन्दी साहित्य में एक लाख पृष्ठों का साहित्य इन्टरनेट पर उपलब्ध करा दिया गया है। हम अनुवाद को दोयम दर्जे का कार्य मानते हैं जिसके कारण विस्तृत पैमाने पर अनुवाद नहीं हो पा रहा है।
लेखिका एवं प्रख्यात लेखक खुशवन्त सिंह की रचनाओं का अनुवादक श्रीमती उषा महाजन ने कहा कि बिना संवेदनाओं को पकडे़ किसी भी साहित्यिक कृति का सच्चे अर्थों में अनुवाद नहीं हो सकता। अनुवादक को मूल भाषा और स्रोत्र भाषा की छोटी-छोटी बारीकियों का ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने अपने अनुवाद संबंधी संस्मरणों को साझा किया तथा भाषा एवं भाव के अनुवाद पर प्रभावों की भी विस्तृत चर्चा की।
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक की हिन्दी के आचार्य एवं सत्र के अध्यक्ष प्रो॰ नरेश मिश्र ने कहा की यदि अनुवादक में उस विधा को पकड़ने की सहृदयता नहीं है तो अनुवाद व्यर्थ हो जाता है। अनुवाद दो भाषाओं का संगम और समागम है। अनुवाद का कार्य एक तपस्या का कार्य है उसे दो भषाओं में डूबना पड़ता है। जो अनुवादक दोनों भाषाओं में जीकर अनुवाद करता है वही श्रेष्ठ अनुवादक होता है।
संगोष्ठी में देश विदेश से आए अनेक विद्वान/शिक्षक/विषय विशेषज्ञों/शोधार्थियों/छात्र-छात्राओं की सहभागिता रही।
14 फरवरी 2010 को अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के अंतिम दिन षष्ठ सत्र
‘हिन्दी में विधाओं का विकास’ को लेकर अलग-अलग विधाओं को लेकर वक्ताओं ने अपने विचार रखें। सत्र में बीज व्याख्यान देते हुए पटना विश्वविद्वालय में हिन्दी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो0 महेन्द्र मधुकर ने हिन्दी में कविता के विकास को लेकर अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के एक समारोह का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘‘हिन्दी की बात तो हम करते हैं किन्तु हिन्दी में बात नहीं करते।’’ भूण्डलीकरण को उन्होंने अमेरिका जैसे कुछ देशों के द्वारा मुनाफे के लिए बनाया गया एक तंत्र बताया जो पूंजीवादियों के लिए मुनाफे का माध्यम है। उन्होंने भूमण्डलीकरण को ही उत्तर आधुनिकता के जन्म का कारण बताया। जिसने उपभोक्तावाद को जन्म दिया। उन्होंने बताया कि भूमण्डलीकरण उत्तर आधुनिकता का एक बौद्धिक कक्ष हैं। उन्होंने कविता को मानव समाज की देन कहा जो समाज की कोख से पैदा होती है। भूमण्डलीकरण की जड़ें उन्होंने प्राचीन भारतीय संस्कृति में खोजी और कहा की हमारी संस्कृति ‘वसुधैव कुटम्बकम’ को अपने अन्दर समाहित करके ही सदा से चली है इसलिए भूमण्डलीकरण भारत में कोई नहीं संकल्पना नई है अपितु यह बहुत प्राचीन पद्धति है। उन्होंने उत्तर आधुनिकाता का जन्म भी प्राचीन काव्य सिद्धांतों में खोजने की बात कही। अन्त में उन्होंने कविता पर वक्तव्य देते हुए कहा कि कविता सर्वकाल से समकाल की ओर जाती है तथा आज की कविता व्यंजनात्मक है।
महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ॰ रोहिणी अग्रवाल ने उपन्यास विधा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि मैं अपनी बात वहाँ से शुरू करूंगी जहाँ पर इतिहास की किताबें रूक जाती हैं। उपन्यास विधा में उन्होंने कथ्य के स्तर को जोड़ते हुए उपन्यास में परिवर्तन बिन्दुओं को रेखांकित किया। उन्होंने कमलेश्वर के उपन्यास ‘कितने पाकिस्तान’ को संर्दभित करते हुए कहा कि उपन्यास में पुराने वर्णनात्मक और किस्सागो शैली तनाव संघर्ष को अभिव्यक्त करने में नाकाफी है। इसीलिए कमलेश्वर ने अपने उपन्यास में फैंटैसी, कल्पना, पटकथा, रिपोर्ट का एक अद्भुत प्रयोग करते हुए इतिहास को विश्लेषित किया। उन्होंने आज के उपन्यासकारों को रेंखांकित करते हुए कहा कि अब उपन्यासकार केवल वक्त पर ही टिप्पणी नहीं करते अपितु उन्हें निर्मित करने वाले कारकों और उनके पीछे छिपे तथ्यों की भी पड़ताल करते हैं।
