कविता के क्षेत्र में दिल्ली की असंख्य काव्य संस्थाएं अपनी गतिविधियों से कविता-संसार को निरंतर सक्रिय रखे हैं, यह अपने आप में एक सुखद बात है. सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ताओं द्वारा स्थापित सांस्कृतिक व बौद्धिक मंच
'कवितायन' ने दिनांक 23 अप्रैल 2010 को अपने तीसरे वार्षिक समारोह में हिंदी के कई कवियों - अमरनाथ अमर, नमिता राकेश, अभिषेक अत्रे, ममता किरण, चंद्रशेखर आसरी, जितेन्द्र सिंह, विवेक मिश्र तथा एम. एन. कृष्णमणि को 'साहित्य सृजन सम्मान' से सम्मानित किया. कार्यक्रम सुप्रीम कोर्ट के सामने ही स्थित Indian Society of International Law के सभागार में हुआ. इस कार्यक्रम में हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार गोविन्द व्यास मुख्य अतिथि थे तथा न्यायमूर्ति वी. एस. सिरपुरकर विशिष्ट अतिथि थे जिन्हें कवितायन ने विशिष्ट रूप से 'कवितायन साहित्य-सेवी सम्मान' दिया.
कार्यक्रम का प्रारंभ ज्योति प्रज्वलन व 'वर दे वीणा वादिनी..' प्रार्थना से हुआ. दि. 22 अगस्त 1946 को जन्मे न्यायमूर्ति
वी.एस.सिरपुरकर, जिन का पूरा परिवार अधिवक्ता रहा तथा जो उत्तराँचल व पश्चिम बंगाल के मुख्य न्यायाधीश के पदों पर कार्यरत रह चुके हैं और वर्त्तमान में सर्वोच्च न्यायलय के न्यायाधीश हैं, की गरिमामय उपस्थिति ने इस कार्यक्रम की गरिमा को और भी बढ़ाया तथा सभागार में वकील समुदाय व न्यायपालिका से जुड़े कई लोग और अन्य काव्य-प्रेमी बेहद तन्मयता से कार्यक्रम देख रहे थे. पर जब उन्होंने भाषण प्रारंभ किया तो उनके ह्यूमर (Humour) के आगे चित्त हो कर दर्शक-गण लगातार खिलखिलाते रहे. एक जज का कार्य अति-गंभीर व ज़िम्मेदारी भरा रहता है, पर उस धीर-गंभीर वातावरण से मुक्त हो कर जब वह ऐसे किसी कार्यक्रम में हंसी बिखेरता है तो बहुत सुखद अनुभूति होती है. उन्होंने अपने भाषण में कहा :
मैं तानसेन भले ही न हूँ/पर कानसेन ज़रूर हूँ ! (ज़ोरदार कहकहा).
उन्होंने अपनी एक कविता प्रस्तुत करते हुए कहा कि जीवन भर में उन्होंने केवल एक ही कविता लिखी. (कुछ पंक्तियाँ):
कविता क्या हो तुम/ कितने हैं रूप तुम्हारे/ शिशु हृदय के लिए ऊषणामय हो तुम/ लोरियों में नींद/ पलकें झपकाती/ ममतामय हो तुम...
मुख्य अतिथि
गोविन्द व्यास ने भी अपने भाषण में न्यायमूर्ति सिरपुरकर के सन्दर्भ में यह कह कर सभागार में कहकहे बिखेर दिए कि कभी-कभी उन्हें लगता है कि जिस व्यक्ति को कवि होना चाहिए, वह न्यायालय में आ गया है और शायद जिस व्यक्ति को न्यायालय में होना चाहिए, वह कविता कर रहा है. एक अन्य सन्दर्भ में भी सभागार हंसी से झूम गया जब उन्होंने कहा कि एक अच्छा कवि भी अच्छा आदमी हो सकता है. व्यंग्यकार के रूप में जग-प्रसिद्ध गोविन्द व्यास ने यह भी स्पष्ट कहा कि आज़ादी से पहले की तुलना में अब समय काफी बदल चुका है. पहले कई नामी-गिरामी वकील राजनीति में आए और देश के लिए काफी सकारात्मक काम किया जब कि अब राजनीति में वही लोग हैं जो राजनीति ही कर रहे हैं. अपने व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कहकहे बिखेरने में भी वे जग-प्रसिद्ध हैं ही. उन के द्वारा प्रस्तुत कुछ छोटी छोटी कविताओं के अंश यहाँ प्रस्तुत हैं:
कोई जागे कि न जागे ये मुकद्दर उस का
आपका काम है आवाज़ लगाते रहना
और
नदी अपने किनारे पर सर रख कर रो रही है
हाय, लहरों को इस देश में कितनी तकलीफ हो रही है
सम्मानित कवियों को सम्मान-स्वरुप एक एक शाल व प्रशस्ति-चिह्न प्रदान किया गया. इस के पश्चात सम्मानित कवियों व अन्य आमंत्रित कवियों द्वारा काव्य-पाठ हुआ. इन में से ममता किरण अपनी कुछ ताज़ा कविताओं के साथ प्रस्तुत थी. हिंदी गज़ल में एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में प्रसिद्ध
ममता किरण के कुछ शेर:
मेरी मंज़िल क्या है मुझ को क्या खबर
कह रहा था फूल इक दिन पत्तियों से
बंद घर उसने जो देखा खोल कर
एक टुकड़ा धूप आई खिड़कियों से
जो राहों में तेरी यादें बहुत टकराती हैं मुझ से
तो रुक कर खाक तेरे कूचे की हम छान लेते हैं.