कमलेश भट्ट ‘कमल’ ने ‘हाइकू’ पर अपने विचार रखते हुए कहा कि ‘हाइकू’ दुनिया की सबसे छोटी कविता है। जिसका जिक्र 1916 ई0 में गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने पहली बार ‘हिन्दुस्तान’ पत्र में किया। हिन्दी में ‘हाइकू’ की शुरूआत करने वाले अज्ञेय हैं। जिन्होंने ‘अरी ओ करूणा प्रभामय’ में 1959 में ‘हाइकू’ के नूतन प्रयोग किए। आज ‘हाइकू’ दुनिया की हर भाषा में लिखे जा रहे हैं तथा इन्टरनेट पर इसकी हजारों वेबसाइटें मौजूद हैं। उन्होंने ‘हाइकू’ और ‘गजल’ के समानान्तर विकास की बात भी कही। हिन्दी में दो सौ पचास संकलन ‘हाइकू’ को लेकर आ चुके हैं। ‘हाइकू’ सत्रह शब्दों में जीवन की किसी गंभीर या शाश्वत सत्य को रेखांकित करने का सशक्त माध्यम है। उन्होंने ‘हाइकू’ के अनेक उदाहरण देकर इस विधा की गंभीरता को भी रेखांकित किया यथा:
समुद्र नहीं/परछाई खुद की/लांघों तो जाने
कौन मानेगा/सबसे कठिन है/सरल होनायह विधा केवल साहित्यिक विधा तक ही सीमित नहीं है अपितु यह व्यावसायिक, श्रमिक उद्योग, कांच उद्योग आदि को भी सटीक ढंग से अभिव्यक्त करने में सक्षम है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के आचार्य प्रो॰ गोपेश्वर सिंह ने आलोचना पर अपना वक्तव्य केन्द्रित करते हुए कहा कि आलोचना का संबंध विश्वविद्यालय से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होता है क्योंकि इसका जन्म यहीं से होता है किन्तु हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने आलोचना को उपेक्षित दृष्टि से देखा। राजेन्द्र यादव, वाजपेयी आदि लेखकों ने इसे प्राध्यापकीय/विश्वविद्यालीय आलोचना कहकर इस विधा का मजाक उड़ाया है। अन्तोन चेखव ने भी आलोचना को घोड़े की टांग की मक्खी बताया है तथा यशपाल ने भी आलोचना को गाड़ी के नीचे चलने वाला एक कुत्ता बताया है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधा का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है किन्तु प्रो0 गोपेश्वर सिंह का मानना है कि आलोचना हिन्दी साहित्य की अत्यंत महत्वपूर्ण विधा है जो किसी भी कृति के गुणदोषों का सम्यक् मूल्यांकन कर पाठकों को परिचित कराती है तथा यह लेखक और पाठक के बीच सेतु का कार्य भी करती है। आलोचना के बिना हिन्दी साहित्य की सही दिशा का निर्धारण करना संभव नहीं है। उन्होंने स्वतंत्रता पूर्व की आलोचना को परिपाटीबद्ध बताया जो अपने-अपने सीखचों में बन्द थी किन्तु आज की आलोचना खेमेबाजी से युक्त प्रगतिशील आलोचना है। जो साहित्य का बिना किसी पूर्वाग्रह, बिना किसी खलनायक, बिना किसी की हत्या किए अपना पक्ष रखती है। उन्होने स्वतंत्रता पूर्व की आलोचना को बंद मन की मानसिकता जो स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, जनजातीय विमर्श को स्पेस नहीं देती जबकि आज की आलोचना इन सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त है। उन्होंने दूधनाथ सिंह की पुस्तक ‘महादेवी एक अध्ययन’ का उदाहरण भी अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए रखा।
सत्र की अध्यक्ष एवं युद्धरत ‘आम आदमी’ पत्रिका की सम्पादक रमणिका गुप्ता ने सभी के विचारों का समन्व्यय करते हुए अन्त में साहित्य में स्त्री दलित, आदिवासी की संवेदनाओं को समझने एवं अभिव्यक्त करने पर बल दिया। उन्होंने कहा उत्तर आधुनिकता कहती है कि विचार का, साहित्य का, इतिहास का अन्त हो गया। जबकि यह पश्चिम का राग है। इतिहास मे दर्ज हाशिए के लोग तो अब केन्द्र में आए हैं जबकि यह इतिहास के अन्त की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी साहित्य अब तक व्यक्तिगत कुंठाओं की बानगी था किन्तु आज परिदृश्य बदला, मूल्य बदले तथा हाशिए के लोगों को भी अपनी बात करने का साहित्य में मौका मिला। उन्होंने आलोचना को खेमेबंदी से दूर रखकर पूर्वागृहों से मुक्त होकर सम्यक् दृष्टि से विश्लेषित करने पर बल दिया। साहित्य में अब तक चारण, चापलूसी आदि की प्रवृत्ति हावी रही किन्तु आज साहित्य इन संकिर्णताओं से मुक्त होकर लिखा जा रहा है। अंत में उन्होंने हिन्दी साहित्य में स्त्री आत्मकथा तथा दलित आत्मकथाओं को एक नई शुरूआत बताया और कहा कि साहित्य जितना सरल लिखा जाएगा उतना ही पाठकों के करीब पहुँचेगा।