नमिता राकेश हिंदी की एक अति-व्यस्त कवियत्री हैं जिन के लगभग पांच कविता संग्रह हैं व कई सम्मिलित संकलनों में उनकी कविताएँ संकलित हैं. उनकी कविताओं और शख्सियत - दोनों में ही एक आकर्षक इगो सा अक्सर झलकता है. यहाँ उनके द्वारा प्रस्तुत कविताओं की एक झलक:
मैं एक समुद्र हूँ/ शांत गंभीर गहरा/ न जाने अपने में क्या क्या छुपाए/ सीप/ मोती/ चट्टानें/ पत्थर...
... पत्थर फेंकने से/ शांत समुद्र में/ हलचल होती ही है/ लहरें विरोध करती ही हैं...
...यह तो प्रकृति का शाश्वत नियम है/ जो दोगे वही पाओगे/ अब यह तुम पर निर्भर है/कि तुम क्या पाने के योग्य हो/ मोती कि छींटें.
पेशे से वकील
चंद्रशेखर आसरी ने दो कविताएँ पेश की जिन में से कुछ पंक्तियाँ उन के पेशे से ही संबंधित कुछ दिलचस्प सी पंक्तियाँ हैं:
'क्लाइंट' की भावनाओं में बह जाता हूँ मैं/ उस कर हर 'इमोशनल' अत्याचार भी सह जाता हूँ मैं/ इस व्यवस्था के ताबूत में एक छोटी सी कील हूँ मैं/ एक लो प्रोफाईल वकील हूँ मैं.
अन्य आमंत्रित कवियों को भी स्वागत में एक एक प्रतीक चिह्न दिया गया. उनमें जिस कवियत्री ने पूरे सभागार को अपनी मार्मिक आवाज़ व तरन्नुम भरे काव्य की गिरफ्त में ले लिया, वे थी
डॉ. सरिता शर्मा. उनके द्वारा प्रस्तुत गीतों की कुछ पंक्तियाँ बेहद मार्मिक भी रही. जैसे:
हृदय की वेदना कहने न देंगे/ इन्हें हम आँख से बहने न देंगे/ बनेंगे जग हंसाई चार आंसू.
और
निडर बन कर उमड़ना चाहते हैं/ कभी मन में घुमड़ना चाहते हैं/स्वयं बन कर रुबाई चार आंसू.
इस से पहले उन्होंने समुद्र और नदियों पर कई पंक्तियाँ सुनाई. समुद्र और नदियों के बीच का समीकरण शायद हर कवि का प्रिय विषय रहा है.
सरिता शर्मा की ये पंक्तियाँ:
लहर जैसी चपलता तो मुझ में भी है/ अनकही इक विकलता तो मुझ में भी है/ मैं नदी हूँ किनारों में सिमटी हुई/ इक समुन्दर मचलता तो मुझ में भी है...
लक्ष्मीशंकर वाजपेयी हिंदी के सुप्रसिद्ध गीतकार व गज़लगो हैं. उनके कुछ सशक्त शेर:
फूल कागज के हो गए जब से
खुशबुएँ दरबदर हुई तब से
बेटियाँ फिक्रमंद रहती हैं
बेटे रखते हैं काम मतलब से
जब से पानी नदी में आया है
हम भि प्यासे खड़े हैं बस तब से.
ज़र्फ देहलवी उर्दू शायरी में महारत रखते हैं. उन के द्वरा गाई हुई दर्द भरी गज़ल ने समां बाँध दिया.
अहसास के सब पैकर, आज़ार के सामाँ हैं
अब प्यार वफ़ा शफकत, मिलते हैं दुकानों में
(पैकर = शरीर, शफकत = पवित्रता).
उर्दू गज़ल में एक अन्य सशक्त व स्व-नाम-धन्य शायर
अनीस अहमद खान:
अंदर अंदर खुद को बेच
बाहर से खुद्दारी रख
मुफ्त में गुस्सा मत हो माँ
रोटी दे तरकारी रख
दलबदलीधर जल्दी आ
जाने की तैयारी रख
न्यायमूर्ति सिरपुरकर व गोविन्द व्यासके प्रस्थान के बाद भी कार्यक्रम चलता रहा व कई अन्य कवियों ने कविताएँ पढ़ी. इस सत्र की अध्यक्षता लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने की।
रिपोर्ट - प्रेमचंद सहजवाला