संगोष्ठी के समापन सत्र में कार्यक्रम अधिशासी दूरदर्शन, नई दिल्ली डॉ0 अमर नाथ ‘अमर’ ने भूमण्डलीकरण के दौर में भाषाओं, बोलियों पर केन्द्रित अपना वक्तव्य रखा। उन्होंने बताया कि स्वतंत्रता संग्राम से पहले की पत्रकारिता पूर्णतः आजादी से संबद्ध रही किन्तु आजादी के बाद यह एक व्यवसाय बन गई। साथ ही साथ उन्होंने समय-समय पर भाषा और बोलियों के परिवर्तन के कारणों की भी पड़ताल की।
उत्तराखण्ड भाषा संस्थान की निदेशक डॉ॰ सविता मोहन ने कहा कि हम हिन्दी साहित्य की बात करते हुए प्रायः पाठक को विस्मृत कर देते हैं जबकि वही साहित्य जीवित रहता है जो जनमानस को केन्द्र में रखकर रचा जाता है। उन्होंने साहित्य को दलित, स्त्री आदि खेमों में न बांट कर सम्रगता में देखनें की आवश्यकता जताई।
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के निदेशक हिन्दी तथा गगनांचल पत्रिका के संपादक डॉ0 अजय गुप्ता ने हिन्दी भाषा को राजनीतिक स्पोर्ट करने पर तथा संसद में इस आवाज को बुलन्द करने पर जोर दिया तथा उन्होंने मणिपुर के विधायकों का उदाहरण देते हुए कहा कि यह कार्य वे संसद में भलिभांति कर रहे हैं। अंत में उन्होंने कहा कि यह साहित्य का कंुभ सफल रहा तथा यदि इस सभागार में शेक्सपीयर भी आया होता तो वह भी हिन्दीमय होकर जाता।
सूचना विभाग के पूर्व महादिनदेशक डॉ॰ श्याम सिंह ‘शशि’ ने अध्यक्षीय भाषण देते हुए कहा कि यह विश्वकुंभ है तथा मुझे यहाँ बहुत ही सुखद आश्चर्य अनुभव हुआ। उन्होंने कहा की हिन्दी भाषा को लेकर जो कार्य हमने शुरू किए थे उसे प्रो॰ लोहनी और उनकी पीढ़ी आगे ले जाएगी। उन्होंने हिन्दी के क्षेत्रीय रूपान्तरण को लेकर भी अपने विचार रखें तथा क्षेत्रीय भाषाओं को हिन्दी के लिए खतरे की घंटी बताया तथा हिन्दी के बिगडते स्वरूप को लेकर, समाचार पत्रों, टीवी चैनलों आदि पर चिन्ता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि भाषा का अपना निज स्वरूप होता है। उसे इस कद्र नहीं बिगाड़ा जाना चाहिए कि उसका संतुलन ही बिगड़ जाए। उन्होनंे हिन्दी के विकास में गैर हिन्दी भाषियों तिलक, दयानन्द सरस्वती, के.एम. मुंशी, राजगोपालाचारी आदि के योगदान की भी चर्चा की तथा हिन्दी अनुवाद में गुणवत्ता पर भी जोर दिया तथा कहा कि तभी यह भाषा विश्व भाषा बनेगी और विश्व हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखा जा सकेगा। इन सत्रों का संचालन विभाग के शोधार्थी विपिन कुमार शर्मा ने किया।
अंत में विभागाध्यक्ष प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी ने सभी अतिथियों को प्रतीक चिह्न देकर सभी का आभार व्यक्त किया तथा अन्त में माननीय कुलपति प्रो॰ एस॰ के॰ काक ने धन्यवाद ज्ञापन देते हुए इस संगोष्ठी से एक सफल मुहिम और हिन्दी के प्रचार-प्रसार की संभावना को व्यक्त किया। माननीय कुलपति, प्रो॰ एस॰ के॰ काक ने कहा कि हिन्दी तभी अपना समुचित विकास कर सकेगी जब यह क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को भी अपनाए। संगोष्ठी में उपस्थित प्रतिभागियों/श्रोताओं से खचाखच भरे सभागार को देखकर माननीय कुलपति ने संगोष्ठी के सफल आयोजन पर विभागाध्यक्ष प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी को बँधाई दी।
प्रो॰ नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि इस संगोष्ठी को सफल बनाने में विभाग के शिक्षकों, कर्मचारियों, छात्र-छात्राओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं।